“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ”।
बेटी, स्त्री ईश्वर की धरा पर सर्वाधिक खूबसूरत कृति है। हमें स्त्री का सम्मान केवल इसलिए नहीं करना चाहिए, बल्कि इसलिए भी क्योंकि उसमें मिलकर रहने की, एकता में रख सकने की, उस भावना की अधिक गहरी समझ होती है।
एक महिला केवल एक परिवार को बांधकर नहीं रखती। बल्कि इसी तर्ज में वह संपूर्ण संसार के बंधन का कारण है। उसमें संसार के आधी शक्ति विलीन है।
प्रेमचंद जी ने लिखा है-
स्त्री के मूल गुण ममता, सौम्यता, शीलता, सौंदर्य उसे पुरुषों से महान बनाते हैं। पुरुष उसके बराबर नहीं बल्कि उससे पीछे हैं।
सुष्मिता सेन जब मिस यूनिवर्स बनी तब उन्होंने कहा सृष्टि में नारी ममता की स्रोत है, हमें उसका सम्मान करना चाहिए।
इन सब के बाद सवाल यह है, कि इश्वर की इस महान कला का कहां तिरस्कार हुआ है, जो आज तक यह नारा “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” बुलंद है। यह नारा बुलंद होता है। जब एक बच्ची को मां के गर्भ में ही मार दिया जाता है, यदि वह धरा पर जन्म ले भी लेती है, तो उसे स्कूल शिक्षा से वंचित रखने का प्रयास होता है। यदि वह शिक्षा प्राप्त कर भी लेती है या नहीं कर पाती है, तब एक दिन जब उसकी शादी होती है, तो उसे दहेज प्रथा का शिकार होना पड़ता है, और यह केवल उसका नहीं बल्कि उसके परिवार का भी आत्मबल तोड़ देता है। यही कारण है, कि आज तक भी शादी नाम की संस्था में एक पक्ष विश्वस्त नहीं है वह बेटी का पक्ष है।
आज इस विचार को स्वीकार करना होगा, कि महिला और पुरुष रेल की पटरियों के समान है, जिन्हें साथ मिलकर चलना होगा। इनमें से किसी एक द्वारा सृष्टि का आधा उत्कर्ष ही संभव है।
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