मंगलवार, 5 जुलाई 2022

हिमालयी क्षेत्रों में होने वाले भूस्खलन और भूकंप का कारण क्या है?




भूस्खलन के कारणों में हम अपक्षय और अपरदन, गुरुत्वाकर्षण कारक, जलवायु कारक के साथ-साथ प्लेट विवर्तनिकी से इसे जानेंगे ]

 अपक्षय और अपरदन की प्रक्रिया के कारण चट्टानों में होने के कारण भूस्खलन की घटना संभावित होती है। इन चट्टानों में अधिक वर्षा होने के पश्चात जब धूप पड़ती है। तो वह सुख कर नीचे की ओर खिसकने लगते हैं और यह भूस्खलन के रूप में आपदा है।

बड़ी-बड़ी चट्टानों में गुरुत्वाकर्षण के कारण भी भूस्खलन की घटना संभावित होती है। ऊंची चट्टानों पर गुरुत्वाकर्षण बल के कारण चट्टानों में भूस्खलन की घटना होती है।

किसी प्रदेश की जलवायु भी उस प्रदेश में हुए भूस्खलन के लिए उत्तरदाई होती है। यदि कोई प्रदेश की जलवायु अधिक वर्षायुक्त है, तो उस प्रदेश में भूस्खलन संभावित है। इसके अतिरिक्त वनों का कटाव भूकंप की घटना आदि भी भूस्खलन को जन्म देते हैं।

उत्तर भारत में विशेषकर हिमालई क्षेत्रों में होने वाली आपदाओं के संबंध में प्लेट विवर्तनिक महत्वपूर्ण है। भारतीय प्लेट के यूरेशियाई प्लेट से टकराने के कारण ही हिमालय पर्वत का जन्म हुआ है। जहां यह दोनों प्लेटें टकराती हैं, वह अभिसरित सीमा का एक प्रकार है।

[ नोट- पृथ्वी के अनेक प्लेटों में दो प्लेटें आपस में जहां मिलती हैं, वहां पर अपसरित सीमा अभिसरण सीमा और रूपांतर सीमा बनती हैं। अपसरण सीमा जब प्लेटें एक दूसरे से विपरीत दिशा में पीछे हटते हैं। तो मध्य के खाली स्थान में नई पर्पटी का निर्माण होता है, क्योंकि नई पर्पटी का जन्म होता है इसलिए इसे अपसरण सीमा के साथ रचनात्मक सीमा भी कहते हैं।

जब दो प्लेटों के मिलने के स्थान पर एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धंस जाती है, तो इसे अभिसरण सीमा कहते हैं। क्योंकि यहां प्लेट का विनाश हुआ है इसलिए इसे विनाशात्मक किनारा भी कहते हैं।

रूपांतर सीमा दो प्लेटों के मिलने के स्थान पर जब ना तो नयी पर्पटी का निर्माण होता है और ना ही पर्पटी का विनाश होता है, इसे इसे रूपांतर सीमा कहते हैं। इसका कारण यह है कि सीमा पर प्लेट एक दूसरे के साथ साथ क्षैतिज दिशा में दिशा में सरक जाती हैं ]

भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के मिलने के स्थान पर अभिसरण सीमा या विनाशात्मक किनारे का जन्म होता है, इन प्लेटों के टकराव से ही हिमालय का जन्म हुआ है। और क्योंकि यह दो प्लेटों के मिलने की सीमा है, इसलिए यह भूगर्भिक हलचलों से उत्पन्न घटनाओं के लिए संवेदनशील क्षेत्र है। साथ ही भारतीय प्लेट अब भी यूरेशियन प्लेट को निरन्तर धक्का दे रही है। और यह भूगर्भिक हलचलों को जन्म देता है। परिणाम में आपदाएं जन्म लेते हैं। हिमालय क्षेत्रों की बजाए दक्षिण के क्षेत्रों को भूगर्भिक दृष्टि से अधिक स्थिर माना जाता है।

शनिवार, 2 जुलाई 2022

प्रधानमंत्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति की विवेकानुसार निर्णय लेने की शक्ति

प्रधानमंत्री की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति की वयक्तिक विवेक स्वतंत्रता की चर्चा करें?

प्रधानमंत्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति की विवेकानुसार निर्णय

【 नोट- राष्ट्रपति की व्यक्तिक विवेक स्वतंत्रता का तात्पर्य है कि राष्ट्रपति के द्वारा व्यक्तिगत विवेक के आधार पर निर्णय लेना 】

प्रधानमंत्री की नियुक्ति के संबंध में संविधान का अनुच्छेद 75 कहता है। कि राष्ट्रपति के द्वारा प्रधानमंत्री की नियुक्ति होगी। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री के निर्वाचन की कोई विशेष प्रक्रिया नहीं दी गई है।

सामान्य परंपरा के अनुसार लोकसभा में बहुमत दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित करता है। किंतु प्रधानमंत्री के निर्वाचन के संबंध में दो परिस्थितियां जहां राष्ट्रपति की व्यक्तिक विवेक स्वतंत्रता कार्य करती है।

पहली परिस्थिति में जब संसद में कोई भी दल बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता है। इस दशा में राष्ट्रपति अपनी व्यक्तिक विवेक स्वतंत्रता का प्रयोग करता है, और बड़े दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है। वह 1 माह के भीतर उसे संसद में बहुमत अथवा विश्वास मत हासिल करने के लिए कहता है।

1980 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के प्रधानमंत्री को नियुक्त करने और प्रधानमंत्री के संसद में बहुमत सिद्ध करने के संदर्भ में में कहा था। कि संविधान में यह आवश्यक नहीं है, कि एक व्यक्ति प्रधानमंत्री नियुक्त होने से पूर्व ही लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करे, बल्कि प्रक्रिया बताई गई कि राष्ट्रपति को पहले प्रधानमंत्री को नियुक्त करना चाहिए, और उसके पश्चात निश्चित समय सीमा में प्रधानमंत्री को बहुमत सिद्ध करने के लिए कहना चाहिए।

दूसरी परिस्थिति में जब पद पर रहते हुए प्रधानमंत्री की मृत्यु हो जाए। इस दशा में यदि सत्ताधारी दल के द्वारा प्रधानमंत्री का कोई स्पष्ट नेता निर्धारित न किया जा सका हो। राष्ट्रपति अपने व्यक्तिगत निर्णय के आधार पर प्रधानमंत्री नियुक्त करता है किंतु यदि सत्ताधारी दल प्रधानमंत्री की मृत्यु के पश्चात एक नया नेता चुनता है, तो राष्ट्रपति को उसी नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करना होगा।

1979 में पहली बार राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने प्रधानमंत्री के निर्वाचन में अपनी व्यक्तिगत विवेक का प्रयोग किया था। जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व की जनता दल की सरकार का पतन हो गया तो राष्ट्रपति के द्वारा गठबंधन के नेता और जो तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, को प्रधानमंत्री नियुक्त किया।

जब 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। तब तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपने व्यक्तिक निर्णय के आधार पर से राजीव गांधी को प्रधानमंत्री नियुक्त किया, और इसके बाद कॉन्ग्रेस दल ने संसद में राजीव गांधी को अपना नेता स्वीकार किया। इससे पूर्व में भी इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न हुई जब प्रधानमंत्री का पद पर रहते ही अक्स्मात निधन हो गया ।

1964 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए ही निधन हुआ। तब राष्ट्रपति ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में एक अस्थाई व्यवस्था अपनाई 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए निधन हुआ तब भी अस्थाई व्यवस्था के तौर पर कार्यवाहक प्रधानमंत्री को नियुक्त किया गया। 1964 और 1966 में दोनों ही समय कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर गुलजारी लाल नंदा को कार्यभार सौंपा गया।।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

संविधान के अनुसार राष्ट्रपति की स्थिति भारत की संसदीय व्यवस्था में नाममात्र के कार्यपालिका प्रधान की है। कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान प्रधानमंत्री होता है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है, की राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है। किंतु कार्यकारी नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, किंतु उस पर शासन नहीं करता। राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है। जबकि प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है।
राष्ट्रपति की शक्तियों के संदर्भ में अनुच्छेद 53 और अनुच्छेद 74 जो इस प्रकार हैं-
अनुच्छेद 53 के अनुरूप “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। वह इसका प्रयोग स्वयं व अपने अधीनस्थ अधिकारियों के सहयोग से करेगा”

यहां  प्रयुक्त “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी” का तात्पर्य राष्ट्रपति के संघ की कार्यपालिका की औपचारिक रूप से प्रधानता से है।

अनुच्छेद 74 के अनुरूप- “राष्ट्रपति की सलाह व सहायता के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद होगी और वह अपने कार्य व कर्तव्य का उनकी सलाह पर निर्वहन करेगा”
इस अनुच्छेद के अंतर्गत दर्शाई गई प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद ही राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित करते हैं।

संसद के द्वारा पारित कोई विधायक जब राष्ट्रपति के पास पहुंचता है, तो अनुच्छेद111 के अंतर्गत राष्ट्रपति को उस पर वीटो शक्ति प्राप्त होती है। किन्तु वास्तव में इस संदर्भ में भी राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से सलाह जरूर लेता है। ठीक इसी तरह अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति को प्राप्त क्षमादान की शक्ति के संदर्भ में भी व्यावहारिक तौर से राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह जरूर लेता है।

किंतु मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्ति के विषय में हम दो घटनाओं को देखेंगे।
1997 में जब राष्ट्रपति के० आर० नारायण ने मंत्रिमंडल के द्वारा दी गई सलाह कि उत्तर प्रदेश में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। तो राष्ट्रपति ने इस मामले को मंत्रिमंडल में पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया। जिसके बाद मंत्रिमंडल ने इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया, और उस समय की उत्तर प्रदेश में बी०जे०पी० शासित मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कि सरकार बच गई।


1998 में मंत्रिमंडल ने पुनः राष्ट्रपति के०आर० नारायण को बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की इस बार भी राष्ट्रपति ने मामले को मंत्रिमंडल की पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दिया। कुछ महीने पश्चात कैबिनेट ने पुनः यही सलाह राष्ट्रपति को दी। जिसके बाद 1999 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।

इन दोनों घटनाओं से आप राष्ट्रपति को मंत्री परिषद द्वारा दी जाने वाली सलाह के संदर्भ में राष्ट्रपति की पुनर्विचार के लिए मामले को वापस मंत्रिमंडल के पास भेजने की शक्ति से अवगत हुए हैं। ध्यान दें कि यह घटनाएं मंत्रीपरिषद् के द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सलाह के संदर्भ में है। यह संसद के द्वारा पारित किए गए विधेयक के संदर्भ में राष्ट्रपति की शक्तियों से अलग है।
[ नोट- राष्ट्रपति को संसद के द्वारा पारित किए गए विधेयक के संदर्भ में उस विधेयक को स्वीकृति कर कानून बनाने, उस विधेयक को रोककर रखने, पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के अधिकार प्राप्त हैं। जिन्हें वीटो शक्ति कहा जाता है ]

राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के द्वारा दी गई सलाह के संदर्भ में राष्ट्रपति जिस शक्ति से उस मामले को एक बार पुनर्विचार के लिए मंत्री परिषद को वापस भेजता है। यह शक्ति 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 और 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में दी गई है।

1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व की सरकार ने 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में कहा की राष्ट्रपति पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह बाध्यकारी होगी।
अर्थात राष्ट्रपति को मंत्री परिषद के द्वारा दी गई सलाह को मानना ही होगा। वह पुनर्विचार के लिए मंत्रिपरिषद को मामले को वापस नहीं भेज सकता।

1978 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद उसने 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में कहा कि राष्ट्रपति को अधिकार है, कि वह सामान्यतः अथवा अन्यथा मंत्रिमंडल को सलाह पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। हालांकि पुनर्विचार की बाद यदि मंत्रिमंडल वहीं सलाह राष्ट्रपति को पुनः देता है। तब राष्ट्रपति उस सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा।

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏