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राठ क्षेत्र से मुख्यमंत्री आवास तक का सफर | कलाकारों का संरक्षण राज्य का कर्तव्य

  एक होली की टीम ने पहल की वे देहरादून जाएंगे अपने लोगों के पास और इस बार एक नई शुरुआत करेंगे। कुछ नए गीत उनके गीतों में खुद का भाव वही लय और पूरे खुदेड़ गीत बन गए। खूब मेहनत भी की और इस पहल को करने का साहस भी किया। देहरादून घाटी पहुंचे और पर्वतीय अंचलों में थाली बजाकर जो हम होली मनाया करते थे, उसे विशुद्ध कलाकारी का स्वरूप दिया। हालांकि आज से पहले बहुत से शानदार टोलियों ने होली बहुत सुंदर मनाई है।। बदलते समय के साथ संस्कृति के तमाम इन अंशो का बदला स्वरूप सामने आना जरूरी है, उसे बेहतर होते जाना भी जरूरी है। और यह तभी हो सकता है, जब वह प्रतिस्पर्धी स्वरूप में आए अर्थात एक दूसरे को देखकर अच्छा करने की इच्छा। इस सब में सबसे महत्वपूर्ण है, संस्कृति के इन छोटे-छोटे कार्यक्रमों का अर्थव्यवस्था से जुड़ना अर्थात इन कार्यक्रमों से आर्थिक लाभ होना, यदि यह हो पा रहा है, तो सब कुछ उन्नत होता चला जाएगा संस्कृति भी। उदाहरण के लिए पहाड़ों में खेत इसलिए छूट गए क्योंकि शहरों में नौकरी सरल हो गई और किफायती भी। कुल मिलाकर यदि पहाड़ों में खेती की अर्थव्यवस्था मजबूत होती तो पहाड़ की खेती कभी बंजर ना हो...

लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जी ने किसके खिलाफ मोर्चा खोला है?

श्रीनगर किताब कौथिक आयोजित ना होना या जो खबर है, कि उसे होने से रोका गया। इस घटना ने बहुत से सवालों को पैदा किया है, बात यह है कि श्रीनगर में किताब कौथिक आयोजित होना था। इस कौथिक को करवाने वाली उस टीम में सदस्य कहें, हेम पंत जी ने अपनी बात को रखा। वह कहते हैं, कि इस आयोजन को पॉलिटिकल दृष्टि से देखा जा रहा है। जबकि ऐसा कुछ है नहीं। हम पहाड़ों के दूरस्थ गांव में पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहते हैं, उसे स्थापित करना चाहते हैं। हमारे राज्य के ऐतिहासिक, पौराणिक क्षेत्र का ज्ञान लोगों को करवाना चाहते हैं। यही हमारा उद्देश्य है 12 सफल आयोजन करवाने के बाद 13 वें आयोजन में इस प्रकार की रुकावट को वे खेदपूर्ण बताते हैं। दूसरी तरफ छात्र संघ है। छात्र संघ ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और बताया कि हमें इस बात की सूचना जब मिली की कॉलेज परिसर में किताब कौशिक का आयोजन होगा और इसमें कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी किए जाएंगे। हमने लाइब्रेरी में जो तमाम छात्र पढ़ने आते हैं उनसे बात की तो उनकी सहमति पर क्योंकि उनकी परीक्षाएं चल रही हैं, जिसके चलते छात्र हित में हमने इस किताब कौथिक के कार्यक्रम को इस वक्त स्थ...

गढवाली बोली | गढवली मा | मां की जुबान मातृबोली

गढवाली बोली     शायद मेरी मां ला बचपन मा मी थैं इन नी सिखै होलो कि यु बिरौलो नी च ये कु  C A T  कैट बुलदिन, शायद वांकु परिणाम चा कि मि गढवली अपड़ी मातृभाषा थैं जणदूं छों। कम से कम इतगा जणदूं छों कि अपड़ी बात अपड़ी मातृबोली मा बोली सोकूं अर समझी सोकू।    ईं मातृबोली से हमरी मां की जुबान च हम मा। हमारी मां की संघर्ष की कहानी च हम मां। वा जुबान हम मा सदनी कु राली। या जुबान हमरी मां को ज्ञान च हम मा। जु हमारी मां थैं हम मा सदनी रखलो। वीं आपबीती थैं सदनी बयां करली या जुबान। या जुबान हम मा अर हमारी ओंण वली पीढी मा सदनी जिंदा राली अर वीं संघर्ष की कहानी थैं बयां कनी राली। बोला दौं क्या नी दे ईं बोली ला हम थैं।    ऊ लोग जौंका मन की बात सिर्फ ईं बोली मा ह्वे सकदी, ऊंका आखरूं थैं, ऊकां दुख सुख से हम थैं ज्वड़दी। या बोली मीं थैं ऊंका इतगा करीब ला के खड़ी करदी, मिं ऊं थैं जाणी सौकू यनु लायक बणोंदी।    गढवली बुलण वला लोगों की भावनाओं की कदर ऊं लोगों ह्वे सकदी, जुं थै वीं बोली की समझ हो। कदर तभी ह्वे सकदी जब वीं बात की समझ हो।