कोई भी काम करने में धैर्य की नितांत आवश्यकता है। जो धैर्यवान है, वह कर्म करने से पहले उसके शुभ अशुभ परिणाम पर विचार कर सकता है। उसको सफल बनाने के लिए मार्ग निर्धारित कर सकता है। अपने कर्म के सत्-असत एवं उपयोगिता-अनुपयोगिता पर सोच सकता है। इसके विपरीत जो अधैर्यवान है, आवेश अथवा उद्वेगपूर्ण है, वह ना तो कर्म की इन आवश्यक भूमिकाओं पर विचार कर सकता है और न दक्षता प्राप्त कर सकता है। वह तो अस्त-व्यस्त क्रियाकलाप की तरह एक निरर्थक श्रम ही होता है।
अधैर्य मनुष्य का बहुत बड़ा दुर्गुण है। अधीर व्यक्ति में अपेक्षित गंभीरता का अभाव ही रहता है, जिससे वह चपलता के कारण समाज में उपहास, उपेक्षा और निंदा का पात्र बनता है। अधिक व्यक्ति के मन बुद्धि स्थिर नहीं रहते। वह न किसी विषय में ठीक से सोच सकता है और ना कर्तव्य का निर्णय कर सकता है। अधैर्यवान व्यक्ति अदक्षता, अस्त-व्यस्तता, अनिर्णयात्मकता एवं अक्षमता के कारण जीवन के हर क्षेत्र में असफल होकर दुख भोगता है इसके विपरीत जो धैर्यवान है, वह जिस कार्य को पकड़ता है, उसे पूर्ण मनोयोग, विवेक, बुद्धि और समग्र शक्ति लगाकर पूरा किए बिना नहीं रहता। धैर्यवान व्यक्ति कर्म करके उसके फल की प्रतीक्षा में व्यग्र नहीं होता, बल्कि फलाशक्ति से रहित होकर कार्य किया करता है।।
-अखंड ज्योति द्वारा
24 अगस्त 1965
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