नमस्कार साथियों
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इस परिसर को देख मुझे जो ख्याल आता है। जैसे इतिहास के पृष्ठों में हम यूं तो भारत के प्राचीन सभी धर्म किंतु विशेषकर बौद्धों के संघाराम तात्पर्य बौद्ध मठों या मंदिरों से है, जहां बहुत से व्यक्तियों के ठहरने का प्रबंध होता था। जहां वे लगातार निर्बाध अध्ययन करते रहते थे। पूरे भारत में ऐसे कई संघाराम होते थे। जो बौद्ध भिक्षुओं को संरक्षण व बौद्ध धर्म को बढ़ावा देने के लिए होते थे। भगवान बुद्ध के बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद से और ईसा के जन्म के बाद जब तक मोटे तौर पर गुप्त वंश का साम्राज्य नहीं आया था। बौद्धों को खूब संरक्षण मिला। कन्नौज का राजा हर्षवर्धन भी बौद्धों का ही मुख्य संरक्षक था। लेकिन पुष्यमित्र शुंग का प्रण की वह बौद्धों बिग को समाप्त कर देगा। दूसरी सदी ईस्वी में बौद्धों के एक ग्रंथ में बताया गया है, कि पुष्यमित्र ने कैसे एक संघाराम कुक्कुटाराम जो पाटलिपुत्र में था, को नष्ट कर दिया।वहां बौद्धों को कैसे मार दिया। यह भी एक प्रसंग बताया गया है।
शांतिकुंज के परिसर में वैदिक ऋषियों के नाम पर और विद्वानों के नाम पर भवन बनाए गए हैं। और ध्येय वाक्यों और विद्धानों की कही बातों को जगह जगह पर उकेरा गया है।
शांतिकुंज -संस्कारशाला
संस्कारशाला से आगे बढ़ते हैं। संस्कारशाला नाम से जो धर्मशाला का भी एक बड़ा हॉल है। जहां बड़ी संख्या में लोग आप पाएंगे। इसी संस्कारशाला में लोगों के शादी विवाह के कार्यक्रम भी संपन्न होते हैं। बड़ी संख्या में जोड़ें यहां विवाह को वैदिक परंपरा विधि विधान से बड़े सामान्य ढंग से संपन्न करवाते हैं। पंडित, मंत्रों का उच्चारण मंच से ही करते हैं, और सामने बैठे कई जोड़े का विवाह एक साथ संपन्न होता है। यह विवाह वैदिक विधान से संपन्न करवाते हैं। यह धूमधाम से विवाह के लिए आपको जगह नहीं देते हैं।
चित्र में -शांतिकुंज में विवाह
वहां के पुरोहितों की यह निष्ठा ही है, कि वह जिस प्रकार विवाह के अर्थ को और विवाह के लिए हर विधि विधान जो वे कर रहे हैं। उनके संदर्भ में स्पष्ट करते हुए समझाते जाते हैं। पति-पत्नी के धर्म की व्याख्या करते हैं। विवाह के अर्थ को स्पष्ट करते हैं।
संस्कारशाला के इस दीवार पर आप लिखा पढ़ सकते हैं। कि || वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः || हम पुरोहित राष्ट्र को जागृत एवं जीवंत बनाए रखेंग
संस्कारशाला से आगे नचिकेता भवन जो एक बड़ी बिल्डिंग है। यहां भी बहुत से कपड़े बिल्डिंग के हर मंजिल में बाहर रेलिंग पर सूख रहे हैं। लगता है, यहां भी यात्री आदि या शांतिकुंज के विद्यार्थी, ब्राह्मण या स्वयंसेवी रहते होंगे। शायद कुछ लोग यहां के स्थाई रहने वाले भी हैं। वह भी इन भवनों में उपलब्ध कमरों में रहते होंगे। नचिकेता भवन के मुख्य द्वार पर ही नौ दिवसीय संजीवनी साधना सत्र की सूचना का भी एक बोर्ड लगा है। तात्पर्य है, कि यहां दैनिक रूप से कार्यक्रम होते ही रहते हैं। शान्तिकुन्ज के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता है।
जगह जगह पर मार्ग के दोनों ओर तख्तियों पर मानव के लिये लिखे आलेखों द्वारा सीख दी जा रही हैं। ऐसा ही एक नचिकेता भवन के बाहर अखंड ज्योति द्वारा 1965 अगस्त 24 का लिखा आलेख “धैर्य की उपयोगिता” धैर्यवान होने की सीख देता है।।
चित्र में- शांतिकुंज परम तपस्वी ऋषियुग्म पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा
शांतिकुंज से पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का नाम याद आ जाता है। आपने इनका नाम भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा जो गायत्री तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार के तत्वाधान में अखिल विश्व गायत्री परिवार के सौजन्य से करवाई जाती है, के कारण जरूर सुना होगा। पूरे देश में इनकी शाखाएं और कई कार्यकर्ता होते हैं। और यह परीक्षा उन्हीं के द्वारा पूरे देश में संचालित होती है। संस्कृति ज्ञान परीक्षा की किताब जो हर छात्र को विद्यालय स्तर तक और सभी अन्य स्तरों पर होने वाली इस परीक्षा की तैयारी के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं। विद्यालय स्तर से अन्य सभी स्तरों पर विजेताओं को प्रथम द्वितीय और तृतीय स्तर के पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। उद्देश्य एक ही है, भारतीय प्राचीन संस्कृति के ज्ञान से नई पीढ़ी को अवगत करवाना।
चित्र में- शांतिकुंज परिसर मे प्रवेश के लिए एक द्वार
शांतिकुंज एक आश्रम एक धर्मशाला जहां कई लोग निशुल्क रुकते हैं, हरिद्वार में यह धार्मिक आकर्षण का एक मुख्य केंद्र है। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज के विषय में यहां इस आलेख से पता चलता है कि-
चित्र में- गायत्री तीर्थ शांतिकुंज के विषय में
“शांतिकुंज परम तपस्वी ऋषियुग्म पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा की तपोभूमि है। यहां 1926 से प्रज्वलित अखंड ज्योति, हर व्यक्ति के लिए उपयोगी युग ऋषि की लिखी 3200 पुस्तकें, गायत्री माता मंदिर, देवात्मा हिमालय मंदिर, ऋषियुग्म के समाधि स्थल दर्शनीय एवं आस्था के केंद्र हैं। करोड़ों साधकों द्वारा किए गए गायत्री मंत्र, जप, अनुष्ठान, यज्ञ संस्कार और यहां चलने वाले प्रशिक्षण शिविर इसे ऊर्जावान बनाते हैं। जाति लिंग भाषा प्रांत धर्म संप्रदाय आदि के भेदभाव के बिना मानव मात्र के लिए कल्याणकारी सर्वमान्य व विज्ञानसम्मत अध्यात्म चेतना का विश्वव्यापी विस्तार युग तीर्थ शांतिकुंज का प्रमुख अभियान है। शांतिकुंज का संकल्प है-
मानव में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण”
चित्र में- शांतिकुंज परिसर मे एक भवन
शांतिकुंज का परिसर एक वैदिक समाज का परिवेश तैयार करता दिखता है। शानदार उपयोगी वृक्ष वाटिका मुख्य मार्ग के दोनों ओर कम मात्रा में किंतु अलग-अलग प्रकार के होने से आकर्षण का भाग है। बहुत से लोग यहां निशुल्क रुके हुए हैं। यह धर्मशाला के रूप में भी है। कई लोग जो प्रतीत होता है, कि यहां के स्थाई हो गए हैं। लोगों ने अपने वस्त्र यहां मुख्य मार्ग के दोनों और सुखाने को धूप पर रखे हैं। जो एक बड़ा हॉल है, वही धर्मशाला है। जहां लोग अपने अपने सामान के साथ कोई जगह देख कर लेटे हैं, या बैठे हैं। कुछ लोग अंदाजा है, कि स्थाई रूप से यहां रह रहे होंगे, या कुछ लंबे समय से यहां होंगें। शायद वही लोग हैं, जो परिसर में चार पांच मंजिला भवनों में कमरे पाए हुए हैं।
चित्र में- शांतिकुंज द्वारा संचालित अन्य संसथान
परिसर काफी बड़ा है, धर्मशाला के अलावा बाकी अधिकतर क्षेत्र शांत ही है। शांतिकुंज के परिसर में ही लगभग मध्य में एक कैंटीन को भी जगह दी गई है। यहां लोग जो दैनिक रूप से श्रद्धालु या यात्री देखने आते होंगे वह कुछ फास्ट फूड खा लेते होंगे।
वैदिक सभ्यता के जितने तथ्यों को समेटा जाए, वह वास्तव में आर्यों की कितनी बड़ी छाप आज के भारत पर है, जिनमें से कुछ चाह कर भी हम छोड़ नहीं सकते। वे आज भी जीवित हैं। ये अतीत के उन पृष्ठों का गहन दर्शन है जिसे आज तक भारत स्वयं में समेटे है, और उसे प्रमाणित करता है।
वसुदेव कुटुंबकम संपूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मान देना यह सिद्धांत का प्रतिपादन, सर्वव्यापक चिंतन वैदिक काल के आर्यों की संपूर्ण विश्व के कल्याण की चिंता को दर्शाता है।
जीवन के ऊंचे ऊंचे आदर्शों का सृजन किया। वे आर्य थे वे इस संसार के सभी सांसारिक सुखों को नाशवान समझते थे। वे परलौकिक सुख तथा मोक्ष की प्राप्ति का पाठ पढ़ाते थे। यह चेतना कि वह लौ है, जो आज तक भारतीयों के मन मस्तिष्क में गहरी छाप छोड़े है।
उनका प्रमुख व्यवसाय हालांकि कृषि था। वह सिंधु घाटी की सभ्यता के लोगों जैसे व्यवसाय प्रधान सभ्यता न थी। किंतु वह वस्तु विनियम से चीजों की अदला बदली से व्यापार करते थे। यह भी मालूम हुआ है, कि उन लोगों ने “निष्क” नामक एक मुद्रा का प्रचलन भी किया था।
वे राजा को राज्य का एक अंग मात्र मानते थे। उन लोगों ने “सप्तांग राष्ट्र” की कल्पना की थी। राजा के आदर्शों को इतना ऊंचा तय किया था, कि वह जनता के आध्यात्मिक, भौतिक और सामाजिक अतएव सर्वांगीण उत्थान के कार्यों के लिए व्यस्त होता था।
ठीक इसी प्रकार प्रजा के लिए भी राजा के प्रति उच्च आदर्शों को तय किया गया था। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है, कि यदि राजा बालक भी हो तो भी उसकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह पृथ्वी पर देवता स्वरूप होता है।
इसे झुठलाया नहीं जा सकता, कि आर्यों ने जिन वर्ण व्यवस्था का प्रचलन किया, वह आज के युग तक जाति प्रथा में परिवर्तित हो चुकी है। छुआछूत के समाजिक दोष ने जन्म लिया। किंतु इन सब में यह भी सत्य है की वास्तव में वैदिक आर्यों द्वारा निर्मित सभ्यता जिसकी आज तक इतनी गहरी छाप भारतवर्ष पर है, जो विश्व से हमें अलग करती है, यह आर्यों की स्पष्ट दर्शन तथा तत्वज्ञान की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है
आर्यों के जीवन के चरण / ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वन-प्रस्थानम और संन्यास-
वैदिक काल
वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था प्रचलन में थी। आश्रम शब्द संस्कृत के श्रम शब्द से निर्मित है, जिसका तात्पर्य परिश्रम से है। वैदिक काल की सभ्यता में जीवन का पहला चरण ब्रम्हचर्य से प्रारंभ होता है, जो कि आश्रम में बीतता था।
छात्र यज्ञोपवीत के बाद आश्रम जाता था। विद्या के अर्जन के लिए जब ब्रह्मचर्य का जीवन आश्रम में बिता कर घर लौटता तो गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता जहां उसकी शादी होती और वह जीवन के भौतिक सुखों को प्राप्त करता एक समय पर वह जीवन के तीसरे चरण वनप्रस्थान को प्राप्त कर लेता, जिसमें वह अपने घर परिवार को छोड़कर वन की ओर निकल पड़ता। जहां वह लगातार एकांतवास में चिंतन करता।
वनप्रस्थान के पश्चात जीवन का अंतिम चरण जिसमें वह प्रवेश करता है, वह सन्यासी है। सन्यासी व्यक्ति घूम घूम कर अपने जीवन के चिंतन का प्रचार प्रसार करता।
जीवन के इन चार चरणों का मूल आर्यों के चार ऋणों तथा चार पुरुषार्थों पर विश्वास होना भी प्राप्त होता है। क्योंकि आर्यों के विश्वास में उन पर जो चार ऋण होते थे, वह पहला तो ऋषियों के प्रति दूसरा पितरों के प्रति तीसरा देवताओं के प्रति तथा चौथा अन्य व्यक्तियों के प्रति होता था।
इन ऋणों को वे अपने जीवन के उन चार भागों में स्वयं से तर देते थे। ऋषियों के प्रति जो ऋण था वह ब्रह्मचारी होकर आश्रम में विद्यार्जन से, पितरों के प्रति जो ऋण था वह गृहस्थ जीवन में संतान पैदा करने से, देवताओं के प्रति ऋण वनप्रस्थान में चिंतन से और अन्य लोगों के प्रति ऋण सन्यासी जीवन में अपने चिंतन से प्राप्त ज्ञान के प्रसार से उतार देते थे।
जिन चार पुरुषार्थों में आर्यों का विश्वास था। वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष थे। यह भी परस्पर उनके जीवन के चार भागों से जुड़े हुए थे।
धर्म का ब्रह्मचर्य से, अर्थ और काम का गृहस्थ जीवन से, मोक्ष का वनप्रस्थान तथा सन्यासी जीवन से संबंध था। इस प्रकार आर्यों का जीवन कुछ धारणाओं से नियमों में बंधा था।
वैदिक काल की सभ्यता कैसी रही होगी। इतिहास जो कुछ माध्यमों से सूचित करा पाता है, उससे एक लेख इस विषय पर तैयार कर रहा हूं। वैदिक काल में वेदों की रचना तत्पश्चात उनकी व्याख्या के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की रचना और अंत में सूत्रों की रचना की गई। जो वैदिक काल की व्यवस्था का भी वर्णन करते हैं।
उस काल में आर्य कुटुंब, कुल की इकाई में रहते थे। गृह का प्रधान पिता होता था। कई गृह से ग्राम जिसका प्रधान ग्रामीण होता था। कई ग्राम मिलकर विश बनाते थे, जिसका प्रधान विशपति होता तथा कई विशों से जन, जिसका प्रधान गोप होता था, जो राजा स्वयं होता था। ऋगवैदिक काल में आर्यों के छोटे-छोटे राज्य थे। किन्तु अनार्यों पर विजय होने पर वे राज्य विस्तार करते रहे। विजय के उपलक्ष में राजसूया, अश्वमेध यज्ञ करने लगे।
वैदिक काल में राज्य का प्रधान राजन था। वह अनुवांशिक था, किंतु निरंकुश नहीं होता था। परामर्श हेतु उसके लिए एक समिति तथा सभा होती थी। सभा के सदस्य बड़े बड़े तथा उच्च वंश के लोग थे। किंतु समिति के सदस्य राज्य के सभी लोग थे। ऋगवैदिक काल में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी राज्य के प्रमुख पद थे। पुरोहित सबसे ऊंचा पद था। संभवत यह पद भी अनुवांशिक रहा होगा। प्रारम्भिक वैदिक काल में हर आर्य सैनिक ही हुआ करता था। क्योंकि वे तब प्रसार कर रहे थे। किंतु उत्तर वैदिक काल तक वर्ण व्यवस्था का चलन हो चुका था, और परिणाम था, कि क्षत्रिय सेना के लिए एक अलग शाखा तैयार हुई। वही रणभूमि में भाग लेते थे।
आर्य व्यवस्था में स्त्रियों का समाज में ऊंचा स्थान था। हालांकि वह स्वतंत्र ना थी। वह किसी तो पुरुष के संरक्षण में जीवन भर रहती थी। वह गृह स्वामिनी समझी जाती थी। तब विवाह एक पवित्र बंधन था, जो जीवन के अंत पर ही समाप्त होता था। बहु विवाह का प्रचलन आम ना था। हां राजवंशों में यह होता था। हालांकि उत्तर वैदिक काल में यह आम लोगों में भी चलन में आ गया। ज्ञात है, कि मनु की 10 पत्नियां थी।
वैदिक काल के लोग मांस और शाक दोनों को ग्रहण करते थे। उनके मुख्य दो पेय थे, सोमरस और सुरा। सोमरस मादकता रहित था, किंतु सुरा मादकता के लिए था, अतः सुरा का पान समाज में दोष था। वह अवगुण समझा जाता था।
जाति प्रथा का उदय-
प्राचीन आर्यों की सर्वाधिक प्रचलित व्यवस्था वर्ण व्यवस्था है। जिसका प्रभाव आज तक भारतीय समाज पर है। वर्ण का अर्थ रंग है। यह दरअसल तब व्यवस्था प्रचलन में आई होगी, जब आर्य अनार्यों के संपर्क में हुए होंगें। क्योंकि आर्य स्वयं को श्रेष्ठ कहते थे, वह तो एक ही जाती थी, किंतु यह भी सत्य है, कि आर्यों का भी उनके व्यवसाय उनके काम-काज के अनुरूप वितरण है। गौर वर्ण के लोग आर्य थे और कृष्ण वर्ण के लोग अनार्य। यही संभवत भारतीय समाज का दो भागों में प्रारंभिक विभाजन था।
आर्यों ने अपने कार्यों के अनुरूप स्वयं की जाति को चार वर्णों में विभक्त कर लिया था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र।
पाठ पूजन करने वाले ब्राह्मण हुए, रण कुशल क्षत्रिय, वैश्य खेती-बाड़ी, व्यापारिक वाणिज्य में संलग्न लोग और शुद्र, क्षत्रीय तथा वैश्यों की सेवा में लगे लोग हुए।
इन सबके बावजूद समाज में अनियमितता नहीं थी, लोग अपने कार्यों को लेकर निश्चित थे, जन्म से ही। क्योंकी व्यवस्था उन्हें जीवन में कामकाज को लेकर पहले ही तय कर चुकी होती थी।
ऋग्वेद में इस विषय में लिखा है, कि ब्राह्मण परम पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जांघों से, और शुद्र उसकी चरणों से पैदा हुए हैं। समाज का यह ऊंच-नीच विभाजन जरूर था, किंतु संकीर्णता नहीं थी। यही उस समाज को जीवित रखे था। ब्राह्मण लोग समाज का बौद्धिक आध्यात्मिक उत्कर्ष में लगे होते थे। क्षत्रिय लोग समाज की सुरक्षा में राज्य को शत्रुओं से रक्षा में, वैश्या लोगों का समाज में भौतिक आवश्यकताओं को प्राप्त करवाने में और शूद्र लोग समाज को सुचारू रूप से संचालित करने में योगदान देते रहे।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण था, कि हर वर्ग अपनी कार्य में संलग्न था। छुआछूत की भावना नहीं थी, न किसी प्रकार की कटुता थी, किंतु उत्तर वैदिक काल में आते-आते वर्ण व्यवस्था ने बेहद जटिलता प्राप्त कर ली, जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया, अर्थात जाति का निश्चय व्यवसाय से नहीं बल्कि जन्म से होने लगा जातिवाद का प्रकोप बढ़ने लगा और भारतीय समाज के लिए यह बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ है।
आर्यों का विस्तार तथा संहिता, वेद, आरण्य, सूत्र इत्यादि की व्याख्या-
आर्यों को जानने की साधन
आर्यों का विस्तार- सप्त सिंधु, मध्य देश, आर्यव्रत और दक्षिणाव्रत
● उत्तर भारत में आर्य-
आर्य भारत में धीरे-धीरे आगे बढ़े भले ही वह मूल किसी भी प्रदेश के हों। किंतु भारतीय आर्य प्रारंभ में सप्त सिंधु में ही निवास करते थे। वह सात नदियां का देश जो सिंधु (सिन्ध), झेलम (वित्स्ता), चुनाव (अस्कनी), रावी (परुषणो), व्यास (पिषाका), सतलज (शतुद्री), सरस्वती।
आर्य जैसे जैसे आगे बढ़े। भारतीय प्रदेशों के नाम देते रहें। कुरुक्षेत्र के निकट के भागों में अधिकार करने से उन्होंने उस प्रदेश का नाम ब्रह्मा व्रत रखा। मुख्य विषय यह है, कि उन्हें भीषण संघर्ष अनार्य से करना पड़ा होगा। जब वह और आगे बढ़े और गंगा यमुना दोआब और उसके निकट के प्रदेश पर अधिकार प्राप्त किया, उन्होंने उस प्रदेश का नाम ब्रह्मर्षि देश रखा जब उन्होंने आगे बढ़कर हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य के भाग को अधिकार में लिया और स्वयं को प्रसारित किया तो इस प्रदेश को उन्होंने मध्य देश नाम दिया। जब उन्होंने वर्तमान बंगाल और बिहार के क्षेत्रों को भी अधिकार में लिया तो संपूर्ण उत्तर भारत को आर्यवर्त पुकारा।
● आर्यों का दक्षिण भारत में प्रवेश-
बहुत समय तक आर्य विंध्याचल को पार न कर सके। किंतु सबसे पहले अगस्त्य ऋषि विंध्याचल को पार कर दक्षिण भाग में पहुंचे। वहां भी उन्होंने अपने आर्य सभ्यता का प्रचार प्रसार किया। वे दक्षिण में भी फैल गए।उन्होंने दक्षिण प्रदेश को दक्षिणाव्रत नाम से पुकारा।
आर्यों को जानने के साधन-
आर्यों का परिचय उनके ग्रंथों से प्राप्त होता है। उनके ग्रंथ संहिता या वेद, ब्राह्मण तथा सूत्र तीन भागों में विभक्त किया जा सकते हैं।
■ संहिता, वेद, श्रुति –
संहिता से तात्पर्य संग्रह है। अर्थात मंत्रों का संग्रह। वेद संस्कृत के विद शब्द से है, जिसका तात्पर्य जानना है। भारतीय आर्यों के ज्ञान का संग्रह है, वेद। वेद मनुष्य वक्तव्य नहीं है। वह ब्रह्मा वाक्य है। इन्हें ऋषि-मुनियों ने ब्रह्मा मुख से सुना है। यह श्रुति भी कहलाए।
आर्यों के चार वेद-
वेद संस्कृत भाषा में हैं। आर्यों की भाषा।
उन्होंने चार वेदों को संग्रहित किया कम्रशः वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
1. ऋग्वेद-
ऋग्वेद विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ है। यह ऋचाओं का संग्रह है। संभवत यह तब संग्रहित किया गया होगा जब आर्य सप्त सिंधु प्रदेश में निवास करते रहे होंगें। ऋग्वेद का अर्थ ऋचाओं के संग्रह से है। आर्यों ने किस वेद में स्तुति मंत्रों का संग्रह किया वह ऋग्वेद है।
2. यजुर्वेद-
यजु का अर्थ है पूजन। यज्ञ का विधान यजुर्वेद में है। इस वेद में बलि की प्रथा उसका महत्व, विधान का वर्णन प्राप्त है। संभवत यह ग्रंथ कुरुक्षेत्र के प्रदेश में जब आर्य विस्तारित हो चुके थे। तब संग्रहित किया गया होगा।
3. सामवेद-
साम का अर्थ है, शांति। यहां इसका तात्पर्य गीत से शांति से है। सामवेद के मंत्र संगीतमय हैं।
4. अथर्ववेद–
अथ का अर्थ है, मंगल या कल्याण, अथर्व का अर्थ है, अग्नि। तथा अथर्व का अर्थ है, पुजारी अर्थात इस ग्रंथ के अनुरूप पुजारी अग्नि तथा मंत्रों की सहायता से भूत पिशाच आदि से मानव के रक्षा करता है। इस ग्रंथ में बहुत से प्रेत पिशाचों जो का जिक्र है।
■ ब्राह्मण ग्रंथ-
जब वेदों का आकार बहुत बड़ा हो गया था, वह बड़े कठिन हो गए थे। साधारण लोग उन्हें समझ नहीं पाते थे। अतः वेदों की व्याख्या करने के लिए जिन ग्रंथों की रचना की गई वे ब्राह्मण कहलाए। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की विवेचना की गई है। ऐतरेय, शतपथ आदि कुछ प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ हैं।
■ आरण्य ग्रंथ-
आरण्य का अर्थ है, जंगल। जिन ग्रंथों की रचना जंगलों में शांतिमय वातावरण में की गई, आरण्यक कहलाए। यह उन्हीं लोगों के लिए थे, जो जंगलों में जाकर चिंतन किया करते थे।
■ उपनिषद-
उपनिषद का अर्थ है जो ग्रंथ गुरु के समीप बैठकर श्रद्धा पूर्वक पढ़े जाते हैं। उनका नाम उपनिषद रखा गया। उपनिषदों में उच्च कोटि की दार्शनिक विवेचना भी है। और इनमें यह भी संकेत मिलते हैं। कि तब तक आर्यों में वर्ण व्यवस्था तथा आश्रम की प्रथा अधिक मजबूती से स्थापित हो चुकी थी।
■ सूत्र ग्रंथ-
सूत्र का शाब्दिक अर्थ होता है। तागा सूत्र उन ग्रंथों को कहते हैं जो इस प्रकार लिखे हों जैसे मोती की भांति धागे में पिरो दिया गया हो।
जबआर्य ग्रंथों की संख्या बहुत बढ़ गई। जब वे विशालकाय ग्रंथ हो गए तब ऐसे ग्रंथों की आवश्यकता पड़ी जो छोटे आकार के हों परंतु वे बड़े भाव दें। पाणिनी ने सूत्रों की तीन विशेषताएं बतलाई हैं, अर्थात वे थोड़े से अक्षरों में लिखे जाते हैं, बड़े संदिग्ध होते हैं, और बड़े ही सारगर्भित होते हैं। सूत्रों की रचना में पाणिनी और पतंजलि का प्रमुख तौर से योगदान है।
विल्सन महोदय ने लिखा है। कि प्राचीनता की कल्पना में जो कुछ अत्यधिक रोचक है, उसके संबंध में पर्याप्त सूचना हमें वेदों से मिलती है।
इन ग्रंथों का सबसे बड़ा महत्व है, कि इनसे आर्यों के प्रारंभिक इतिहास जानने में सहायता मिलती है, साथ ही हिंदू जाति का प्रारंभिक इतिहास उनके बिना अंधकार में होता। यह भारतीय प्राचीन सभ्यता के एक और मूलाआधार है।
यह बेहद विवादपस्त प्रश्न है। स्मिथ लिखते हैं कि, “आर्यों के मूल निवास के संबंध में जानबूझकर विवेचना नहीं की गई है, क्योंकि इस संबंध में कोई विचार निश्चित नहीं हो सका है”।
आर्य का अर्थ है, श्रेष्ठ और वे अनार्य (अश्रेष्ठ) उन्हें कहते हैं, जिनसे वे अपने भारत भूमि भ्रमण में संघर्ष किए। सर्वप्रथम आर्य शब्द वेदों में प्रयुक्त है, व्यापक तौर से यह एक प्रजाति है। जिनकी शारीरिक रचना विशिष्ट है। जिनके शरीर लंबे डील-डौल, हृष्ट-पुष्ट, गोरा रंग, लंबी नाक वाले तथा वीर साहसी होते हैं। भारत, ईरान और यूरोपीय प्रदेश के कई देशों के लोगों का इन्हीं के संतान होने का मत है। यह लोग प्रारंभ से ही पर्यटनशील होते हैं। और इसी प्रवृत्ति से यह लोग संपूर्ण विश्व में फैलने लगे। और इन लोगों ने विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप अलग अलग संस्कृति का विकास किया।
1. आर्यों का मूल स्थान को लेकर विद्वानों का एकमत होना बहुत कठिन है। क्योंकि विद्वान अलग-अलग ढंग से आर्यों के मूल स्थान की विवेचना करते हैं। इससे कुछ प्रमुख सिद्धांत निर्मित होते हैं। यूरोपीय सिद्धांत में भाषा संस्कृति के आधार पर कुछ विद्वान आर्यों का आदि देश यूरोप के होने का मत देते हैं। उनके मतानुसार आर्य यूरोप से ही ईरान और भारत को बढे। उनके तर्क थे, कि भारत, ईरान और यूरोप के आर्यों की भाषा की समानता जैसे पितृ, पिदर, पेटर, फादर और मातृ, मादर, मेटर, मदर और दुहितृ, दुख्तर, डॉटर, आदि। इस तर्क से उनका मूल निवास प्रारंभ में एक ही रहा होगा यह तो तय होता है। और वह वहीं से अलग-अलग प्रदेशों में विस्तार किए होंगे।
यूरोपियन सिद्धांत के समर्थन में उनके अन्य तर्क है। कि यूरोप में आर्यों की संख्या एशिया के आर्यों से अधिक हैं, संभवत वे एशिया में यूरोप से ही आए हों। उनका तर्क यह भी है कि, पर्यटन प्रायः पश्चिम से पूर्व को हुए हैं। और पूर्व की ओर यूरोप से आने में कोई मरुस्थल, वन प्रदेश, पर्वत इतना जटिल नहीं है, जो पार ना हो सके। वे यूरोप के सिद्धांत को इन तर्कों से ठीक ठहराते हैं। और आर्यों को वही का मूलनिवासी कहते हैं। किंतु यूरोप के किस प्रदेश में आर्यों का आदि है। यह प्रश्न भी विवाद में हैं, जिस पर अलग-अलग विद्वान अलग-अलग मतों का समर्थन करते हैं।
● डॉ० पी० गाइल्स ऑस्ट्रिया हंगरी का मैदान जो यूरोप के मध्य प्रदेश भाग में हैं। का समर्थन किया है। यह प्रदेश शीतोष्ण कटिबंध में है। वहां पशु गाय, बैल, घोड़े, कुत्ते वनस्पति जैसे गेहूं, जौ जिनसे आर्य परिचित थे। प्राप्त हैं। और वे यह तर्क भी देते हैं, कि यह मैदान सर्वाधिक माध्य है, उन सभी स्थानों तक पहुंचने का जो जो आर्यों का पर्यटन प्रदेश बना। अथवा जहां तक वे पहुंच सके।
● कुछ अन्य विद्वानों ने पेन्का के समर्थन में जर्मनी प्रदेश को आर्यों का मूल स्थान कहा है। उनका तर्क है कि, प्राचीन आर्यों के बाल भूरे थे, और जर्मन लोगों के बाल आज भी भूरे हैं। इसके अलावा बहुत से शारीरिक विशेषताएं जो प्राचीन आर्यों मैं पाई जाती थी, वह जर्मन के आर्यों में भी थी। इसके अलावा उनका तर्क है, कि इस प्रदेश पर कभी विदेशी जाति का प्रभुत्व नहीं रहा। उन लोगों ने सदैव इण्डो-यूरोपियन भाषा का प्रयोग किया। और प्राचीनतम पात्र इसी प्रदेश में प्राप्त हुए हैं। अतः आर्य इस प्रदेश के आदि मूल निवासी थे।
● यूरोपीय सिद्धांत के अंतर्गत आर्यों के आदि मूल निवास को लेकर दक्षिण रूस के प्रदेश को भी कुछ विद्वानों का मत प्राप्त है। वह कृषि, पशु, उपजाऊ भूमि के आधार पर कहते हैं। कि यूरोप में आर्यों का प्रारंभ में आदि मूल स्थान दक्षिण रूस ही है।
यूरोपीय सिद्धांत के अनुरूप यूरोप में आर्यों के प्रारंभिक मूल स्थान को लेकर ऑस्ट्रिया-हंगरी का मैदान, जर्मनी प्रदेश और दक्षिण रूस के प्रदेश के मध्य और अन्य भी अनेक मत प्राप्त हैं। किंतु कुछ विद्वानों का मत है, कि आर्य यूरोप के मूल निवासी ना होकर मध्य एशिया के आदि मूल निवासी हैं। और मध्य एशिया का सिद्धांत जन्म लेता है।
2. जर्मन विद्वान मैक्समूलर मध्य एशिया को आर्यों का आदि देश होने का तर्क देते हैं। उनके तर्कों में मध्य एशिया वह स्थान है। जहां आर्य प्रारंभ में थे। और यह ईरान, भारत और यूरोप के सन्निकट भी है। यहीं से उन प्रदेशों में पर्यटन हुआ होगा। आर्य पहले अपने वर्षों की गणना हिम से करते थे, बाद में वे शरद से वर्षों की गणना करने लगे। उनके मत में इसका तात्पर्य है कि, पहले आर्य शीत प्रदेश मध्य एशिया के निवासी थे। बाद में वे दक्षिण की ओर बढ़े वहां उन्हें सुहावना बसंत मिला उनका तर्क यह भी है, कि आर्यों के ग्रंथ जिन पशुओं और अन्नों का उल्लेख देते हैं। उनका मध्य एशिया में प्राप्ति है। वह इस तर्क से अपना मत मजबूत करते हैं। कि कालांतर में शक, कुषाण हूंण आदि जातियां मध्य एशिया से ही भारत आए हैं।
3. आर्यों के संबंध में तीसरा सिद्धांत आर्कटिक सिद्धांत है। वेदों के आधार पर बाल गंगाधर तिलक भी इसका समर्थन करते हैं। उनका तर्क है, कि वेदों में छः महीने दिन और छः महीने रात का वर्णन है। वेदों में उषा की भी स्तुति है, जो बहुत लंबी है। यह सब उत्तरी ध्रुव में संभव है, पारसियों के धर्म ग्रंथ अवेस्ता में भी वर्णन है कि, उनके देवता अहुरमज्द ने जिस देश का निर्माण किया, वहां दस महीने सर्दी और दो महीने मात्र गर्मी होती थी। तिलक जी का निष्कर्ष है, कि यह प्रदेश उत्तरी ध्रुव के निकट कहीं होगा अवेस्ता में वहां तुषारपात का भी वर्णन है। तिलक जी का मत है कि पहले आर्य जब वहां थे तो वहां बसंत का मौसम था। किंतु जब वहां तुषारपात हुआ, तो आर्य वहां से चल पड़े। वहीं से यूरोप, ईरान और भारत वर्ष आ पहुंचे।
4. कुछ विद्वान आर्यों का मूल स्थान भारत भूमि होने का समर्थन करते हैं। डॉ० राजबली पांडे ने लिखा कि “संपूर्ण भारतीय साहित्य में एक भी संकेत नहीं है, जिससे सिद्ध हो सके कि भारतीय आर्य बाहर से आए थे। जन्श्रुतियों, भारतीय अनुश्रुतियों में कहीं इस बात की गंध नहीं है, कि भारतीय आर्यों की पितृभूमि और धर्म भूमि कहीं अन्य बाहर के देश में है”।
श्री अविनाश चंद्र दास के विचार में सप्त सिंधु आर्य आदि मूल निवास स्थान था। कुछ विद्धान गंगा का मैदान आर्यों की आदि भूमि का मत देते हैं। भारतीय सिद्धांत के समर्थन में विद्धान कहते हैं, कि भारतीय आर्यों के विषय में वैदिक ग्रंथ में कहीं नहीं लिखा मिलता कि आर्य बाहर से आए हैं। बल्कि सप्तसिंधु पंजाब का गुणगान है। जिस मुख्य भोज्य गेहूं, जौ का आर्यों को ज्ञान था, वह इस प्रदेश में बाहुल्य में प्राप्त हैं। अतः वे अपना मत कि भारतीय आर्य कहीं बाहर से नहीं आए हैं। को मजबूती से पेश करते हैं।
इतिहास के पृष्ठों की यही अस्पष्टता आज भी हमें अतीत के गर्भ में छुपे उन रहस्यों को जानने के लिए आकर्षित करती हैं।
भारतीय सभ्यता के सूत्रधार / भारतीय सभ्यता पर आक्रांताओं का प्रभाव–
भारतीय सभ्यता के सूत्रधार
भारतीय सभ्यता के आरंभिक सूत्रपात कर्ता भारत के आदमी निवासी थे, और उन्हीं की सभ्यता को आर्य और द्रविड़ो ने रूप दिया। तत्पश्चात कालांतर में यूनानी, शक, कुषाण, हूण, मुसलमान और यूरोपियों ने भारतीय सभ्यता को प्रभावित किया, किंतु अनेकों आक्रमणों के बावजूद भी भारत वासियों ने अपनी संस्कृति को अब तक स्वयं में जीवित रखा है। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }
◆ आदिम निवासी भारतीय सभ्यता के सूत्रधार हैं। वह किरात, कोल, संथाल, मुंड जाति के थे। किरात जाति के लोग असम, सिक्किम और उत्तर पूर्वी हिमालय क्षेत्रों के निवासी करते हैं। और संथाल तथा कोल जाति के लोग छत्तीसगढ़, छोटानागपुर तथा खासी-जयंतिया की पहाड़ी इलाकों में निवासी हैं। यह लोग प्रारंभ में जंगली थे। विद्वानों का मत है कि पाषाण काल की सभ्यता के प्रवर्तक भी आदिम निवासी ही थे।
◆ दक्कन में द्रविड़ अधिक सभ्य थे। वे आदिम निवासियों से अधिक सभ्य थे। वह काले रंग के मझोले कद और चौड़ी नाक के होते हैं। यह लोग तमिल, तेलुगू ,मलयालम, कन्नड़ भाषा का प्रयोग करते हैं। मिट्टी के बर्तनों पर सुंदर चित्रकारी, समूह में रहना, पशुपालन, कृषि और नदियों के व्यापार तथा वाणिज्य करने वाले लोग जहाज और नाव का भी निर्माण करते थे। यह द्रविड़ सभ्यता है। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }
◆ आर्यों को भारतीय सभ्यता का प्रमुख प्रवर्तक कहा गया। प्रारंभ में पंजाब से होकर आर्य संपूर्ण उत्तर भारत में फैले। वह गोरे, लंबे-चौड़े और लंबी नाक वाले लोग हैं। वह वीर साहसी और रण प्रिय रहे। कालांतर में आर्य दक्षिण में भी गए, और दक्षिण के सभ्यता पर उनका प्रभाव प्रकाश में है। साथ ही द्रविड़ सभ्यता भी परिपक्व सभ्यता रही। आर्य सभ्यता भी उनसे अप्रभावित न रह सकी। और इन्हीं का योग से भारतीय सभ्यता का जन्म हुआ। हालांकि हिंदुओं के पथ प्रदर्शक आर्य ही हैं। उनकी भाषा संस्कृत में ही हमारे साहित्य ग्रंथ हैं। हिंदी, बंगाली, मराठी व संस्कृत की ही धाराएं हैं। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }
◆ पारसी लोग मूलतः भारतीय निवासी ही थे। अवस्ता इनका प्रधान धर्म ग्रंथ है। यह अग्नि पूजक होते हैं। यह भारत में आज भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। बड़े राष्ट्र विचारी होते हैं। भारतीय सभ्यता के विकास में इनका योगदान भी रहा है।
◆ तत्पश्चात उत्तर-पश्चिमी पहाड़ी भारतीय प्रदेशों में यूनानीयों का भी प्रवेश हुआ, जो सभ्यता के दौड़ में कुछ आगे थे। अतः इनका प्रभाव भी भारतीय सभ्यता पर रहा।
◆ शक और कुषाण लोगों ने तत्पश्चात क्रम से भारत में प्रवेश किया, शक लोग बर्बर जाति के थे, और कुषाण यू-ची जाति के लोग थे। यह जातियां भारत के पश्चिम-उत्तर प्रदेशों में प्रविष्ट हुए। कुषाण शासकों का प्रारंभ में मूल स्थान चीन के उत्तर-पश्चिम में था। उन्होंने अपने नाम की मुद्राएं भी चलाएं। कुछ समय तक शासन भी किया, किंतु कालांतर में भारतीय सभ्यता में रंग गए, हालांकि उसे प्रभावित करते रहे।
◆ पांचवी-छठी सदी में हूणों ने भी भारतीय पश्चिम-उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया। यह लोग तब असभ्य थे। इनका प्रभाव भी भारतीय सभ्यता पर रहा। कुछ विद्वानों का मत यह है, कि गुज्जर, जाट तथा कुछ राजपूत इन्हीं के वंशज है।
◆ तत्पश्चात आठवीं शताब्दी से ही मुसलमानों ने भारतीय क्षेत्र में आना आरंभ कर दिया था। वह लोग अपनी उत्कृष्ट सभ्यता संस्कृति को लेकर यहां आए। ये अरबी, तुर्क, मुगल थे। उन्होंने लगभग हजार साल भारत पर शासन किया। और इनके सभ्यता का परिणाम रहा कि भारत में दो धाराएं संस्कृति हिंदू और मुस्लिम बन गए। जो कभी एक ना हो सके। और जिसका निवारण भारत का विभाजन द्विराष्ट्र सिद्धांत से किया गया, और पाकिस्तान का जन्म हुआ।
◆ पंद्रहवीं शताब्दी से यूरोप वासियों का व्यापारिक मनसा के लिए भारतीय प्रदेशों में प्रवेश होने लगा। कालांतर में पुर्तगाल, डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज भारतीय सभ्यता को प्रभावित करने वाले और पाश्चात्य संस्कृति की छाप भारत में छोड़ गऐ। अंग्रेजों ने शासन किया और पाश्चात्य के साहित्य, समानता, बंधुत्व, अस्पृश्यता का निवारण, राजनैतिक, लोकतांत्रिक, धार्मिक तर्कवाद जैसी अनेकों नवचेतना का जन्म भारत में होता है।
किंतु यह भी सत्य है, कि पुरा भारतीय मूल संस्कृति के विकास में कई अवरोध रहे। अनेको आत्यायियों ने इसे समाप्त करने का प्रयत्न किया। किंतु इन हवाओं के झोंकों को झेलती हुई भारतीय संस्कृति आज भी हममें जीवित रही है।
नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏