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KWMM junior high school paithani | संस्मरण लेख

kwmm junior high school paithani

कलावती मेमोरियल मॉन्टेसरी जूनियर हाई स्कूल पैठाणी अपने 25 वर्ष की उपलब्धियों का उत्सव मना रहा है। एक समय था, कि विद्यालय तीन कक्षाओं में चलता था। आठवीं तक की कक्षाएं चलाई जाती थी। मुझे याद है, कि कक्षाओं के बाहर बरामदे में भी पढ़ाई करते थे। श्यामपट्ट केवल दीवारों पर नहीं बने थे। बल्कि लकड़ी के ब्लैक बोर्डों का भी प्रयोग होता था। जिन्हें एक जगह से दूसरी जगह पढ़ने के लिए जहां छात्र बैठे वहां ले जाए जा सके।
और वह स्कूल की पुरानी बिल्डिंग किसे याद नहीं। उसके प्रवेश के लिए वह छोटी सी सीढ़ियां और फिर कक्षाएं। यदि कहें तो वह भवन परिवार के रहने के लिए ही बनाया गया था, स्कूल उसमें चलाई जा रही थी। लेकिन यह स्वीकार करना होगा, कि उन छोटी सी सीड़ियों से ही कई छात्रों ने शिक्षा के सफल सीढ़ियां चढ़ी।


मुझे याद है, ऊपर प्रधानाचार्य ऑफिस होता था। वहां पर्याप्त जगह थी, यह ग्राउंड फ्लोर को लगाकर दूसरी मंजिल या आखिरी मंजिल पर था। वहीं से सीढ़ियां नीचे उतर कर दोनों तरफ दो कक्षाओं में खुलती थी, और वहीं से और नीचे उतरे तो फिर दोनों तरफ दो कक्षाएं और खुलती थी। उस ग्राउंड फ्लोर की दो कक्षाओं में एक बड़ा हॉल वहीं सुबह की प्रार्थना होती थी। कार्यक्रम सबसे ऊपर छत पर होते थे। जगह बहुत सीमित थी। लेकिन जिस निष्ठा के साथ शिक्षकों ने अपना कार्य किया और उससे छात्रों में जो उत्साह था। उसने इसे कभी सवाल बनने नहीं दिया। मुझे याद है, कि तब के सबसे सीनियर कक्षाओं में कुछ नाम जैसे कलम सिंह भाई, प्रभात भाई, लक्ष्मी दीदी और एक नाम विशेषकर विवेकानंद भाई मुझे याद है, क्योंकि वह वही रहते थे।

जो मुझे याद है, वहां सीधे प्रवेश के बाद बाएं हाथ पर जो कक्ष खुलता है, वहां उस समय एक शायद सीमेंट की अलमारी के ऊपर श्री कृष्ण भगवान की बाल मूर्ति थी, जो घड़े से माखन खा रहे थे। यदि आपको याद हो।
नए भवन में आ जाने के बाद तो पुरानी स्कूल की बिल्डिंग में बहुत तो नहीं पर एक दो बार आना हुआ था। क्योंकि राष्ट्रीय पर्व के लिए जो सड़क में रैलियां हम निकालते थे, उसके लिए हम वहीं तैयार होते थे। भारत माता जिन्हें बनाया जाता था, उनकी खूब तैयारी होती थी। हम तो स्वतंत्रता संग्राम के नायक नेहरू, बॉस, आजाद, भगत सिंह आदि नेता बनते थे। हमें ज्यादा तैयार क्या करना था, एक एक कुर्ता हम खुद डाल लेते थे, और एक दूसरे की मूछें खुद ही पेन से बना देते थे। आखिर में मैडम जी आकर हमें कहती कि जल्दी से चौक का चूरा अपने-अपने सर में डाल दो, ताकि हम बूढ़े नेता जैसे दिखने लगे।

नई बिल्डिंग में आने के बाद हमारे लिए जो खास था, वह मैदान था। वह हमारे लिए पर्याप्त था। इंटरवल की घंटी बजी कि एक सेकंड बिना गवाये खेल आरंभ हो जाता था। छोटे थे, तो दौड़ दौड़ कर ही खेल हो जाता था। कुछ बड़े हुए तो कुछ नियमित ढंग से खेलने लगे।

एक बार हमने एक फुटबाल ले ली। फुटबॉल हमने सर जी के यहां से ही ली। रुपए अभी नहीं दिए थे। मुझे याद है, उस फुटबॉल को हम छात्रों में सीनियर जो थे, जिन्होंने लिया था। उन्होंने हम सब को कहा जो खेलेगा बीस रुपये जमा करना पड़ेगा। हम तैयार थे, टीम फील्ड में बिछ गई। इंटरवल का टाइम था सभी और छोटे और बड़े अन्य सभी छात्र खेल रहे थे, उन्हीं के बीच हमें फुटबॉल खेलना था। लेकिन वहां जिन दो खिलाड़ियों ने पहला टच बॉल को करना था, उन्होंने दोनों तरफ से इतना तेज मारा फुटबॉल वही फूट गई हम देखते रह गए। 20 रुपए अलग देने थे। वह एक वॉलीबॉल थी, हम उसी से फुटबॉल खेल रहे थे। बाद में खबर आई कि सर जी ने रुपय देने के लिए मना किया है।

इंटरवल के बाद लाइन लगती थी। जिन पर धूल लगी होती थी, या मिट्टी में कपड़े गंदे होते थे। उसके लिए खतरा था, उन्हें जवाब देना पड़ता था। और कभी कभी पिटाई भी हो जाती थी। जो जितना गंदा हुआ रहता था, उसकी बदमाशी का अंदाजा उसी से लगाया जाता था। अब चीजें थोड़ा बदल गई हैं, लेकिन तब तो पिटाई भी खूब होती थी। लाइन से सब अपनी अपनी कक्षा में जाते थे। यह तब नियम बन गया था, जब कबड्डी का खूब शौक हो गया था, और छात्र इंटरवल के बाद कौन है, पहचानना मुश्किल हो गया था।


मेरे दादाजी जो हर बात में दोष ढूंढ ही लेते हैं, वह एक बात कहते हैं। कि मोंटेसरी में जो अनुशासन रहा है, वैसा कहीं नहीं। और इसका पूरा श्रेय श्री प्रधानाचार्य सरजी को देते हैं। वास्तव में यही आम जनमानस की आवाज है।
लिखने को इतना है, जैसे एक किताब ही प्रकाशित हो जाए। कुछ और खास यादों को जरूर साझा करूंगा, और अगर आप के० डब्ल्यू० एम० मेरियन हैं, तो इन्हें अपने आप से जोड़ते चले।

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