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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

मौर्य काल का भारत कैसा था | Maurya empire

मौर्य काल में मगध साम्राज्य में विस्तार हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल में पहले सौराष्ट्र को और फिर 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस को हराकर संधि में अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान का प्रदेश भी प्राप्त किया। इस विजय यात्रा को पुनः अशोक ने बढ़ाया, जो 261 ईसा पूर्व कलिंग की विजय के पश्चात अहिंसात्मक नीति का अनुसरण करने लगा। यूं कहें कि मौर्य काल की विजय यात्रा अशोक की कलिंग विजय तक रही। इसके पश्चात तो मौर्य वंश के पतन का ही अध्ययन प्राप्त होता है। मौर्य काल के समय भारत की क्या दशा थी, अर्थात मौर्यकालीन भारत कैसा था, इस पर एक संक्षिप्त परिचय कुछ इस प्रकार से है।

कौटिल्य ने अपने महान ग्रंथ अर्थशास्त्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार जातियों का जिक्र किया है। और वही यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने सात जातियों का अर्थात दार्शनिक, किसान, ग्वाले, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक और अमात्य का जिक्र किया है। इस काल में दास प्रथा का भी प्रचलन हुआ करता था। अध्ययन में आता है, कि आठ प्रकार के विवाह उस काल में प्रचलन में थे। शादी के लिए कन्या की उम्र बारह वर्ष और वर की उम्र सोलह वर्ष होनी चाहिए थी। पुनर्विवाह का भी प्रचलन था।

उस वक्त पर मदिरापान मांस भक्षण का भी चलन था, किंतु अशोक ने अपने काल में इन पर काफी प्रतिबंधित कर दिया था। अध्ययन में आता है, कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने काल में जैनियों को समर्थन दिया था। अशोक के काल तक आते-आते बौद्ध धर्म को यह समर्थन प्राप्त हुआ। अशोक ने बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया। हालांकि ब्राह्मण धर्म का अभी अच्छा जोर था, जिसके अंतर्गत यज्ञ और बली प्रथा का भी समाज में अनुसरण होता था।

इन सब में सबसे महत्वपूर्ण की मौर्य शासन में धार्मिक स्वतंत्रता थी। लोगों को किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता रहती थी। उस काल में सभी धर्मों ने समान रूप से फल फूल कर चलन हासिल किया। मूर्ति पूजा का भी चलन था, और मंदिरों का निर्माण हुआ करता था। धर्म सभा और तीर्थ यात्राओं का प्रचलन हो चला था। मैगस्थनीज के विवरण में यह मालूम होता है, कि उस वक्त पर मौर्य काल में विदेशियों के सुरक्षा की पूरी व्यवस्था की जाती थी। यातायात और व्यापार के लिए समुचित सुलभता प्रदत्त दी जाती थी।

कृषि और पशुपालन समाज में लोगों का मुख्य व्यवसाय था, वही उनकी आर्थिक मजबूती का आधार था। सूती वस्त्रों के उद्योग धंधे और धातु की बनी सुंदर चीजों का व्यापारिक प्रचलन भी था।

साहित्य और शिक्षा के उत्थान में मौर्य काल की महत्वपूर्ण भूमिका है। बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों का संकलन भी इसी काल में हुआ है। तक्षशिला उच्च शिक्षा का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण केंद्र रहा। गुरुकुल, बिहारो, मठों में शिक्षा वितरण होती थी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र महान ग्रंथ उसी काल की देन है।

मौर्य काल में कला ने विभिन्न आयामों में उन्नति का चरम प्राप्त किया। कहते हैं, कि जब चीनी यात्री फाह्यान ने पाटलिपुत्र का राजप्रासाद देखा, तो आश्चर्यचकित हो गया उसे लगा कि यह मानवों ने नहीं बनाया है, बल्कि यह तो देवताओं ने बनाया है। यह कहे कि इस काल में सुंदर गृहों के निर्माण की कला फल-फूल रही थी। मौर्य काल में सम्राट अशोक के द्वारा बनाए स्तूप, स्तंभ और उन पर की गई पोलिश आज भी शीशे की तरह साफ चमक रही है। अशोक की लाट पर अंकित चित्र कैसे सुंदर सजीव प्रतीत होते हैं।

मौर्य काल को पाषाण काल का श्रेष्ठ दौर कहें तो गलत नहीं होगा। क्योंकि पत्थर और मूर्तियों का निर्माण इस काल में उन्नत दशा में था।

सोमवार, 31 जनवरी 2022

अशोक के पश्चात | मौर्य वंश का पतन

अशोक के पश्चात मगध के शासन पर 48 वर्षों तक उसी के वंशजों ने शासन किया। अशोक का पुत्र कुणाल अशोक के पश्चात सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, तत्पश्चात दशरथ संप्रति, शालिशुक, देववर्मा, शतधनुष तथा वृहद्रथ नाम के शासकों ने मगध के शासन पर मौर्य वंश का गौरव रखा।मौर्य वंश का अंतिम शासक वृहद्रथ की हत्या उसके ही मंत्री पुष्यमित्र शुंग ने कर मौर्य वंश का अंत कर दिया।

मौर्य साम्राज्य का पतन यूं कहें कि अशोक के शासनकाल से ही प्रारंभ हुआ तो गलत ना होगा। अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति श्रद्धा ब्राह्मण धर्म के कट्टर अनुयायियों को रास नहीं रही होगी। उन्होंने अशोक के पश्चात आने वाले मगध सम्राटों को असहयोग प्रस्तुत किया होगा। अशोक की अहिंसात्मक नीति ने सेना पर भी एक बड़ा प्रभाव डाला।राजकोष का अत्यधिक धन सार्वजनिक हित में प्रयोग होने लगा। शिलालेख, स्तंभों का निर्माण यह सब राज्य की सुरक्षा के अतिरेक राजकोष पर भार था। अशोक के शासनकाल के पश्चात उसके उत्तराधिकारी इतनी भी योग्य ना थे, कि वह मगध के इतने विशाल साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचा सकें। साम्राज्य की इतनी विशालता, अशोक के उत्तराधिकारियों की केंद्रीय शासन में निर्बलता ने प्रांतपतियों में स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के प्रयत्न के भाव को जन्म दिया। अशोक के पश्चात साम्राज्य का विस्तार कम हो जाने के कारण राजकोष राज्य की आय पर गहरा धक्का लगा। इतना ही नहीं अर्थशास्त्र में प्रमाण मिलता है कि मौर्य काल में करों की अधिकता थी।

यह सब प्रजा में असंतोष का कारण बन रही थी। अशोक के उत्तराधिकारिओं प्रांतपतियों और अन्य अधिकारियों के द्वारा प्रजा पर किए अत्याचारों ने प्रजा को शासन के विरोध में लाकर खड़ा कर दिया। अशोक के पश्चात तो मौर्य शासन की राज्यसभा में आंतरिक गुटबंदी, आंतरिक कलह ने जन्म ले लिया। स्वयं मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ को अपने ही सेनापति के द्वारा उसकी हत्या कराने की राजनीतिक षड्यंत्र की सूचना हुई। यह कारण मौर्य वंश को भीतर से निर्बल करते गए।

शनिवार, 29 जनवरी 2022

Ashoka maurya | अशोक महान क्यों?

अशोक मात्र भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व के महान सम्राटों में गिना जाता है। उसकी महानता में अनेक विद्वान लिखते हैं। एच जी वेल्स ने लिखा “प्रत्येक युग और प्रत्येक राष्ट्र इस प्रकार के सम्राट को नहीं उत्पन्न कर सकता है। अशोक अब भी विश्व के इतिहास में अद्वितीय है”। अशोक का सभी राजस्व सुखों का त्याग विलासिता का त्याग और संत के समान जीवन यापन उस समय पर एक सम्राट के विषय में बेहद रोचक प्रसंग दिखाता है। उसकी सहष्णुता तथा उदार प्रवृत्ति ने कभी प्रजा पर अपने धर्म को थोपने का प्रयत्न नहीं किया। हां स्वतंत्र प्रसार का प्रयत्न जरूर किया। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। किंतु उसने कभी प्रजा पर बौद्ध धर्म के अनुसरण को लेकर अत्याचार नहीं किए। वह सभी संप्रदाय के साधु-संतों में दान दक्षिणा करता रहा। उसने अपने धर्म को राज्य धर्म घोषित कर दिया था, और इस धर्म की बातें इतनी सरल थी, कि कोई भी व्यक्ति इन्हें अपनाकर भौतिक सुखों में निर्लज्जता से बचा रहे, और एक स्वस्थ समाज को जन्म देने में योगदान दे।

मात्र एक महान धर्म प्रचारक होने के साथ-साथ अशोक एक महान राष्ट्र निर्माता भी था। उसने अपने साम्राज्य में एक भाषा तथा एक लिपि का प्रयोग करवाया, यह भाषा पाली थी, और लिपि ब्राह्मी। उसके द्वारा बनवाए गए स्तंभ लेख, शिलालेख, स्तूप आज भी राष्ट्रीय समृद्धि है। अशोक की महानता को एक लेखक इन शब्दों में प्रस्तुत करता है कि-

“हम यही कहेंगे कि विश्व के भागीरथ भूपति भूधरों उत्तुंग शिखर शिखरों के मध्य अशोक को गौरी शंकर की गगनचुंबी शिखा ही मानना चाहिए। वह विश्व के राजनीतिक गगन मंडल का देदीप्यमान प्रभाकर है। जिस का अनुपम आलोक अमर रहेगा धन्य है। धन्य है वह धर्म धुरीण धनुर्धर जिसने अपनी धर्मायुध से धर्म हीनता धूली-धूसरित कर धर्म विजय की धवल ध्वजा फहराई, और धन्य है, वह धर्म धरा-धात्री जिसने अपनी पुनीत पयोधर से पावन पय-पान कराकर उस परम पुरुष का पालन पोषण किया, इसी से तो उसके चक्र को स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय झंडे में स्थान देकर भारत सरकार भारत की जनता से उसका अभिनंदन करा रही है और उसे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रही है”।

डॉक्टर हेमचंद्र रायचौधरी ने अशोक की महानता को कुछ इस प्रकार लिखा कि-

“भारत के इतिहास में अशोक का व्यक्तित्व बड़ा ही रोचक है, उसमें चंद्रगुप्त की क्षमता, समुद्रगुप्त की प्रतिभा और अकबर की धर्म निष्ठा विद्यमान थी”।

यह सबसे महत्वपूर्ण है, कि अशोक के जीवन में कलिंग विजय के पश्चात कभी ऐसा समय ना सामना हुआ, जिसमें अशोक को युद्ध में शरीक होना पड़े। अशोक राज्य के शासन को लोक मंगलकारी और प्रजा के भौतिक जीवन को सुख समृद्धि संपन्न मात्र न करने वाला बल्कि प्रजा के जीवन का नैतिक और आध्यात्मिक स्तर को ऊंचा करने वाला बताया है।

एक सम्राट जो भारत के विशाल साम्राज्य का सबसे बड़ा शासक है, वह अपनी युद्ध यात्रा का त्याग करता है, और सबसे महत्वपूर्ण हिंसा का त्याग कर देता है। यह घोषणा आत्यायियों को कितना बल देती होगी। किंतु यह अशोक के धम्म के प्रसार का ही प्रभाव रहा होगा, कि पड़ोसी अन्य राज्यों ने भी लोक मंगलकारी कार्यों को लक्ष्य रखा ना कि युद्ध को।यही कारण होगा की अशोक की सीमाएं उसके आजीवन कलिंग विजय के बाद स्थिर रही, और वह तब जब सम्राट शस्त्रों का त्याग कर देता है, किंतु आक्रमणकारियों ने शस्त्र त्याग दिए हों ऐसा तो नहीं था। यदि अशोक कलिंग के युद्ध के बाद भी अपने राज्य की रक्षा के लिए युद्ध में आशक्त था, तो वह उसके अहिंसा के धर्म, उसके स्वयं के निभा पाने में, उसकी आजीवन पीड़ा रही होगी।

रविवार, 23 जनवरी 2022

अशोक | Maurya Empire

बिंदुसार के बड़े पुत्र अशोक का सिहासनारोहण कलिंग विजय और अशोक के धम्म तक की यात्रा उस काल के बेहद रोचक शासक होना दर्शाती है। अशोक ने अपने काल में कलिंग विजय के पश्चात अपनी युद्ध यात्रा को समाप्त कर धर्म यात्रा का मार्ग अनुसरण किया। उसने एक लोक मंगलकारी प्रशासन का संचालन किया। अपनी प्रजा के भौतिक सुख मात्र के सम्पन्नता के अलावा उनके आध्यात्मिक और नैतिक स्तर का उन्नयन किया।

अशोक बिंदुसार का जेष्ठ पुत्र था। उसका एक छोटा भाई विगतशोक था। इन दोनों भाइयों की मां एक ब्राह्मण कन्या जिनका नाम चंपा या सुभद्रांगी था। अशोक मगध का सम्राट होने से पूर्व शासन की अच्छी समझ रखता था। वह अपने पिता के शासनकाल में अवंती या उज्जैनी तथा तक्षशिला का गवर्नर रह चुका था।

बौद्ध धर्म की मानें तो अशोक के सिंहासनारोहण होना उसके द्वारा उसके 99 सौतेली भाइयों की हत्या का परिणाम था। अथवा यूं कहें कि अशोक ने सिंहासन के लिए अपने 99 सौतेले भाइयों की हत्या की थी। हालांकि बहुत से बुद्धिजीवी इसे कपोलकल्पित मानते हैं।
किंतु एक विषय यह भी है कि अशोक का राज्यअभिषेक सिहासनारोहण के चार वर्षों पश्चात हुआ था। अतः यह तो निश्चित है, कि संघर्ष जरूर हुआ होगा और इसमें कुछ भाइयों की हत्या भी अवश्य हुई होगी।

अशोक ने सम्राट हो जाने के पश्चात सर्वप्रथम अपने पूर्वजों की भांति साम्राज्यवादी नीति अपनाकर कलिंग पर विजय की योजना बनाई, उसने अपने राज्यभिषेक के नवें वर्ष में ही कलिंग जो कि उसके साम्राज्य के दक्षिण पूर्वी हिस्से में था, और एक शक्तिशाली स्वतंत्र राज्य था, जो कि भविष्य में उसके लिए और उसके साम्राज्य के लिए खतरा बना हुआ था, उस पर विजय हासिल की।

कलिंग विजय अशोक के हृदय परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण हुआ, अशोक ने विजय यात्रा की जगह धर्म यात्राएं करना प्रारंभ कर दिया। वह कलिंग के युद्ध में हुए लाखों लोगों की हत्या और उस हिंसा के प्रभाव से अहिंसा का पुजारी हो गया।

वास्तव में कहें तो अशोक का पूर्णतः लोक मंगलकारी शासन कलिंग की विजय के पश्चात प्रारंभ होता है, जहां अशोक युद्ध यात्रा से अपने आपको पीछे खींच लेता है, और जनकल्याण के लिए धर्म के प्रचार-प्रसार में प्रयत्न प्रारंभ करता है।
अशोक की शासन व्यवस्था पुरखों से चली आ रही व्यवस्था का ही ज्यों का त्यों स्वरूप रही, हां अशोक का बड़ा साम्राज्य उस समय पर पांच प्रांतों में विभक्त था, और प्रत्येक प्रांत में पूर्व की भांति एक प्रांतपति नियुक्त किया जाता था।

अशोक के समय और उसके शासन का महत्वपूर्ण ज्ञान के साधन उसके द्वारा खुदवाय गए शिलालेख और स्तंभ हैं।
अशोक ने अपने राजधानी में पशु हत्या पर निषेध कर दिया था। प्रारंभ में अशोक को हिंसा से परहेज न था। अध्ययन में यह भी है, कि अशोक के रसोई में प्रतिदिन पशुओं की हत्या होती थी। वह युद्ध प्रिया भी था। इससे यह अनुमान लगाया जाता है, कि प्रारंभ में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयाई रहा। जिसका अनुसरण उसने कलिंग विजय तक किया।

कलिंग विजय के पश्चात अशोक का दया भाव जागृत होता है। वह स्वयं को परिवर्तित करता है। उसने उन सब उत्सव समारोह को बंद करा दिया, जहां मांस, मदिरा, नाच-गाना आदि का प्रयोग होता था। आनंद-यात्राओं के स्थान पर उसने धर्म-यात्राओं का प्रचलन प्रारंभ किया। उसने प्रजा तक धर्म के प्रसार के लिए और उनके नैतिक और आध्यात्मिक उन्नयन के लिए “धर्म महामात्र” तथा “प्रादेशिक” नाम के कर्मचारी नियुक्त किए थे, जो घूम घूम कर प्रजा में धर्म के प्रसार का कार्य करते थे।

अशोक में दया भाव इस कदर हो चला था, कि केवल मानव नहीं बल्कि उसने पशु पक्षियों की भी सेवा की। उसने मनुष्यों के साथ-साथ पशु पक्षियों के लिए भी ओषधालय बनवाएं।

अशोक स्वयं को परिवर्तित करने का निश्चय कर चुका था। उसने बौद्ध धर्म के प्रसार में भी बौद्ध धर्म के अनुयायियों का सहयोग किया। उसने अनेक बौद्ध मठों की स्थापना की भिक्षुओं को घूम-घूम कर इस धर्म के प्रसार के लिए प्रोत्साहित किया। अशोक ने भगवान बुद्ध के जीवन के संबंध रखने वाले उन सभी स्थानों पर विचरण किया। अशोक के काल में तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन पाटलिपुत्र में हुआ। और उसने इस सभा के माध्यम से बौद्ध धर्म में हुए आपसी मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न किया।

अशोक ने अपना एक धर्म का प्रसार किया। जिसे “अशोक के धम्म” के नाम से प्रसिद्ध मिली यह सभी धर्मों के अच्छी बातों के लिए था, और मनुष्य तथा अन्य सभी प्राणियों के उत्थान पर केंद्रित है।
अशोक अपने धर्म कि शिक्षा प्रजा तक पहुंचाने से पूर्व स्वयं उस धर्म का अनुसरण करता था। या यूं कहें, कि स्वयं अशोक भिक्षु हो चुका था। जीवन भर उसने मांस खाना, शिकार खेलना, नाच देखना, जैसी राजसी विलासिता से दूरी बनाए रखी, और स्वयं के धर्ममय जीवन से आवाम को एक सुंदर संदेश दिया।

अशोक ने अपने धर्म के प्रचार प्रसार में कोई कसर न छोड़ी उसने अपनी धार्मिक शिक्षाओं को स्तंभों तथा शिलाओं पर खुदवाया उसने अपने धर्म के प्रसार को मात्र अपने राज्य की सीमा तक सीमित ना रखा, बल्कि अपने धर्म के प्रचार के लिए अनुयायियों को वर्मा, तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, तथा पूर्वी द्वीप समूह में भेजा।
इतना ही नहीं उसने अपने पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा को धर्म के प्रसार के उद्देश्य से लंका भेजा।

कलिंग की हिंसा अशोक के जीवन को हिंसा के पथ से किस दिशा में ले आती है। अशोक का हृदय परिवर्तन उसके जीवन को अत्यधिक रोचक प्रस्तुत करती है।

इसी से आगे बढ़ते हुए, महान शासक अशोक के विषय में अन्य पोस्ट भी अपलोड की गई हैं, जो भारतीय प्राचीन इतिहास में मौर्यों के संबंध में आपकी जानकारी में इजाफा करेगा। मौर्य साम्राज्य पर क्रमवार पोस्ट अपलोड की गई हैं जिन्हें आप विजिट कर सकते हैं।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

बिंदुसार | चंद्रगुप्त के पश्चात

  चंद्रगुप्त मौर्य ने 298 ईसा पूर्व अपने पुत्र बिंदुसार के हाथों में मगध के विशाल साम्राज्य को सौंप कर स्वयं संयास ले लिया। बिंदुसार अपने पिता की भांति साम्राज्यवादी नीति के अनुरूप चलकर मगध के साम्राज्य को और अधिक विस्तारित तो नहीं कर सका, किंतु उसने अपने साम्राज्य में शासन का सफलता से संचालन किया।

   बिंदुसार के काल में तक्षशिला में एक विद्रोह हुआ था, अध्ययन में आता है, उस विद्रोह को बिंदुसार के बड़े पुत्र अशोक ने शांत किया था। विदेशियों के साथ बिंदुसार के संबंध बेहद अच्छे थे। यूनानीयों के साथ उसके अच्छे संपर्क थे। इसलिए व्यापार में अच्छी वृद्धि हुई। अतः यह कहना उचित है, कि बिंदुसार एक कुशल प्रशासक था।

273 ईसा पूर्व में बिंदुसार परलोक सिधार गया, और यहीं आरंभ होता है, अशोक।

शनिवार, 8 जनवरी 2022

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबंधन भाग- 2

चंद्रगुप्त मौर्य एक महान नेता और विजेता रहा उसने 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस निकेटर से अपने जीवन में आखिरी युद्ध लड़ा, वह अपने साम्राज्य का विस्तार हिंदूकुश से बंगाल और हिमालय से नर्मदा नदी तक कर पाने में सफल रहा।

 
चंद्रगुप्त मौर्य के पास अपनी विजय यात्रा में शानदार सुसंगठित चतुरंगी सेना थी। सेना का प्रधान स्वयं सम्राट होता था। वह युद्ध के दौरान रण क्षेत्र में होता था। सेना का संपूर्ण प्रबंध 30 सदस्यों की एक परिषद के पास होता था। यह परिषद 6 समितियों में विभक्त होती, जिस हर समिति में 5 सदस्य हुआ करते थे। एक समिति पैदल सेना के लिए, दूसरी समिति अश्व रोहियों के लिए, तीसरी समिति रथ सेना के लिए, चौथी समिति हस्ति सेना के लिए, पांचवी समिति जल सेना के लिए और छठी समिति रसद रण क्षेत्र तक पहुंचाने वाली सेना के लिए प्रबंधक थी। सेना में चिकित्सा विभाग भी होता था। अस्त्र शास्त्र के निर्माण के लिए सरकारी कार्यालय हुआ करते थे। चंद्रगुप्त की यह सेना स्थाई हुआ करती थी, और राज्य से सीधे वेतन पाती थी।
 
इतने बड़े साम्राज्य में सेना का प्रबंध, वेतनभोगियों और लोक मंगलकारी कार्यों को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए आय के बड़े साधन की आवश्यकता थी। उस वक्त पर राज्य की आय का प्रमुख साधन भू कर था। किसानों की उपज का चौथा भाग और कभी कबार आठवां भाग सरकार को प्राप्त होता था। नगर में वस्तुओं पर विक्रय मूल्य का दसवां भाग राज्य को कर के तौर पर जाता था। इसके अतिरिक्त जुर्माना इत्यादि से भी राज्य की कुछ आए हो जाती थी।
 
चंद्रगुप्त का शासन विशाल था, अतः साम्राज्य को सुविधा के लिए उसने अनेक प्रांतों में विभक्त किया था। जो प्रांत अधिक महत्व के होते थे, वहां राजकुमारों को “प्रांतपति” के तौर पर नियुक्त किया जाता था। उन्हें “कुमार महामात्य” कहा जाता था। अन्य प्रांतों में प्रांतपति “राजुक” कहलाते थे। इन सब पर सम्राट की तीव्र दृष्टि होती थी। अपनी गुप्तचरों के माध्यम से सम्राट इनकी हर सूचना को प्राप्त करता था। प्रांतों में शांति और व्यवस्था बनाए रखना, इनका मुख्य कर्तव्य था, और इसे लेकर यह सम्राट के प्रति सीधे उत्तरदाई हुआ करते थे।
 
चंद्रगुप्त मौर्य के काल में स्थानीय प्रशासन का ज्ञान मेगस्थनीज की पुस्तक इंडिका से होता है। गांव शासन की सबसे छोटी इकाई होती है। उस समय पर उसका प्रबंधक “ग्रामिक” होता था। जो कि ग्राम वासियों द्वारा ही चुना जाता था। वह अवैतन कार्य करता था। हालांकि वह यह कार्य गांव के अन्या अनुभवी लोगों के परामर्श से करता था। हर गांव में एक राज कर्मचारी भी हुआ करता था। जिसे “ग्रामभोजक” कहते थे। पांच से दस गांव जिसके प्रबंधन में रहते थे, वह “गोप” कहलाता था, और गोप के ऊपर “स्थानिक” होता था, जिसके अनुशासन में आठ सौ गांव आते थ, और अंत में “समाहर्ता” होता था, जो कि पूरे जनपद का प्रबंधन करता था।
 
नगरों में प्रधान नगराध्यक्ष कहलाता था, नगर का प्रबंध समितियों के द्वारा होता था। इसके लिए छह समितियां हुआ करती थी, प्रत्येक समिति में वही पांच सदस्य हुआ करते थे। इन समितियों को अलग-अलग प्रमुख विषय दिए गए थे।
 
यदि यूं कहें कि चंद्रगुप्त मौर्य उस काल के पश्चात भारत में आने वाले बड़े शासकों के लिए एक पथ प्रदर्शक हुआ, तो गलत नहीं होगा। वह एक महान नेता और योद्धा भी था। इतने बड़े साम्राज्य को संगठित कर अनुशासन में रख संचालित कर सकने वाला वह हिंदुस्तान का एक सफल शासक रहा।
 

जैनियों की मानें तो चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म के अनुयाई हो गए थे। अपने जीवन के अंतिम दौर में उन्होंने राज पाठ धन वैभव को त्याग दिया। अपने जीवन के 24 वर्षों तक सफलता से शासन करने के पश्चात 298 ईसा पूर्व अपने राजकाज को अपने पुत्र बिंदुसार को सोंप कर स्वयं संन्यास ले लिया। अध्ययन में है, कि वह कर्नाटक के पर्वतों की ओर चला गया, और एक सच्चे जैनी की भांति अनशन कर अपने जीवन को समाप्त कर दिया।

 

सोमवार, 29 नवंबर 2021

अर्थशास्त्र और इंडिका से मौर्य वंश का शासन प्रबंध

चंद्रगुप्त शासन-प्रबंध | मौर्यकालीन स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय शासन प्रबंध

पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कृष्णा नदी तक हिंदुस्तान का विशाल भाग किसी एक शक्तिशाली राजा द्वारा केंद्र से शासित हो रहा था। इतने बड़े साम्राज्य में शासन की निश्चित कड़ियां थी, जो शासन को सुचारू रखती थी।

   चंद्रगुप्त मौर्य के काल में शासन प्रबंध को समझने के लिए जो साधन उपलब्ध हैं, वह उस दौर की विद्धान राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ चाणक्य द्वारा लिखा “अर्थशास्त्र” और चंद्रगुप्त के शासन में एक यूनानी राजदूत जोकि सेल्यूकस का राजदूत था, मेगस्थनीज। उसने चंद्रगुप्त के साम्राज्य में जो कुछ देखा सुना वह सब कुछ अपनी पुस्तक “इंडिका” में लिखा। मेगास्थनीज के विवरण में चंद्रगुप्त के स्थानीय स्वशासन का काफी विवरण मिलता है।

   अध्यन के अंतर्गत चंद्रगुप्त के शासन को समझने के लिए उसे तीन भागों में वितरित किया जा सकता है। केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन और स्थानीय शासन।

   जो भी हो किंतु व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका का सर्वोच्च प्रधान राजा होता था, वह केंद्रीय सकती थी, और वह स्वेच्छाचारी भी हो सकता था, और निरंकुश शासन करता था। वह सर्वेसर्वा था। 

इस सब में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ज्ञान प्राप्त होता है, कि राजा प्रजा के प्रति ऋणी होता है, और वह प्रजा को सुख शांति दे कर उस ऋण से मुक्त हो सकता है।

   केंद्रीय शासन का तात्पर्य है, जो राजधानी से संचालित होता था। सम्राट केंद्रीय शासन का प्रधान था, वही कानून बनाता था, और उनका पालन भी वही करवाता था। कानून का उल्लंघन करने वाले लोगों को दंड भी वही देता था।

   सम्राट द्वारा नियुक्त एक मंत्री परिषद अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर सम्राट को परामर्श देती थी। वह सम्राट के विश्वासपात्र होते थे, हालांकि वह केवल वेतनभोगी मंत्री थे, और सम्राट उनकी राय को मानने के लिए बाध्य ना था। दैनिक कार्यों में मंत्री परिषद का कोई भूमिका न थी।

   दैनिक कार्यों में परामर्श देने के लिए सम्राट के साथ मंत्रिन् हुआ करते थे। इन्हीं के सहायता से सम्राट शासन संचालित करता था। किंतु सम्राट इनके भी परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं था।

   चंद्रगुप्त के काल में शासन को संचालित करने के लिए अनेक विभागों में शासन को बांटा गया था। उस समय में कुल 18 विभाग थे। प्रत्येक विभाग को एक-दो विषय सौंप दिए गए थे। विभाग का अध्यक्ष अमात्य होता था। अमात्य के नीचे आनेक सारे कर्मचारी पदाधिकारी होते थे। वह दैनिक शासन को चलाते थे, और राजा के प्रति उत्तरदायी होते थे।

   अपने साम्राज्य में शांति स्थापित करने के लिए चंद्रगुप्त ने पुलिस या आरक्षी विभाग का संगठन किया था। इस विभाग के कर्मचारी “रक्षिन्” कहलाते थे। जनता की रक्षा ही इनका कर्तव्य था।

इसके अतिरिक्त इतने बड़े साम्राज्य में जगह जगह पर हो सकने वाले अपराधों और षड्यंत्र को रोकने के लिए राजा ने गुप्तचर विभाग भी काम में रखा था। वे “संस्थान” गुप्तचर जो कि निश्चित स्थान पर रहकर, और “संचारण” गुप्तचर जो कि घूम घूम कर अपराधियों का पता लगाते थे, संभवत संचारण गुप्तचर साम्राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों में विचरण कर वहां होने वाले अपराधों और षड्यंत्रों का पता लगाते रहे होंगे। जानकारी है कि, स्त्रियां भी गुप्तचर के कार्यों करती थी। इस प्रकार से सम्राट को अपराधों कुचक्रों और षड्यंत्रों की सूचना अपने साम्राज्य के कोने कोने से प्राप्त हो जाती थी।

   अपराधिक मामलों में न्याय व्यवस्था का प्रधान भी स्वयं चंद्रगुप्त था। चंद्रगुप्त की सहायता के लिए न्यायधीश हुआ करते थे। वह नगरों तथा जनपदों के लिए अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। नगरों के न्यायाधीश “व्यवहारिक” और जनपद के न्यायधीश “राजुक” कहलाते थे। न्यायाधीशों को “धर्मस्थ” के नाम से भी जाना जाता था। प्रत्येक न्यायालय में तीन धर्मस्थ तथा तीन अमात्य न्यायाधीश का पद ग्रहण करते थे। दीवानी तथा फौजदारी मामले में अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। दीवानी के न्यायालय “धर्मस्थीय” तथा फौजदारी न्यायालय “कण्टशोधक”  कहलाते थे।

   दंड विधान बहुत कठोर था। जुर्माना, अंग-भंग और मृत्यु तक का दंड दिया जाता था। स्ट्रेबो ने लिखा कि यदि कोई झूठी गवाही देता, तो उसका अंग-भंग का दंड दिया जाता, यदि कोई किसी का अंग-भंग कर देता है तो उसका हाथ काट दिया जाता और यदि कोई अपराधी किसी कारीगर का अंग-भंग कर देता तो उसे प्राण दंड दिया जाता था।

सबसे महत्वपूर्ण कि इतना कठोर दंड विधान होने के कारण चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में अधिक अपराध नहीं होते थे।

राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के काल में न्यायालय की बैठक प्रातः काल होती थी, और निर्णय में शीघ्रता होती थी। छोटी अदालतों के फैसलों की अपील बड़ी अदालतों में होती थी। और सम्राट का निर्णय अंतिम निर्णय होता था।

   चाणक्य की कथानानुसार राजा प्रजा के प्रति ऋणी है, वह लोग मंगलकारी कार्यों को करने से ही प्रजा के ऋण से मुक्त हो सकता है। अतः चंद्रगुप्त ने अपने काल में यातायात के लिए सड़के बनाई, छायादार वृक्ष राहों में और स्थान स्थान पर कई कुएं तथा धर्मशालाएं बनाई। सिंचाई की समुचित व्यवस्था की, उसके प्रांतीय शासक पुष्पगुप्त ने सौराष्ट्र में सिंचाई के लिए एक बहुत बड़ी झील जिसका नाम सुदर्शन झील हुआ का निर्माण करवाया।

स्वास्थ्य तथा स्वच्छता की समुचित व्यवस्था की गई थी। “भैष्ज्य गृहों” अर्थात औषधालय की स्थापना करवाई। उसमें चिकित्सकों की व्यवस्था की गई, शिक्षा का समुचित व्यवस्था की गई, छात्रों को छात्रवृत्ति की व्यवस्था की गई, शिक्षा का प्रबंध प्रधानमंत्री और पुरोहित की अध्यक्षता में संचालित होता था।

शनिवार, 27 नवंबर 2021

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन काल | साम्राज्य का प्रसार तथा विजित प्रदेश | Maurya dinesty Chandragupt

Chandragupta maurya 

संपूर्ण उत्तर भारत में जिसका साम्राज्य स्थापित हो चुका था, वह दक्षिण की ओर बढ़ता है, और सौराष्ट्र की भूमि पर भी अपना अधिकार स्थापित करता है, इतना ही नहीं वह मालवा को भी अपने अधिकार में करता है, कुछ विद्वानों का मत है, कि उस क्रांतिकारियों के नेता चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य मैसूर राज्य की सीमा तक प्रसारिता था।

    चंद्रगुप्त की विजय का आरंभ पंजाब की भूमि से होता है। सिकंदर के भारत से लौट जाने के पश्चात पंजाब की भूमि में यूनानीयों के विरोध में एक बड़ी क्रांति ने जन्म लिया। चंद्रगुप्त मौर्य क्रांतिकारियों का नेता हो गया उसने यूनानीयों को भारत भूमि से मार भगाया और पंजाब पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।

   चंद्रगुप्त मौर्य अब अपने लक्ष्यों के प्राप्ति के उदीयमान पृष्ठों को लिख रहा था। यह वही मगध का साम्राज्य था, जिस पर आक्रमण का साहस सिकंदर न कर सका, किंतु दृढ़ संकल्पित चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब पर अपने अधिपत्य के पश्चात मगध के विशाल साम्राज्य पर विजय के मंसूबे को साकार करता है। ब्राह्मण चाणक्य साथ हैं। 321 ईसा पूर्व में चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य का मगध की गद्दी पर राज्याभिषेक कर देते हैं, और चंद्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर एक नए वंश मौर्य वंश का पहला पृष्ठ लिखता है।

    उत्तर भारत पर चंद्रगुप्त के अधिपत्य के पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य दक्षिण भारत को भी अपने अधिकार में लेने के लिए प्रयत्नरत होता है। उसने सौराष्ट्र की भूमि को पहले जीता, और उसके पश्चात मालवा को अपने अधिकार में ले लेता है। मालवा की भूमि को अपने अधिकार में ले लेने के पश्चात वह वहां का शासन प्रबंध पुष्पगुप्त वैश्य को सौंप देता है, और उसी ने वहां पर सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। 

   चंद्रगुप्त का अंतिम संघर्ष सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर के साथ पश्चिमोत्तर भारत सिंधु नदी के पश्चिम में हुआ।

सिकंदर की मृत्यु के पश्चात सेल्यूकस निकेटर सिकंदर की साम्राज्य के पूर्वी भाग का स्वामी बन गया था, और वह भारत पर अधिपत्य के लिए दृढ था। उसने 305 ईसा पूर्व में भारत पर आक्रमण कर दिया, किंतु चंद्रगुप्त मौर्य ने सफलतापूर्वक उसे वहीं रोक दिया। अंततः सेल्यूकस निकेटर को चंद्रगुप्त के साथ संधि करनी पड़ी। उसने चंद्रगुप्त मौर्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया, और यही नहीं बल्कि अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान का प्रदेश भी चंद्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने भी 500 हाथियों को भेंट स्वरूप सेल्यूकस निकेटर को सौंप दिया।

   अब चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर भारत में तो अपनी चरमता हासिल कर चुका था। स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला हुआ था। हां यह जरूर ध्यान रहे कि कश्मीर और कलिंग का हिस्सा चंद्रगुप्त के साम्राज्य में नहीं आता था।

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

मौर्य वंश के उदय की कहानी | चन्द्रगुप्त मौर्य का परिचय | Maurya Dynasty Chandragupt मौर्य का संघर्ष

मौर्य साम्राज्य का उदय / चंद्रगुप्त मौर्य एक परिचय / नंद वंश का पतन-

   भारत में सिकंदर की एक तीव्र यात्रा के ही दौर में जिस साम्राज्य के पूरे उत्तर भारत में स्थापित होने का पथ प्रशस्त हो रहा था।  वह मोर्य साम्राज्य था। मगध की गद्दी पर नया वंश आसीन होता है। जिस राजवंश का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य हुआ। 

   चंद्रगुप्त मौर्य किस कुल का था या उनका वंश क्या था, यह ज्ञान निश्चित नहीं है। कुछ विद्वानों के विचार में एक नाइन जिसका नाम मुरा था, चंद्रगुप्त मौर्य उसका पुत्र था। और वह नंदराज की एक शूद्रा पत्नी थी। इस विचार के अनुरूप चंद्रगुप्त मौर्य एक शूद्र कुल का था।

किंतु कुछ विद्वानों के मत के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय वंश का था। उनके मतानुसार नेपाल की तराई में पिप्पलिवन नामक एक छोटा सा प्रजातंत्र राज्य था। जिस पर चंद्रगुप्त मौर्य के पिता जो सूर्यवंशी क्षत्रिय थे, और मोरिय जाति के राज शासक थे।

   दुर्भाग्यवश एक सबल राजा ने चंद्रगुप्त मौर्य के पिता जो कि नेपाल के तराई क्षेत्र में स्थित एक प्रजातांत्रिक राज्य के प्रधान थे, उनकी हत्या कर दी, और उनसे राज्य छीन लिया। विद्वानों के मतानुसार उस वक्त पर चंद्रगुप्त की मां गर्भवती थी, और इसी दशा में उस वक्त पर वह संबंधियों के पास पाटलिपुत्र चली आई, और अज्ञात रूप से वहां रहने लगी, वहां पर लोग अपनी जीविका के यापन के लिए तथा आपने राजवंश को छुपाए रखने के लिए मयूर का पालन करने लगे। अतः चंद्रगुप्त का प्रारंभिक जीवन मयूर पालकों के साथ ही व्यतीत हुआ।

   अध्ययन में चंद्रगुप्त मौर्य के प्रारंभिक जीवन को लेकर यह प्राप्त हुआ, कि मगध के राजा के यहां चंद्रगुप्त मौर्य ने नौकरी कर ली, वह सेना में भर्ती हो गया, और अपनी योग्यता के बल पर वह सेनापति भी बन गया, किंतु कुछ कारणवश मगध का राजा चंद्रगुप्त मौर्य से अप्रसन्न हो गया, और उसने चंद्रगुप्त मौर्य को प्राण दंड दे दिया।

अपने प्राणों की रक्षा के लिए चंद्रगुप्त मौर्य वहां से निकल भागा क्योंकि उस वक्त मगध का शासक वंश नंद था। अब चंद्रगुप्त मौर्य नंद वंश के विनाश के कारण को जन्म देने का प्रयत्न करने लगा।

   इसी दौर में चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब की ओर चला गया, और वहां से तक्षशिला पहुंच गया। वहां उसकी भेंट चाणक्य नामक एक ब्राह्मण से हुई, जिन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। चाणक्य भी नंद वंश के तत्कालीन शासक से अप्रसन्न था। वह दोनों मिलकर नंद वंश के विनाश का उपाय ढूंढने लगे।

   चाणक्य ने बहुत सारा धन एकत्रित किया हुआ था, और एक प्रसंग के अंतर्गत चाणक्य ने वह धन चंद्रगुप्त मौर्य को दे दिया, ताकि चंद्रगुप्त मौर्य सेना को एकत्रित कर सके, और मगध पर अधिकार कर सके। किंतु चंद्रगुप्त मौर्य की एकत्रित की गई सेना मगध साम्राज्य की विशाल सेना के सम्मुख ना टिक सकी और एक बार फिर चंद्रगुप्त मौर्य को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा।

    चंद्रगुप्त मौर्य फिर से पंजाब पहुंचा, उन दिनों सिकंदर भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में अपनी विजय यात्रा से आ टिका था, और वह अपनी विजय यात्रा में आगे को बढ रहा था, किंतु मगध के शासन पर आक्रमण करने का साहस जुटा पाने में वह भी सफल ना हो सका। उसी दौर में मगध नंद वंश के पतन के मंसूबे को लेकर चंद्रगुप्त मौर्य सिकंदर के शिविर में पहुंचा। वह उस से मिला, किंतु चंद्रगुप्त मौर्य स्वतंत्र विचार, सिकंदर को उसके विचार पसंद न आए, और उसने भी चंद्रगुप्त मौर्य की हत्या का आदेश दे दिया।

चंद्रगुप्त मौर्य सिकंदर के शिविर से भाग खड़ा हुआ। अब उसके जीवन के दो प्रधान ध्येय हो गए।

एक लक्ष्य जो वह पहले ही तय कर चुका था, नंद वंश का मगध में साम्राज्य का पतन और दूसरा लक्ष्य यूनानियों को भारत से बाहर खदेड़ना सबसे महत्वपूर्ण इन दोनों उद्देश्यों में उसके साथ ब्राह्मण चाणक्य ने पूरा सहयोग किया।चंद्रगुप्त मौर्य अपने लक्ष्यों को सफलता से प्राप्त भी कर सका।

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

Alexander की भारत यात्रा का प्रभाव | सिकंदर | भारत पर यूनानी प्रभाव

सिकंदर(Alexander)
सिकंदर(Alexander) के आक्रमण का प्रभाव भारत में इतिहासकारों में मतभेद दिखाने वाला एक और विषय है। कुछ विद्वानों का मानना है, कि सिकंदर(Alexander) का आक्रमण एक तूफान की तरह था, जिसने थोड़ी देर के लिए भारतीयों को झकझोर जरूर दिया था, और फिर पानी के बुलबुले की तरह वह समाप्त भी हो गया।

कुछ विद्वानों के विचार में यह बेहद क्षणिक था और भारत के छोटे से क्षेत्र में यह होने पर पूरे भारत पर इसके प्रभाव को गहनता से भी नहीं देखते हैं। उनका मत है कि यह केवल एक सैन्य विजय थी, और यूनानी लोग कुछ ही दिनों के बाद भारत से निकल गए थे, अतः यहां भारत में यूनानीयों का कोई स्थाई प्रभाव ना हो सका।

वे तो स्वयं बर्बर और लुटेरे थे, लुटेरे यूनानी सैनिकों से भारत की सभ्यता जो स्वयं में इतनी ऊंची थी, कभी कुछ नहीं सीख सकती थी।

इस विषय में स्मिथ महोदय ने लिखा है “यूनानी प्रभाव कभी अंतः स्थल तक प्रविष्ट नहीं हो सका भारतीय राजसंस्था और समाज का संगठन जो जाति व्यवस्था पर आधारित था, वस्तुतः अपरिवर्तित हुआ रहा और सैन्य शास्त्र में भारतवासी सिकंदर(Alexander) की तीक्ष्ण करवाल द्वारा सिखाई हुई शिक्षा का आलिंगन करने के लिए उत्सुक ना थे”।

  किंतु कुछ इतिहासकारों का कहना है, कि भारतीय इतिहास में यह घटना बहुत महत्वपूर्ण थी और इसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव भारतीय सभ्यता पर जरूर पड़े। यह सत्य है कि यूनानी लोग भारत से भगा दिए गए थे, किंतु वह लोग अपने देश को नहीं गए वरन वे भारत के पश्चिमोत्तर सीमा के निकट बस गए थे। और भारतीयों के साथ संबंध स्थापित करने के पश्चात भारतीय संस्कृति उन से अछूती न रह सकी। प्रो० नीलकांत शास्त्री ने सिकंदर के आक्रमण के विषय में कहा है कि यद्यपि यह दो वर्षों से कम तक रहा परंतु आक्रमण स्वयं एक ऐसी महान घटना थी, की चीजें जैसी थी वैसी न रह सकी उसने इस बात को स्पष्ट रुप से प्रदर्शित कर दिया कि एक दृढ़ प्रतिज्ञ शत्रु की संयम शक्ति की समानता स्वतंत्रता का उत्तेजना पूर्ण प्रेम नहीं कर सकता।

    इस आक्रमण से भारतीयों को कम से कम इतना तो ज्ञान हुआ कि पश्चिमोत्तर छोटे-छोटे राज्यों में वितरित होना उसके राजनीतिक दुर्बलता को प्रस्तुत करता है। और आक्रमणकारियों को निमंत्रण देता है। इसी विचार से चंद्रगुप्त मौर्य पूरे उत्तर भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने में सफल हो सका।

  यूनानीयों की सुसज्जित सेना ने कैसे भारतीयों की विशाल सेना को परास्त कर दिया इससे भारतीयों को यह ज्ञान हुआ कि सेना में संख्या की नहीं बल्कि रण कुशलता की अधिक आवश्यकता होती है।

  सिकंदर(Alexander) का आक्रमण 327 ईसा पूर्व भारत पर हुआ था, और इसी तिथि के बाद भारत में इतिहास का तिथि गत क्रम से अध्ययन प्रारंभ होता है।

यूनानीयों के कई लेख भारतीय प्राचीन इतिहास को जानने में भी बेहद महत्वपूर्ण है।

  भारतीय संस्कृति और साहित्य पर यूनानीयों का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा यह कुछ इतिहासकार विद्वानों का मत है, क्योंकि यूनानी भारत से वापस लौटे नहीं बल्कि पश्चिमोत्तर प्रदेशों में बस गए थे। इसलिए संस्कृत में आदान-प्रदान निश्चित तौर से हुआ।

~कुछ का मत है कि भारत में गद्य-काव्य, नाट्य इत्यादि यूनानीयों के प्रभाव के होने से ही प्रारंभ हुआ।

~भारत में मुद्रा का चलन को लेकर यूनानी द्रम से ही भारतीय दीनार रूपांतरित हुआ है। यह कुछ विद्वानों का मत है।

~इसके अतिरिक्त यूनानीयों का प्रभाव भारतीयों पर ज्योतिष विद्या, चिकित्सा एवं औषधि तथा धार्मिक जीवन पर पड़े बिना न रह सका।

~कुछ विद्वानों का मत है, कि भारतीयों की मूर्तिकला पर यूनानीयों का प्रभाव पड़ने से एक नई शैली का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे गांधार शैली के नाम से जाना जाता है।

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏