वसुदेव कुटुंबकम संपूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मान देना यह सिद्धांत का प्रतिपादन, सर्वव्यापक चिंतन वैदिक काल के आर्यों की संपूर्ण विश्व के कल्याण की चिंता को दर्शाता है।
जीवन के ऊंचे ऊंचे आदर्शों का सृजन किया। वे आर्य थे वे इस संसार के सभी सांसारिक सुखों को नाशवान समझते थे। वे परलौकिक सुख तथा मोक्ष की प्राप्ति का पाठ पढ़ाते थे। यह चेतना कि वह लौ है, जो आज तक भारतीयों के मन मस्तिष्क में गहरी छाप छोड़े है।
उनका प्रमुख व्यवसाय हालांकि कृषि था। वह सिंधु घाटी की सभ्यता के लोगों जैसे व्यवसाय प्रधान सभ्यता न थी। किंतु वह वस्तु विनियम से चीजों की अदला बदली से व्यापार करते थे। यह भी मालूम हुआ है, कि उन लोगों ने “निष्क” नामक एक मुद्रा का प्रचलन भी किया था।
वे राजा को राज्य का एक अंग मात्र मानते थे। उन लोगों ने “सप्तांग राष्ट्र” की कल्पना की थी। राजा के आदर्शों को इतना ऊंचा तय किया था, कि वह जनता के आध्यात्मिक, भौतिक और सामाजिक अतएव सर्वांगीण उत्थान के कार्यों के लिए व्यस्त होता था।
ठीक इसी प्रकार प्रजा के लिए भी राजा के प्रति उच्च आदर्शों को तय किया गया था। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है, कि यदि राजा बालक भी हो तो भी उसकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह पृथ्वी पर देवता स्वरूप होता है।
इसे झुठलाया नहीं जा सकता, कि आर्यों ने जिन वर्ण व्यवस्था का प्रचलन किया, वह आज के युग तक जाति प्रथा में परिवर्तित हो चुकी है। छुआछूत के समाजिक दोष ने जन्म लिया। किंतु इन सब में यह भी सत्य है की वास्तव में वैदिक आर्यों द्वारा निर्मित सभ्यता जिसकी आज तक इतनी गहरी छाप भारतवर्ष पर है, जो विश्व से हमें अलग करती है, यह आर्यों की स्पष्ट दर्शन तथा तत्वज्ञान की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है
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