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शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

राजपरिवारों की कन्याओं के विवाह | विशेष लेख


प्राचीन समय से ही राज परिवारों ने और शासकों ने अपनी कन्याओं के विवाह से अपने साम्राज्य को स्थापित करने की नीति का अनुसरण किया। कन्या को श्रेष्ठ पक्ष को सौंपकर विवाह संबंध स्थापना से उन्हें राजनीतिक लाभ प्राप्त हुए।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हर्यक वंश का शासक बिम्बिसार ने विवाह नीति का अनुसरण किया। उसकी तीन रानियां थी।
पहली महाकौशल देवी जो कौशल प्रदेश की राजकुमारी थी, और प्रसनजीत जो अति प्रसिद्ध राजा हुआ, कि बहन थी। से विवाह किया और उसे दहेज में काशी प्राप्त हुआ।
उसकी दूसरी रानी लिच्छवी शासक चेटक की बहन थी। इन्हीं से बिंबिसार का पुत्र अजातशत्रु का जन्म हुआ। लिच्छवी बेहद मजबूत गणराज्य हुआ करता था। और इससे बिंबिसार को अवश्य बल और राजनीतिक वर्चस्व हासिल हुआ होगा।
उसकी तीसरी रानी मद्र की राजकुमारी क्षेमा थी।

आज से 2300 साल पहले जब चंद्रगुप्त मौर्य ने 305 ईसा पूर्व में सेल्युकस को परास्त किया, तो उसने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य से किया। और भी संधि के अनुसार कार्य किए गए। किंतु यह भी राजनीतिक क्रियाकलाप के फल स्वरुप ही हो सका। अतः यह विवाह भी राजनीतिक रूप से प्रेरित था।

भारत ही नहीं विदेशों में भी यह चलन रहा। जुलियस सीजर की कथा में और अन्य कई चलचित्रों में भी दिखाया जाता है, कि राज परिवार किस प्रकार अपनी पुत्री धन का प्रयोग अपनी सत्ता को कायम रखने या और ऊंचा उठाने में करते रहे थे। जुलियस सीजर को ही दिखाया गया है, कि वह कैसे अपनी पुत्री का विवाह अपनी ही उम्र के अपने मित्र से कर देता है। बदले में वह अपने मित्र से सेना की टुकड़ी हासिल कर लेता है, फिर अपनी विजय यात्रा के लिए निकल पड़ता है, जिससे वह रोम में अथाह प्रसिद्धि हासिल करता है, और रोम के लोगों के लिए अत्यधिक धन लूट कर लाता है। यह सब इसलिए कि वह अपनी पुत्री का अपने मित्र से विवाह कर देता है। और बदले में सैनिक टुकड़ी पाता है।

गुप्त काल में चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छिवियों की राजकुमारी से विवाह कर दिया। जिसका नाम कुमारदेवी था। लिच्छवी गणराज्य की शक्ति पर ही वह अपना गुप्त साम्राज्य स्थापित कर पाता है, यह वर्णन आता है।

आधुनिक भारत के इतिहास में पुर्तगाली गवर्नर अलबुकर्क ने विवाह संबंध नीति को प्रयोग कर अपने साम्राज्य को स्थापित करने का प्रयास किया। क्योंकि भारत में हिंदू धर्म में विधवा औरतों का विवाह वर्जित था, उसने उन्हें अपने पुर्तगाली ईसाइयों से विवाह कर लेने को कहा, और पुर्तगाली बस्ती स्थापित करने का प्रयास करता रहा।

रविवार, 24 अप्रैल 2022

गुप्त शासकों की विवाह सम्बन्ध नीती

गुप्त वंश के राजाओं में विदेश नीति को लेकर विवाह संबंध का अहम स्थान है। उन्होंने इसका उपयोग अपने राज्य के विस्तार और शासन के विस्तृत क्षेत्रों में मैत्रीपूर्ण संबंधों को कायम रखने के लिए किया। इस प्रकार के सन्धियों में गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त प्रथम जिसने लिच्छिवियों  की कन्या राजकुमारी कुमार देवी से विवाह कर लिया। इससे उसे आर्यव्रत में मान और गौरव प्राप्त हुआ। समुद्रगुप्त स्वयं को “लिच्छवी दौहित्र” अपने अभिलेखों में कहता है। अर्थात लिच्छिवियों की पुत्री का पुत्र और इस प्रकार अपनी मातृ संबंध को अपना गौरव दर्शाने का प्रयत्न करता है।

 अर्थात वैवाहिक संबंध का परिणाम प्रभावपूर्ण था। 

यह भी बताया गया है। कि चंद्रगुप्त प्रथम के पुत्र समुद्रगुप्त ने शकों और अन्य राजवंशों के शासकों से उनकी कन्याओं को उपहार स्वरूप ग्रहण किया था। इस तरह से निकटवर्ती राज्यों  से संबंधों को अधिक मैत्रीपूर्ण बनाया गया। 

ठीक इसी प्रकार चंद्रगुप्त द्वितीय ने एक नागकन्या राजकुमारी कुबेर नागा से विवाह कर अपना प्रभाव बढ़ाया। उससे उनकी एक पुत्री का जन्म हुआ। उसका नाम प्रभावती गुप्ता था। चंद्रगुप्त द्वितीय ने बड़ी समझदारी से अपनी पुत्री का विवाह वाकाटक राजा रुद्र सिंह द्वितीय से कर दिया और उससे एक मैत्री का और सहयोग संबंध स्थापित कर दिया। वाकाटकों से उसे लाभ हुआ। क्योंकि वाकाटक जिस भौगोलिक स्थिति में थे, वह गुजरात और सौराष्ट्र के पश्चिम क्षत्रपों के आक्रमण की दशा में उनकी सेवा या तिरस्कार का स्थान हो सकता था। चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री वाकाटक शासक को सौंप यह सब अपने पक्ष में कर लिया। क्योंकि रूद्र सेन द्वितीय का काल छोटा रहा और उसकी मृत्यु के बाद उसके दो अव्यस्क पुत्र दिवाकर सेन और प्रवरसेन द्वितीय की संरक्षिका के रूप में गद्दी पर मुख्य रूप से शासन प्रभावती गुप्ता ने किया। उसने 390 से 410 ईसवी तक इसी रूप में शासन किया। यह चंद्रगुप्त द्वितीय के लिए एक अहम समय बन गया। जब उसने पश्चिम क्षत्रपों को प्रास्त कर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला दिया।

 विवाह संबंध गुप्तों की नीति का अहम अंग रहा। जो इतिहास के प्रश्नों में उनके सफल शासन का कारण प्रतीत होता है।

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

लिच्छवी गणराज्य का संपूर्ण इतिहास | प्राचीन भारत

आम्रपाली वही कन्या है, जिसे नगरवधू कहा गया। शाक्यमुनि बुद्ध के साथ उसकी एक कथा हम सब सुनते हैं। वह लिच्छवियों में थी। जब महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ, तो लिच्छवियों ने भी दीपमाला जलाई। कहते हैं कि जैन धर्म उनका राज धर्म बन गया था। बताया गया है कि वह लिच्छिवी ही गणराज्य था, जिनकी राजकुमारी कुमार देवी से गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त प्रथम के विवाह के कारण ही चौथी सदी ईस्वी में गुप्त वंश को मान और गौरव प्राप्त हुआ। 

 एक टीवी धारावाहिक आता था, चाणक्य उसमें गणराज्य मैंने सुना था। कि प्राचीन काल में गणराज्य थे। लिच्छिवी उन्हीं प्राचीन गणराज्यों में एक था। लिच्छवी गणराज्य का उदय लगभग 700 ईसा०पूर्व माना गया है। इनका राज्य वैशाली में था।

हर्यक वंश लगभग छठी सदी ईसा पूर्व प्रकाश में आया। बिम्बिसार का पुत्र आजातशत्रु जिसकी मां लिच्छिवियों में से थी, अपने पिता का वध कर शासन हासिल करता है। और लिच्छिवियों के अंत का संकल्प करता है। इसके दो कारण बताए जाते हैं।

   गंगा के पास के एक बंदरगाह जिस के आधे भाग पर आजातशत्रु और आधे भाग पर लिच्छिवियों का अधिकार था। उसके समीप ही एक हीरे की खान थी। जिस पर भी आधा-आधा का समझौता था। किंतु लिच्छिवियों ने यह पूरे हीरे ले लिए, और आजातशत्रु  अप्रसन्न हो गया। उसने उन्हें दंड देने का प्रण किया। किंतु उनकी बड़ी संख्या को देखकर वह ऐसा ना कर सका।

एक अन्य कारण में कहते हैं, कि आम्रपाली नाम की एक लिच्छिवी कन्या वैशाली में रहती थी। लिच्छिवियों का कानून था, कि जो सर्व सुंदरी हो उसे विवाह की अनुमति नहीं, और वह समस्त जनता के आनंद के लिए सुरक्षित रहेगी। इससे आम्रपाली नगरवधू हो गई। जब बिंम्बिसार ने उसके विषय में सुना, तो वह वैशाली गया। और वह आम्रपाली के यहां 7 दिन ठहरा। जबकि लिच्छिवियों से उसका वैर था। कहते हैं, कि आम्रपाली का पुत्र हुआ। जिसे बिंदुसार के पास भेज दिया गया। क्योंकि वह निडर अपने पिता के पास पहुंचा, इसलिए उसका नाम अभय हुआ।

 विद्वानों का मत है, कि यह विवाह संबंध लिच्छिवियोंऔर बिंम्बिसार के मध्य युद्ध की समाप्ति पर हो पाया। अभय में लिच्छिवियों का रक्त था। अजातशत्रु ने इसलिए भी लिच्छिवियों के अंत का प्रण किया, क्योंकि यदि लिच्छिवी अभय जिससे वे बहुत प्रेम करते थे, का साथ देने का निर्णय करते तो, आजातशत्रु कभी गद्दी हासिल नहीं कर पाता।

इसलिए लिच्छिवियों के अंत के लिए अजातशत्रु ने वषक्र को बुद्ध के पास राय के लिए भेजा। बुद्ध ने कहा कि किन्हीं भी अन्य उपायों से लिच्छिवियों को ऊपर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। या तो उन्हें उपहार देकर संतुष्ट किया जाए, या प्राण रक्षक संघ को समाप्त करना आवश्यक है।

अजातशत्रु ने षड्यंत्र किया यह प्रसिद्ध किया गया, की आजाद शत्रु और मंत्री वषक्र में झगड़ा हो गया है। वषक्र ने लिच्छिवियों के यहां प्रवेश पा लिया, उन्होंने उसका स्वागत किया। उसने उन्हें अपने प्रशासनिक क्षमता से प्रभावित किया, और वे उसकी बातें मानने लगे। अपना श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लेने के बाद वषक्र ने उनमें असंतोष पैदा करना आरंभ किया। उनमें फूट पैदा होने लगी। अब सभी लिच्छिवी एकत्र होकर कार्य करने को तैयार न थे। इस काम में वषक्र को केवल तीन वर्ष लगे। अजातशत्रु ने आक्रमण का आदेश दिया। कहते हैं, कि खुले फाटकों ने उसके आक्रमण का स्वागत किया। जब संकट की घंटी बजी तो लिच्छिवियों  ने कहा “धनी और वीर एकत्र हो जाएं हम तो भिखारी और ग्वाले हैं”

लिच्छिवियों ने आजातशत्रु को अधिराज्य व भेंट देना स्वीकार किया। यह माना गया, कि उन्हें आंतरिक स्वायत्ता बनाए रखने की अनुमति दी गई होगी। मगध साहित्य में भी उनका उल्लेख है। मौर्यौं के बाद भारत की बड़ी शक्तियों में यवन, शुंग, कण्व, सातवाहन, शक कुषाणों के बाद गुप्तों के महान उदय से ठीक पहले भारत आर्यव्रत प्रदेश छोटे-छोटे राज्यों में बंट चुका था। जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य में विलीन कर दिया था। उस समय पर ही लिच्छिवियों का पुन:उदय देखा गया है। कहा गया कि, चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छिवियों की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया, और यही कारण से गुप्त वंश को गौरव व मान हासिल हुआ।

  कौमदीहोत्सव में बताया गया, कि चंद्रसेन मगध के राजा सुंदर वर्मा का दत्तक पुत्र था। चंद्रसेन ने सुंदर वर्मा से राजगद्दी छीन ली। लिच्छिवियों ने उसकी सहायता की थी। क्योंकि उसने लिच्छिवियों की राजकुमारी से विवाह कर लिया था। किंतु सुंदर वर्मा का एक पुत्र था, कल्याण वर्मा जिसके लिए मंत्रियों, गवर्नरों ने विद्रोह का षड्यंत्र किया। जिससे सीमा प्रदेशों में बढते विद्रोह को दबाने को चंद्रसेन को पाटलिपुत्र छोड़नी पड़ी। यह षड्यंत्र कल्याण वर्मा को गद्दी पर बैठाने को था। कल्याण वर्मा ने अपने सिंहासनारोहण के उपलक्ष में कौमदीमहोत्सव, जो नाटक की कथावस्तु था, का आयोजन किया।

 इस नाटक में लेखक ने लिच्छिवियों को मलेच्छ कहा है। यह सुझाव दिया गया कि यह चंद्रसेन ही चंद्रगुप्त प्रथम है। इसका आधार यह है, कि चंद्रगुप्त प्रथम की विवाह लिच्छिवियों की पुत्री से था, और लिच्छिवियों ने उसकी मदद की थी, और नाटक में भी ठीक यही घटना चंद्रसेन के साथ हुई। किंतु चंद्रसेन को राजगद्दी के पदच्युत कर दिया गया। जबकि चंद्रगुप्त के साथ संभवत: ऐसा नहीं था। या हुआ हो। किन्तु उसके बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त गुप्तों का यशस्वी राजा हुआ। इस पर स्पष्ट कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु यह तो स्पष्ट है, कि गुप्तों के राजा चंद्रगुप्त प्रथम का लिच्छिवियों के कन्या से विवाह था। क्योंकि समुद्रगुप्त ने अपने अभिलेखों में स्वयं को “लिच्छिवी दौहित्र” अर्थात लिच्छिवियों की पुत्री का पुत्र कहा है।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

आज तक जीवित सामाजिक दशा का प्राचीन बीज | diwakar

डॉ. भीमराव अम्बेडकर

जाने कितने लोग इस सामाजिक व्यवस्था में जीत थे, और जीते रहे। आज भी वे उसका अनुसरण करते हैं। डॉक्टर अंबेडकर ने समाज की व्यवस्था को चुनौती दी। 

समाज में उन्हें सर्वाधिक गिरी स्थिति में माना गया। उस समुदाय के प्रति तिरस्कार का भाव था। यह आज तक हमारे समाज की व्यवस्था का हिस्सा है। मनु ने शूद्रों को अन्य तीन वर्णों की सेवा का आदेश दिया था। उन्होंने साफ किया कि यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनके लिए कठोर दंड का विधान है। किंतु प्राचीन वैदिक काल में जब वर्ण व्यवस्था का उदय ऋग्वेद से हुआ, तो ऐसा नहीं था। कहा जाता है, कि तब कार्य के आधार पर वर्ण निर्धारण होता था।

 ब्राह्मण और क्षत्रिय तो अपने कार्यों के आधार पर दूसरे वर्ण के भी पहचाने गए। इसके कई उदाहरण दिए जाते हैं। परशुराम ब्राह्मण थे किन्तु उन्होंने क्षत्रिय धर्म का पालन किया। द्रोणाचार्य एक क्षत्रिय कुल के थे, किंतु उन्होंने ब्राह्मण धर्म का पालन किया। राजा जनक क्षत्रिय होकर भी वेदों के महान ज्ञाता थे। क्षत्रिय और ब्राह्मणों में विवाह संबंध होते थे।

 शूद्रों के विषय में कहते हैं कि ब्राह्मण और क्षत्रिय को शूद्र कन्या से विवाह कर सकते थे, किंतु शूद्र ऐसा नहीं कर सकते थे। यह प्रारंभिक समय में था, हालांकि बाद में नियम और कठोर हुए जिससे ऐसा करने की अनुमति किसी को नहीं थी।

ब्राह्मण और क्षत्रिय तो राज्य के दो पहिए थे। प्रतीत होता है कि एक सीधा प्रशासक था, तो दूसरा मुख्य सलाहकार। इसे हम ऐसे भी समझ सकते हैं, कि यदि राजा जो क्षत्रिय होते थे। समाज पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते थे, तो उसके लिए उन्हें समाज में अपने कठोर तप और कठिन जीवन और ज्ञान के कारण सम्मानित और देव तुल्य पूजनीय ब्राह्मणों के सहयोग से सहायता मिलती थी। इससे समाज में शासन प्रबंधन की व्यवस्था बनाए रखने में मदद मिलती थी। वही राज दरबार में भी ब्राह्मण ऊंचे पदों पर होते थे, और राजकाज में मुख्य भूमिका निभाते थे। ब्राह्मणों का आम जनमानस पर खास प्रभाव रहता था, लोगों में उनका सम्मान था। उनका कार्य था, जनता की शांति समृद्धि के लिए यज्ञ करना, भविष्यवाणी करना, शिक्षा का प्रसार करना आदि। वे स्वयं आजीवन धर्म का कठोर पालन करते थे। क्षत्रिय का कार्य राज्य की रक्षा था। वैश्य व्यापारी वर्ग था। उनका अपना संगठन ठीक स्थिति में था।

 वैदिक युग में शूद्रों को जन्म के आधार पर वर्गीकृत नहीं किया जाता था। कोई व्यक्ति अपने कार्य के आधार पर शूद्र कहा जाता था। किंतु समय के साथ वर्ण व्यवस्था में जटिलता आ गई, और जन्म के आधार पर उनका निर्धारण होने लगा। इस दशा में शूद्रों का समाज में जो अब एक जाति बन गई सबसे निचला स्थान हुआ। इस व्यवस्था में बुद्ध के जन्म के पश्चात क्रांति आई। महात्मा बुद्ध के धर्म ने समाज को नयी रहा मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रदान की। बुद्ध के धर्म ने वैदिक सामाजिक व्यवस्था जो अब तक जटिल हो गई थी, और एक वर्ग को जन्म के साथ ही निम्न जाति की पहचान दे रही थी, पर सीधा वार किया। बौद्ध धर्म के तीव्र उन्नति का सबसे बड़ा कारण भी यही था, कि बुद्ध ने बिना भेदभाव के हर व्यक्ति के लिए मोक्ष के द्वार खोल दिए। इस धर्म ने समाज के निम्न वर्ग या वंचित वर्ग को ईश्वर की प्राप्ति के लिए एक राह प्रकाशित की, और इसी कारण तथा भगवान बुध के प्रभावशाली व्यक्तित्व से बड़ी संख्या में जनमानस बौद्ध धर्म अपनाने लगा। बौद्ध और जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा, और इस अहिंसावादी धर्म की तमाम बातों ने प्राचीन वैदिक धर्म को अपने आप में परिवर्तन के लिए प्रेरित किया। समाज का बड़ा भाग बुद्ध के धर्म का अनुयाई बना। वैदिक व्यवस्था में शिथिलता आने लगी।

मौर्य काल में राज्य का प्रबंध काफी सशक्त था, मौर्योत्तर कहीं-कहीं ऐसा पढ़ने को आता है, कि राज्य का प्रबंध बहुत सशक्त ना होने से शूद्रों को काफी स्वतंत्रता हासिल हुई, जिससे वे स्वतंत्र उन्नति कर सके। यहां मौर्योत्तर काल में स्त्रियों की स्थिति को मौर्य काल की अपेक्षा अधिक गिरा हुआ बताया गया है। इसमें एक तथ्य कि मौर्य काल में स्त्री को तलाक की अनुमति थी, किंतु मनु इसके पक्ष में ना थे, इससे यह कहा जा सकता है कि मौर्योत्तर काल में स्त्रियों को तलाक की अनुमति नहीं थी, जबकि पुरुष हमेशा से ऐसा कर सकता था। यह विदित है कि, मनु ने अपना ग्रंथ लगभग डेढ़ सौ ईसा पूर्व लिखा, जो शुंगों के काल से अनुसरण में रहा।

 मौर्यों के अंत तक बौद्ध धर्म खूब उन्नति प्राप्त करता रहा। क्योंकि मौर्यों ने इसे संरक्षण दिया। किंतु मौर्योत्तर काल में शुंगों के साथ ही  बौद्ध धर्म की उन्नति पर अंकुश लगता है। क्योंकि वे ब्राह्मण राजा थे और उन्होंने ब्राह्मण धर्म के पुनर्जागरण का कार्य किया। समाज में अब वर्ण व्यवस्था अधिक जटिल हो चुकी थी। यह व्यवस्था भारतीय समाज में एक अहम कड़ी रही। जिसकी छाप आज तक स्पष्ट होती है। किन्तु समय के साथ शिक्षा के प्रसार ने समाज में इस व्यवस्था को कुप्रथा कहा। बाबासाहेब और उनकी तरह समाज सुधारक नेताओं ने अपने तर्कों से समाज को एक नई राह दी। और बाबासाहेब आधुनिक मनु की संज्ञा हासिल करते हैं।।

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

प्राचीन भारत से आज तक बौद्ध और जैन धर्म | लेख

हर्यक वंश में बिंबिसार और अजातशत्रु के विषय में बौद्ध और जैन साहित्य में अपनी अपनी बातें रखी गई। किंतु उनके धर्मों की चर्चा की गई है। बौद्ध ग्रंथ में बिंबिसार के बुद्ध से मिलने का भी वर्णन है। अजातशत्रु के संबंध में पहले तो शाक्य मुनि विरोधी प्रसंग है, किन्तु बाद में वह भी बुद्ध का अनुयाई प्रतीत होता है। उसने उस समय के मजबूत गणराज्य वैशाली के लिच्छिवियों के विनाश के संबंध में बुध से मंत्रणा की थी, और वह इसमें सफल रहा।

   उसके पश्चात शिशुनाग और नंद वंश के विषय में धार्मिक भावना को लेकर कुछ खास पढ़ने को नहीं मिला। हां महापद्मनंद को काफी शक्तिशाली शासक दर्शाया  गया है। इतिहासकार महापद्मनंद के दक्षिण भारत विजय का समर्थन करते हैं। मौर्य के संदर्भ में सर्वत्र विदित है, और उनके संदर्भ में काफी साहित्य और अन्य सामग्री उपलब्ध है। चंद्रगुप्त अंतिम समय में जैन मुनि हो गया, और उसने सच्चे जैनी की भांति भूखे रहकर कर्नाटक के जंगलों में कहीं अपने प्राण त्याग दिए। वह भद्रबाहु मुनि का शिष्य था। उसके पुत्र बिंन्दुसार के धार्मिक संदर्भ में उतना पढ़ने को नहीं मिला।

   अशोक के धम्म तो सर्वत्र विदित है। वह बौद्धों का पुरजोर संरक्षक था। हाँ उसमे अन्य धर्मों को नुकसान नहीं किया। उसने आजीविका धर्म के सन्यासियों के लिए गुफाओं का निर्माण करवाया था। इस काल में बुद्ध और जैन धर्म का प्रचलन हुआ। किंतु वैदिक धर्म के कारण ब्राह्मणों और क्षत्रियों को मिला बल यहां छीण हो रहा था। यह वैदिक व्यवस्था में व्यवधान था। किंतु जब मौर्यो का अंत और शुंगों का आगमन हुआ, तो उन्होंने ब्राह्मण धर्म का पुनर्जागरण कर दिया। लिखा गया है, कि पुष्यमित्र शुंग बौद्ध धर्म का कट्टर शत्रु था। एक जगह यह भी लिखा गया कि पुष्यमित्र ने यह घोषणा की कि मुझे जो कोई किसी श्रमण का शीश भेंट करेगा मैं उसे 100 दिनार दूंगा। यह दिव्यवदान म़े उल्लेखित है। उसमें  पर उसके अत्याचार का और वर्णन मिलता है। 

   किंतु इतिहासकार इसे बढ़ा चढ़ाकर लिखा मानते हैं। ठीक वैसे ही जैसे बौद्धों में अपने साहित्य में अशोक के राज्यभिषेक के संबंध में लिखा कि वह अपने 99 भाइयों के वध के बाद शासन पाया था। सबसे महत्वपूर्ण यह है, कि बौद्धों के सरल धार्मिक आचरण ही वैदिक धर्म के जटिल चक्रव्यू को बहुत समय तक जनसाधारण की व्यथा के रूप में सदस्य स्थापित न कर सके।

   सच कहे तो आज जब बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि में लगभग लुप्त सा प्रतीत होता है। तब इतिहास के पृष्ठों में उसके उत्थान को ब्राह्मण धर्म में सुधार करने वाला बताया जा सकता है। जब बौद्धों का प्रभाव तेजी से जनसाधारण पर पड़ने लगा तो ब्राह्मण धर्म में जटिलताओं के निवारण पर कार्य हुए। और उसके बाद शंकराचार्य जैसी मुनियों ने उसके जागरण की कमान संभाली।

   मुस्लिमों के आगमन पर बौद्ध धर्म को अति नुकसान हुआ। वैदिक धर्म में सुरक्षा के लिए क्षत्रीय संकाय को जन्म दिया गया। किंतु बौद्ध और जैन अपनी और अपने समृद्ध ऐतिहासिक सामग्री की रक्षा न कर सके। क्योंकि वे तो अहिंसा धर्म के पालक थे। और बह्यय आक्रमणों की दशा में उनके पास प्लायन के अलावा कोई विकल्प नहीं था।।

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

मौर्य काल का भारत कैसा था | Maurya empire

मौर्य काल में मगध साम्राज्य में विस्तार हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल में पहले सौराष्ट्र को और फिर 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस को हराकर संधि में अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान का प्रदेश भी प्राप्त किया। इस विजय यात्रा को पुनः अशोक ने बढ़ाया, जो 261 ईसा पूर्व कलिंग की विजय के पश्चात अहिंसात्मक नीति का अनुसरण करने लगा। यूं कहें कि मौर्य काल की विजय यात्रा अशोक की कलिंग विजय तक रही। इसके पश्चात तो मौर्य वंश के पतन का ही अध्ययन प्राप्त होता है। मौर्य काल के समय भारत की क्या दशा थी, अर्थात मौर्यकालीन भारत कैसा था, इस पर एक संक्षिप्त परिचय कुछ इस प्रकार से है।

कौटिल्य ने अपने महान ग्रंथ अर्थशास्त्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार जातियों का जिक्र किया है। और वही यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने सात जातियों का अर्थात दार्शनिक, किसान, ग्वाले, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक और अमात्य का जिक्र किया है। इस काल में दास प्रथा का भी प्रचलन हुआ करता था। अध्ययन में आता है, कि आठ प्रकार के विवाह उस काल में प्रचलन में थे। शादी के लिए कन्या की उम्र बारह वर्ष और वर की उम्र सोलह वर्ष होनी चाहिए थी। पुनर्विवाह का भी प्रचलन था।

उस वक्त पर मदिरापान मांस भक्षण का भी चलन था, किंतु अशोक ने अपने काल में इन पर काफी प्रतिबंधित कर दिया था। अध्ययन में आता है, कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने काल में जैनियों को समर्थन दिया था। अशोक के काल तक आते-आते बौद्ध धर्म को यह समर्थन प्राप्त हुआ। अशोक ने बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया। हालांकि ब्राह्मण धर्म का अभी अच्छा जोर था, जिसके अंतर्गत यज्ञ और बली प्रथा का भी समाज में अनुसरण होता था।

इन सब में सबसे महत्वपूर्ण की मौर्य शासन में धार्मिक स्वतंत्रता थी। लोगों को किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता रहती थी। उस काल में सभी धर्मों ने समान रूप से फल फूल कर चलन हासिल किया। मूर्ति पूजा का भी चलन था, और मंदिरों का निर्माण हुआ करता था। धर्म सभा और तीर्थ यात्राओं का प्रचलन हो चला था। मैगस्थनीज के विवरण में यह मालूम होता है, कि उस वक्त पर मौर्य काल में विदेशियों के सुरक्षा की पूरी व्यवस्था की जाती थी। यातायात और व्यापार के लिए समुचित सुलभता प्रदत्त दी जाती थी।

कृषि और पशुपालन समाज में लोगों का मुख्य व्यवसाय था, वही उनकी आर्थिक मजबूती का आधार था। सूती वस्त्रों के उद्योग धंधे और धातु की बनी सुंदर चीजों का व्यापारिक प्रचलन भी था।

साहित्य और शिक्षा के उत्थान में मौर्य काल की महत्वपूर्ण भूमिका है। बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों का संकलन भी इसी काल में हुआ है। तक्षशिला उच्च शिक्षा का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण केंद्र रहा। गुरुकुल, बिहारो, मठों में शिक्षा वितरण होती थी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र महान ग्रंथ उसी काल की देन है।

मौर्य काल में कला ने विभिन्न आयामों में उन्नति का चरम प्राप्त किया। कहते हैं, कि जब चीनी यात्री फाह्यान ने पाटलिपुत्र का राजप्रासाद देखा, तो आश्चर्यचकित हो गया उसे लगा कि यह मानवों ने नहीं बनाया है, बल्कि यह तो देवताओं ने बनाया है। यह कहे कि इस काल में सुंदर गृहों के निर्माण की कला फल-फूल रही थी। मौर्य काल में सम्राट अशोक के द्वारा बनाए स्तूप, स्तंभ और उन पर की गई पोलिश आज भी शीशे की तरह साफ चमक रही है। अशोक की लाट पर अंकित चित्र कैसे सुंदर सजीव प्रतीत होते हैं।

मौर्य काल को पाषाण काल का श्रेष्ठ दौर कहें तो गलत नहीं होगा। क्योंकि पत्थर और मूर्तियों का निर्माण इस काल में उन्नत दशा में था।

सोमवार, 31 जनवरी 2022

अशोक के पश्चात | मौर्य वंश का पतन

अशोक के पश्चात मगध के शासन पर 48 वर्षों तक उसी के वंशजों ने शासन किया। अशोक का पुत्र कुणाल अशोक के पश्चात सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, तत्पश्चात दशरथ संप्रति, शालिशुक, देववर्मा, शतधनुष तथा वृहद्रथ नाम के शासकों ने मगध के शासन पर मौर्य वंश का गौरव रखा।मौर्य वंश का अंतिम शासक वृहद्रथ की हत्या उसके ही मंत्री पुष्यमित्र शुंग ने कर मौर्य वंश का अंत कर दिया।

मौर्य साम्राज्य का पतन यूं कहें कि अशोक के शासनकाल से ही प्रारंभ हुआ तो गलत ना होगा। अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति श्रद्धा ब्राह्मण धर्म के कट्टर अनुयायियों को रास नहीं रही होगी। उन्होंने अशोक के पश्चात आने वाले मगध सम्राटों को असहयोग प्रस्तुत किया होगा। अशोक की अहिंसात्मक नीति ने सेना पर भी एक बड़ा प्रभाव डाला।राजकोष का अत्यधिक धन सार्वजनिक हित में प्रयोग होने लगा। शिलालेख, स्तंभों का निर्माण यह सब राज्य की सुरक्षा के अतिरेक राजकोष पर भार था। अशोक के शासनकाल के पश्चात उसके उत्तराधिकारी इतनी भी योग्य ना थे, कि वह मगध के इतने विशाल साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचा सकें। साम्राज्य की इतनी विशालता, अशोक के उत्तराधिकारियों की केंद्रीय शासन में निर्बलता ने प्रांतपतियों में स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के प्रयत्न के भाव को जन्म दिया। अशोक के पश्चात साम्राज्य का विस्तार कम हो जाने के कारण राजकोष राज्य की आय पर गहरा धक्का लगा। इतना ही नहीं अर्थशास्त्र में प्रमाण मिलता है कि मौर्य काल में करों की अधिकता थी।

यह सब प्रजा में असंतोष का कारण बन रही थी। अशोक के उत्तराधिकारिओं प्रांतपतियों और अन्य अधिकारियों के द्वारा प्रजा पर किए अत्याचारों ने प्रजा को शासन के विरोध में लाकर खड़ा कर दिया। अशोक के पश्चात तो मौर्य शासन की राज्यसभा में आंतरिक गुटबंदी, आंतरिक कलह ने जन्म ले लिया। स्वयं मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ को अपने ही सेनापति के द्वारा उसकी हत्या कराने की राजनीतिक षड्यंत्र की सूचना हुई। यह कारण मौर्य वंश को भीतर से निर्बल करते गए।

शनिवार, 29 जनवरी 2022

Ashoka maurya | अशोक महान क्यों?

अशोक मात्र भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व के महान सम्राटों में गिना जाता है। उसकी महानता में अनेक विद्वान लिखते हैं। एच जी वेल्स ने लिखा “प्रत्येक युग और प्रत्येक राष्ट्र इस प्रकार के सम्राट को नहीं उत्पन्न कर सकता है। अशोक अब भी विश्व के इतिहास में अद्वितीय है”। अशोक का सभी राजस्व सुखों का त्याग विलासिता का त्याग और संत के समान जीवन यापन उस समय पर एक सम्राट के विषय में बेहद रोचक प्रसंग दिखाता है। उसकी सहष्णुता तथा उदार प्रवृत्ति ने कभी प्रजा पर अपने धर्म को थोपने का प्रयत्न नहीं किया। हां स्वतंत्र प्रसार का प्रयत्न जरूर किया। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। किंतु उसने कभी प्रजा पर बौद्ध धर्म के अनुसरण को लेकर अत्याचार नहीं किए। वह सभी संप्रदाय के साधु-संतों में दान दक्षिणा करता रहा। उसने अपने धर्म को राज्य धर्म घोषित कर दिया था, और इस धर्म की बातें इतनी सरल थी, कि कोई भी व्यक्ति इन्हें अपनाकर भौतिक सुखों में निर्लज्जता से बचा रहे, और एक स्वस्थ समाज को जन्म देने में योगदान दे।

मात्र एक महान धर्म प्रचारक होने के साथ-साथ अशोक एक महान राष्ट्र निर्माता भी था। उसने अपने साम्राज्य में एक भाषा तथा एक लिपि का प्रयोग करवाया, यह भाषा पाली थी, और लिपि ब्राह्मी। उसके द्वारा बनवाए गए स्तंभ लेख, शिलालेख, स्तूप आज भी राष्ट्रीय समृद्धि है। अशोक की महानता को एक लेखक इन शब्दों में प्रस्तुत करता है कि-

“हम यही कहेंगे कि विश्व के भागीरथ भूपति भूधरों उत्तुंग शिखर शिखरों के मध्य अशोक को गौरी शंकर की गगनचुंबी शिखा ही मानना चाहिए। वह विश्व के राजनीतिक गगन मंडल का देदीप्यमान प्रभाकर है। जिस का अनुपम आलोक अमर रहेगा धन्य है। धन्य है वह धर्म धुरीण धनुर्धर जिसने अपनी धर्मायुध से धर्म हीनता धूली-धूसरित कर धर्म विजय की धवल ध्वजा फहराई, और धन्य है, वह धर्म धरा-धात्री जिसने अपनी पुनीत पयोधर से पावन पय-पान कराकर उस परम पुरुष का पालन पोषण किया, इसी से तो उसके चक्र को स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय झंडे में स्थान देकर भारत सरकार भारत की जनता से उसका अभिनंदन करा रही है और उसे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रही है”।

डॉक्टर हेमचंद्र रायचौधरी ने अशोक की महानता को कुछ इस प्रकार लिखा कि-

“भारत के इतिहास में अशोक का व्यक्तित्व बड़ा ही रोचक है, उसमें चंद्रगुप्त की क्षमता, समुद्रगुप्त की प्रतिभा और अकबर की धर्म निष्ठा विद्यमान थी”।

यह सबसे महत्वपूर्ण है, कि अशोक के जीवन में कलिंग विजय के पश्चात कभी ऐसा समय ना सामना हुआ, जिसमें अशोक को युद्ध में शरीक होना पड़े। अशोक राज्य के शासन को लोक मंगलकारी और प्रजा के भौतिक जीवन को सुख समृद्धि संपन्न मात्र न करने वाला बल्कि प्रजा के जीवन का नैतिक और आध्यात्मिक स्तर को ऊंचा करने वाला बताया है।

एक सम्राट जो भारत के विशाल साम्राज्य का सबसे बड़ा शासक है, वह अपनी युद्ध यात्रा का त्याग करता है, और सबसे महत्वपूर्ण हिंसा का त्याग कर देता है। यह घोषणा आत्यायियों को कितना बल देती होगी। किंतु यह अशोक के धम्म के प्रसार का ही प्रभाव रहा होगा, कि पड़ोसी अन्य राज्यों ने भी लोक मंगलकारी कार्यों को लक्ष्य रखा ना कि युद्ध को।यही कारण होगा की अशोक की सीमाएं उसके आजीवन कलिंग विजय के बाद स्थिर रही, और वह तब जब सम्राट शस्त्रों का त्याग कर देता है, किंतु आक्रमणकारियों ने शस्त्र त्याग दिए हों ऐसा तो नहीं था। यदि अशोक कलिंग के युद्ध के बाद भी अपने राज्य की रक्षा के लिए युद्ध में आशक्त था, तो वह उसके अहिंसा के धर्म, उसके स्वयं के निभा पाने में, उसकी आजीवन पीड़ा रही होगी।

रविवार, 23 जनवरी 2022

अशोक | Maurya Empire

बिंदुसार के बड़े पुत्र अशोक का सिहासनारोहण कलिंग विजय और अशोक के धम्म तक की यात्रा उस काल के बेहद रोचक शासक होना दर्शाती है। अशोक ने अपने काल में कलिंग विजय के पश्चात अपनी युद्ध यात्रा को समाप्त कर धर्म यात्रा का मार्ग अनुसरण किया। उसने एक लोक मंगलकारी प्रशासन का संचालन किया। अपनी प्रजा के भौतिक सुख मात्र के सम्पन्नता के अलावा उनके आध्यात्मिक और नैतिक स्तर का उन्नयन किया।

अशोक बिंदुसार का जेष्ठ पुत्र था। उसका एक छोटा भाई विगतशोक था। इन दोनों भाइयों की मां एक ब्राह्मण कन्या जिनका नाम चंपा या सुभद्रांगी था। अशोक मगध का सम्राट होने से पूर्व शासन की अच्छी समझ रखता था। वह अपने पिता के शासनकाल में अवंती या उज्जैनी तथा तक्षशिला का गवर्नर रह चुका था।

बौद्ध धर्म की मानें तो अशोक के सिंहासनारोहण होना उसके द्वारा उसके 99 सौतेली भाइयों की हत्या का परिणाम था। अथवा यूं कहें कि अशोक ने सिंहासन के लिए अपने 99 सौतेले भाइयों की हत्या की थी। हालांकि बहुत से बुद्धिजीवी इसे कपोलकल्पित मानते हैं।
किंतु एक विषय यह भी है कि अशोक का राज्यअभिषेक सिहासनारोहण के चार वर्षों पश्चात हुआ था। अतः यह तो निश्चित है, कि संघर्ष जरूर हुआ होगा और इसमें कुछ भाइयों की हत्या भी अवश्य हुई होगी।

अशोक ने सम्राट हो जाने के पश्चात सर्वप्रथम अपने पूर्वजों की भांति साम्राज्यवादी नीति अपनाकर कलिंग पर विजय की योजना बनाई, उसने अपने राज्यभिषेक के नवें वर्ष में ही कलिंग जो कि उसके साम्राज्य के दक्षिण पूर्वी हिस्से में था, और एक शक्तिशाली स्वतंत्र राज्य था, जो कि भविष्य में उसके लिए और उसके साम्राज्य के लिए खतरा बना हुआ था, उस पर विजय हासिल की।

कलिंग विजय अशोक के हृदय परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण हुआ, अशोक ने विजय यात्रा की जगह धर्म यात्राएं करना प्रारंभ कर दिया। वह कलिंग के युद्ध में हुए लाखों लोगों की हत्या और उस हिंसा के प्रभाव से अहिंसा का पुजारी हो गया।

वास्तव में कहें तो अशोक का पूर्णतः लोक मंगलकारी शासन कलिंग की विजय के पश्चात प्रारंभ होता है, जहां अशोक युद्ध यात्रा से अपने आपको पीछे खींच लेता है, और जनकल्याण के लिए धर्म के प्रचार-प्रसार में प्रयत्न प्रारंभ करता है।
अशोक की शासन व्यवस्था पुरखों से चली आ रही व्यवस्था का ही ज्यों का त्यों स्वरूप रही, हां अशोक का बड़ा साम्राज्य उस समय पर पांच प्रांतों में विभक्त था, और प्रत्येक प्रांत में पूर्व की भांति एक प्रांतपति नियुक्त किया जाता था।

अशोक के समय और उसके शासन का महत्वपूर्ण ज्ञान के साधन उसके द्वारा खुदवाय गए शिलालेख और स्तंभ हैं।
अशोक ने अपने राजधानी में पशु हत्या पर निषेध कर दिया था। प्रारंभ में अशोक को हिंसा से परहेज न था। अध्ययन में यह भी है, कि अशोक के रसोई में प्रतिदिन पशुओं की हत्या होती थी। वह युद्ध प्रिया भी था। इससे यह अनुमान लगाया जाता है, कि प्रारंभ में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयाई रहा। जिसका अनुसरण उसने कलिंग विजय तक किया।

कलिंग विजय के पश्चात अशोक का दया भाव जागृत होता है। वह स्वयं को परिवर्तित करता है। उसने उन सब उत्सव समारोह को बंद करा दिया, जहां मांस, मदिरा, नाच-गाना आदि का प्रयोग होता था। आनंद-यात्राओं के स्थान पर उसने धर्म-यात्राओं का प्रचलन प्रारंभ किया। उसने प्रजा तक धर्म के प्रसार के लिए और उनके नैतिक और आध्यात्मिक उन्नयन के लिए “धर्म महामात्र” तथा “प्रादेशिक” नाम के कर्मचारी नियुक्त किए थे, जो घूम घूम कर प्रजा में धर्म के प्रसार का कार्य करते थे।

अशोक में दया भाव इस कदर हो चला था, कि केवल मानव नहीं बल्कि उसने पशु पक्षियों की भी सेवा की। उसने मनुष्यों के साथ-साथ पशु पक्षियों के लिए भी ओषधालय बनवाएं।

अशोक स्वयं को परिवर्तित करने का निश्चय कर चुका था। उसने बौद्ध धर्म के प्रसार में भी बौद्ध धर्म के अनुयायियों का सहयोग किया। उसने अनेक बौद्ध मठों की स्थापना की भिक्षुओं को घूम-घूम कर इस धर्म के प्रसार के लिए प्रोत्साहित किया। अशोक ने भगवान बुद्ध के जीवन के संबंध रखने वाले उन सभी स्थानों पर विचरण किया। अशोक के काल में तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन पाटलिपुत्र में हुआ। और उसने इस सभा के माध्यम से बौद्ध धर्म में हुए आपसी मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न किया।

अशोक ने अपना एक धर्म का प्रसार किया। जिसे “अशोक के धम्म” के नाम से प्रसिद्ध मिली यह सभी धर्मों के अच्छी बातों के लिए था, और मनुष्य तथा अन्य सभी प्राणियों के उत्थान पर केंद्रित है।
अशोक अपने धर्म कि शिक्षा प्रजा तक पहुंचाने से पूर्व स्वयं उस धर्म का अनुसरण करता था। या यूं कहें, कि स्वयं अशोक भिक्षु हो चुका था। जीवन भर उसने मांस खाना, शिकार खेलना, नाच देखना, जैसी राजसी विलासिता से दूरी बनाए रखी, और स्वयं के धर्ममय जीवन से आवाम को एक सुंदर संदेश दिया।

अशोक ने अपने धर्म के प्रचार प्रसार में कोई कसर न छोड़ी उसने अपनी धार्मिक शिक्षाओं को स्तंभों तथा शिलाओं पर खुदवाया उसने अपने धर्म के प्रसार को मात्र अपने राज्य की सीमा तक सीमित ना रखा, बल्कि अपने धर्म के प्रचार के लिए अनुयायियों को वर्मा, तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, तथा पूर्वी द्वीप समूह में भेजा।
इतना ही नहीं उसने अपने पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा को धर्म के प्रसार के उद्देश्य से लंका भेजा।

कलिंग की हिंसा अशोक के जीवन को हिंसा के पथ से किस दिशा में ले आती है। अशोक का हृदय परिवर्तन उसके जीवन को अत्यधिक रोचक प्रस्तुत करती है।

इसी से आगे बढ़ते हुए, महान शासक अशोक के विषय में अन्य पोस्ट भी अपलोड की गई हैं, जो भारतीय प्राचीन इतिहास में मौर्यों के संबंध में आपकी जानकारी में इजाफा करेगा। मौर्य साम्राज्य पर क्रमवार पोस्ट अपलोड की गई हैं जिन्हें आप विजिट कर सकते हैं।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

बिंदुसार | चंद्रगुप्त के पश्चात

  चंद्रगुप्त मौर्य ने 298 ईसा पूर्व अपने पुत्र बिंदुसार के हाथों में मगध के विशाल साम्राज्य को सौंप कर स्वयं संयास ले लिया। बिंदुसार अपने पिता की भांति साम्राज्यवादी नीति के अनुरूप चलकर मगध के साम्राज्य को और अधिक विस्तारित तो नहीं कर सका, किंतु उसने अपने साम्राज्य में शासन का सफलता से संचालन किया।

   बिंदुसार के काल में तक्षशिला में एक विद्रोह हुआ था, अध्ययन में आता है, उस विद्रोह को बिंदुसार के बड़े पुत्र अशोक ने शांत किया था। विदेशियों के साथ बिंदुसार के संबंध बेहद अच्छे थे। यूनानीयों के साथ उसके अच्छे संपर्क थे। इसलिए व्यापार में अच्छी वृद्धि हुई। अतः यह कहना उचित है, कि बिंदुसार एक कुशल प्रशासक था।

273 ईसा पूर्व में बिंदुसार परलोक सिधार गया, और यहीं आरंभ होता है, अशोक।

शनिवार, 8 जनवरी 2022

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबंधन भाग- 2

चंद्रगुप्त मौर्य एक महान नेता और विजेता रहा उसने 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस निकेटर से अपने जीवन में आखिरी युद्ध लड़ा, वह अपने साम्राज्य का विस्तार हिंदूकुश से बंगाल और हिमालय से नर्मदा नदी तक कर पाने में सफल रहा।

 
चंद्रगुप्त मौर्य के पास अपनी विजय यात्रा में शानदार सुसंगठित चतुरंगी सेना थी। सेना का प्रधान स्वयं सम्राट होता था। वह युद्ध के दौरान रण क्षेत्र में होता था। सेना का संपूर्ण प्रबंध 30 सदस्यों की एक परिषद के पास होता था। यह परिषद 6 समितियों में विभक्त होती, जिस हर समिति में 5 सदस्य हुआ करते थे। एक समिति पैदल सेना के लिए, दूसरी समिति अश्व रोहियों के लिए, तीसरी समिति रथ सेना के लिए, चौथी समिति हस्ति सेना के लिए, पांचवी समिति जल सेना के लिए और छठी समिति रसद रण क्षेत्र तक पहुंचाने वाली सेना के लिए प्रबंधक थी। सेना में चिकित्सा विभाग भी होता था। अस्त्र शास्त्र के निर्माण के लिए सरकारी कार्यालय हुआ करते थे। चंद्रगुप्त की यह सेना स्थाई हुआ करती थी, और राज्य से सीधे वेतन पाती थी।
 
इतने बड़े साम्राज्य में सेना का प्रबंध, वेतनभोगियों और लोक मंगलकारी कार्यों को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए आय के बड़े साधन की आवश्यकता थी। उस वक्त पर राज्य की आय का प्रमुख साधन भू कर था। किसानों की उपज का चौथा भाग और कभी कबार आठवां भाग सरकार को प्राप्त होता था। नगर में वस्तुओं पर विक्रय मूल्य का दसवां भाग राज्य को कर के तौर पर जाता था। इसके अतिरिक्त जुर्माना इत्यादि से भी राज्य की कुछ आए हो जाती थी।
 
चंद्रगुप्त का शासन विशाल था, अतः साम्राज्य को सुविधा के लिए उसने अनेक प्रांतों में विभक्त किया था। जो प्रांत अधिक महत्व के होते थे, वहां राजकुमारों को “प्रांतपति” के तौर पर नियुक्त किया जाता था। उन्हें “कुमार महामात्य” कहा जाता था। अन्य प्रांतों में प्रांतपति “राजुक” कहलाते थे। इन सब पर सम्राट की तीव्र दृष्टि होती थी। अपनी गुप्तचरों के माध्यम से सम्राट इनकी हर सूचना को प्राप्त करता था। प्रांतों में शांति और व्यवस्था बनाए रखना, इनका मुख्य कर्तव्य था, और इसे लेकर यह सम्राट के प्रति सीधे उत्तरदाई हुआ करते थे।
 
चंद्रगुप्त मौर्य के काल में स्थानीय प्रशासन का ज्ञान मेगस्थनीज की पुस्तक इंडिका से होता है। गांव शासन की सबसे छोटी इकाई होती है। उस समय पर उसका प्रबंधक “ग्रामिक” होता था। जो कि ग्राम वासियों द्वारा ही चुना जाता था। वह अवैतन कार्य करता था। हालांकि वह यह कार्य गांव के अन्या अनुभवी लोगों के परामर्श से करता था। हर गांव में एक राज कर्मचारी भी हुआ करता था। जिसे “ग्रामभोजक” कहते थे। पांच से दस गांव जिसके प्रबंधन में रहते थे, वह “गोप” कहलाता था, और गोप के ऊपर “स्थानिक” होता था, जिसके अनुशासन में आठ सौ गांव आते थ, और अंत में “समाहर्ता” होता था, जो कि पूरे जनपद का प्रबंधन करता था।
 
नगरों में प्रधान नगराध्यक्ष कहलाता था, नगर का प्रबंध समितियों के द्वारा होता था। इसके लिए छह समितियां हुआ करती थी, प्रत्येक समिति में वही पांच सदस्य हुआ करते थे। इन समितियों को अलग-अलग प्रमुख विषय दिए गए थे।
 
यदि यूं कहें कि चंद्रगुप्त मौर्य उस काल के पश्चात भारत में आने वाले बड़े शासकों के लिए एक पथ प्रदर्शक हुआ, तो गलत नहीं होगा। वह एक महान नेता और योद्धा भी था। इतने बड़े साम्राज्य को संगठित कर अनुशासन में रख संचालित कर सकने वाला वह हिंदुस्तान का एक सफल शासक रहा।
 

जैनियों की मानें तो चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म के अनुयाई हो गए थे। अपने जीवन के अंतिम दौर में उन्होंने राज पाठ धन वैभव को त्याग दिया। अपने जीवन के 24 वर्षों तक सफलता से शासन करने के पश्चात 298 ईसा पूर्व अपने राजकाज को अपने पुत्र बिंदुसार को सोंप कर स्वयं संन्यास ले लिया। अध्ययन में है, कि वह कर्नाटक के पर्वतों की ओर चला गया, और एक सच्चे जैनी की भांति अनशन कर अपने जीवन को समाप्त कर दिया।

 

सोमवार, 29 नवंबर 2021

अर्थशास्त्र और इंडिका से मौर्य वंश का शासन प्रबंध

चंद्रगुप्त शासन-प्रबंध | मौर्यकालीन स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय शासन प्रबंध

पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कृष्णा नदी तक हिंदुस्तान का विशाल भाग किसी एक शक्तिशाली राजा द्वारा केंद्र से शासित हो रहा था। इतने बड़े साम्राज्य में शासन की निश्चित कड़ियां थी, जो शासन को सुचारू रखती थी।

   चंद्रगुप्त मौर्य के काल में शासन प्रबंध को समझने के लिए जो साधन उपलब्ध हैं, वह उस दौर की विद्धान राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ चाणक्य द्वारा लिखा “अर्थशास्त्र” और चंद्रगुप्त के शासन में एक यूनानी राजदूत जोकि सेल्यूकस का राजदूत था, मेगस्थनीज। उसने चंद्रगुप्त के साम्राज्य में जो कुछ देखा सुना वह सब कुछ अपनी पुस्तक “इंडिका” में लिखा। मेगास्थनीज के विवरण में चंद्रगुप्त के स्थानीय स्वशासन का काफी विवरण मिलता है।

   अध्यन के अंतर्गत चंद्रगुप्त के शासन को समझने के लिए उसे तीन भागों में वितरित किया जा सकता है। केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन और स्थानीय शासन।

   जो भी हो किंतु व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका का सर्वोच्च प्रधान राजा होता था, वह केंद्रीय सकती थी, और वह स्वेच्छाचारी भी हो सकता था, और निरंकुश शासन करता था। वह सर्वेसर्वा था। 

इस सब में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ज्ञान प्राप्त होता है, कि राजा प्रजा के प्रति ऋणी होता है, और वह प्रजा को सुख शांति दे कर उस ऋण से मुक्त हो सकता है।

   केंद्रीय शासन का तात्पर्य है, जो राजधानी से संचालित होता था। सम्राट केंद्रीय शासन का प्रधान था, वही कानून बनाता था, और उनका पालन भी वही करवाता था। कानून का उल्लंघन करने वाले लोगों को दंड भी वही देता था।

   सम्राट द्वारा नियुक्त एक मंत्री परिषद अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर सम्राट को परामर्श देती थी। वह सम्राट के विश्वासपात्र होते थे, हालांकि वह केवल वेतनभोगी मंत्री थे, और सम्राट उनकी राय को मानने के लिए बाध्य ना था। दैनिक कार्यों में मंत्री परिषद का कोई भूमिका न थी।

   दैनिक कार्यों में परामर्श देने के लिए सम्राट के साथ मंत्रिन् हुआ करते थे। इन्हीं के सहायता से सम्राट शासन संचालित करता था। किंतु सम्राट इनके भी परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं था।

   चंद्रगुप्त के काल में शासन को संचालित करने के लिए अनेक विभागों में शासन को बांटा गया था। उस समय में कुल 18 विभाग थे। प्रत्येक विभाग को एक-दो विषय सौंप दिए गए थे। विभाग का अध्यक्ष अमात्य होता था। अमात्य के नीचे आनेक सारे कर्मचारी पदाधिकारी होते थे। वह दैनिक शासन को चलाते थे, और राजा के प्रति उत्तरदायी होते थे।

   अपने साम्राज्य में शांति स्थापित करने के लिए चंद्रगुप्त ने पुलिस या आरक्षी विभाग का संगठन किया था। इस विभाग के कर्मचारी “रक्षिन्” कहलाते थे। जनता की रक्षा ही इनका कर्तव्य था।

इसके अतिरिक्त इतने बड़े साम्राज्य में जगह जगह पर हो सकने वाले अपराधों और षड्यंत्र को रोकने के लिए राजा ने गुप्तचर विभाग भी काम में रखा था। वे “संस्थान” गुप्तचर जो कि निश्चित स्थान पर रहकर, और “संचारण” गुप्तचर जो कि घूम घूम कर अपराधियों का पता लगाते थे, संभवत संचारण गुप्तचर साम्राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों में विचरण कर वहां होने वाले अपराधों और षड्यंत्रों का पता लगाते रहे होंगे। जानकारी है कि, स्त्रियां भी गुप्तचर के कार्यों करती थी। इस प्रकार से सम्राट को अपराधों कुचक्रों और षड्यंत्रों की सूचना अपने साम्राज्य के कोने कोने से प्राप्त हो जाती थी।

   अपराधिक मामलों में न्याय व्यवस्था का प्रधान भी स्वयं चंद्रगुप्त था। चंद्रगुप्त की सहायता के लिए न्यायधीश हुआ करते थे। वह नगरों तथा जनपदों के लिए अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। नगरों के न्यायाधीश “व्यवहारिक” और जनपद के न्यायधीश “राजुक” कहलाते थे। न्यायाधीशों को “धर्मस्थ” के नाम से भी जाना जाता था। प्रत्येक न्यायालय में तीन धर्मस्थ तथा तीन अमात्य न्यायाधीश का पद ग्रहण करते थे। दीवानी तथा फौजदारी मामले में अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। दीवानी के न्यायालय “धर्मस्थीय” तथा फौजदारी न्यायालय “कण्टशोधक”  कहलाते थे।

   दंड विधान बहुत कठोर था। जुर्माना, अंग-भंग और मृत्यु तक का दंड दिया जाता था। स्ट्रेबो ने लिखा कि यदि कोई झूठी गवाही देता, तो उसका अंग-भंग का दंड दिया जाता, यदि कोई किसी का अंग-भंग कर देता है तो उसका हाथ काट दिया जाता और यदि कोई अपराधी किसी कारीगर का अंग-भंग कर देता तो उसे प्राण दंड दिया जाता था।

सबसे महत्वपूर्ण कि इतना कठोर दंड विधान होने के कारण चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में अधिक अपराध नहीं होते थे।

राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के काल में न्यायालय की बैठक प्रातः काल होती थी, और निर्णय में शीघ्रता होती थी। छोटी अदालतों के फैसलों की अपील बड़ी अदालतों में होती थी। और सम्राट का निर्णय अंतिम निर्णय होता था।

   चाणक्य की कथानानुसार राजा प्रजा के प्रति ऋणी है, वह लोग मंगलकारी कार्यों को करने से ही प्रजा के ऋण से मुक्त हो सकता है। अतः चंद्रगुप्त ने अपने काल में यातायात के लिए सड़के बनाई, छायादार वृक्ष राहों में और स्थान स्थान पर कई कुएं तथा धर्मशालाएं बनाई। सिंचाई की समुचित व्यवस्था की, उसके प्रांतीय शासक पुष्पगुप्त ने सौराष्ट्र में सिंचाई के लिए एक बहुत बड़ी झील जिसका नाम सुदर्शन झील हुआ का निर्माण करवाया।

स्वास्थ्य तथा स्वच्छता की समुचित व्यवस्था की गई थी। “भैष्ज्य गृहों” अर्थात औषधालय की स्थापना करवाई। उसमें चिकित्सकों की व्यवस्था की गई, शिक्षा का समुचित व्यवस्था की गई, छात्रों को छात्रवृत्ति की व्यवस्था की गई, शिक्षा का प्रबंध प्रधानमंत्री और पुरोहित की अध्यक्षता में संचालित होता था।

शनिवार, 27 नवंबर 2021

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन काल | साम्राज्य का प्रसार तथा विजित प्रदेश | Maurya dinesty Chandragupt

Chandragupta maurya 

संपूर्ण उत्तर भारत में जिसका साम्राज्य स्थापित हो चुका था, वह दक्षिण की ओर बढ़ता है, और सौराष्ट्र की भूमि पर भी अपना अधिकार स्थापित करता है, इतना ही नहीं वह मालवा को भी अपने अधिकार में करता है, कुछ विद्वानों का मत है, कि उस क्रांतिकारियों के नेता चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य मैसूर राज्य की सीमा तक प्रसारिता था।

    चंद्रगुप्त की विजय का आरंभ पंजाब की भूमि से होता है। सिकंदर के भारत से लौट जाने के पश्चात पंजाब की भूमि में यूनानीयों के विरोध में एक बड़ी क्रांति ने जन्म लिया। चंद्रगुप्त मौर्य क्रांतिकारियों का नेता हो गया उसने यूनानीयों को भारत भूमि से मार भगाया और पंजाब पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।

   चंद्रगुप्त मौर्य अब अपने लक्ष्यों के प्राप्ति के उदीयमान पृष्ठों को लिख रहा था। यह वही मगध का साम्राज्य था, जिस पर आक्रमण का साहस सिकंदर न कर सका, किंतु दृढ़ संकल्पित चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब पर अपने अधिपत्य के पश्चात मगध के विशाल साम्राज्य पर विजय के मंसूबे को साकार करता है। ब्राह्मण चाणक्य साथ हैं। 321 ईसा पूर्व में चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य का मगध की गद्दी पर राज्याभिषेक कर देते हैं, और चंद्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर एक नए वंश मौर्य वंश का पहला पृष्ठ लिखता है।

    उत्तर भारत पर चंद्रगुप्त के अधिपत्य के पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य दक्षिण भारत को भी अपने अधिकार में लेने के लिए प्रयत्नरत होता है। उसने सौराष्ट्र की भूमि को पहले जीता, और उसके पश्चात मालवा को अपने अधिकार में ले लेता है। मालवा की भूमि को अपने अधिकार में ले लेने के पश्चात वह वहां का शासन प्रबंध पुष्पगुप्त वैश्य को सौंप देता है, और उसी ने वहां पर सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। 

   चंद्रगुप्त का अंतिम संघर्ष सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर के साथ पश्चिमोत्तर भारत सिंधु नदी के पश्चिम में हुआ।

सिकंदर की मृत्यु के पश्चात सेल्यूकस निकेटर सिकंदर की साम्राज्य के पूर्वी भाग का स्वामी बन गया था, और वह भारत पर अधिपत्य के लिए दृढ था। उसने 305 ईसा पूर्व में भारत पर आक्रमण कर दिया, किंतु चंद्रगुप्त मौर्य ने सफलतापूर्वक उसे वहीं रोक दिया। अंततः सेल्यूकस निकेटर को चंद्रगुप्त के साथ संधि करनी पड़ी। उसने चंद्रगुप्त मौर्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया, और यही नहीं बल्कि अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान का प्रदेश भी चंद्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने भी 500 हाथियों को भेंट स्वरूप सेल्यूकस निकेटर को सौंप दिया।

   अब चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर भारत में तो अपनी चरमता हासिल कर चुका था। स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला हुआ था। हां यह जरूर ध्यान रहे कि कश्मीर और कलिंग का हिस्सा चंद्रगुप्त के साम्राज्य में नहीं आता था।

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

मौर्य वंश के उदय की कहानी | चन्द्रगुप्त मौर्य का परिचय | Maurya Dynasty Chandragupt मौर्य का संघर्ष

मौर्य साम्राज्य का उदय / चंद्रगुप्त मौर्य एक परिचय / नंद वंश का पतन-

   भारत में सिकंदर की एक तीव्र यात्रा के ही दौर में जिस साम्राज्य के पूरे उत्तर भारत में स्थापित होने का पथ प्रशस्त हो रहा था।  वह मोर्य साम्राज्य था। मगध की गद्दी पर नया वंश आसीन होता है। जिस राजवंश का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य हुआ। 

   चंद्रगुप्त मौर्य किस कुल का था या उनका वंश क्या था, यह ज्ञान निश्चित नहीं है। कुछ विद्वानों के विचार में एक नाइन जिसका नाम मुरा था, चंद्रगुप्त मौर्य उसका पुत्र था। और वह नंदराज की एक शूद्रा पत्नी थी। इस विचार के अनुरूप चंद्रगुप्त मौर्य एक शूद्र कुल का था।

किंतु कुछ विद्वानों के मत के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय वंश का था। उनके मतानुसार नेपाल की तराई में पिप्पलिवन नामक एक छोटा सा प्रजातंत्र राज्य था। जिस पर चंद्रगुप्त मौर्य के पिता जो सूर्यवंशी क्षत्रिय थे, और मोरिय जाति के राज शासक थे।

   दुर्भाग्यवश एक सबल राजा ने चंद्रगुप्त मौर्य के पिता जो कि नेपाल के तराई क्षेत्र में स्थित एक प्रजातांत्रिक राज्य के प्रधान थे, उनकी हत्या कर दी, और उनसे राज्य छीन लिया। विद्वानों के मतानुसार उस वक्त पर चंद्रगुप्त की मां गर्भवती थी, और इसी दशा में उस वक्त पर वह संबंधियों के पास पाटलिपुत्र चली आई, और अज्ञात रूप से वहां रहने लगी, वहां पर लोग अपनी जीविका के यापन के लिए तथा आपने राजवंश को छुपाए रखने के लिए मयूर का पालन करने लगे। अतः चंद्रगुप्त का प्रारंभिक जीवन मयूर पालकों के साथ ही व्यतीत हुआ।

   अध्ययन में चंद्रगुप्त मौर्य के प्रारंभिक जीवन को लेकर यह प्राप्त हुआ, कि मगध के राजा के यहां चंद्रगुप्त मौर्य ने नौकरी कर ली, वह सेना में भर्ती हो गया, और अपनी योग्यता के बल पर वह सेनापति भी बन गया, किंतु कुछ कारणवश मगध का राजा चंद्रगुप्त मौर्य से अप्रसन्न हो गया, और उसने चंद्रगुप्त मौर्य को प्राण दंड दे दिया।

अपने प्राणों की रक्षा के लिए चंद्रगुप्त मौर्य वहां से निकल भागा क्योंकि उस वक्त मगध का शासक वंश नंद था। अब चंद्रगुप्त मौर्य नंद वंश के विनाश के कारण को जन्म देने का प्रयत्न करने लगा।

   इसी दौर में चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब की ओर चला गया, और वहां से तक्षशिला पहुंच गया। वहां उसकी भेंट चाणक्य नामक एक ब्राह्मण से हुई, जिन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। चाणक्य भी नंद वंश के तत्कालीन शासक से अप्रसन्न था। वह दोनों मिलकर नंद वंश के विनाश का उपाय ढूंढने लगे।

   चाणक्य ने बहुत सारा धन एकत्रित किया हुआ था, और एक प्रसंग के अंतर्गत चाणक्य ने वह धन चंद्रगुप्त मौर्य को दे दिया, ताकि चंद्रगुप्त मौर्य सेना को एकत्रित कर सके, और मगध पर अधिकार कर सके। किंतु चंद्रगुप्त मौर्य की एकत्रित की गई सेना मगध साम्राज्य की विशाल सेना के सम्मुख ना टिक सकी और एक बार फिर चंद्रगुप्त मौर्य को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा।

    चंद्रगुप्त मौर्य फिर से पंजाब पहुंचा, उन दिनों सिकंदर भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में अपनी विजय यात्रा से आ टिका था, और वह अपनी विजय यात्रा में आगे को बढ रहा था, किंतु मगध के शासन पर आक्रमण करने का साहस जुटा पाने में वह भी सफल ना हो सका। उसी दौर में मगध नंद वंश के पतन के मंसूबे को लेकर चंद्रगुप्त मौर्य सिकंदर के शिविर में पहुंचा। वह उस से मिला, किंतु चंद्रगुप्त मौर्य स्वतंत्र विचार, सिकंदर को उसके विचार पसंद न आए, और उसने भी चंद्रगुप्त मौर्य की हत्या का आदेश दे दिया।

चंद्रगुप्त मौर्य सिकंदर के शिविर से भाग खड़ा हुआ। अब उसके जीवन के दो प्रधान ध्येय हो गए।

एक लक्ष्य जो वह पहले ही तय कर चुका था, नंद वंश का मगध में साम्राज्य का पतन और दूसरा लक्ष्य यूनानियों को भारत से बाहर खदेड़ना सबसे महत्वपूर्ण इन दोनों उद्देश्यों में उसके साथ ब्राह्मण चाणक्य ने पूरा सहयोग किया।चंद्रगुप्त मौर्य अपने लक्ष्यों को सफलता से प्राप्त भी कर सका।

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

Alexander की भारत यात्रा का प्रभाव | सिकंदर | भारत पर यूनानी प्रभाव

सिकंदर(Alexander)
सिकंदर(Alexander) के आक्रमण का प्रभाव भारत में इतिहासकारों में मतभेद दिखाने वाला एक और विषय है। कुछ विद्वानों का मानना है, कि सिकंदर(Alexander) का आक्रमण एक तूफान की तरह था, जिसने थोड़ी देर के लिए भारतीयों को झकझोर जरूर दिया था, और फिर पानी के बुलबुले की तरह वह समाप्त भी हो गया।

कुछ विद्वानों के विचार में यह बेहद क्षणिक था और भारत के छोटे से क्षेत्र में यह होने पर पूरे भारत पर इसके प्रभाव को गहनता से भी नहीं देखते हैं। उनका मत है कि यह केवल एक सैन्य विजय थी, और यूनानी लोग कुछ ही दिनों के बाद भारत से निकल गए थे, अतः यहां भारत में यूनानीयों का कोई स्थाई प्रभाव ना हो सका।

वे तो स्वयं बर्बर और लुटेरे थे, लुटेरे यूनानी सैनिकों से भारत की सभ्यता जो स्वयं में इतनी ऊंची थी, कभी कुछ नहीं सीख सकती थी।

इस विषय में स्मिथ महोदय ने लिखा है “यूनानी प्रभाव कभी अंतः स्थल तक प्रविष्ट नहीं हो सका भारतीय राजसंस्था और समाज का संगठन जो जाति व्यवस्था पर आधारित था, वस्तुतः अपरिवर्तित हुआ रहा और सैन्य शास्त्र में भारतवासी सिकंदर(Alexander) की तीक्ष्ण करवाल द्वारा सिखाई हुई शिक्षा का आलिंगन करने के लिए उत्सुक ना थे”।

  किंतु कुछ इतिहासकारों का कहना है, कि भारतीय इतिहास में यह घटना बहुत महत्वपूर्ण थी और इसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव भारतीय सभ्यता पर जरूर पड़े। यह सत्य है कि यूनानी लोग भारत से भगा दिए गए थे, किंतु वह लोग अपने देश को नहीं गए वरन वे भारत के पश्चिमोत्तर सीमा के निकट बस गए थे। और भारतीयों के साथ संबंध स्थापित करने के पश्चात भारतीय संस्कृति उन से अछूती न रह सकी। प्रो० नीलकांत शास्त्री ने सिकंदर के आक्रमण के विषय में कहा है कि यद्यपि यह दो वर्षों से कम तक रहा परंतु आक्रमण स्वयं एक ऐसी महान घटना थी, की चीजें जैसी थी वैसी न रह सकी उसने इस बात को स्पष्ट रुप से प्रदर्शित कर दिया कि एक दृढ़ प्रतिज्ञ शत्रु की संयम शक्ति की समानता स्वतंत्रता का उत्तेजना पूर्ण प्रेम नहीं कर सकता।

    इस आक्रमण से भारतीयों को कम से कम इतना तो ज्ञान हुआ कि पश्चिमोत्तर छोटे-छोटे राज्यों में वितरित होना उसके राजनीतिक दुर्बलता को प्रस्तुत करता है। और आक्रमणकारियों को निमंत्रण देता है। इसी विचार से चंद्रगुप्त मौर्य पूरे उत्तर भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने में सफल हो सका।

  यूनानीयों की सुसज्जित सेना ने कैसे भारतीयों की विशाल सेना को परास्त कर दिया इससे भारतीयों को यह ज्ञान हुआ कि सेना में संख्या की नहीं बल्कि रण कुशलता की अधिक आवश्यकता होती है।

  सिकंदर(Alexander) का आक्रमण 327 ईसा पूर्व भारत पर हुआ था, और इसी तिथि के बाद भारत में इतिहास का तिथि गत क्रम से अध्ययन प्रारंभ होता है।

यूनानीयों के कई लेख भारतीय प्राचीन इतिहास को जानने में भी बेहद महत्वपूर्ण है।

  भारतीय संस्कृति और साहित्य पर यूनानीयों का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा यह कुछ इतिहासकार विद्वानों का मत है, क्योंकि यूनानी भारत से वापस लौटे नहीं बल्कि पश्चिमोत्तर प्रदेशों में बस गए थे। इसलिए संस्कृत में आदान-प्रदान निश्चित तौर से हुआ।

~कुछ का मत है कि भारत में गद्य-काव्य, नाट्य इत्यादि यूनानीयों के प्रभाव के होने से ही प्रारंभ हुआ।

~भारत में मुद्रा का चलन को लेकर यूनानी द्रम से ही भारतीय दीनार रूपांतरित हुआ है। यह कुछ विद्वानों का मत है।

~इसके अतिरिक्त यूनानीयों का प्रभाव भारतीयों पर ज्योतिष विद्या, चिकित्सा एवं औषधि तथा धार्मिक जीवन पर पड़े बिना न रह सका।

~कुछ विद्वानों का मत है, कि भारतीयों की मूर्तिकला पर यूनानीयों का प्रभाव पड़ने से एक नई शैली का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे गांधार शैली के नाम से जाना जाता है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

Alexander in india झेलम का युद्ध in hindi विस्तृत वर्णन | सिकन्दर का भारत पर आक्रमण तथा वापस लौटने का कारण

सिकंदर की भारत यात्रा / Alexander in india विस्तृत वर्णन विशेष –

सिकंदर

    327 ईसा पूर्व में सिकंदर ने हिंदूकुश पर्वत को पार कर वह काबुल में आ डटा था, वहां पर उसने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त किया, जिसमें एक सेना का संचालन उसने अपने विश्वस्त सेनापति को दिया जो खैबर के दर्रे से आगे बढ़ी। और दूसरी सेना को अपने नियंत्रण में रखकर वह काबुल की घाटी में प्रवेश करता है, अनेक छोटे-छोटे राजाओं को  जीतते हुए वह आगे बढ़ता है। और अंततः यह दोनों सेनाएं ओहिंद नामक स्थान पर पुनः मिलती हैं, वहां से ये आसानी से सिंधु नदी को पार कर जाते हैं।

   सिंध नदी के पार उस समय पर अर्थात सिधु नदी के पूर्व में उस समय पर मुख्य तौर से दो सबल शासक थे, आंभी तथा पुरु या पोरस।

किंतु उन दोनों के मध्य में सहयोग का संबंध न था, वे एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बने रहे। और यह सिकंदर के पक्ष में था। इससे पहले कि सिकंदर आक्रमण करता आंभी ने सिकंदर को अपने राज्य में आने का निमंत्रण दे दिया। दरअसल वह सिकंदर के माध्यम से पोरस को नीचा दिखाना चाहता था। यदि पोरस और आंभी साथ मिलकर सिकंदर का सामना करते तो शायद वे जरूर जीत जाते।

   326 ईसा पूर्व में आंभी की राजधानी तक्षशिला में सिकंदर अपनी सेना के साथ प्रवेश करता है। आंभी उसका स्वागत करता है, और पोरस के खिलाफ सिकंदर की विजय में उसका साथ देता है।

   पोरस का राज्य झेलम तथा चुनाव नदी के बीच में था। सिकंदर ने पोरस के राज्य पर आक्रमण कर दिया, वह झेलम नदी के पश्चिम तट पर आ डटा किंतु पोरस की सेना पहले से ही झेलम नदी के पूर्वी तट पर झंडा गाड़े खड़ी थी। कई महीनों तक दोनों सेनाएं जैसी की तैसी वही पड़ी रही, किंतु झेलम नदी को पार करने का साहस किसी ने ना किया, फिर एक दिन अंधेरी रात में जब बहुत भयानक आंधी चल रही थी, सिकंदर की सेना झेलम नदी को पार कर जाती हैं, और जब पोरस को यह मालूम होता है, तो वह भी रण के मैदान में अपनी सेना के साथ पहुंचता है। दोनों में भीषण संग्राम होता है, पहले तो पोरस की सेना सिकंदर की सेना को शिकस्त दे रही होती है। किंतु बाद में किसी तरह सिकंदर जीत जाता है, और पोरस को बंदी बना लिया जाता है।

   इस रण क्षेत्र का एक प्रसंग सम्मुख आता है, कि जब पोरस को बंदी बना लिया जाता है, और उन्हें सिकंदर के सामने लाया जाता है, तो सिकंदर पोरस से प्रश्न करता है, कि कहो तुम्हारे साथ क्या व्यवहार किया जाए पोरस बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे, उनका जवाब आता है कि जैसे “एक राजा दूसरे राजा के साथ व्यवहार करता है”।

   सिकंदर पोरस जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति से मित्रता का महत्व समझता था। जब तक सिकंदर भारत में रहता है पुरु उससे अपने मैत्री भाव का निर्वाह करता है। सिकंदर पोरस से मैत्री संबंध स्थापित करता है, और वहां से आगे बढ़ता है, जहां दो अन्य राज्यों को मार्ग में जीतता है। अंत में वह पंजाब की अंतिम नदी व्यास के पश्चिमी किनारे पर आ खड़ा होता है, और यह वही सीमा थी, जहां से मगध का विशाल साम्राज्य भारत के पूर्वी छोर तक विस्तारित था, यदि सिकंदर यहां विजय हासिल करता तो पूरे भारत पर उसका वर्चस्व स्थापित हो जाता।

   किंतु मगध के साम्राज्य पर आक्रमण करने का उसकी सेना का कोई विचार न था। उस उत्साह में कमी थी। उसकी सेना में अब इतना साहस न रहा था कि मगध जैसे विशाल साम्राज्य को चुनौती दे सकें। क्योंकि बहुत लंबे समय अपने घर से बाहर थे, और युद्ध करते करते वे थक भी गए थे। वह बहुत दूर आ गए थे। अब घर वापस लौटना चाहते थे। यही कारण होगा, कि मगध की सीमा को सिकंदर पार न कर सका, और उसने वापस लौटने का निश्चय किया।

वह पोरस से मिला शासन संबंधी नीति पर विचार विमर्श किए, और वहां से लौट गया, लौटते वक्त भी उसे अनेक सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा, अनेक छोटे-छोटे राज्यों से उसका सामना हुआ। सिंध के निचले प्रदेश में पटल नाम के स्थान पर उसने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त कर दिया, एक को उसने समुद्री मार्ग से और दो को स्थल मार्ग से भेज दिया, वह स्वयं स्थल मार्ग से हो चला, अंत में वह अपनी टुकड़ी के साथ बेबीलोन जा पहुंचा, वहां पर ज्वर से पीड़ित हो गया, और 32 वर्ष की उम्र में 323 ईसा पूर्व उसका परलोकवास हो गया।

यहीं पर उसके विश्व विजय की यात्रा का अंत हो जाता है। हालांकि उसकी विश्वविजय का ख्वाब पूर्ण तो ना हो सका, किंतु वह विश्व के महान सेनानियों में अपने आप को दर्ज करा सकने में सफल रहा।

    उपरोक्त प्रसंग आप सब ने इसी प्रकार से अध्ययन जरूर किया होगा।

किंतु यह एक पक्ष की कहानी है, कई तथ्य आज भी इस प्रश्न को जीवित रखते हैं कि जीता कौन था, पोरस या सिकंदर? 

यदि सिकंदर विश्व विजेता था तो वह पोरस के राज्य से वापस क्यों लौटा?

वे यूरोपीय लेखकों के द्वारा सिकंदर की प्रसंग को यथावत लिखा नहीं मानते हैं, बल्कि सिकंदर की महानता को अथवा यूरोपियों की महानता को प्रस्तुत करती हुई दृष्टि में रहकर लिखा हुआ मानते हैं।

वे आज भी इस विषय के निचोड़ को रत हैं।

बुधवार, 17 नवंबर 2021

सिकंदर का परिचय | सिकंदर भारत की सीमा तक | sikandar की विजय यात्रा

सिकंदर का परिचय तथा सिकन्दर भारत की सीमा तक-

 

   उस समय में यूनान के छोटे से राज्य मकदूनिया पर फिलिप नामक शासक का शासन था। फीलिप के पुत्र सिकंदर हुए। यह वही सिकंदर है, जिसे दुनिया के सबसे महान विजेताओं की पंक्ति में स्थान प्राप्त है। सिकंदर विश्व का महान विजेता।

   336 ईसा पूर्व में फिलिप की मृत्यु हो जाने के कारण अब सिंहासन सिकंदर को मिला। हालांकि उस समय पर सिकंदर की आयु महज 20 वर्ष थी, किंतु सिकंदर उस वक्त के सबसे महान विद्वान और दार्शनिक अरस्तु के शिष्य रहे, जिसके प्रभाव से सिकंदर बड़े सभ्य व्यक्ति बना, वह बेहद कुशल शासक अपने आप को साबित कर पाने में सफल रहा। शासन पर आरूढ़ हो जाने के पश्चात उसने दो प्रमुख ध्येय स्वयं को सदैव दिए रखें। पहला अपने साम्राज्य का विस्तार और दूसरा अपने देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रसार।

    सिकंदर ने विजय यात्राओं का चक्र प्रारंभ किया। वह अपने आसपास के पड़ोसी छोटे-छोटे राज्यों को जीत हासिल कर फारस के जर्जर साम्राज्य को रौंदता हुआ भारत की सीमा पर आ पहुंचा।

    उस समय तक उत्तर भारत के पूर्वी भाग में मगध का विशाल साम्राज्य स्थापित हो चुका था। किंतु अभी उत्तर भारत में पश्चिमोउत्तर प्रदेशों की राजनीतिक दशा बड़ी सोचनीय थी। वहां छोटे-छोटे राज्य थे, जिन में सहयोग का सदैव अभाव रहा, उनमें एक दूसरे को नीचा दिखाने का भाव था। और यही कारण था कि विदेशी आक्रमणकारियो को लाभ मिला।

   सिकंदर से पहले ईरान के शासक साइरस तथा डेरियस के आक्रमण इस भूभाग पर हो चुके थे। अब सिकंदर जब भारत की सीमा तक पहुंचा था, और ईरान के साम्राज्य को पहले ही रौंद चुका था। तो स्वाभाविक तौर से वह भारत पर भी आक्रमण की योजना तय कर चुका था।

   सिकंदर जहां कहीं गया सफलता ने विजय ने उसका स्वागत किया, उसका आलिंगन किया उसका उत्साह चरम पर था। यह उसकी महत्वाकांक्षा को और तीव्र करता गया, और उसकी विजय यात्रा का मार्ग उसके उत्साह के प्रभाव में कभी जर्जर ना हो सका।

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

बौद्ध कालीन भारत |16 महाजनपदों की विस्तृत व्याख्या | Boddh period india explaination

16 महाजनपदों में बौद्ध कालीन भारत की विस्तृत व्याख्या

बौद्ध कालीन भारत जब भगवान बुद्ध के द्वारा बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हो रहा था। उस समय पर भारत किस प्रकार से था, इसकी दशा क्या थी। इस विषय में बौद्ध धर्म ग्रंथों से कुछ जानकारी प्राप्त होती हैं। उन दिनों उत्तरी भारत में कोई ऐसा सशक्त साम्राज्य ना था, जो कि केंद्र में रहकर एक शक्तिशाली शासन पूरे उत्तर भारत में स्थापित कर सकें, ऐसा ना हो कर उन दिनों उत्तरी भारत 16 छोटे-बड़े राज्यों में बंटा हुआ था, इन राज्यों को महाजनपद कहा जाता था।

   ● अंग (पूर्वी बिहार) राजधानी चंपा, ● मगध (दक्षिणी बिहार) राजधानी गिरिब्रज, ● काशी (वाराणसी) राजधानी काशी, ● कौशल (अवध) राजधानी श्रावस्ती, ● वज्जी (उत्तरी बिहार) राजधानी वैशाली, ●.मल्ल (देवरिया, गोरखपुर) राजधानी कुसिनारा तथा पावा, ● चेदी  (बुंदेलखंड) राजधानी सुक्तिमती, ● वत्स (प्रयाग) राजधानी कौशांबी, ● कुरु (दिल्ली मेरठ) राजधानी इंद्रप्रस्थ तथा हस्तिनापुर, ● पांचाल (रोहिलखंड) राजधानी अहिक्षेत्र तथा कम्पिल्य, ● मत्स्य (जयपुर) राजधानी विराटनगर, ● शूरसेन (मथुरा) राजधानी मथुरा, ● अवंती (पश्चिमी मालवा) राजधानी उज्जैन, ● गांधार (पूर्वी अफ़गानिस्तान) राजधानी तक्षशिला, ● कंबोज (काश्मी) राजधानी द्वारका, ● अस्सकं (हैदराबाद) राजधानी  पोतली या पोतन।

    इन राज्यों में कुछ में तो राजतंत्रात्मक और कुछ में गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्थाएं थी। राजतांत्रिक राज्य तुलना में लोकतांत्रिक राज्यों से बड़े हुआ करते थे। इन राज्यों में प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। अतः बड़े राज्यों ने अपने पड़ोस के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर दिया, और उन्हें अपने में मिलाकर अंत तक आते-आते यह चार बड़े राज्यों कौशल, वत्स, अवंती, तथा मगध में विलीन हो गए।

    कौशल वर्तमान का अवध ही हुआ करता था। इस राज्य के बीच में से सरयू नदी बहती थी। इसके दो राजधानियां हुआ करते थी, उत्तरी भाग की राजधानी श्रावस्ती तथा दक्षिण भाग की राजधानी कुशावती थी। जिस वक्त पर बौद्ध धर्म का प्रचार हो रहा था, यहां के राजा प्रसेनजीत थे।

   कौशल राज्य के दक्षिण में वत्स राज्य था। जिसकी राजधानी कौशांबी थी उस वक्त पर जब बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हो रहा था, तब वहां का शासक उदयन था।

   वत्स राज्य के दक्षिण पश्चिम में स्थित राज्य अवंती था, इसकी राजधानी उज्जैनी थी। बुद्ध भगवान जब बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार में थे, तब वहां के राजा प्रद्योत हुए।

   आधुनिक बिहार के गया तथा पटना जिलों को मिलाकर मगध का साम्राज्य बना था, इसकी राजधानी राजगृह थे  बुद्ध जी के समय में यहां बिंबिसार नामक शासक शासन करता था।

   इन चार बड़े राज्यों में भी प्रतिस्पर्धा लगातार जारी थी। वे अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए प्रयत्न करते रहते थे। धीरे-धीरे इन चारों में मगध राज्य ने अपनी शक्ति में वृद्धि की और पूरे उत्तर भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर दिया।

मगध के राजा बिंबिसार ने बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म दोनों को आश्रय दिया था। वह बड़े उदार थे, किंतु उनके पुत्र अजातशत्रु ने सिंहासन के लिए उनका वध कर दिया। अजातशत्रु एक कुशल शासक था। किंतु उसके निर्बल उत्तराधिकारीयों ने भविष्य में अपना शासन खो दिया। और क्रमशः शिशुनाग वंश और तत्पश्चात नंद वंश ने मगध के साम्राज्य को शासन किया नंद वंश के साम्राज्य का विनाश कर चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध में अपना शासन स्थापित किया।

   उस वक्त पर जिन जिन भारतीय क्षेत्रों में बौद्ध और जैन धर्म का प्रचार प्रसार हो रहा था, वहां जाती पाती व्यवस्था कुछ ढीली पड़ गई थी। ब्राह्मणों के प्रधानता को चुनौती दी गई थी, उनके स्थान को क्षत्रियों ने ग्रहण करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया था। आश्रम व्यवस्था भी अब ढीली पड़ गई थी। क्योंकि बौद्ध धर्म ने सत्कर्म और सदाचार पर बल दिया। उस समय पर स्त्रियों की दशा इतनी भी संतोषजनक ना थी। उस समय पर पहले भगवान बुद्ध ने भी बौद्ध संघों में स्त्रियों के होने पर मना ही किया था, किंतु बाद में स्त्रियों को भी संघ में रखा जाने लगा। उस वक्त पर लोग मुख्यता गांव में समूह बनाकर रहते थे। गांव में उनका मुख्य व्यवसाय कृषि हुआ करता था। हालांकि शहरों का भी उन्नयन आरंभ हो चुका था, वहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय शिल्प और व्यापार हुआ करता था।

   बौद्ध काल में साथ ही साथ जैन धर्म तथा भागवत धर्म का भी प्रादुर्भाव हुआ। जो उन लोगों को अति भाई जो यज्ञ तथा बली दोनों से तंग आ चुके थे। और किसी नई मार्ग के खोज में थे। बौद्ध तथा जैन धर्म ने सत्कर्म तथा सदाचार का और भगवत धर्म ने उपासना तथा भक्ति के सरल मार्ग पर चलकर मोक्ष की प्राप्ति का उपदेश दिया, और यही कारण रहा कि इस मार्ग पर चलने को जनसाधारण सहर्ष स्वीकार करता गया।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

बौद्ध और जैन धर्म की भारत को देन | Indian history | Boddh and jain dharma

बौद्ध और जैन धर्म की भारत को महान देन-

बौद्ध और जैन धर्म ने भारत भूमि को हिंसा के महत्वपूर्ण पाठ से अवगत कराया। प्राणी मात्र पर दया की शिक्षा दी। यह वही अहिंसा है, जिसका अनुसरण कर महात्मा गांधी जी ने भारत में स्वतंत्रता के आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान दिया। आम जनमानस से स्वतंत्रता के आंदोलन को इसी मार्ग से जोड़ सकने में समर्थ रहे।

   ऊंच नीच जात पात भेदभाव को ना मानकर एक लोकतांत्रिक समझ का संदेश दिया। मानव के सत्कर्म और सदाचार पर अधिक बल देकर देशवासियों की नैतिक स्तर को ऊंचा किया।

   उत्तर वैदिक काल में आते-आते यज्ञ और बलिदान के विरोध में हिंदुओं में प्रबल विचारधारा जन्म ले चुकी थी और यही विचारधारा “भागवत धर्म” के तौर पर सम्मुख आई। जिसके प्रवर्तक श्री कृष्ण थे। उनका कहना था, कि देवी-देवताओं के ऊपर भी भगवान है, जिसे प्रसन्न करने के लिए न यज्ञों की आवश्यकता है, न जंगल में जाकर चिंतन करने की, न तपस्या करने की जरूरत है। बल्कि उपासना और भक्ति के मार्ग मात्र से ही मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। और यह मार्ग उतना ही सरल था जितना कि बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का था।   

   बौद्ध और जैन धर्म की कुछ महान संस्कृतिक देन रही है। वे आज भी मानव को उज्जवल मार्ग की ओर प्रशस्त कर रही है।

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

बौद्ध धर्म के पतन के प्रमुख कारण | बौद्ध धर्म का अपनी ही भूमि पर न्यून अनुयायी | Boddh dharma

बौद्ध धर्म के तीव्र उत्कर्ष के पश्चात पतन के कुछ प्रमुख कारण-

   बौद्ध धर्म ने जिस तीव्रता के साथ उन्नति की उसके पतन की कहानी भी उतनी ही तीव्र रही। बौद्ध धर्म का अपनी ही जन्मभूमि में जैसे उन्मूलन सा हो गया। हालांकि विश्व के अनेक राष्ट्रों में आज भी बौद्ध धर्म विद्यमान है।

   बौद्ध धर्म के उन्नति के कारणों का ज्ञान होने के पश्चात इस के पतन के कारणों का भी अनुमान लगाया जा सकता है। उन्नति में जिन कारणों ने साथ दिया था, उनका अभाव कालांतर में हो जाने पर बौद्ध धर्म का पतन हुआ। 

   बुद्ध जी के पश्चात बौद्ध धर्म के अनेक शाखाओं ने जन्म लिया, मतों में भेद होने लगा। प्रारंभ में बौद्ध संघों में जो भिक्षुक-भिक्षुणियां रहते थे। उनका जीवन बहुत श्रेष्ठ था, वह बहुत पवित्र और आदर्शमय थे। किंतु कालांतर में उनका चारित्रिक पतन हो गया, जिससे वे लोगों में घृणा के पात्र हो गए।

जब बौद्ध धर्म ने उन्नति करना प्रारंभ किया तो ब्राह्मणों ने अपने धर्म के दोषों को जांचना प्रारंभ किया। उन्होंने तेजी से इसमें सुधार के प्रयत्न प्रारंभ किए। शंकराचार्य आदि जैसे बड़े सुधारक आचार्य हुए, जिन्होंने बौद्ध धर्म का खंडन किया और ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान पर कार्य किया। उन्होंने ब्राह्मण धर्म वैष्णव और शैव धर्म के रूप में प्रचलन में खूब सहयोग दिया। भक्ति मार्ग दिखाया जो इतना ही सरल था, जितना कि बुद्ध जी द्वारा दिखाया गया मार्ग।

यदि आप बौद्ध धर्म के पतन का एक सबसे बड़ा कारण कलान्तर में राजाओं द्वारा सहयोग न मिलना कहें तो गलत ना होगा, क्योंकि जब बौद्ध धर्म प्रारंभ में उन्नति के पथ पर तीव्र गतिमान था। तब उसे तत्कालीन अनेक राजाओं का संवर्धन मिला, किंतु कालांतर में राजाओं का आश्रय न मिल सका। शुंग वंश के राजा ब्राह्मण थे। उन्होंने ब्राह्मण धर्म को संरक्षण दिया। गुप्त सम्राटों ने भी ब्राह्मण धर्म को अपना संरक्षण दिया आगे चलकर राजपूत राजाओं ने भी जो बेहद रण प्रिय थे। अहिंसा के धर्म को समर्थन देने की बजाय ब्राह्मण धर्म को ही उन्नति के पथ पर होने को सहयोग किया। बौद्ध धर्म का पतन का श्रेष्ठ कारण कालांतर में राजाओं का संवर्धन न मिल पाना भी है।

   कालांतर में विदेशी आक्रमणकारियों ने भी बौद्ध धर्म को पतन की ओर ले जाने को राह प्रशस्त की, विशेषकर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने कई बौद्ध मठों और बिहारो को नष्ट कर दिया।

यही कारण कुछ प्रमुख रहे होंगे, जो बौद्ध धर्म अपनी ही भूमि में आज न्यून संख्या में अनुयायियों को लिए है।

 

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