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शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

बौद्ध और जैन धर्म की भारत को देन | Indian history | Boddh and jain dharma

बौद्ध और जैन धर्म की भारत को महान देन-

बौद्ध और जैन धर्म ने भारत भूमि को हिंसा के महत्वपूर्ण पाठ से अवगत कराया। प्राणी मात्र पर दया की शिक्षा दी। यह वही अहिंसा है, जिसका अनुसरण कर महात्मा गांधी जी ने भारत में स्वतंत्रता के आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान दिया। आम जनमानस से स्वतंत्रता के आंदोलन को इसी मार्ग से जोड़ सकने में समर्थ रहे।

   ऊंच नीच जात पात भेदभाव को ना मानकर एक लोकतांत्रिक समझ का संदेश दिया। मानव के सत्कर्म और सदाचार पर अधिक बल देकर देशवासियों की नैतिक स्तर को ऊंचा किया।

   उत्तर वैदिक काल में आते-आते यज्ञ और बलिदान के विरोध में हिंदुओं में प्रबल विचारधारा जन्म ले चुकी थी और यही विचारधारा “भागवत धर्म” के तौर पर सम्मुख आई। जिसके प्रवर्तक श्री कृष्ण थे। उनका कहना था, कि देवी-देवताओं के ऊपर भी भगवान है, जिसे प्रसन्न करने के लिए न यज्ञों की आवश्यकता है, न जंगल में जाकर चिंतन करने की, न तपस्या करने की जरूरत है। बल्कि उपासना और भक्ति के मार्ग मात्र से ही मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। और यह मार्ग उतना ही सरल था जितना कि बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का था।   

   बौद्ध और जैन धर्म की कुछ महान संस्कृतिक देन रही है। वे आज भी मानव को उज्जवल मार्ग की ओर प्रशस्त कर रही है।

शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

Jainism in hindi | जैन धर्म एक परिचय | जैन धर्म की मान्यताएं

जैन धर्म एक परिचय / श्वेतांबर दिगंबर तथा विभिन्न मान्यताएं-

  जैन धर्म को मानने वाले लोगों को जैनी कहा जाता है। कालांतर में जैनी लोग दो संप्रदाय में विभक्त हो गए, पहला श्वेताम्बर और दूसरा दिगंबर।

श्वेताम्बर लोग उदार और सुधारवादी होते हैं। यह श्वेत वस्त्र पहनते हैं। तथा अपनी मूर्तियों को भी सफेद वस्त्र पहनाते हैं। यह जैन धर्म के कठोर नियमों को कुछ ढीला करने के पक्ष में है।

दूसरी और दिगंबर होते हैं। यह जैन धर्म के कठोर नियम को पालन करते हैं। यह बेहद कट्टरपंथी लोग होते हैं। यह लोग नंगे रहते हैं। और अपनी मूर्तियों को भी नंगा रखते हैं।

   जैन धर्म एक क्रांतिकारी धर्म रहा जिसने वैदिक धर्म को चुनौती दी। जैन धर्म के सिद्धांत बिल्कुल अलग हैं, जिनमें सृष्टि की नित्यता पर विश्वास अर्थात सृष्टि का ना तो आदी है ना अंत, इसे किसी ने नहीं बनाया है, और ना ही कोई इसका विनाश कर सकता है। 

जैनी लोगों का मानना है, कि ईश्वर ने सृष्टि को नहीं बनाया है, किंतु सृष्टि को बनाया किसने है? 

इस सवाल के जवाब में जैनी लोगों का मानना है, कि सृष्टि जीव तथा अजीव इन दो तत्वों के संयोग से बनी है, और यह दो तत्व सतत हैं, इनका नाश नहीं हो सकता और ठीक इसी प्रकार इन तत्वों से बनी सृष्टि का भी कभी नाश नहीं हो सकता। उनका मत है कि जीव की दो प्रवृतियां होती हैं, पहली भौतिक तथा दूसरे आध्यात्मिक। उनका मत है की भौतिक प्रवृत्ति का मनुष्य विनाश की ओर जाता है। वह उसे बुरे कर्मों में बांधती है। 

दूसरी ओर आध्यात्मिक प्रवृत्ति मनुष्य को सतकर्मों की ओर लेकर जाते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक प्रवृत्ति अमर है। यह प्रवृत्ति मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर देती है। 

   वे कर्म के बंधन को मनुष्य के सांसारिक वासना से मुक्त न हो सकने का कारण मानते हैं। उनका मत है, कि जीव का उसके कर्मों से घनिष्ठ संबंध होता है। अर्थात आत्मा का उसके कर्मों से घनिष्ठ संबंध होता है, मात्र इस जन्म के कर्मों का ही नहीं बल्कि पिछले जन्म के कर्मों का प्रभाव भी आत्मा पर होता है।

उनका मत है, कि आत्मा तो स्वयं में निर्मल और आनंदमय होती हैं। किंतु मनुष्य के कर्मों और उनके प्रभाव से आत्मा बंधन में आ जाती है। और जब आत्मा का निर्मल तथा आनंदमय स्वरूप समाप्त हो जाता है, तब आत्मा दुख के वशीभूत हो जाती है। आत्मा को सुख-दुख से मुक्त मोक्ष की प्राप्ति के लिए बंधनों से मुक्त करना होगा। अर्थात कर्मों का बंधन नहीं बांधना होगा।

   उनका मत है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य है कि आत्मा कर्मों के नई बंधनों में ना फंसे और यदि आत्मा जो कर्मों के बंधन में फंस चुकी है, तो उसे उन बंधनों से मुक्त किया जाए जिसके लिए पहला मार्ग सत्कर्म तथा सदाचार है, और दूसरा मार्ग कठिन तपस्या।

   जैनियों के विचार में मनुष्य के जीवन का लक्ष्य कर्मों के बंधन से मुक्त होना है, वही मोक्ष है। और इसके लिए मनुष्य को जीवन में सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र की आवश्यकता है। जैनियों ने इसे “त्रिरत्न” भी कहा है। मनुष्य सम्यक ज्ञान प्राप्ति से सांसारिक वासना में नहीं आ सकता।  वासना में फंसने का मुख्य कारण उसकी अज्ञानता है। सम्यक दर्शन से तात्पर्य है, कि जैन आचार्य जैन तीर्थंकरों पर विश्वास किया जाए, उनके उपदेशों में दिए गए मार्ग का अनुसरण किया जाए। जीवन में सम्यक चरित्र की भी आवश्यकता होती है, मनुष्य को कर्मों के बंधन से मुक्त करने के लिए। इसके लिए मनुष्य को इंद्रियों वाणी और अपने कर्मों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना होगा

जैन धर्म  के लोग पंच महाव्रत का पालन करते हैं। जो “अहिंसा” जीव हत्या महापाप है। “सत्य” सदैव सत्य बोलना। “अस्तेय” कभी चोरी ना करना। “अपरिग्रह” अर्थात संपत्ति का संचय न करना, और अंतिम “ब्रम्हचर्य” इसका तात्पर्य है, सांसारिक विषय वासनाओं से दूर रहना। 

जैनियों का यही मानना है, कि यदि इन पांच महाव्रतों का पालन किया जाए तो मनुष्य कर्मों के बंधन में कभी बंध ही नहीं सकता

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

वर्धमान से महावीर स्वामी होने की यात्रा | महावीर स्वामी जीवन परिचय | जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर mahaveer swami (vardhaman)

वर्धमान से महावीर स्वामी होने की यात्रा / जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर-

 धार्मिक क्रांति का युग छठी सदी ईसा पूर्व में वह प्रभावी क्रांति का दौर रहा जिसमें भारतीय हर मानव को स्वयं से जोड़ा। उसके जीवन के हर आयामों को प्रभावित किया। जैन धर्म उसी सदी का प्रकाश है। जैन धर्म यूं तो बहुत प्राचीन धर्म है। क्योंकि महावीर स्वामी से पूर्व 23 तीर्थंकर जैन धर्म के हो चले थे। किंतु महावीर स्वामी 24 वे तीर्थंकर के रूप में जैन धर्म को श्रेष्ठ प्रसिद्धि तक ले गए, और उन्हें ही जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक कहा गया।

   वह बालक वर्धमान नाम का 599 ईसा पूर्व विदेह राज्य की राजधानी वैशाली के निकट कुंड ग्राम में जन्मा था। वे कश्यप गोत्र के क्षत्रिय राजकुमार थे। पिता का नाम सिद्धार्थ था। वे ज्ञात्रिक गण के नेता थे। इनकी माता का नाम त्रिशला था जो मगध राजा श्वसुर चेटक की बहन थी। जो लिच्छवी वंश के क्षत्रिय राजकुमार थे।

   जैन ग्रंथों के अध्ययन में महावीर स्वामी के संपूर्ण जीवन का परिचय प्राप्त होता है। वर्धमान के जन्म पर उत्सव हुआ। कैदियों को कारावास मुक्त किया गया। बाल्यकाल से ही उन्हें राजसी सुख में डूबोने का प्रयत्न रहा। किंतु वे चिंतक प्रवृत्ति, मोह माया से दूर वैराग्य को आकर्षित रहे।  उनका विवाह भी तय हुआ। यशोदा नामक राजकुमारी उनकी पत्नी हुईं, और एक पुत्री को जन्म दिया। जिसका नाम अण्जा रखा गया। किंतु वे कभी इस सुखः में स्वयं का संतोष ना ढूंढ सके।

   30 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने बड़े भाई की आज्ञा लेकर घर त्याग दिया, सन्यास ले लिया, और मोक्ष का मार्ग की खोज एकमात्र लक्ष्य साध लिया।

   प्रसंग है कि, वह जिन वस्त्रों में घर से निकले थे, 13 माह तक उन्हीं में विचरण करते रहे, जब वस्त्र फट गए तो वर्धमान नंगे बदन सत्य, ज्ञान, मोक्ष की प्राप्ति में सब कुछ त्याग कठिन तपस्या में रहे। गर्मी, सर्दी, बरसात में बेघर वे चिंतन में रहे। लोगों ने पत्थर मारकर उनका तिरस्कार किया, किंतु वे मौन चिंतक जीवन के लक्ष्य प्राप्ति के लिए निष्ठ थे। अपने तापस जीवन के तेरहवें वर्ष में जब वे साल वृक्ष के नीचे नदी तट पर लीन थे, उन्हें कैवल्य (निर्मल) ज्ञान प्राप्त हुआ। वह अहर्त (पूज्य) जिन (विजेता या जितेंद्र) निरग्रंथ (बंधन रहित) महावीर (परम प्रतापी) इन नामों से प्रचलित हुऐ। “जिन” नाम होने से वह जिस धर्म के प्रचारक रहे, उसे जैन धर्म कहा गया। महावीर की भांति अपनी इंद्रियों को विजित कर लिया वे महावीर कहलाए। 

   वे धर्म के प्रचार में लोगों को अपने उपदेशों से आकृष्ट करते  रहे। लोग उनके धर्म की दीक्षा लेने लगे कौशल, काशी, मगध, अंग आदि राज्यों में भ्रमण करते रहे। उनके तीस वर्ष तक धर्म के प्रचार से धर्म खूब प्रचलित हो गया। बहत्तर वर्ष की आयु में 529 ईसा पूर्व वे निर्वाण को प्राप्त हो गए।

   महावीर स्वामी कैवल्य ज्ञान का प्रचारक होने से आज तक हम सब में अहर्त हैं।

बुधवार, 3 नवंबर 2021

बौद्ध और जैन धर्म के उदय का कारण | वैदिक धर्म की जटिलताएं | धार्मिक क्रांति के युग का आरंभ | Buddha, jain, bhagwat dharmo ka उदय

वैदिक काल के धर्म के स्थान पर धार्मिक क्रांति के युग में नव धर्मों का उदय हुआ। जो वैदिक काल के धर्म ग्रंथों की जटिलता ही रही होगी, जो मानव ने अन्य धर्मों को अपनाया। वैदिक काल के धर्म ग्रंथ संस्कृत में थे, उनकी भाषा जटिलता, सामान्य मानव उससे अछूता ही रहा, वह उसे समझ पाने में असमर्थ ही था। तब वह एक ऐसे सरल मार्ग जो मोक्ष प्राप्ति को मिल सके उसे अपनाने को तैयार था। वह उसके स्वागत में था। 

   वैदिक धर्म में यज्ञों को एकमात्र मोक्ष की प्राप्ति का साधन बताया है। किन्तु समय के साथ यह महंगे होते गए तब इसे जनसाधारण करवा पाने में असमर्थ हो गया।

   मानव में चेतना का नव अध्याय पल्लवित हो रहा था। तो यज्ञ में पशुओं की बलि देवी देवताओं को प्रसन्न करती है, यह ना होकर लोगों के मन में वैदिक धर्म को हिंसा धर्म होने की बात आने लगी। क्यों बेजुबानों की बलि दी जाए। चेतना का नवयुग बेजुबान के दर्द का एहसास कर पा रहा था। वह मानव चेतना का नया-नया नभ चूम रहा था।

   वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित थी  किंतु कालांतर में वह जाति प्रथा का रूप धारण कर भेदभाव ऊंच-नीच को समाज में जन्म दे रही थी। लोग ऐसे धर्म को ढूंढने लगे जो भेदभाव न रखें। समान दृष्टि से सबको देखे। वैदिक काल में ब्राह्मण श्रेष्ठ थे। उस धर्म में ब्राह्मण दंड मुक्त भी था। किंतु कालांतर में आते आते उनका विरोध हुआ। समाज में उनका वर्चस्वशाली स्थान क्षत्रिय राजकुमारों ने ग्रहण किया। ब्राह्मणों का राजनीति में वर्चस्व शून्य हो चला था।

   यज्ञ तथा बलिदान मार्ग के स्थान पर तपस्या तथा ज्ञान का मार्ग श्रेष्ठ होगा। किन्तु  वह भी इतना आसान नहीं था। जनसाधारण जंगलों में जाकर  चिंतन कर मोक्ष की प्राप्ति के लिए कैसे प्रयत्न करता, यह भी उसके लिए बेहद जटिल था।  एक साधारण मनुष्य अब भी मोक्ष की प्राप्ति के लिए किसी एक सरल विकल्प के स्वागत में था।

   चिंतकों ने मार्ग को ढूंढ निकाला एक मार्ग भक्ति तथा उपासना का और दूसरा सत्कर्म तथा सदाचार का।

भक्ति और उपासना के अनुयाई भागवत धर्म के अनुयायी हुए,  वे उस धर्म को जन्म देने में सफल रहे तथा सत्कर्म सदाचार के मार्ग पर जैन और बौद्ध धर्म ने लोगों में प्रसार प्राप्त किया।

   यह कुछ कारण हैं, जो धार्मिक क्रांति के युग में लोगों के मन में पैदा जरूर हो चुके होंगे, और शायद यही कारण हैं, जो नये धर्मों के आम जनमानस में प्रसारित होने के हैं। वैदिक धर्म ने जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है, इससे तो जनमानस अवगत था। किंतु वह मार्ग जो इसकी प्राप्ति में है, वो कालांतर में जनसाधारण के लिए निभा पाना कठिन हो गया था। यही धार्मिक क्रांति के युग के उदय का कारण है।

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏