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पत्र व्यवहार पर एक संस्मरण लेख

आज एक पत्र हाथ लगा। मेरे चाचा जी की एक पुरानी डायरी के पन्नों के बीच अभी भी ठीक से सुरक्षित है। पत्र 1998 का है।

    पत्र के विषय में कुछ बातें मुझे याद आती है और कुछ पता हैं। पहली बात तो मेरे दादाजी के संबंध में है, वह बताते हैं। कि उनकी नौकरी के लिए यही कोई 1960-70 के दशक में उन्हें एक परीक्षा देनी पड़ी। जिसमें उन्हें दो सवाल हल करने थे। पहला तो गणित पर आधारित था, और दूसरा पत्र लेखन से संबंधित था। 

   लोग खूब दिल से चिट्ठी लिखते थे। तब कई महीनों और सालों तक भी बात नहीं हो पाती थी। आज तो किसी से जब चाहो बात हो सकती है। ऐसे में ज्यादातर बातों में दम नहीं रह जाता। क्योंकि रोज तो बात होती है। करने को बातें कम पड़ जाती हैं। लेकिन तब ऐसा नहीं था। कभी तो ऐसा भी होता, कि दोस्त की शादी आज है, और संदेशा एक महीने बाद मिलता। क्योंकि डाकिया का बहुत काम था। सब कुछ पैदल था। दूर-दूर गांव तक पैदल जाना होता था, और भी कई प्रकार की समस्याएं हो सकतीं हैं।

  खबरें रेडियो से मिल जाती थी। छुट्टी पर आए सैनिकों के आदेश भी रेडियो पर जारी होते थे। ऐसा ही एक दृश्य “तेरी सौं” गढ़वाली फिल्म का मुझे याद है। जब मानव के पिता को युद्ध की जानकारी मिलती है, और छुट्टी रद्द होने का आदेश की सूचना रेडियो से मिलती है। लेकिन सैनिक अपने परिवार जनों से पत्र व्यवहार में ही बात कर सकते थे। “संदेशे आते हैं” जैसा गीत उस समय को सामने रखता है। चिट्ठी नाम से एक गढ़वाली गीत “ना चिट्ठी आई तेरी ना रेबार कैमा” मुझे याद आता है, जो चक्रचाल फिल्म में फिल्माया गया था।

   10वीं और 12वीं में बोर्ड परीक्षा में एक सवाल पत्र लेखन का रहता ही है। यह पत्र लेखन की विधा का और उसके महत्व को आधुनिक संचार के माध्यमों में जाहिर करता है। भारतीय इतिहास और उसमें आधुनिक भारत का इतिहास गहराई से समझने में तत्कालीन शासक और अन्य व्यक्तियों के पत्र व्यवहार का संग्रह भी खास भूमिका निभाता है। 

   छोटे में जब हम स्कूल में पत्र लेखन से इतने थे। तो हमें वह पत्र सेवा में श्रीमान से आपका आज्ञाकारी शिष्य तक शब्द के बाद शब्द वैसा ही याद था। पत्र प्रधानाचार्य महोदय को लिखना होता था, कि मुझे बुखार आ गया है, और मैं स्कूल नहीं आ सकता हूं। तब घर में यदि शादी भी हो, तो हम बुखार के ही नाम से प्रधानाचार्य को छुट्टी के लिए प्रार्थना पत्र लिखते थे। फिर धीरे-धीरे सीखे की बुखार की जगह पर जुकाम भी हो सकता है।

   मैंने जो पहली चिट्ठी लिखी डाकबक्से में डाल दी। पता नहीं किसी ने उसे देखा भी होगा या नहीं। वह अमर उजाला जिला मुख्यालय के लिए थी। तब मुझे पेंटिंग का बहुत शौक लग गया था। मैं तीसरी या चौथी कक्षा में रहा हूंगा। अमर उजाला तब एक सप्ताह में शुक्रवार के दिन एक खास पेज लिखता था। जिसमें बच्चों को उनकी पेंटिंग्स और नाम-पता के साथ छपता था। पहली बार जब मैं डाकखाना मास्टर को वह पत्र दिया। तब या तो कोई शुल्क नहीं लिया, या पांच रुपये लिए थे। मुझे ठीक से याद नहीं पर 5 से ज्यादा रुपए नहीं लिए थे।

  अगली बार से तो स्कूल के और भी पेंटिंग के उस्ताद मिलकर हम अपनी पेंटिंग अमर उजाला मुख्यालय पते पर भेजते थे। फिर एक बार अमर उजाला ने मेरी पेंटिंग को शामिल किया था।।

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