
लोकतांत्रिक समाजवाद वह विचार है। जिसमें समाजवादी विचार का अनुसरण तो है ही, किंतु साथ ही पूंजीवादी विचार को भी स्थान प्राप्त है। अर्थात समाज में धनवान वर्ग को भी स्थान दिया गया है। जबकि समाजवाद इसका विरोध करता है। उसका अंतिम लक्ष्य समाज को वर्ग रहित बनाना है जहां सभी बराबर हो।
लेकिन भारत में समाजवाद का स्वरूप यही है। जहां पूंजीपतियों को उन्नति का अवसर प्राप्त है। और सरकार भी अपनी संस्थाओं को जिन पर उसका नियंत्रण है, आगे बढ़ाती है। और यह सरकार और पूंजीपतियों के प्रयास से और कार्यों में उनके सामन्जस्य से प्राप्त समाजवाद की धारणा पर विश्वास करता है।
भारत के संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा जिसे मिनी कॉन्स्टिट्यूशन कहा जाता है, समाजवाद शब्द जोड़ा गया था। भारत का समाजवाद सदैव विशेष स्वरुप को लिए रहा। जहां भारत में समाजवादी विचार के तहत वंचित वर्ग को महत्व दिया गया। वहीं पूंजीवादी वर्ग को भी उनकी उन्नति से वंचित नहीं किया गया। वंचित को बराबरी तक लाने के प्रयास आरंभ हुए किंतु यह पूंजीपतियों का विनाश कर ऐसा नहीं किया गया, बल्कि दोनों को स्वतंत्र रूप से बढ़ने के अवसर उपलब्ध किए गए। वहीं वंचित वर्ग को विशेष तौर से आगे बढ़ाने के लिए प्रयास आरंभ हुए जैसे आरक्षण आदि अनेक सरकारी योजनाएं जिनका उद्देश्य वंचित वर्ग को बराबरी तक लाना होता है।
समाजवाद और साम्यवाद की धारणा जब अपनी सर्वोच्चता पर थी तो विचार था, कि सभी मजदूर वंचित वर्ग एक हो जाओ और पूंजीपतियों का अंत कर दो और सारा धन संपत्ति सब में बराबर बांट दो।
किंतु भारत में पूंजी पतियों की उन्नति को भी समाजवाद लाने की दिशा में एक कदम के रूप में देखा गया।
1982 में बी०एस० नाकारा केस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में समाजवाद के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए टिप्पणी की कि समाजवाद~>
“पालने से लेकर कब्र तक सुरक्षा प्रदान करना” है।
इस समाजवाद को प्राप्त करने के लिए तीन बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित किया गया~>
● आय की असमानता को कम किया जाए।
● जीवन स्तर के असमानता को दूर किया जाए।
● मजदूर, शोषित वर्ग, वंचितों का कल्याण।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस निर्णय में नहीं कहा गया, कि संसाधनों का समाजीकरण या उन्हें बांट दिया जाए। अर्थात पूंजीवाद की संभावना है। और भारत के समाजवाद में पूंजीवाद का उन्नयन होता रहा। इस प्रकार भारत का समाजवाद विशिष्ट स्वरूप लिए है।।
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