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लिच्छवी गणराज्य का संपूर्ण इतिहास | प्राचीन भारत

आम्रपाली वही कन्या है, जिसे नगरवधू कहा गया। शाक्यमुनि बुद्ध के साथ उसकी एक कथा हम सब सुनते हैं। वह लिच्छवियों में थी। जब महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ, तो लिच्छवियों ने भी दीपमाला जलाई। कहते हैं कि जैन धर्म उनका राज धर्म बन गया था। बताया गया है कि वह लिच्छिवी ही गणराज्य था, जिनकी राजकुमारी कुमार देवी से गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त प्रथम के विवाह के कारण ही चौथी सदी ईस्वी में गुप्त वंश को मान और गौरव प्राप्त हुआ। 

 एक टीवी धारावाहिक आता था, चाणक्य उसमें गणराज्य मैंने सुना था। कि प्राचीन काल में गणराज्य थे। लिच्छिवी उन्हीं प्राचीन गणराज्यों में एक था। लिच्छवी गणराज्य का उदय लगभग 700 ईसा०पूर्व माना गया है। इनका राज्य वैशाली में था।

हर्यक वंश लगभग छठी सदी ईसा पूर्व प्रकाश में आया। बिम्बिसार का पुत्र आजातशत्रु जिसकी मां लिच्छिवियों में से थी, अपने पिता का वध कर शासन हासिल करता है। और लिच्छिवियों के अंत का संकल्प करता है। इसके दो कारण बताए जाते हैं।

   गंगा के पास के एक बंदरगाह जिस के आधे भाग पर आजातशत्रु और आधे भाग पर लिच्छिवियों का अधिकार था। उसके समीप ही एक हीरे की खान थी। जिस पर भी आधा-आधा का समझौता था। किंतु लिच्छिवियों ने यह पूरे हीरे ले लिए, और आजातशत्रु  अप्रसन्न हो गया। उसने उन्हें दंड देने का प्रण किया। किंतु उनकी बड़ी संख्या को देखकर वह ऐसा ना कर सका।

एक अन्य कारण में कहते हैं, कि आम्रपाली नाम की एक लिच्छिवी कन्या वैशाली में रहती थी। लिच्छिवियों का कानून था, कि जो सर्व सुंदरी हो उसे विवाह की अनुमति नहीं, और वह समस्त जनता के आनंद के लिए सुरक्षित रहेगी। इससे आम्रपाली नगरवधू हो गई। जब बिंम्बिसार ने उसके विषय में सुना, तो वह वैशाली गया। और वह आम्रपाली के यहां 7 दिन ठहरा। जबकि लिच्छिवियों से उसका वैर था। कहते हैं, कि आम्रपाली का पुत्र हुआ। जिसे बिंदुसार के पास भेज दिया गया। क्योंकि वह निडर अपने पिता के पास पहुंचा, इसलिए उसका नाम अभय हुआ।

 विद्वानों का मत है, कि यह विवाह संबंध लिच्छिवियोंऔर बिंम्बिसार के मध्य युद्ध की समाप्ति पर हो पाया। अभय में लिच्छिवियों का रक्त था। अजातशत्रु ने इसलिए भी लिच्छिवियों के अंत का प्रण किया, क्योंकि यदि लिच्छिवी अभय जिससे वे बहुत प्रेम करते थे, का साथ देने का निर्णय करते तो, आजातशत्रु कभी गद्दी हासिल नहीं कर पाता।

इसलिए लिच्छिवियों के अंत के लिए अजातशत्रु ने वषक्र को बुद्ध के पास राय के लिए भेजा। बुद्ध ने कहा कि किन्हीं भी अन्य उपायों से लिच्छिवियों को ऊपर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। या तो उन्हें उपहार देकर संतुष्ट किया जाए, या प्राण रक्षक संघ को समाप्त करना आवश्यक है।

अजातशत्रु ने षड्यंत्र किया यह प्रसिद्ध किया गया, की आजाद शत्रु और मंत्री वषक्र में झगड़ा हो गया है। वषक्र ने लिच्छिवियों के यहां प्रवेश पा लिया, उन्होंने उसका स्वागत किया। उसने उन्हें अपने प्रशासनिक क्षमता से प्रभावित किया, और वे उसकी बातें मानने लगे। अपना श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लेने के बाद वषक्र ने उनमें असंतोष पैदा करना आरंभ किया। उनमें फूट पैदा होने लगी। अब सभी लिच्छिवी एकत्र होकर कार्य करने को तैयार न थे। इस काम में वषक्र को केवल तीन वर्ष लगे। अजातशत्रु ने आक्रमण का आदेश दिया। कहते हैं, कि खुले फाटकों ने उसके आक्रमण का स्वागत किया। जब संकट की घंटी बजी तो लिच्छिवियों  ने कहा “धनी और वीर एकत्र हो जाएं हम तो भिखारी और ग्वाले हैं”

लिच्छिवियों ने आजातशत्रु को अधिराज्य व भेंट देना स्वीकार किया। यह माना गया, कि उन्हें आंतरिक स्वायत्ता बनाए रखने की अनुमति दी गई होगी। मगध साहित्य में भी उनका उल्लेख है। मौर्यौं के बाद भारत की बड़ी शक्तियों में यवन, शुंग, कण्व, सातवाहन, शक कुषाणों के बाद गुप्तों के महान उदय से ठीक पहले भारत आर्यव्रत प्रदेश छोटे-छोटे राज्यों में बंट चुका था। जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य में विलीन कर दिया था। उस समय पर ही लिच्छिवियों का पुन:उदय देखा गया है। कहा गया कि, चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छिवियों की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया, और यही कारण से गुप्त वंश को गौरव व मान हासिल हुआ।

  कौमदीहोत्सव में बताया गया, कि चंद्रसेन मगध के राजा सुंदर वर्मा का दत्तक पुत्र था। चंद्रसेन ने सुंदर वर्मा से राजगद्दी छीन ली। लिच्छिवियों ने उसकी सहायता की थी। क्योंकि उसने लिच्छिवियों की राजकुमारी से विवाह कर लिया था। किंतु सुंदर वर्मा का एक पुत्र था, कल्याण वर्मा जिसके लिए मंत्रियों, गवर्नरों ने विद्रोह का षड्यंत्र किया। जिससे सीमा प्रदेशों में बढते विद्रोह को दबाने को चंद्रसेन को पाटलिपुत्र छोड़नी पड़ी। यह षड्यंत्र कल्याण वर्मा को गद्दी पर बैठाने को था। कल्याण वर्मा ने अपने सिंहासनारोहण के उपलक्ष में कौमदीमहोत्सव, जो नाटक की कथावस्तु था, का आयोजन किया।

 इस नाटक में लेखक ने लिच्छिवियों को मलेच्छ कहा है। यह सुझाव दिया गया कि यह चंद्रसेन ही चंद्रगुप्त प्रथम है। इसका आधार यह है, कि चंद्रगुप्त प्रथम की विवाह लिच्छिवियों की पुत्री से था, और लिच्छिवियों ने उसकी मदद की थी, और नाटक में भी ठीक यही घटना चंद्रसेन के साथ हुई। किंतु चंद्रसेन को राजगद्दी के पदच्युत कर दिया गया। जबकि चंद्रगुप्त के साथ संभवत: ऐसा नहीं था। या हुआ हो। किन्तु उसके बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त गुप्तों का यशस्वी राजा हुआ। इस पर स्पष्ट कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु यह तो स्पष्ट है, कि गुप्तों के राजा चंद्रगुप्त प्रथम का लिच्छिवियों के कन्या से विवाह था। क्योंकि समुद्रगुप्त ने अपने अभिलेखों में स्वयं को “लिच्छिवी दौहित्र” अर्थात लिच्छिवियों की पुत्री का पुत्र कहा है।

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