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मंगलवार, 18 मार्च 2025

प्रेमचंद अग्रवाल का इस्तीफा और अब सवाल महेंद्र भट्ट से



श्री प्रेमचंद अग्रवाल को एक अदूरदृष्ट नेता के तौर पर याद किया जाएगा। जिन्होंने अपनी कही बात पर इस्तीफा दिया मंत्री पद को त्याग और इससे यह साबित होता है, कि आपने गलती की है। अन्यथा आप अपनी बात से, अपनी सत्यता से जनमानस को विश्वास में लेते, पार्टी को विश्वास में लेते और चुनाव लड़ते। आपके इस्तीफे ने आपकी गलती को साबित कर दिया।

उन्होंने राज्य आंदोलन के दौरान अपनी भूमिका को स्पष्ट किया, अपना योगदान बताया और आखिरी तौर से वे भावनाओं से भरे हुए थे, उनके आंसू भी देखे गए। इसी पर उन्होंने अपने इस्तीफा की बात रख दी वह प्रेस वार्ता हम सबके सामने हैं। 


यहां से बहुत कुछ बातें समझने को मिलती है, राजनीति में बैक फुट नहीं होता है, राजनीति में सिर्फ फॉरवर्ड होता है। यह बात उस समय सोचने की आवश्यकता थी, जब इस तरह का बयान दिया गया था, जिसने इतना बड़ा विवाद पैदा किया। यह नेताओं की दूर दृष्टि का सवाल है, उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि उनके द्वारा कही बात का प्रभाव कितना व्यापक हो सकता है। राजनीति में आपके द्वारा कही बात पर आप आगे माफी लेकर वापसी कर पाएंगे ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि उसका प्रभाव कभी-कभी इतना व्यापक होता है, की स्थितियां संभाले नहीं संभालती।

इस प्रेस वार्ता में उनके आंसू भी देखे गए। लेकिन राजनीति को जानने समझने वाले लोग इससे प्रभावित नहीं होते। राजनीति में नेताओं का हर कदम और सांस लेना भी जनमानस को लुभाने के लिए है। वह सब जो आपको मालूम चलता है, वह जनमानस पर अपने प्रभाव को मजबूती से रखने के लिए कोई नेता करता है। सारा खेल सत्ता में बने रहने का है, यह सत्ता हासिल करने का। राजनीति कोई कमजोर लोगों का खेल नहीं यह मजबूत लोगों का खेल है। 


राजनीति में पहले जमीन पर मेहनत होती है, एक कार्यकर्ता के तौर पर जमीन पर पैर मारे जाते हैं। वही बात जो वे कह रहे थे कि मैं उत्तराखंड राज्य आंदोलन में सक्रिय भूमिका में था, और मेरा योगदान रहा है। राजनीति में जमीनी मेहनत के बाद शक्ति और सत्ता आती है, उसके पश्चात घमंड आता है, और फिर इंसान का राजनीतिक पतन होता है। राजनीति की उस शीर्षस्ता को हर कोई पाचन नहीं कर पाता इसलिए अक्सर इस तरह का पतन देखने को मिलता है।


दरअसल बीजेपी के नेता पहले से यह तो जरूर है, कि मान रहे थे, की गलती तो हुई है कुछ, लेकिन मंत्री जी का संरक्षण भी कर रहे थे। अब सवाल महेंद्र भट्ट जी पर पैदा होता है। प्रेमचंद अग्रवाल जी ने तो इस्तीफा सौंप दिया है। अब महेंद्र भट्ट जी जवाब देंगे कि आपने इस्तीफा स्वीकार क्यों किया यदि उनकी बात को तोड़ मरोड़ कर सामने रखा गया था तो आप अपनी बात पर अडिग रहते और जनमानस का विश्वास जीतते और इसी पर चुनाव लड़ते।

सवाल बड़े हैं, जिसका जवाब बीजेपी के कुछ नेताओं को देना अभी बाकी है।।

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

तो ये हैं दिल्ली के नए मुख्यमंत्री | New CM Delhi | Delhi Election


दिल्ली में मुख्यमंत्री कौन होगा? यह सवाल अभी बना है, चर्चाएं अब भी जारी हैं। निश्चित रूप से बीजेपी इस चयन के माध्यम से पूरे देश में एक संदेश देने की कोशिश करेगी।

27 साल बाद बीजेपी दिल्ली में वापसी कर रही है। 70 विधानसभा सीटों में 48 पर भाजपा ने जीत हासिल की शेष 22 आम आदमी पार्टी को जीत मिली और कांग्रेस यथावत स्थिति पर रही। ऐसे में भाजपा संगठन में भी खुशी की लहर है। साथ ही दिल्ली की जनता के आशा और अपेक्षाएं बड़ी हैं। एक तो दिल्ली में बीजेपी की सरकार बनने जा रही है, दूसरी ओर मोदी जी की सरकार है, जनता की अपेक्षाओं पर खडा उतरने के लिए भाजपा संगठन की तरफ से एक योग्य और क्षमतावान व्यक्ति को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया जाना है, साथ ही ऐसे व्यक्ति का चयन करना है जिससे पूरे देश में एक संदेश जा सके।

दिल्ली के इस विधानसभा चुनाव में एक खास बात यह भी देखने को मिली कि भाजपा ने चुनाव के समय किसी चेहरे पर मोहर नहीं लगाई थी, बिना चेहरे के दिल्ली का चुनाव लड़ा और जीत भी गई। यही बात जब इंडिया गठबंधन के लिए पिछले लोकसभा चुनाव में उनके द्वारा इस तरह से लड़ा जा रहा था। जब उनसे पूछा जाता था, कि यदि गठबंधन जीता तो प्रधानमंत्री कौन होगा। क्योंकि इस संबंध में कोई संतोषजनक जवाब ना दे सके, तो हार के बाद इसे भी एक कारण माना गया। लेकिन बीजेपी ने यह बात सिद्ध कर दी कि हम बिना चेहरे के लड़ेंगे भी और जीतेंगे भी।


दिल्ली नेतृत्व के लिए भाजपा संगठन के सामने कई विकल्प बताए जा रहे हैं। अरविंद केजरीवाल जी को हराने वाले प्रवेश वर्मा जी, रेखा गुप्ता जी, पवन शर्मा जी, सतीश उपाध्याय जी, शिखा राय जी इन नाम की चर्चा सर्वाधिक है। हालांकि बीजेपी का एक पैटर्न रहा है, उत्तराखंड हो, राजस्थान हो, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ हो बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद के चयन में सभी राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाया है। यहां भी कुछ ऐसा हो सकता है। हालांकि बीजेपी के विकल्पों में महिलाओं के नाम भी शामिल हैं। निश्चित रूप से उन पर भी विश्वास जताया जा सकता है, महिला सम्मान की जो बात होती है। देश की जनता के सामने बीजेपी इस चयन से उस बात को प्रमाणित कर सकती है। साथ ही पिछड़ों और दलित को आगे लाकर नेतृत्व देकर देश में एक बड़ा संदेश जाएगा। देश के राजनीति में यह बड़ा सवाल है, राहुल गांधी जी ने भाजपा संगठन पर आरोप लगाया कि मोदी जी दलितों को प्रतिनिधित्व देने की बात तो करते हैं लेकिन उन्हें शक्ति से दूर रखते हैं। एक अच्छा मौका है, जहां बीजेपी इस तरह के सवालों का जवाब दे सकती है। हालांकि इस समय भाजपा संगठन की भीतरी बातों को समझ कर दिल्ली की जनता की अपेक्षा को देखते हुए संगठन के सदस्यों से वार्ता के बाद जिस किसी तरह बढ़ लेकिन उनके मस्तिष्क में यह बातें जरूर होंगी।।

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

कांग्रेस के कदम | Loksabha चुनाव 2024

कांग्रेस के कदम

राहुल गांधी से ही कांग्रेस पार्टी के हर स्तर पर चुनाव कर आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना की बात करते रहें हैं। यह परिवारवाद के उस बड़े सवाल का जिसे लगातार भारतीय जनता पार्टी द्वारा उठाया जाता रहा है, का परिणाम है। नागालैंड में प्रचार रैली में मोदी जी ने परिवारवाद के हवाले से पुनः कांग्रेस को घेरा। ऐसे में कांग्रेस इन सवालों के निदान में पूरा जोर लगा रही है।

कांग्रेस पार्टी के अहम निर्णय लेने वाली कार्यसमिति में सदस्यों की संख्या कुछ बढ़ाई गई। अब 30 सदस्य कार्यसमिति में होंगे। इसमें महिलाओं, एससी, एसटी, युवाओं आदि को आरक्षण भी दिया गया है। किंतु जब यह तय किया गया कि कांग्रेस पार्टी कि निर्णय लेने वाली अहम कार्यसमिति के सदस्यों का चुनाव नहीं होगा, बल्कि यह प्रस्ताव पारित किया गया कि मलिकार्जुन खरगे जी जो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, को यह अधिकार होगा कि वह सदस्यों को नामित करें, ऐसे में कांग्रेस पर लगने वाले परिवारवाद के सवालों के निवारण अभियान से जो वह आंतरिक हर स्तर पर चुनाव के माध्यम से दर्शाना चाहती थी, से पीछे हट गई। ऐसे में राहुल गांधी और गांधी परिवार का कोई सदस्य संचालन समिति की बैठक में शामिल नहीं हुआ, जहां कार्यसमिति के सदस्यों को नामित किया जाना था। मतलब साफ है, कि कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ताओं में यह दर्शना चाहती है, कि गांधी परिवार के हस्तक्षेप से इतर अब मलिकार्जुन खरगे जी ही कांग्रेस के सभी फैसले लेंगे।
कार्यसमिति के सदस्यों को चुनाव के माध्यम से नहीं चुने जाने का फैसला जितना विपरीत है, उतना ही यह न करने के पीछे दिया गया कारण एक तरह से सही भी है। कारण दिया गया, कि इस समय चुनाव से कांग्रेस में आंतरिक विभाजन हो जाएगा। कांग्रेस की अपनी वर्तमान परिस्थितियों के लिए यह फैसला ठीक हो सकता है। किंतु आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापना की कांग्रेस की पहल इस के कारण से पीछे हो गई है।
लोकतंत्र में चुनाव एक अहम प्रक्रिया है। इस से निर्मित व्यवस्था सर्वसम्मति की व्यवस्था मानी गई है।

दरअसल कांग्रेस पूर्व से ही अपने दिल के शासनकाल में उपजे घोटालों, भ्रष्टाचार, परिवारवाद, कुशासन जैसे आरोपों के घेरे में है। उसे इससे पार पाने के लिए बड़े प्रयासों की आवश्यकता है। इसमें भारत जोड़ो यात्रा बड़ा कदम है। जिसका उद्देश्य आम जनमानस तक पहुंच बनाना था।
संवाद ही लोकतंत्र में पार्टियों का मूल हथियार है। जिसका संवाद आम जनमानस से जितना बेहतर होगा वह पार्टी उतनी ऊंचाई हासिल कर लेगी। कांग्रेस ने यात्रा से यही करने का प्रयास किया है। इससे जरूर लाभ होगा। किंतु चुनाव में आगामी वर्ष कांग्रेस को कितना लाभ इससे मिलेगा यह देखने का विषय है। क्योंकि तर्क यह भी है, की यात्रा की भीड़ उत्साहित करने वाली हो सकती है, किंतु यह चुनावी रैलियों की भीड़ के जैसे भी हो सकती है, जिन्हें पार्टी के वोटर होना पक्का नहीं कहा जा सकता।।

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

रूस-यूक्रेन युद्ध का एक वर्ष पूर्ण | विशेष लेख

             रूस-यूक्रेन युद्ध

एक वर्ष हो चुका है। रूस और यूक्रेन के मध्य युद्ध जारी है। यह युद्ध पूरी दुनिया के लिए मुसीबत बना हुआ है। कोरोना से उभरने के बाद कुछ गति जो विकास कार्यों की ओर अपेक्षित थी रूस-यूक्रेन युद्ध ने उस गाड़ी का टायर पंचर कर दिया।
बात साफ है, वैश्वीकरण के युग में आप दुनिया के किसी राष्ट्र में हो रही हलचल से बिना प्रभावित हुए बचकर नहीं निकल सकते। हमारे देश में जो मांगे पैदा होती हैं, उनकी आपूर्ति के लिए विदेशों से आयात होता है, और विदेशों की आवश्यकता की आपूर्ति के लिए भारत उन्हें वस्तुएं निर्यात करता है। अतः हम संपूर्ण विश्व से परस्पर जुड़े हैं।
इस वर्ष भारत को जी-20 सम्मेलन की अध्यक्षता के संदर्भ में प्रधानमंत्री जी ने इसीलिए ही कहा, कि कोई तीसरी दुनिया नहीं है हम सब एक नाव पर सवार है।
यह कहने का तात्पर्य ही था कि हम सब की संपूर्ण दुनिया में तमाम राष्ट्रों की समस्याएं एक समान ही हैं। इसका प्रमाण दिया है, कोरोना महामारी ने और उसके बाद रूस-यूक्रेन युद्ध के समय दुनिया का हर राष्ट्र आज महंगाई, खाद्य संकट, ऊर्जा संकट आदि समस्याओं का सामना करने को मजबूर है। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के एक वर्ष होने के साथ अब तक शांति के कोई प्रयास साकार होते नहीं दिखते।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ में रूस-यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर भारत, चीन, पाकिस्तान के साथ लगभग 30 से अधिक देशों ने वोट नहीं दिए, और अपनी स्थिति को बरकरार रखा। इसका यही कारण रहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जो प्रस्ताव रखा गया, उसमें रूस के पक्ष में कोई बात नहीं थी, अर्थात रूस जिन कारणों से युद्ध में है, उन विषयों को प्रस्ताव में कोई स्थान नहीं दिया गया। ऐसे में यह प्रस्ताव रूस की सैनिक अभियान को निरर्थक साबित करता है। क्योंकि प्रस्ताव में रूस जिन कारणों से युद्ध में है, अथवा रूस की महत्वकांक्षी का स्थान नहीं है, इस कारण से इस प्रस्ताव को रूस और उसके समर्थक राष्ट्र स्वीकृति क्यों देंगे। वहीं भारत, चीन, पाकिस्तान आदि राष्ट्र इस पर वोटिंग ना करना ही ठीक समझते रहेंगें। इस प्रकार यह प्रस्ताव केवल एक प्रयास ही रह जाएगा।
भारत का पक्ष शांति स्थापित हो इसी और है। इसका प्रमाण है, जब मोदी जी ने रूसी राष्ट्रपति से कहा था, कि यह युद्ध का समय नहीं है। किंतु साथ ही भारत का अपने पारंपरिक मित्र से दोस्ती बनाए रखने का भी प्रश्न है। किंतु भारत की अंतरराष्ट्रीय मंचों पर निष्पक्षता और स्पष्टवादिता ने यूक्रेन को निराश नहीं किया है। भारत ने इसीलिए वोटिंग में प्रतिभाग नहीं किया। इससे यह तो साफ होता है, कि भारत रूस के सैनिक अभियान कि साथ नहीं है। किंतु वहीं भारत ने यूक्रेन के पक्ष में भी मत नहीं दिया है।
चीनी भी रूस के सैनिक अभियान पर कुछ नहीं कहा है। हां अमेरिका और यूरोपियन राष्ट्रों द्वारा यूक्रेन को हथियार उपलब्ध कराए जाने की निंदा की और इसी को यूक्रेन में युद्ध जारी रहने का कारण बताया।

अमेरिका ने हाल ही में यूक्रेन को 2 अरब डॉलर के हथियार उपलब्ध करवाने की घोषणा की है। इस प्रकार के निरंतर समर्थन के चलते यूक्रेन युद्ध के मोर्चे से पीछे नहीं हटने वाला है, और सामने रूस अपने दृढ़ हठ पर अड़ा है।
रूस-यूक्रेन युद्ध के एक वर्ष हो जाने पर दुनिया के अनेक देशों ने रूस के सैनिक अभियान के विरोध में प्रदर्शन किए। जर्मनी में एक खूनी रंग का केक बनाकर उस पर मानव खोपड़ी रखकर प्रदर्शन किया गया। रूसी दूतावास के सामने एक जर्जर टैंक को रखा गया, और रूस की दुनिया में कमजोर स्थिति को दर्शाया गया।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने भी यूक्रेन में हुए हमलों से गई जानों के लिए 2 मिनट का मौन धारण किया। ब्रिटेन के सम्राट जेम्स तृतीय ने भी अपनी संवेदना प्रकट की। अन्य कई और स्थानों पर भी प्रदर्शन की खबरें रही।।

शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

राजपरिवारों की कन्याओं के विवाह | विशेष लेख


प्राचीन समय से ही राज परिवारों ने और शासकों ने अपनी कन्याओं के विवाह से अपने साम्राज्य को स्थापित करने की नीति का अनुसरण किया। कन्या को श्रेष्ठ पक्ष को सौंपकर विवाह संबंध स्थापना से उन्हें राजनीतिक लाभ प्राप्त हुए।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हर्यक वंश का शासक बिम्बिसार ने विवाह नीति का अनुसरण किया। उसकी तीन रानियां थी।
पहली महाकौशल देवी जो कौशल प्रदेश की राजकुमारी थी, और प्रसनजीत जो अति प्रसिद्ध राजा हुआ, कि बहन थी। से विवाह किया और उसे दहेज में काशी प्राप्त हुआ।
उसकी दूसरी रानी लिच्छवी शासक चेटक की बहन थी। इन्हीं से बिंबिसार का पुत्र अजातशत्रु का जन्म हुआ। लिच्छवी बेहद मजबूत गणराज्य हुआ करता था। और इससे बिंबिसार को अवश्य बल और राजनीतिक वर्चस्व हासिल हुआ होगा।
उसकी तीसरी रानी मद्र की राजकुमारी क्षेमा थी।

आज से 2300 साल पहले जब चंद्रगुप्त मौर्य ने 305 ईसा पूर्व में सेल्युकस को परास्त किया, तो उसने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य से किया। और भी संधि के अनुसार कार्य किए गए। किंतु यह भी राजनीतिक क्रियाकलाप के फल स्वरुप ही हो सका। अतः यह विवाह भी राजनीतिक रूप से प्रेरित था।

भारत ही नहीं विदेशों में भी यह चलन रहा। जुलियस सीजर की कथा में और अन्य कई चलचित्रों में भी दिखाया जाता है, कि राज परिवार किस प्रकार अपनी पुत्री धन का प्रयोग अपनी सत्ता को कायम रखने या और ऊंचा उठाने में करते रहे थे। जुलियस सीजर को ही दिखाया गया है, कि वह कैसे अपनी पुत्री का विवाह अपनी ही उम्र के अपने मित्र से कर देता है। बदले में वह अपने मित्र से सेना की टुकड़ी हासिल कर लेता है, फिर अपनी विजय यात्रा के लिए निकल पड़ता है, जिससे वह रोम में अथाह प्रसिद्धि हासिल करता है, और रोम के लोगों के लिए अत्यधिक धन लूट कर लाता है। यह सब इसलिए कि वह अपनी पुत्री का अपने मित्र से विवाह कर देता है। और बदले में सैनिक टुकड़ी पाता है।

गुप्त काल में चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छिवियों की राजकुमारी से विवाह कर दिया। जिसका नाम कुमारदेवी था। लिच्छवी गणराज्य की शक्ति पर ही वह अपना गुप्त साम्राज्य स्थापित कर पाता है, यह वर्णन आता है।

आधुनिक भारत के इतिहास में पुर्तगाली गवर्नर अलबुकर्क ने विवाह संबंध नीति को प्रयोग कर अपने साम्राज्य को स्थापित करने का प्रयास किया। क्योंकि भारत में हिंदू धर्म में विधवा औरतों का विवाह वर्जित था, उसने उन्हें अपने पुर्तगाली ईसाइयों से विवाह कर लेने को कहा, और पुर्तगाली बस्ती स्थापित करने का प्रयास करता रहा।

शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

भारत में समाजवाद | कांग्रेस vs भाजपा

भारत में समाजवाद

समाजवाद किसी भी राष्ट्र का अपने नागरिकों के लिए अंतिम लक्ष्य है। जिसका तात्पर्य नागरिकों में समानता लाने से है। समाजवाद को आप इस आलेख [ समाजवाद का विचार और पूंजीवादी | मार्क्सवाद में समझ सकते हैं।

मोटे तौर पर समाजवाद वंचितों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने का सिद्धांत है। भारत में समाजवाद की दिशा में कई कार्य आजादी के बाद से ही आरंभ किए गए जैसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण, जमींदार प्रथा के अंत के लिए कानून, भूमि सुधार कानून जिसमें जो जमीन के बड़े भाग जमीदारों ने अपने कब्जे में किए थे। वह बड़ी जमीन के भाग उनकी संपत्ति हो गई थी, जिसके चलते जो अन्य लोग थे, वे जमीदारों के यहां केवल मजदूर के रूप में कार्य करते थे और इससे बेगारी, मजदूरी और भीषण गरीबी, असमानता और अन्याय की संभावना बनी रहती थी। 

आजादी के बाद सबसे पहले यही कार्य किया गया। उन जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों में बांट दी गई, और जमीदारी प्रथा का भी अंत कर दिया गया। यह समाजवादी विचार के अंतर्गत किया गया कार्य है। जहां संसाधन को समाज के हर व्यक्ति में बराबर बांट दिया गया और जमीदार वर्ग की इतिहास में उस बड़े जमीन के भाग को हासिल करने के लिए की गई मेहनत मशक्कत को महत्व नहीं दिया गया तथा संसाधनों का समाजीकरण कर दिया गया।

यह कदम सरकार के समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हैं, ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि समाज में सभी तबके के लोग गरीब, अमीर, मध्यम के लिए एक सरकार जो सबकी है, स्थापित है। वह सरकार कृषि की सारी जमीन को जो जमीदार के एकाधिकार में थी, उसे छीन लेती है और किसानों में बराबर बांट देती हैं, यह समाजवाद है। 

 समाजवादी विचार का मुख्य उद्देश्य यह भी है, कि राज्य के संपूर्ण संसाधनों पर या तो सीधे जनता का नियंत्रण हो, या राज्य की सरकार का, किंतु पूंजीवाद का पूर्ण विरोध किया गया है।

कांग्रेस के शासन से ही भारत में समाजवाद के साथ-साथ पूंजीवाद भी पनपता रहा है। निजी क्षेत्रों में पूंजीपतियों ने बड़े-बड़े व्यापार को स्थापित किया है। इसलिए भारत के समाजवाद को विशिष्ट स्वरूप का कहा गया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण की समाजवाद को पूंजीवाद के विपरीत देखा गया है।

  हो सकता है, कि कांग्रेस का अधिक झुकाव था, कि देश की तमाम संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया जाए और पूजीपतियों को हावी ना होने दिया जाए। अथवा सरकार संस्थाओं को अपने हाथ में रखे, और तब जनता को एक समान रूप से उसका लाभ मिलता रहे, एक समान नीतियों के अंतर्गत जो कि सरकार तय करेगी। और इसलिए कांग्रेस की ओर से भाजपा की वर्तमान सरकार पर लगातार आरोप लगाए जाते हैं, कि भाजपा ने देश में तमाम सरकारी संस्थाओं का जैसे रेलवे, संचार, एयर सर्विस आदि का प्राइवेटाइजेशन कर दिया है। अथवा प्राइवेट व्यापारियों को सौंप दिया है और यह निजीकरण है क्योंकि संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण या सरकारीकरण की अपेक्षा संस्थाओं का प्राइवेटाइजेशन और पूंजीवाद अधिक बढ़ता दिख रहा है। जिससे समाजवादी विचार को खतरा है।

यह सत्य है, कि पूंजीवाद में खतरा होता है, कहीं पूजीपतियों का एकाधिकार ना हो जाए और वे मनमानी करने लगेंगे। लेकिन पूंजीवाद आजादी के बाद से कांग्रेस के काल में भी पनपता रहा है क्योंकि कांग्रेस सरकार भी पूंजीवाद के महत्व को समझती थी। और विश्वास करती थी कि समाजवाद कि यूरोपीय सिद्धांत के साथ चलकर पूंजीवाद को पूर्णता समाप्त करने के बजाए पूंजीपतियों और सरकार के सामन्जस्य से तीव्र विकास के चलते समाजवाद को अधिक तीव्रता से हासिल किया जा सकता है।

आप इसे ऐसे समझे की निजीकरण ने एक प्रकार से समाजवाद की ओर भी प्रयास किया है। हमें स्वीकार करना होगा, कि निजी व्यापार में कार्य सरकारी व्यवस्था की अपेक्षा अधिक तीव्रता से होता है। इससे यदि किसी पूंजीपति व्यापारी ने जो संचार के क्षेत्र में कंपनी का मालिक है, ने सरकारी संचार की कंपनियों की अपेक्षा अधिक तीव्रता से और देश के दूरस्थ क्षेत्रों को संचार से जोड़ पाने में सफलता हासिल की है। जहां सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत संचार सेवा आज तक पहुंच ही नहीं सकी थी। क्योंकि पूंजीपति ने बाजार में प्रतिस्पर्धा के चलते अधिक मेहनत से कार्य किया और दूर-दूर तक संचार व्यवस्था स्थापित की यह भी समाजवाद की दिशा में एक कदम है। जहां शहर के लोग जो संचार तथा इंटरनेट की सुविधा का उपभोग करते हैं, लेकिन दूर विषम परिस्थितियों युक्त गांव के लोग इस सुविधा का उपभोग नहीं कर सकते। सरकारी व्यवस्थाओं के अंतर्गत अब तक उन गांव में संचार व्यवस्था नहीं पहुंच सकी थी। अब वहां संचार व्यवस्था की सुविधा है, इस वजह से गांव और दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले लोग और शहरों में रहने वाले लोगों को संचार के मामले में समान सुविधा मिल रही है। अर्थात समानता आई है, और समानता लाने का विचार ही समाजवाद है। इस प्रसंग में समाजवाद पूंजीपतियों के द्वारा लाया गया, इसलिए यह कहा जा सकता है, की सरकार पूंजीपतियों के सहयोग से विकास के कार्यो को तो तीव्र कर ही सकती है, साथ ही समाजवाद की दिशा में भी आगे बढ़ सकती है।

यह मानना होगा, कि पूंजीपतियों के हाथ में विकास की गति तीव्र हो जाती है। बजाय सरकारी व्यवस्थाओं में हो रही विकास की गति से। इसीलिए आज युवाओं से स्टार्टअप और अपने इनिशिएटिव को आगे बढ़ाने के लिए जागरूक किया जा रहा है।

 किंतु साथ ही सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए, कि पूंजीपतियों की मनमानी आरम्भ ना हो जाए, और ख्याल रखना होगा, कि कहीं समाज में ऐसा भी वर्ग हो जिसका जीवन स्तर इतना निम्न है। तथा आय इतनी कम है, कि वह किसी भी सेवा का लाभ नहीं उठा पा रहा है।।

पूंजीवाद के चरम पर होने के नुकसान हम अगले आलेख में देखेंगे….

साम्यवाद का विचार | मार्क्सवाद


समाजवाद की चरमता साम्यवाद है। या ऐसा कह सकते हैं, कि समाजवाद के विचार को जब अधिक विकसित किया गया तो साम्यवाद विचार का जन्म हुआ, और जो कि मार्क्सवाद है। जब समाजवादी विचार लोकप्रिय होने लगा तो इस विचार को चरमता तक पहुंचाने के लिए साम्यवादी विचार का जन्म हुआ।

 यदि ऐसा कहा जाए, कि जहां समाजवाद में समाज में संसाधनों को सभी में समान रूप से वितरण की बात की गई है, और व्यक्तिवाद का विरोध किया गया है। तो साम्यवाद कुछ अन्य मूल्यों को समाज के लोगों के लिए होने की पैरवी करता है। हालांकि साम्यवाद भी समाजवाद की भांति पूर्ण तो परिभाषित नहीं किया जा सकता। जैसे समाजवाद को पूंजीवाद के स्वरूप और परिस्थितियों के अनुरूप अलग-अलग प्रकार का हो सकता है और अलग-अलग ढंग से परिभाषित और प्रयोग किया गया है। 

मार्क्स तथा एंगेल्स  द्वारा साम्यवाद विचार को जन्म दिया गया। “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र” जिसे वैज्ञानिक कम्यूनिज्म का मूल कहा जाता है। इसी में मार्क्सवाद और साम्यवाद के विचार की विवेचना की गई है। इसे कॉल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने तैयार किया था।

जहां समाजवाद व्यक्तिवाद का विरोध संसाधनों का समाज में समान वितरण की पैरवी करता है। वही साम्यवाद लोगों के लिए कुछ अन्य मूल्यों की प्राप्ति का भी सिद्धांत रखता है। जैसे स्वतंत्रता और समानता के सामाजिक राजनीतिक आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। न्याय सबको प्राप्त हो, समाज वर्ग विहीन होगा केवल मानवता एकमात्र जाति हो। इसीलिए साम्यवाद समाजवाद की चरम अवस्था को व्यक्त करता है।

जहां समाजवाद में व्यक्ति के कर्तव्य व अधिकार का वितरण~>

“प्रत्येक को अपनी क्षमता अनुसार और प्रत्येक को अपनी कार्य के अनुसार” 

वहीं साम्यवाद में~>

“प्रत्येक को अपनी क्षमता अनुसार और प्रत्येक को आवश्यकतानुसार” सिद्धांत को लागू किया जाता है।

साम्यवाद के सिद्धांत निजी संपत्ति होने को पूर्ण विरोध व संपत्ति की समाप्ति की पैरवी करता है। भारत में समाजवाद का स्वरूप इस समाजवाद और साम्यवाद से अलग है, जिसमें पूंजीवाद या निजीवाद को पूर्ण निषेध किया गया है। भारत के समाजवाद को जो समाजवाद का विशेष स्वरुप है, लोकतांत्रिक समाजवाद कहा जाता है।।

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

जूलियस सीज़र | प्रकरण 2 | पोम्पी और सीजर में दूरी

जूलियस सीज़र

रोम की राजनीति में तीन बातें उस समय तक, जिसमें एक राज परिवार की औरतों द्वारा पुरुषों पर वर्चस्व रखना, या पीछे से शासन में हस्तक्षेप रखना, और कहीं तो राज परिवार में औरत ही राजनीति में मुख्य भूमिका में होती थीं। वही दूसरा, की राज परिवार अपने पुत्र पुत्रियों का प्रयोग अपनी राजनीति जमाने में भी करते थे। अपनी पुत्री का विवाह किसी व्यक्ति से कर जो वर्चस्व शाली प्रतीत होता है। या राजनीति में जो स्थान मजबूत रखता है। और तीसरी बात, अहम अंधविश्वास और जादू टोना तथा बलि देकर अपनी कामना के लिए अपनी देवी से प्रार्थना करना। आगे हम जानेंगे कैसे ब्रूटस जब मारा जाता है, तब उसकी मां शाप देते हुए अपनी आत्महत्या कर देती है।

उधर पोम्पी मैग्नेस और जूलियस सीज़र में दूरियां बढ़ रही हैं। पिछले प्रकरण में हमने जान लिया था, कि पोम्पी मैग्नेस जो रोम में शांति बनाए रखे है, लगभग 8 वर्षों से जिन वर्षों में जूलियस सीज़र यूरोप के तमाम देशों में अपनी सेना के साथ विजय का पताका फहरा रहा था। दरअसल इस विजय अभियान का अहम कारण 390 ईसा पूर्व में गॉल द्वारा रोम शहर पर हुए आक्रमण और उसे लूट लेने से जन्मा था। इस अपमान का बदला लेने गॉल पर रोम ने आक्रमण किया।

  गॉल शब्द रोमन का ही उस क्षेत्र को दिया गया था। वर्तमान में इस क्षेत्र में फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमबर्ग और नीदरलैंड का कुछ भाग, स्विट्जरलैंड, जर्मनी का कुछ भाग और इटली का वर्तमान का कुछ भाग इसमें आता था।

पोम्पी मेग्नस को यह मालूम था, कि सीजर बहुत धनवान हो चुका है। और शक्तिशाली भी उसके पास अनेक सैनिक हैं। और कई शत्रु देशों के पकड़े सैनिक, औरत, बच्चे सभी दासो के रूप में रोम के बाजारों में बेचे जाते थे। वही रोम की जनता जब जुलियस सीजर के विजय की खबर सुनती, तो वह अपने विजेता प्रतिनिधि जुलियस सीजर को शक्तिशाली और अपने अपमान का बदला लेने वाला मानती और अपना रक्षक मानने लगती है। जुलियस सीजर रोम की जनता में भी अपने विजय अभियान की सफलता की वजह से अधिक लोकप्रिय होता जाता है। वही जब सैनिकों की कोई टुकड़ी युद्ध क्षेत्र से रोम लौटती तो वह बहुमूल्य वस्तुएं, धातुएं अपने साथ लाते। लूटा हुआ खजाना लोगों में गलियों में से वे बांटते हुए निकलते। सिक्कों की बौछारें की जाती, और रोम में उन्हें हीरो की तरह देखा जाता। एक सैनिक बेड़ा भी इतना धनवान होकर लौटता की पोम्पी मैग्नेस को उनकी शक्ति अपने पद और समृद्धि से अधिक लगने लगी। किंतु उसे जो रोके हुए था। वह जुलियस सीजर की दोस्ती। किंतु यह अधिक समय तक उसे रोक न सकी, क्योंकि सीनेट में कई सदस्य जो अब अनुमान लगा रहे थे, कि जूलियस सीज़र अपने आप को तानाशाह घोषित कर देगा, और गणतंत्र को समाप्त कर देगा। वह पोम्पी मैग्नेस को गणतंत्र की रक्षा के लिए नेतृत्व करने को उकसाते हैं। और वे इसमें सफल भी हो जाते हैं।

अब दो नाम, जिस प्रकार मार्क एंटोनी जुलियस सीजर का करीबी व्यक्ति था, और विश्वसनीय भी था। वह जुलियस सीजर की हत्या होने तक सीजर के ही पक्ष में रहा। वही ब्रूटस जो एक सैद्धांतिक व्यक्ति है, और वह काफी जवान लड़का है। जो गणतंत्र का पक्षधर है। और उसी अनुमान में है, कि जुलियस सीजर गणतंत्र को समाप्त कर देगा। और अपने आप को तानाशाह घोषित करेगा। इसलिए वह पोम्पी मेग्नेस की गणतंत्र की रक्षक सेना का अंग बनता है। वह स्वयं भी राज परिवार से है।

सोमवार, 26 सितंबर 2022

जुलियस सीजर | रोमन साम्राज्य | प्रकरण- 1

जुलियस सीजर- रोमन साम्राज्य



दो नाम आप बिल्कुल कंठस्थ कर लें जुलियस सीजर और ऑक्टेविन। एक जो जिससे हम आरंभ करेंगे और दूसरा जिस तक हम पहुंचेंगे। जुलियस सीजर एक गंभीर स्वभाव का आदमी है। बड़ी सैनिक नेतृत्व की क्षमता रखने वाला और अपनी सैनिक कुशलता के कारण ही सैनिकों का उस पर विश्वास भी अटूट है। वहां रोम में उसका मित्र पोम्पी मैग्नेस, जुलियस सीजर की ही तरह खूब लोकप्रिय और रोम सीनेट में ऊंचा स्थान रखता है। सीनेट का तात्पर्य संसद से है। वह एक गणराज्य था, रोमन गणराज्य।

 यह वह समय था, कि रोम यूरोप के तमाम इलाकों को जीतता जा रहा था। वहीं कुछ अफ्रीका के भागों पर भी वह अपना वर्चस्व हासिल करने में सफल रहा। किंतु वह स्वयं रोम पर शासन न कर सका। वहां बड़ी अव्यवस्था और राजनीतिक अस्थिरता ने जन्म लिया। ऑक्टेविन वह है जो यह सब देख रहा है और समझ रहा है।

जुलियस सीजर और पोम्पी मैग्नेस जो साथ थे तो गणतंत्र में स्थिरता थी, किंतु यह भी था, कि संसद की प्रक्रिया जिसे पोम्पी मैग्नेस संभाल रहा था। उसी समय सैनिक कार्यवाही कर यूरोप के बड़े भाग पर विजय का पताका लहराने जुलियस सीजर के नेतृत्व में सेना लड़ रही थी। शक्ति का यही विभाजन जुलियस सीजर और पोम्पी मैग्नेस के मध्य बड़ी दूरी ला देता है। क्योंकि सेना जिस पर जुलियस सीजर अपना पूरा नियंत्रण रखे है, वहीं सीनेट अथवा संसद के तमाम प्रतिनिधियों में अधिक प्रभावशाली और अधिक प्रतिनिधियों का पोम्पी मैग्नेस को समर्थन था। हालांकि सीनेट के तमाम प्रतिनिधि सीधे रुप में जूलियस सीजर का विरोध नहीं करते, क्योंकि वह जुलियस सीजर का सामर्थ्य समझते हैं। वही पोम्पी मैग्नेस भी जब तक कि सीजर रोम से बाहर युद्ध क्षेत्र में था, लंबे समय तक सीनेट के प्रतिनिधियों का अथवा अप्रत्यक्ष ढंग से जनता का विश्वास सीजर पर बनाए रखने का प्रयास करता है। क्योंकि वह सीजर का गहरा मित्र है। लेकिन फिर भी सीजर और पोम्पी मैग्नेस के मध्य खाई बनती गई। जिन वर्षों में सीजर यूरोप के तमाम इलाकों पर विजय पा रहा था, वह सेना का नेतृत्व कर रहा था। तब रोम में शांति व्यवस्था पोम्पी मैग्नेस ही बनाए रखा था। लेकिन दो अलग-अलग कार्यो ने इन दो समान रूप से लोकप्रिय व्यक्तियों की समृद्धि और शक्तियों में अंतर पैदा कर दिया। और यहीं से रोम में राजनीतिक अस्थिरता का बीज पड़ गया।

दरअसल पोम्पी मैग्नस है भी एक बूढा व्यक्ति। वहीं जुलियस सीजर की उम्र अपेक्षाकृत कम है, बहुत अधिक जवान तो नहीं, किंतु बूढ़ा भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन 50 के करीब ही होगा। रोम की राजनीतिक अस्थिरता, ओक्टेविन का मार्ग प्रशस्त होना, शानदार और रोचक सफर है।  यह राजनीति के वे पृष्ठ हैं, जिनमें लिखी बातों को, हर घटना को पढ़ने के साथ समझते जाना होगा, जैसे एक गाय घास चरने के बाद पाचन के लिए जुगाली करती रहती है।।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

संविधान के अनुसार राष्ट्रपति की स्थिति भारत की संसदीय व्यवस्था में नाममात्र के कार्यपालिका प्रधान की है। कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान प्रधानमंत्री होता है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है, की राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है। किंतु कार्यकारी नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, किंतु उस पर शासन नहीं करता। राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है। जबकि प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है।
राष्ट्रपति की शक्तियों के संदर्भ में अनुच्छेद 53 और अनुच्छेद 74 जो इस प्रकार हैं-
अनुच्छेद 53 के अनुरूप “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। वह इसका प्रयोग स्वयं व अपने अधीनस्थ अधिकारियों के सहयोग से करेगा”

यहां  प्रयुक्त “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी” का तात्पर्य राष्ट्रपति के संघ की कार्यपालिका की औपचारिक रूप से प्रधानता से है।

अनुच्छेद 74 के अनुरूप- “राष्ट्रपति की सलाह व सहायता के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद होगी और वह अपने कार्य व कर्तव्य का उनकी सलाह पर निर्वहन करेगा”
इस अनुच्छेद के अंतर्गत दर्शाई गई प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद ही राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित करते हैं।

संसद के द्वारा पारित कोई विधायक जब राष्ट्रपति के पास पहुंचता है, तो अनुच्छेद111 के अंतर्गत राष्ट्रपति को उस पर वीटो शक्ति प्राप्त होती है। किन्तु वास्तव में इस संदर्भ में भी राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से सलाह जरूर लेता है। ठीक इसी तरह अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति को प्राप्त क्षमादान की शक्ति के संदर्भ में भी व्यावहारिक तौर से राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह जरूर लेता है।

किंतु मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्ति के विषय में हम दो घटनाओं को देखेंगे।
1997 में जब राष्ट्रपति के० आर० नारायण ने मंत्रिमंडल के द्वारा दी गई सलाह कि उत्तर प्रदेश में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। तो राष्ट्रपति ने इस मामले को मंत्रिमंडल में पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया। जिसके बाद मंत्रिमंडल ने इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया, और उस समय की उत्तर प्रदेश में बी०जे०पी० शासित मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कि सरकार बच गई।


1998 में मंत्रिमंडल ने पुनः राष्ट्रपति के०आर० नारायण को बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की इस बार भी राष्ट्रपति ने मामले को मंत्रिमंडल की पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दिया। कुछ महीने पश्चात कैबिनेट ने पुनः यही सलाह राष्ट्रपति को दी। जिसके बाद 1999 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।

इन दोनों घटनाओं से आप राष्ट्रपति को मंत्री परिषद द्वारा दी जाने वाली सलाह के संदर्भ में राष्ट्रपति की पुनर्विचार के लिए मामले को वापस मंत्रिमंडल के पास भेजने की शक्ति से अवगत हुए हैं। ध्यान दें कि यह घटनाएं मंत्रीपरिषद् के द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सलाह के संदर्भ में है। यह संसद के द्वारा पारित किए गए विधेयक के संदर्भ में राष्ट्रपति की शक्तियों से अलग है।
[ नोट- राष्ट्रपति को संसद के द्वारा पारित किए गए विधेयक के संदर्भ में उस विधेयक को स्वीकृति कर कानून बनाने, उस विधेयक को रोककर रखने, पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के अधिकार प्राप्त हैं। जिन्हें वीटो शक्ति कहा जाता है ]

राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के द्वारा दी गई सलाह के संदर्भ में राष्ट्रपति जिस शक्ति से उस मामले को एक बार पुनर्विचार के लिए मंत्री परिषद को वापस भेजता है। यह शक्ति 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 और 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में दी गई है।

1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व की सरकार ने 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में कहा की राष्ट्रपति पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह बाध्यकारी होगी।
अर्थात राष्ट्रपति को मंत्री परिषद के द्वारा दी गई सलाह को मानना ही होगा। वह पुनर्विचार के लिए मंत्रिपरिषद को मामले को वापस नहीं भेज सकता।

1978 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद उसने 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में कहा कि राष्ट्रपति को अधिकार है, कि वह सामान्यतः अथवा अन्यथा मंत्रिमंडल को सलाह पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। हालांकि पुनर्विचार की बाद यदि मंत्रिमंडल वहीं सलाह राष्ट्रपति को पुनः देता है। तब राष्ट्रपति उस सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा।

रविवार, 19 सितंबर 2021

पंजाब के नए मुख्यमंत्री | चरणजीत सिंह चन्नी

 पंजाब ने मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी-

मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी

सुखविंदर सिंह रंधावा का नाम पंजाब मुख्यमंत्री पद को लेकर सबसे आगे था। उनके पश्चात अमृता सोनी के सी एम बनने को लेकर के इनकार ने सुनील जाखड़ और साथ ही नवजोत सिंह सिद्धू का नाम भी रेस में शामिल रहा। नवजोत सिंह सिद्धू को इस वक्त मुख्यमंत्री बना कर कांग्रेस हाईकमान नई मुसीबत गले नहीं लेना चाहती। चुनाव निकट है। जहां सुनील जाखड़ का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए आने लगा था, तब सिद्धू पक्षी नेता दल ने उनका विरोध दर्शाया।
अंत में आकर चरणजीत सिंह चन्नी नाम पंजाब के नए सीएम के पद को हासिल होगा। पंजाब कांग्रेस प्रभारी हरीश रावत जी ने ट्वीट कर यह जानकारी साझा की।

चरणजीत सिंह चन्नी-

पंजाब के नए सीएम चरणजीत सिंह चन्नी रूपनगर जिले के चमकौर साहिब विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक वर्तमान में है। वह पंजाब विधानसभा में 2015 से 16 तक विपक्ष के नेता के तौर पर प्रमुख रहे। वे दलित समाज के अंग है, और पंजाब में पहले मुख्यमंत्री होंगे जो दलित सिख हैं।

चरणजीत सिंह चन्नी जी के विषय में रोचक प्रसंग-

एक बेहद रोचक विवरण पंजाब के नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जी के विषय में है। 2018 में उनके विषय में एक वीडियो देखने में आया था। जिसमें कि वह लेक्चरर होने के लिए दो उम्मीदवारों के मध्य सिक्का उछालते दिखाए गए। इन तस्वीरों पर तब मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जी ने कहा था, कि यह सुझाव उन दो उम्मीदवारों का ही था, क्योंकि वे दोनों बराबर पर थे, इसलिए सिक्का उछाल कर तय करने पर मंजूरी बनी।
सीएम चरणजीत सिंह चन्नी जी के विषय में यह भी जानने को मिला कि ज्योतिष के मशवरे से उन्होंने एक अवैध सड़क का निर्माण भी करवा लिया था, यह पूरा मामला क्या रहा होगा, किंतु सरकार ने इस अवैध सड़क को समाप्त कर दिया। उन्होंने अपनी ज्योतिष की सलाह पर एक हाथी की सवारी अपने ही घर में की थी। यह कुछ रोचक तथ्य पंजाब के होने जा रहे नए मुख्यमंत्री श्री चरणजीत सिंह चन्नी जी के विषय में है।
एक समय पर उन पर आम आदमी पार्टी के नेता सुखपाल खैरा जी ने अवैध खनन को लेकर आरोप लगाए थे। किंतु उन्होंने स्पष्ट करते हुए इसमें अपना कोई हाथ नहीं होना बताया था।
यह सब उनकी राजनीतिक जीवन और सामान्य जीवन संबंधी प्रसंग है। यह तो राजनेताओं का एक पहलू है।
58 वर्ष के चरणजीत सिंह चन्नी जी अब पंजाब के नए मुख्यमंत्री होंगें। और नवजोत सिंह सिद्धू जरूरी है, कि नई सरकार में मंत्री होंगे। उन्होंने अमरिंदर सरकार पर स्पष्ट आरोप लगाया था, कि 2017 चुनाव वादों को निभाने में विफल रही है। नए सीएम चरणजीत सिंह चन्नी को पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के विरोधियों में देखा जाता है। वे उन नेताओं में हैं, जिन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू को अध्यक्ष बनाया था।

Captain amrinder singh | राजनीतिक जीवन और उपलब्धियां

कैप्टन अमरिंदर सिंह जी-

पंजाब के हाल तक और इस्तीफा सौंप चुके मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह जी का 52 वर्ष का राजनीतिक जीवन हो चुका है। वह 9 वर्ष तक पंजाब के मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके हैं। उनका जन्म 1942 में हुआ था। वह राष्ट्रीय डिफेंस अकादमी और भारतीय सैन्य अकादमी से स्नातक के बाद भारतीय सेना में सेवा दे चुके हैं। 1963 से 1966 तक वे भारतीय सेना में सेवारत रहे। 1965 की इंडो पाक युद्ध में भी वे भारतीय सेना का हिस्सा थे।

राजनीतिक जीवन-

वे स्कूल समय से ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी के अच्छे मित्र रहे, और राजनीति में प्रवेश इसी मित्रता के साथ हो गया। कांग्रेस पार्टी से उनका परिचय राजीव गांधी जी के द्वारा ही हुआ। वे 1980 में पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए। किंतु ऑपरेशन ब्लू स्टार के विषय में उन्होंने 1984 में संसद को इस्तीफा दे दिया, तथा कांग्रेस छोड़ दी, उन्होंने शिरोमणि अकाली दल में शामिल होना स्वीकार किया, और राज्य विधानमंडल में तलवंडी सबो से चुने गए। वे राज्य सरकार में कृषि तथा वन मंत्री भी रहे।
अमरिंदर सिंह जी ने सन 1992 में पार्टी अकाली दल से अपने आप को हटा लिया, और एक नई पार्टी शिरोमणि अकाली दल (पंथिक) नाम से गठित की। यह पार्टी 1998 में कांग्रेस में विलय हो गई। वे लंबे समय तक पंजाब कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे, वे तीन बार 1999 से 2002,   2010 से 2013,   2015 से 2017 तक कांग्रेस प्रदेश कमेटी के अध्यक्ष रहे, वे 2002 से 2007 तक पंजाब मुख्यमंत्री पद पर भी आसीन रहे।
कैप्टन अमरिंदर सिंह जी ने 2014 आम चुनाव में वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण जेटली जी को एक लाख से अधिक वोटों से करारी हार दी थी। वह पटियाला तथा तलवंडी साबो की सीटों से सम्मिलित रूप से 5 बार पंजाब विधानसभा के सदस्य रह चुके हैं।

कैप्टन अमरिंदर सिंह जी को 2014 में 2017 के चुनाव को लेकर पंजाब राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था, और 2017 में कांग्रेस पार्टी को राज्य विधानसभा का चुनाव जीत लेने के बाद पंजाब राजभवन चंडीगढ़ में पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें शपथ दिलाई गई।
18 सितंबर 2021 को पार्टी द्वारा अपमानित होने का कारण देकर कैप्टन अमरिंदर सिंह जी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है।

अमरिंदर सिंह जी द्वारा लिखी किताबें-

कैप्टन अमरिंदर सिंह जी ने अपने जीवन के अनुभव तथा संस्मरण को अपनी लिखी किताबों के माध्यम से सार्वजनिक किया है। उनकी लिखी किताब लेस्ट वी फॉरगेट, द लास्ट सनसेट: राइज एंड फॉल ऑफ लाहौर दरबार और द सिख इन ब्रिटेन,

इंडियाज मिलिट्री कंट्रीब्यूशन टू द ग्रेट वॉर ऑफ 1914 से 1918,
द मानसून वॉर: यंग ऑफिसर्स रिमिनीस:1965 भारत पाक युद्ध।

लेखक खुशवंत जी ने एक पुस्तक जो कि एक जीवनी है सार्वजनिक की है, जिसका नाम कैप्टन अमरिंदर सिंह: द पिपुल्स महाराजा इन 2017

पंजाब मुख्यमंत्री का इस्तीफा | कैप्टन अमरिंदर सिंह का सिद्धू को लेकर बयान

 कैप्टन अमरिंदर सिंह जी का इस्तीफा-

 नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के मध्य कि रार चुनाव से कुछ ही समय पहले रंग दिखा गई, और साफ कर गई की आखिर यह रार कितनी गहरी थी। कांग्रेस हाईकमान हमेशा से बचाव में लगी रही वह कई मुलाकात पूर्व में पंजाब में पार्टी की गुटबाजी के लिए कर चुके, कभी नवजोत सिंह सिद्धू की राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा से मुलाकात हो, या कैप्टन अमरिंदर सिंह जी की पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी से मुलाकात हो, किंतु हर कोशिश नाकाम रही और मुख्यमंत्री पद का इस्तीफा आखिर पंजाब के राजनैतिक रार का फल हुआ।

कांग्रेस हाईकमान का ही फैसला होगा, कि आखिर मुख्यमंत्री पद को कौन पंजाब में होगा, यह कैप्टन का कहना है। किंतु उन्होंने साफ बोल में नवजोत सिंह सिद्धू को अयोग्य बताया है। उन्होंने कहा है, कि सिद्धू पाकिस्तान परस्त हैं, वह इमरान और भाजपा के साथ हैं, यदि वह मुख्यमंत्री बनता है, तो यह देश हित में नहीं है, वह इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

दूसरी ओर उन्होंने यह भी कहा कि सिद्धू का यह सब करना उसकी मुख्यमंत्री पद की आकांक्षा ही है। अब कांग्रेस हाईकमान इन सब हालातों में कैसे राज्य में स्थायित्व ला सकेगी। कैप्टन अमरिंदर सिंह के बयान जो सिद्धू को पूर्णता कटघरे में खड़ा करते हैं, कांग्रेस को सिद्धू को मुख्यमंत्री पद के लिए घोषित करने से पूर्व जरूर गहरा सोचने को मजबूर करेगी। वहीं यदि सिद्धू मुख्यमंत्री होते हैं, तो यह भी तकरीबन तय  है, कि कैप्टन पार्टी को छोड़ दें। वे पहले से ही स्वयं को पार्टी से अपमानित समझते हैं। जब उनसे पूछा गया कि आगे क्या कदम होगा, तो उनका जवाब था कि वे अपने साथी नेताओं से विषय पर वार्ता करेंगे तब अंतिम फैसले पर पहुंचेंगे।

यह भी तय है, कि कैप्टन और सिद्धू को एक ही पार्टी में रहना है, तो इसका मतलब है, कि सिद्धू का मुख्यमंत्री ना बनना। क्योंकि कैप्टन को यह स्वीकार ही नहीं कि सिद्धू मुख्यमंत्री बने, यदि कैप्टन अमरिंदर सिंह के बयानों के बावजूद भी कांग्रेस हाईकमान सिद्धू को मुख्यमंत्री पद सौंपती है, तो कांग्रेस पार्टी को कैप्टन अमरिंदर सिंह के विरोध में जाने का खामियाजा पंजाब में भुगतना होगा। यह कैप्टन अमरिंदर सिंह जी की पार्टी छोड़ना भी हो सकता है। और सीधा-सीधा इसका फायदा पंजाब में आम आदमी पार्टी और भाजपा को होने वाला है।

यह तो स्पष्ट है, की कैप्टन के बयानों ने सिद्धू कि पंजाब में मुख्यमंत्री पद प्राप्ति की राह को बेहद कठिन कर दिया है।

शनिवार, 18 सितंबर 2021

उत्तराखंड में भाजपा की उभरती समस्याएं

भाजपा की उभरती समस्याएं-

पार्टी का नेतृत्व खेमा बड़ा होने से अब भाजपा की उत्तराखंड में चुनौती भी बड़ी है, कि वे सभी बागी हुए तथा योग्य, बुजुर्ग सभी नेताओं को मनोवांछित सीटों पर टिकट दे, जीत हो तो मंत्रिमंडल में जगह दे, मुख्यमंत्री का पद दें। वही भाजपा पार्टी के उत्तराखंड में पहले से ही दिग्गज नेता अपनी भक्ति, लंबे समय से पार्टी में होने के फल में अपने ही विचार को पार्टी का विचार मानने की मनः स्थिति में आ चुके हैं।
2016 में एक ओर पहले से ही कांग्रेस से बागी नेता अपनी मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी के लिए अधीर हुए हैं। भाजपा उन्हें भी अपनी पार्टी में ग्रहण कर पूर्णतः पकाने का काम कर रही हैं। किंतु वह बागी नेता तो राजनीति में अरसे से हैं, अतः अब इंतजार करना उन्हें लाजमी नहीं, और राजनीति में लंबे समय से होने के कारण अधिक अनुभव के कायदे से यूं तो उन्हें ही मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होना चाहिए, किंतु भाजपा के लिए तो वे इतने पुराने नहीं जितने कि वे राजनीति में पुराने हो चुके हैं।
खैर एक ओर जहां नेताओं का भाजपा का दामन थामना हो रहा है। वही सीट पर यह समस्या होगी, कि टिकट दे किन्हें।
पुरोला की ही सीट का हाल देखें कि विधायक राजकुमार मुख्यमंत्री, घोषणाओं के बदला बदली के दौर में खुद भी एक कदम और बदल लिए हैं, क्षेत्र में राजनीति का दायरा और तीव्रता कम नहीं होती है, इस पर विपक्षी व्यक्ति का अपनी ही पार्टी का विधायक हो जाना और उस समय पर जब चुनाव 2022 दरवाजे पर हैं, तब वर्तमान पुरोला विधायक राजकुमार जी का यह कदम पूर्व विधायक पुरोला मालचंद जी को भविष्य में भाजपा का पुरोला सीट पर टिकट को लेकर समीकरण स्पष्ट दिख रहे हैं। और यही कारण है कि वह इस विषय पर बोले।
दरअसल पुरोला क्षेत्र में चर्चाएं यह भी होने लगी कि विधायक मालचंद जी कांग्रेस में शामिल होंगे, किंतु विधायक मालचंद जी ने यह तथ्य पूर्णता असत्य दर्शाए। उनका यह भी कहना है, कि पुरोला सीट पर 2022 भाजपा से टिकट उन्हें ही मिलने वाला है। उन्होंने यह भी कहा कि वह भाजपा पार्टी के एजेंडे पर सदैव से कार्य करने को नियत रहे हैं। जबकि कुछ लोगों ने भाजपा पार्टी को छोड़ दिया था। अतः स्पष्ट है, कि पुरोला सीट पर भाजपा के लिए टिकट को लेकर समस्या जरूर है, और उम्मीदवारों में से किसी का टिकट ही प्राप्त करना अपने आप में एक बड़ी जीत है।
टिकट वितरण में संतोष असंतोष और अपनी ही पार्टी के सदस्य का आकर विरोधी हो जाना राजनीति का पहलू है, और हो भी क्यों नहीं 5 साल में एक बार तो यह पर्व होता है, और 5 वर्षों तक अपने आप को साधना में रखें उम्मीदवार को टिकट हाथ ना लगे, तो वह स्पष्टतः निराश ही होगा।
2016 से कांग्रेस से बागी नेताओं की मुख्यमंत्री पद की चाह अब तक भाजपा भी पूर्ण नहीं कर सकी है। अब वह किसी दिशा में दल बदलें। वे राज्य में शीर्षस्थ नेता रहे हैं। यदि अब दलों की दिशा बदलते हैं, तो दिशाहीन कहलाएंगे।
कुल मिलाकर राजनीति में बड़ा परिवार होने पर और एक ही सीट की इच्छा रखने वाले काबिल कई उम्मीदवार हो जाना पार्टी में असंतोष पैदा करता है। और पुरोला वर्तमान विधायक राजकुमार जी का भाजपा में शामिल होना तथा पुरोला के पूर्व विधायक मालचंद जी का इस पर बयान कि 2022 में पुरोला सीट से टिकट उन्हें ही मिलने वाला है, यह तय है कि कहीं ना कहीं टिकट वितरण एक खेमे में असंतोष जरूर पैदा करेगा।

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏