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शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

संवैधानिक, गैर संवैधानिक, असंवैधानिक, संविधिक और कार्यकारी निकाय

संस्थाएं

हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी को 22 वें विधि आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। हर क्षेत्र में सुधार की आवश्यकता होती है, इसीलिए विधि के क्षेत्र में विधि आयोग है। जिसका मुख्य कार्य कानूनी सुधार के लिए काम करना है, और इसके लिए परामर्श देना है।
लेकिन विधि आयोग ना तो संवैधानिक निकाय है, और ना ही वैधानिक निकाय है, यह एक कार्यकारी निकाय है।
यह कार्यकारी निकाय क्या है?
संस्थाओं को कितने प्रकार में बांटा जा सकता है? जहां हम संविधान के बात करते हैं।

संस्थाएं (institution) तीन प्रकार की हो सकती हैं।
संवैधानिक (constitutional)
असंवैधानिक (unconstitutional) तथा
गैर संवैधानिक (extra constitutional)

सामान्य रूप से समझा जा सकता है, कि संवैधानिक वह निकाय है, जो संविधान में किस अनुच्छेद में वर्णित है। जैसे वित्त आयोग (अनुच्छेद 280) और चुनाव आयोग (अनुच्छेद 324) और संघ लोक सेवा आयोग (अनुच्छेद 315) इत्यादि।
इसके विपरीत असंवैधानिक निकाय वह हैं। जो संविधान में वर्णित तो नहीं हैं। किंतु साथ ही यह संविधान का उल्लंघन करते हैं। जैसे आतंकवादी संगठन, नक्सलवादी संगठन आदि।
इसके अलावा निकायों की एक अन्य श्रेणी गैर संवैधानिक निकाय है। यह भी संविधान में वर्णित नहीं हैं। यह संविधान को लागू करने में सहायक होते हैं। और संविधान के संगत हैं। एक उदाहरण से आप समझें जिस विधि आयोग कि हम पूर्व में बात कर रहे हैं, वह भी इसी के अंतर्गत आता है। किंतु उसे कार्यकारिणी निकाय कहा गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि गैर संवैधानिक निकाय को दो भागों में बांटा जा सकता है-
कार्यकारिणी संस्था (executive body) और
संविधिक संस्था (statutory body) अथवा कानूनी संस्था (legal body)
कार्यकारिणी संस्था वह है, जो राष्ट्रपति के द्वारा मंत्रिमंडल की सलाह पर बनाई जाती है। जैसे नीति आयोग और विधि आयोग आदि।
यह कार्यकारिणी संस्थाएं हैं इन्हें कार्यपालिका निर्मित करती है। और यह इसके ही प्रति जवाबदेही होती हैं।

वहीं यदि संविधिक संस्था अथवा कानूनी संस्था को देखा जाए तो जो संस्था संसद द्वारा या राज्य सरकार में विधानमंडलों द्वारा कानून पारित कर बनते हैं। उदाहरण के लिए संसद ने कानून पारित किया “राष्ट्रीय मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम” 1992 तब इसी आधार पर 1993 में “राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग” का गठन किया गया। ठीक ऐसे ही “सूचना का अधिकार अधिनियम” है जिसके लिए “सूचना आयोग” का गठन किया गया।
अतः यह दोनों आयोग संविधिक निकाय हैं या कानूनी निकाय हैं।।

बुधवार, 12 अक्टूबर 2022

Union of state & Federation of state में अंतर?

भारत के संविधान का मूल लेखन अनुच्छेद -1 में “राज्यों के संघ” को अंग्रेजी में “Union of state” लिखता है। “Federation of state” नहीं। जबकि अमेरिका दुनिया का सबसे पहला लिखित संविधान अमेरिका को “Federation of state” बताता है।

“फेडरेशन” और “यूनियन” इन दोनों में जिन का हिंदी अनुवाद “संघ” ही है में अंतर भारत और अमेरिका के संघ में अंतर से स्पष्ट किया जा सकता है।

अमेरिका की स्वतंत्रता के बाद 13 राज्यों ने मिलकर एक संघ का निर्माण किया। यहां राज्यों ने संघ का निर्माण किया है। अर्थात 13 राज्य आपस में संगठित हुए और अपनी कुछ शक्तियां सौंपकर एक संघ का निर्माण किया जो अमेरिका हुआ। आप अमेरिका के राज्यों की स्वायत्ता से अनुमान कर सकते हैं, क्योंकि वहां पर दोहरी नागरिकता होती है, अर्थात हर राज्य की अलग नागरिकता होती है, और देश की नागरिकता तो होती ही है। साथ ही वहां हर राज्य अपने अपने झंडे रखता है, इत्यादि।

अमेरिका संघ को शक्ति नहीं है, कि वह राज्यों का विनाश या पुनर्गठन कर सके। इसलिए अमेरिका को “अविनाशी राज्यों का अविनाशी संघ कहा गया है”

वहीं भारत अपने आपको पहले संघ मानता है, और तत्पश्चात राज्यों को प्रशासन की दृष्टि से बांटता है। 

जहां अमेरिका में राज्य अपनी कुछ शक्तियां संघ को सौंपते हैं, वहीं भारत में संघ राज्यों को शक्तियां प्रदान करता है। भारत में एक ही नागरिकता है और राज्यों को अपने-अपने झंडे की अनुमति नहीं है। साथ ही भारत को “विनाशी राज्यों का अविनाशी संघ” कहा गया है। जबकि अमेरिका “अविनाशी राज्यों का अविनाशी संग” है भारत में विनाशी राज्यों से तात्पर्य राज्यों के पुनर्गठन से हैं। जिसमें संसद को शक्ति प्राप्त है की वह राज्यों की सीमाएं, क्षेत्रफल, नामों में परिवर्तन कर सकती है, और नए राज्यों का निर्माण भी कर सकता है। यह शक्ति संसद को संविधान का अनुच्छेद -3 के तहत प्राप्त है। अतः भारत ने, राज्यों के द्वारा निर्मित संघ  “Federation of state” के स्थान पर संघ द्वारा निर्मित राज्य “Union of state” के रूप में अपने आपको बताया है ।

शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

भारत में समाजवाद | कांग्रेस vs भाजपा

भारत में समाजवाद

समाजवाद किसी भी राष्ट्र का अपने नागरिकों के लिए अंतिम लक्ष्य है। जिसका तात्पर्य नागरिकों में समानता लाने से है। समाजवाद को आप इस आलेख [ समाजवाद का विचार और पूंजीवादी | मार्क्सवाद में समझ सकते हैं।

मोटे तौर पर समाजवाद वंचितों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने का सिद्धांत है। भारत में समाजवाद की दिशा में कई कार्य आजादी के बाद से ही आरंभ किए गए जैसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण, जमींदार प्रथा के अंत के लिए कानून, भूमि सुधार कानून जिसमें जो जमीन के बड़े भाग जमीदारों ने अपने कब्जे में किए थे। वह बड़ी जमीन के भाग उनकी संपत्ति हो गई थी, जिसके चलते जो अन्य लोग थे, वे जमीदारों के यहां केवल मजदूर के रूप में कार्य करते थे और इससे बेगारी, मजदूरी और भीषण गरीबी, असमानता और अन्याय की संभावना बनी रहती थी। 

आजादी के बाद सबसे पहले यही कार्य किया गया। उन जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों में बांट दी गई, और जमीदारी प्रथा का भी अंत कर दिया गया। यह समाजवादी विचार के अंतर्गत किया गया कार्य है। जहां संसाधन को समाज के हर व्यक्ति में बराबर बांट दिया गया और जमीदार वर्ग की इतिहास में उस बड़े जमीन के भाग को हासिल करने के लिए की गई मेहनत मशक्कत को महत्व नहीं दिया गया तथा संसाधनों का समाजीकरण कर दिया गया।

यह कदम सरकार के समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हैं, ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि समाज में सभी तबके के लोग गरीब, अमीर, मध्यम के लिए एक सरकार जो सबकी है, स्थापित है। वह सरकार कृषि की सारी जमीन को जो जमीदार के एकाधिकार में थी, उसे छीन लेती है और किसानों में बराबर बांट देती हैं, यह समाजवाद है। 

 समाजवादी विचार का मुख्य उद्देश्य यह भी है, कि राज्य के संपूर्ण संसाधनों पर या तो सीधे जनता का नियंत्रण हो, या राज्य की सरकार का, किंतु पूंजीवाद का पूर्ण विरोध किया गया है।

कांग्रेस के शासन से ही भारत में समाजवाद के साथ-साथ पूंजीवाद भी पनपता रहा है। निजी क्षेत्रों में पूंजीपतियों ने बड़े-बड़े व्यापार को स्थापित किया है। इसलिए भारत के समाजवाद को विशिष्ट स्वरूप का कहा गया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण की समाजवाद को पूंजीवाद के विपरीत देखा गया है।

  हो सकता है, कि कांग्रेस का अधिक झुकाव था, कि देश की तमाम संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया जाए और पूजीपतियों को हावी ना होने दिया जाए। अथवा सरकार संस्थाओं को अपने हाथ में रखे, और तब जनता को एक समान रूप से उसका लाभ मिलता रहे, एक समान नीतियों के अंतर्गत जो कि सरकार तय करेगी। और इसलिए कांग्रेस की ओर से भाजपा की वर्तमान सरकार पर लगातार आरोप लगाए जाते हैं, कि भाजपा ने देश में तमाम सरकारी संस्थाओं का जैसे रेलवे, संचार, एयर सर्विस आदि का प्राइवेटाइजेशन कर दिया है। अथवा प्राइवेट व्यापारियों को सौंप दिया है और यह निजीकरण है क्योंकि संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण या सरकारीकरण की अपेक्षा संस्थाओं का प्राइवेटाइजेशन और पूंजीवाद अधिक बढ़ता दिख रहा है। जिससे समाजवादी विचार को खतरा है।

यह सत्य है, कि पूंजीवाद में खतरा होता है, कहीं पूजीपतियों का एकाधिकार ना हो जाए और वे मनमानी करने लगेंगे। लेकिन पूंजीवाद आजादी के बाद से कांग्रेस के काल में भी पनपता रहा है क्योंकि कांग्रेस सरकार भी पूंजीवाद के महत्व को समझती थी। और विश्वास करती थी कि समाजवाद कि यूरोपीय सिद्धांत के साथ चलकर पूंजीवाद को पूर्णता समाप्त करने के बजाए पूंजीपतियों और सरकार के सामन्जस्य से तीव्र विकास के चलते समाजवाद को अधिक तीव्रता से हासिल किया जा सकता है।

आप इसे ऐसे समझे की निजीकरण ने एक प्रकार से समाजवाद की ओर भी प्रयास किया है। हमें स्वीकार करना होगा, कि निजी व्यापार में कार्य सरकारी व्यवस्था की अपेक्षा अधिक तीव्रता से होता है। इससे यदि किसी पूंजीपति व्यापारी ने जो संचार के क्षेत्र में कंपनी का मालिक है, ने सरकारी संचार की कंपनियों की अपेक्षा अधिक तीव्रता से और देश के दूरस्थ क्षेत्रों को संचार से जोड़ पाने में सफलता हासिल की है। जहां सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत संचार सेवा आज तक पहुंच ही नहीं सकी थी। क्योंकि पूंजीपति ने बाजार में प्रतिस्पर्धा के चलते अधिक मेहनत से कार्य किया और दूर-दूर तक संचार व्यवस्था स्थापित की यह भी समाजवाद की दिशा में एक कदम है। जहां शहर के लोग जो संचार तथा इंटरनेट की सुविधा का उपभोग करते हैं, लेकिन दूर विषम परिस्थितियों युक्त गांव के लोग इस सुविधा का उपभोग नहीं कर सकते। सरकारी व्यवस्थाओं के अंतर्गत अब तक उन गांव में संचार व्यवस्था नहीं पहुंच सकी थी। अब वहां संचार व्यवस्था की सुविधा है, इस वजह से गांव और दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले लोग और शहरों में रहने वाले लोगों को संचार के मामले में समान सुविधा मिल रही है। अर्थात समानता आई है, और समानता लाने का विचार ही समाजवाद है। इस प्रसंग में समाजवाद पूंजीपतियों के द्वारा लाया गया, इसलिए यह कहा जा सकता है, की सरकार पूंजीपतियों के सहयोग से विकास के कार्यो को तो तीव्र कर ही सकती है, साथ ही समाजवाद की दिशा में भी आगे बढ़ सकती है।

यह मानना होगा, कि पूंजीपतियों के हाथ में विकास की गति तीव्र हो जाती है। बजाय सरकारी व्यवस्थाओं में हो रही विकास की गति से। इसीलिए आज युवाओं से स्टार्टअप और अपने इनिशिएटिव को आगे बढ़ाने के लिए जागरूक किया जा रहा है।

 किंतु साथ ही सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए, कि पूंजीपतियों की मनमानी आरम्भ ना हो जाए, और ख्याल रखना होगा, कि कहीं समाज में ऐसा भी वर्ग हो जिसका जीवन स्तर इतना निम्न है। तथा आय इतनी कम है, कि वह किसी भी सेवा का लाभ नहीं उठा पा रहा है।।

पूंजीवाद के चरम पर होने के नुकसान हम अगले आलेख में देखेंगे….

समाजवाद का विचार और पूंजीवादी | मार्क्सवाद

समाजवाद समाज में समानता के लक्ष्य का सिद्धांत है। इसे पूर्ण रूप से परिभाषित तो नहीं लेकिन समाजवाद मजदूर वर्ग को अपना आधार मानकर समाज में बराबरी के लिए एक संघर्ष का आंदोलन रहा है। क्योंकि समाजवाद मजदूर वर्ग को वंचित वर्ग मानता है। समाजवाद का अंतिम लक्ष्य समाज को वर्ग रहित करना है। इसलिए मार्क्स ने कहा “दुनिया के मजदूर एक हो जाओ”

समाजवाद की राजनीतिक विचारधारा 19वीं सदी में यूरोप के देशों में विशेषकर इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों में लोकप्रिय होने लगी। समाजवाद दरअसल वहां के समाज और उन देशों में औद्योगिकरण की तेज विकास गति का परिणाम था। पूंजीपतियों के जन्म ने समाज में अन्य वर्गों को बहुत नीचे गिरा दिया और उनमें समाजवाद का विचार लोकप्रिय हो गया।

समाज जो पूर्व से व्यक्तिवाद पर चल रहा था। अर्थात हर व्यक्ति अपने उत्थान के लिए अपनी क्षमता अनुसार प्राप्त कर सकता है, और आगे बढ़ता है। किंतु औद्योगिकीकरण के बाद यह बड़े अंतर का कारण हो गया। समाज में एक वर्ग पूंजीपतियों का बहुत ऊंचा तैयार हो गया तथा एक अन्य वर्ग जो निम्न वर्ग कहलाया या वंचित वर्ग। 

समाजवादियों ने मजदूर वर्ग को वंचित वर्ग कहा और उनसे अपील की कि वे एक हो जाएं।

यूं भी कह सकते हैं, कि उन्नीसवीं सदी के आरंभ में समाजवादी वह विचारधारा है, जो व्यक्तिवाद का विरोध करते और दुनिया के या राज्य के सभी संसाधनों को सभी में समान रूप से वितरण होना चाहिए ऐसा मानते। 

समाजवादी पूंजीवाद के विरोधी हैं। समाजवादी सिद्धांत का एक मुख्य विरोध है, कि वह समाज में निजी संपत्ति और उसके आधार पर उस व्यक्ति को प्राप्त अधिकारों का विरोध करते हैं। वे चाहते हैं, कि राज्य की संपूर्ण धन संपत्ति का स्वामित्व और उसका विवरण या तो सीधे समाज के हाथों में रहे या राज्य के हाथों में।।

साम्यवादी विचारधारा ही मार्क्सवाद कहलाती है। कार्ल मार्क्स एक समाजवादी विचारक थे। साम्यवाद को इस आलेख में जाने… साम्यवाद का विचार | मार्क्सवाद

लोकतांत्रिक समाजवाद | भारत में समाजवाद का स्वरूप

समाजवाद

लोकतांत्रिक समाजवाद वह विचार है। जिसमें समाजवादी विचार का अनुसरण तो है ही, किंतु साथ ही पूंजीवादी विचार को भी स्थान प्राप्त है। अर्थात समाज में धनवान वर्ग को भी स्थान दिया गया है। जबकि समाजवाद इसका विरोध करता है। उसका अंतिम लक्ष्य समाज को वर्ग रहित बनाना है जहां सभी बराबर हो।

लेकिन भारत में समाजवाद का स्वरूप यही है। जहां पूंजीपतियों को उन्नति का अवसर प्राप्त है। और सरकार भी अपनी संस्थाओं को जिन पर उसका नियंत्रण है, आगे बढ़ाती है। और यह सरकार और पूंजीपतियों के प्रयास से और कार्यों में उनके सामन्जस्य से प्राप्त समाजवाद की धारणा पर विश्वास करता है।

भारत के संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा जिसे मिनी कॉन्स्टिट्यूशन कहा जाता है, समाजवाद शब्द जोड़ा गया था। भारत का समाजवाद सदैव विशेष स्वरुप को लिए रहा। जहां भारत में समाजवादी विचार के तहत वंचित वर्ग को महत्व दिया गया। वहीं पूंजीवादी वर्ग को भी उनकी उन्नति से वंचित नहीं किया गया। वंचित को बराबरी तक लाने के प्रयास आरंभ हुए किंतु यह पूंजीपतियों का विनाश कर ऐसा नहीं किया गया, बल्कि दोनों को स्वतंत्र रूप से बढ़ने के अवसर उपलब्ध किए गए। वहीं वंचित वर्ग को विशेष तौर से आगे बढ़ाने के लिए प्रयास आरंभ हुए जैसे आरक्षण आदि अनेक सरकारी योजनाएं जिनका उद्देश्य वंचित वर्ग को बराबरी तक लाना होता है।

समाजवाद और साम्यवाद की धारणा जब अपनी सर्वोच्चता पर थी तो विचार था, कि सभी मजदूर वंचित वर्ग एक हो जाओ और पूंजीपतियों का अंत कर दो और सारा धन संपत्ति सब में बराबर बांट दो।

किंतु भारत में पूंजी पतियों की उन्नति को भी समाजवाद लाने की दिशा में एक कदम के रूप में देखा गया।

1982 में बी०एस० नाकारा केस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में समाजवाद के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए टिप्पणी की कि समाजवाद~>

“पालने से लेकर कब्र तक सुरक्षा प्रदान करना” है।

 इस समाजवाद को प्राप्त करने के लिए तीन बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित किया गया~>

● आय की असमानता को कम किया जाए।

● जीवन स्तर के असमानता को दूर किया जाए। 

● मजदूर, शोषित वर्ग, वंचितों का कल्याण।

 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस निर्णय में नहीं कहा गया, कि संसाधनों का समाजीकरण या उन्हें बांट दिया जाए। अर्थात पूंजीवाद की संभावना है। और भारत के समाजवाद में पूंजीवाद का उन्नयन होता रहा। इस प्रकार भारत का समाजवाद विशिष्ट स्वरूप लिए है।।

शनिवार, 2 जुलाई 2022

प्रधानमंत्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति की विवेकानुसार निर्णय लेने की शक्ति

प्रधानमंत्री की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति की वयक्तिक विवेक स्वतंत्रता की चर्चा करें?

प्रधानमंत्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति की विवेकानुसार निर्णय

【 नोट- राष्ट्रपति की व्यक्तिक विवेक स्वतंत्रता का तात्पर्य है कि राष्ट्रपति के द्वारा व्यक्तिगत विवेक के आधार पर निर्णय लेना 】

प्रधानमंत्री की नियुक्ति के संबंध में संविधान का अनुच्छेद 75 कहता है। कि राष्ट्रपति के द्वारा प्रधानमंत्री की नियुक्ति होगी। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री के निर्वाचन की कोई विशेष प्रक्रिया नहीं दी गई है।

सामान्य परंपरा के अनुसार लोकसभा में बहुमत दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित करता है। किंतु प्रधानमंत्री के निर्वाचन के संबंध में दो परिस्थितियां जहां राष्ट्रपति की व्यक्तिक विवेक स्वतंत्रता कार्य करती है।

पहली परिस्थिति में जब संसद में कोई भी दल बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता है। इस दशा में राष्ट्रपति अपनी व्यक्तिक विवेक स्वतंत्रता का प्रयोग करता है, और बड़े दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है। वह 1 माह के भीतर उसे संसद में बहुमत अथवा विश्वास मत हासिल करने के लिए कहता है।

1980 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के प्रधानमंत्री को नियुक्त करने और प्रधानमंत्री के संसद में बहुमत सिद्ध करने के संदर्भ में में कहा था। कि संविधान में यह आवश्यक नहीं है, कि एक व्यक्ति प्रधानमंत्री नियुक्त होने से पूर्व ही लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करे, बल्कि प्रक्रिया बताई गई कि राष्ट्रपति को पहले प्रधानमंत्री को नियुक्त करना चाहिए, और उसके पश्चात निश्चित समय सीमा में प्रधानमंत्री को बहुमत सिद्ध करने के लिए कहना चाहिए।

दूसरी परिस्थिति में जब पद पर रहते हुए प्रधानमंत्री की मृत्यु हो जाए। इस दशा में यदि सत्ताधारी दल के द्वारा प्रधानमंत्री का कोई स्पष्ट नेता निर्धारित न किया जा सका हो। राष्ट्रपति अपने व्यक्तिगत निर्णय के आधार पर प्रधानमंत्री नियुक्त करता है किंतु यदि सत्ताधारी दल प्रधानमंत्री की मृत्यु के पश्चात एक नया नेता चुनता है, तो राष्ट्रपति को उसी नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करना होगा।

1979 में पहली बार राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने प्रधानमंत्री के निर्वाचन में अपनी व्यक्तिगत विवेक का प्रयोग किया था। जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व की जनता दल की सरकार का पतन हो गया तो राष्ट्रपति के द्वारा गठबंधन के नेता और जो तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, को प्रधानमंत्री नियुक्त किया।

जब 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। तब तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपने व्यक्तिक निर्णय के आधार पर से राजीव गांधी को प्रधानमंत्री नियुक्त किया, और इसके बाद कॉन्ग्रेस दल ने संसद में राजीव गांधी को अपना नेता स्वीकार किया। इससे पूर्व में भी इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न हुई जब प्रधानमंत्री का पद पर रहते ही अक्स्मात निधन हो गया ।

1964 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए ही निधन हुआ। तब राष्ट्रपति ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में एक अस्थाई व्यवस्था अपनाई 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए निधन हुआ तब भी अस्थाई व्यवस्था के तौर पर कार्यवाहक प्रधानमंत्री को नियुक्त किया गया। 1964 और 1966 में दोनों ही समय कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर गुलजारी लाल नंदा को कार्यभार सौंपा गया।।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

संविधान के अनुसार राष्ट्रपति की स्थिति भारत की संसदीय व्यवस्था में नाममात्र के कार्यपालिका प्रधान की है। कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान प्रधानमंत्री होता है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है, की राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है। किंतु कार्यकारी नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, किंतु उस पर शासन नहीं करता। राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है। जबकि प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है।
राष्ट्रपति की शक्तियों के संदर्भ में अनुच्छेद 53 और अनुच्छेद 74 जो इस प्रकार हैं-
अनुच्छेद 53 के अनुरूप “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। वह इसका प्रयोग स्वयं व अपने अधीनस्थ अधिकारियों के सहयोग से करेगा”

यहां  प्रयुक्त “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी” का तात्पर्य राष्ट्रपति के संघ की कार्यपालिका की औपचारिक रूप से प्रधानता से है।

अनुच्छेद 74 के अनुरूप- “राष्ट्रपति की सलाह व सहायता के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद होगी और वह अपने कार्य व कर्तव्य का उनकी सलाह पर निर्वहन करेगा”
इस अनुच्छेद के अंतर्गत दर्शाई गई प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद ही राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित करते हैं।

संसद के द्वारा पारित कोई विधायक जब राष्ट्रपति के पास पहुंचता है, तो अनुच्छेद111 के अंतर्गत राष्ट्रपति को उस पर वीटो शक्ति प्राप्त होती है। किन्तु वास्तव में इस संदर्भ में भी राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से सलाह जरूर लेता है। ठीक इसी तरह अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति को प्राप्त क्षमादान की शक्ति के संदर्भ में भी व्यावहारिक तौर से राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह जरूर लेता है।

किंतु मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्ति के विषय में हम दो घटनाओं को देखेंगे।
1997 में जब राष्ट्रपति के० आर० नारायण ने मंत्रिमंडल के द्वारा दी गई सलाह कि उत्तर प्रदेश में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। तो राष्ट्रपति ने इस मामले को मंत्रिमंडल में पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया। जिसके बाद मंत्रिमंडल ने इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया, और उस समय की उत्तर प्रदेश में बी०जे०पी० शासित मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कि सरकार बच गई।


1998 में मंत्रिमंडल ने पुनः राष्ट्रपति के०आर० नारायण को बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की इस बार भी राष्ट्रपति ने मामले को मंत्रिमंडल की पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दिया। कुछ महीने पश्चात कैबिनेट ने पुनः यही सलाह राष्ट्रपति को दी। जिसके बाद 1999 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।

इन दोनों घटनाओं से आप राष्ट्रपति को मंत्री परिषद द्वारा दी जाने वाली सलाह के संदर्भ में राष्ट्रपति की पुनर्विचार के लिए मामले को वापस मंत्रिमंडल के पास भेजने की शक्ति से अवगत हुए हैं। ध्यान दें कि यह घटनाएं मंत्रीपरिषद् के द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सलाह के संदर्भ में है। यह संसद के द्वारा पारित किए गए विधेयक के संदर्भ में राष्ट्रपति की शक्तियों से अलग है।
[ नोट- राष्ट्रपति को संसद के द्वारा पारित किए गए विधेयक के संदर्भ में उस विधेयक को स्वीकृति कर कानून बनाने, उस विधेयक को रोककर रखने, पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के अधिकार प्राप्त हैं। जिन्हें वीटो शक्ति कहा जाता है ]

राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के द्वारा दी गई सलाह के संदर्भ में राष्ट्रपति जिस शक्ति से उस मामले को एक बार पुनर्विचार के लिए मंत्री परिषद को वापस भेजता है। यह शक्ति 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 और 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में दी गई है।

1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व की सरकार ने 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में कहा की राष्ट्रपति पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह बाध्यकारी होगी।
अर्थात राष्ट्रपति को मंत्री परिषद के द्वारा दी गई सलाह को मानना ही होगा। वह पुनर्विचार के लिए मंत्रिपरिषद को मामले को वापस नहीं भेज सकता।

1978 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद उसने 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में कहा कि राष्ट्रपति को अधिकार है, कि वह सामान्यतः अथवा अन्यथा मंत्रिमंडल को सलाह पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। हालांकि पुनर्विचार की बाद यदि मंत्रिमंडल वहीं सलाह राष्ट्रपति को पुनः देता है। तब राष्ट्रपति उस सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा।

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏