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मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा कीजिए?

संविधान के अनुसार राष्ट्रपति की स्थिति भारत की संसदीय व्यवस्था में नाममात्र के कार्यपालिका प्रधान की है। कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान प्रधानमंत्री होता है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है, की राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है। किंतु कार्यकारी नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, किंतु उस पर शासन नहीं करता। राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है। जबकि प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है।

राष्ट्रपति की शक्तियों के संदर्भ में अनुच्छेद 53 और अनुच्छेद 74 जो इस प्रकार हैं-
अनुच्छेद 53 के अनुरूप “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। वह इसका प्रयोग स्वयं व अपने अधीनस्थ अधिकारियों के सहयोग से करेगा”

यहां  प्रयुक्त “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी” का तात्पर्य राष्ट्रपति के संघ की कार्यपालिका की औपचारिक रूप से प्रधानता से है।

अनुच्छेद 74 के अनुरूप- “राष्ट्रपति की सलाह व सहायता के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद होगी और वह अपने कार्य व कर्तव्य का उनकी सलाह पर निर्वहन करेगा”
इस अनुच्छेद के अंतर्गत दर्शाई गई प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद ही राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित करते हैं।

संसद के द्वारा पारित कोई विधायक जब राष्ट्रपति के पास पहुंचता है, तो अनुच्छेद111 के अंतर्गत राष्ट्रपति को उस पर वीटो शक्ति प्राप्त होती है। किन्तु वास्तव में इस संदर्भ में भी राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से सलाह जरूर लेता है। ठीक इसी तरह अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति को प्राप्त क्षमादान की शक्ति के संदर्भ में भी व्यावहारिक तौर से राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह जरूर लेता है।

किंतु मंत्रिपरिषद से अलग राष्ट्रपति की शक्ति के विषय में हम दो घटनाओं को देखेंगे।
1997 में जब राष्ट्रपति के० आर० नारायण ने मंत्रिमंडल के द्वारा दी गई सलाह कि उत्तर प्रदेश में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। तो राष्ट्रपति ने इस मामले को मंत्रिमंडल में पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया। जिसके बाद मंत्रिमंडल ने इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया, और उस समय की उत्तर प्रदेश में बी०जे०पी० शासित मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कि सरकार बच गई।


1998 में मंत्रिमंडल ने पुनः राष्ट्रपति के०आर० नारायण को बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की इस बार भी राष्ट्रपति ने मामले को मंत्रिमंडल की पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दिया। कुछ महीने पश्चात कैबिनेट ने पुनः यही सलाह राष्ट्रपति को दी। जिसके बाद 1999 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।

इन दोनों घटनाओं से आप राष्ट्रपति को मंत्री परिषद द्वारा दी जाने वाली सलाह के संदर्भ में राष्ट्रपति की पुनर्विचार के लिए मामले को वापस मंत्रिमंडल के पास भेजने की शक्ति से अवगत हुए हैं। ध्यान दें कि यह घटनाएं मंत्रीपरिषद् के द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सलाह के संदर्भ में है। यह संसद के द्वारा पारित किए गए विधेयक के संदर्भ में राष्ट्रपति की शक्तियों से अलग है।
[ नोट- राष्ट्रपति को संसद के द्वारा पारित किए गए विधेयक के संदर्भ में उस विधेयक को स्वीकृति कर कानून बनाने, उस विधेयक को रोककर रखने, पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के अधिकार प्राप्त हैं। जिन्हें वीटो शक्ति कहा जाता है ]

राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के द्वारा दी गई सलाह के संदर्भ में राष्ट्रपति जिस शक्ति से उस मामले को एक बार पुनर्विचार के लिए मंत्री परिषद को वापस भेजता है। यह शक्ति 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 और 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में दी गई है।

1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व की सरकार ने 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में कहा की राष्ट्रपति पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह बाध्यकारी होगी।
अर्थात राष्ट्रपति को मंत्री परिषद के द्वारा दी गई सलाह को मानना ही होगा। वह पुनर्विचार के लिए मंत्रिपरिषद को मामले को वापस नहीं भेज सकता।

1978 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद उसने 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में कहा कि राष्ट्रपति को अधिकार है, कि वह सामान्यतः अथवा अन्यथा मंत्रिमंडल को सलाह पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। हालांकि पुनर्विचार की बाद यदि मंत्रिमंडल वहीं सलाह राष्ट्रपति को पुनः देता है। तब राष्ट्रपति उस सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा।

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