सोमवार, 19 दिसंबर 2022

FIFA World Cup Final 2022 | विशेष

Fifa world cup final 2022



ऐसा लगता है, कोई बोझ सर से उतर गया है। जैसे ही माॅन्टियल ने आखरी पेनेल्टी किक की और यह सफल रहा, और अर्जेंटीना जीत गया, और सबसे महत्वपूर्ण मेस्सी की जीत हुई। मैस्सी के कितने प्रेमियों के कारण मैं जो फुटबॉल के बारे में अब तक रोनाल्डो और मेस्सी के नाम के अलावा और कुछ नहीं जानता को भी उन्हें देखने को प्रेरित किया। फुटबॉल बतौर खेल में उतना कुछ भी नहीं जानता।
अब तक मैं खेल राष्ट्रवादी भावना से देख लेता था। जहां अपने देश की टीम खेल रही है। उसकी जीत हार में भावनाएं शामिल होती हैं। लेकिन फुटबॉल के इस खेल को देख खेल के जादुई प्रभाव की वह अनुभूति हुई। वास्तव में यदि केवल खेल के समर्थक होकर, उसके प्रेमी हो कर देखें तो कुछ खिलाड़ियों की जादुई प्रदर्शन के प्रभाव से बचा नहीं जा सकता है।

मैंने बहुत तो नहीं लेकिन अर्जेंटीना और फ्रांस के फाइनल में पहुंचने के बाद एक-दो आलेख अखबार में अवश्य पढ़े थे। उस में मुख्य तौर से अर्जेंटीना के मेस्सी और फ्रांस के एमबावे पर ही ध्यान केंद्रित किया गया था। और हुआ वही।
लेकिन अब आप गौर करें, कि एक व्यक्ति जो फुटबॉल की ज्यादा कुछ नियमों को भी नहीं जानता वह पूरा फाइनल मैच देखता है। तो वह उसमें क्या कुछ देख रहा है।
आपने गौर किया हो तो वहां एक बॉल ग्राउंड के बाहर गिर जाए तो वे दूसरी बाॅल खिलाड़ी को झट से दे देते हैं। और मैच नयी गेंद से ही आरंभ हो जाता है।
खिलाड़ी तो ठीक लेकिन रेफरी भी खिलाड़ी ही प्रतीत होते हैं। खिलाड़ियों जितना ही दौड़ते हैं। हां अपने अलग कपड़ों की वजह से वह पहचाने जा सकते हैं। आप देखेंगे कि यह जबरदस्त स्टेमिना का खेल है, इसलिए खिलाड़ियों को सब्सटिट्यूट करना कब किसे, कौन थक रहा है, यह भी इस खेल में रणनीति का अहम हिस्सा है। जिसमें फ्रेस लैग्स की बात की जाती है।
इसके अलावा गिरना भी एक तरह की रणनीति का हिस्सा है। इससे कभी-कभी तो अच्छा खासा लाभ प्राप्त हो जाता है। आज भी हमने ऐसा कई बार ऐसा देखा। बाहर बैंच पर बैठा कोई खिलाड़ी उसे भी येलो कार्ड मिल सकता है। एक खास बात वहां बाहर बैठे टीम के कोच इत्यादि अधिक उत्सुक रहते हैं, बहुत अधिक एग्रेसिव। कभी-कभी आप देखेंगे उन्हें सिक्योरिटी गार्ड संभाल रहे हैं, क्योंकि वह ग्राउंड में ही प्रवेश करने को तैयार है।

बाकी यह खेल जोरदार प्रेशर का खेल है। पेनल्टी का पहला गोल हो ही ताकि अगली टीम का विश्वास ना बढ़ सके, तो दोनों तरफ से इन मैचों में और टीमों की सबसे सफल खिलाड़ी एमबावे और मेस्सी ही पहले गोल के लिए आए।
जो मैंने पढ़ा था, फ्रांस का पलड़ा भारी था। लेकिन अर्जेंटीना ने मैच जीत लिया। मेस्सी का जादू चला, और उन्होंने अपने दुनिया भर के प्रेमियों को खुश होने का मौका दिया।

रविवार, 18 दिसंबर 2022

KWMM junior high school paithani | संस्मरण लेख

kwmm junior high school paithani

कलावती मेमोरियल मॉन्टेसरी जूनियर हाई स्कूल पैठाणी अपने 25 वर्ष की उपलब्धियों का उत्सव मना रहा है। एक समय था, कि विद्यालय तीन कक्षाओं में चलता था। आठवीं तक की कक्षाएं चलाई जाती थी। मुझे याद है, कि कक्षाओं के बाहर बरामदे में भी पढ़ाई करते थे। श्यामपट्ट केवल दीवारों पर नहीं बने थे। बल्कि लकड़ी के ब्लैक बोर्डों का भी प्रयोग होता था। जिन्हें एक जगह से दूसरी जगह पढ़ने के लिए जहां छात्र बैठे वहां ले जाए जा सके।
और वह स्कूल की पुरानी बिल्डिंग किसे याद नहीं। उसके प्रवेश के लिए वह छोटी सी सीढ़ियां और फिर कक्षाएं। यदि कहें तो वह भवन परिवार के रहने के लिए ही बनाया गया था, स्कूल उसमें चलाई जा रही थी। लेकिन यह स्वीकार करना होगा, कि उन छोटी सी सीड़ियों से ही कई छात्रों ने शिक्षा के सफल सीढ़ियां चढ़ी।


मुझे याद है, ऊपर प्रधानाचार्य ऑफिस होता था। वहां पर्याप्त जगह थी, यह ग्राउंड फ्लोर को लगाकर दूसरी मंजिल या आखिरी मंजिल पर था। वहीं से सीढ़ियां नीचे उतर कर दोनों तरफ दो कक्षाओं में खुलती थी, और वहीं से और नीचे उतरे तो फिर दोनों तरफ दो कक्षाएं और खुलती थी। उस ग्राउंड फ्लोर की दो कक्षाओं में एक बड़ा हॉल वहीं सुबह की प्रार्थना होती थी। कार्यक्रम सबसे ऊपर छत पर होते थे। जगह बहुत सीमित थी। लेकिन जिस निष्ठा के साथ शिक्षकों ने अपना कार्य किया और उससे छात्रों में जो उत्साह था। उसने इसे कभी सवाल बनने नहीं दिया। मुझे याद है, कि तब के सबसे सीनियर कक्षाओं में कुछ नाम जैसे कलम सिंह भाई, प्रभात भाई, लक्ष्मी दीदी और एक नाम विशेषकर विवेकानंद भाई मुझे याद है, क्योंकि वह वही रहते थे।

जो मुझे याद है, वहां सीधे प्रवेश के बाद बाएं हाथ पर जो कक्ष खुलता है, वहां उस समय एक शायद सीमेंट की अलमारी के ऊपर श्री कृष्ण भगवान की बाल मूर्ति थी, जो घड़े से माखन खा रहे थे। यदि आपको याद हो।
नए भवन में आ जाने के बाद तो पुरानी स्कूल की बिल्डिंग में बहुत तो नहीं पर एक दो बार आना हुआ था। क्योंकि राष्ट्रीय पर्व के लिए जो सड़क में रैलियां हम निकालते थे, उसके लिए हम वहीं तैयार होते थे। भारत माता जिन्हें बनाया जाता था, उनकी खूब तैयारी होती थी। हम तो स्वतंत्रता संग्राम के नायक नेहरू, बॉस, आजाद, भगत सिंह आदि नेता बनते थे। हमें ज्यादा तैयार क्या करना था, एक एक कुर्ता हम खुद डाल लेते थे, और एक दूसरे की मूछें खुद ही पेन से बना देते थे। आखिर में मैडम जी आकर हमें कहती कि जल्दी से चौक का चूरा अपने-अपने सर में डाल दो, ताकि हम बूढ़े नेता जैसे दिखने लगे।

नई बिल्डिंग में आने के बाद हमारे लिए जो खास था, वह मैदान था। वह हमारे लिए पर्याप्त था। इंटरवल की घंटी बजी कि एक सेकंड बिना गवाये खेल आरंभ हो जाता था। छोटे थे, तो दौड़ दौड़ कर ही खेल हो जाता था। कुछ बड़े हुए तो कुछ नियमित ढंग से खेलने लगे।

एक बार हमने एक फुटबाल ले ली। फुटबॉल हमने सर जी के यहां से ही ली। रुपए अभी नहीं दिए थे। मुझे याद है, उस फुटबॉल को हम छात्रों में सीनियर जो थे, जिन्होंने लिया था। उन्होंने हम सब को कहा जो खेलेगा बीस रुपये जमा करना पड़ेगा। हम तैयार थे, टीम फील्ड में बिछ गई। इंटरवल का टाइम था सभी और छोटे और बड़े अन्य सभी छात्र खेल रहे थे, उन्हीं के बीच हमें फुटबॉल खेलना था। लेकिन वहां जिन दो खिलाड़ियों ने पहला टच बॉल को करना था, उन्होंने दोनों तरफ से इतना तेज मारा फुटबॉल वही फूट गई हम देखते रह गए। 20 रुपए अलग देने थे। वह एक वॉलीबॉल थी, हम उसी से फुटबॉल खेल रहे थे। बाद में खबर आई कि सर जी ने रुपय देने के लिए मना किया है।

इंटरवल के बाद लाइन लगती थी। जिन पर धूल लगी होती थी, या मिट्टी में कपड़े गंदे होते थे। उसके लिए खतरा था, उन्हें जवाब देना पड़ता था। और कभी कभी पिटाई भी हो जाती थी। जो जितना गंदा हुआ रहता था, उसकी बदमाशी का अंदाजा उसी से लगाया जाता था। अब चीजें थोड़ा बदल गई हैं, लेकिन तब तो पिटाई भी खूब होती थी। लाइन से सब अपनी अपनी कक्षा में जाते थे। यह तब नियम बन गया था, जब कबड्डी का खूब शौक हो गया था, और छात्र इंटरवल के बाद कौन है, पहचानना मुश्किल हो गया था।


मेरे दादाजी जो हर बात में दोष ढूंढ ही लेते हैं, वह एक बात कहते हैं। कि मोंटेसरी में जो अनुशासन रहा है, वैसा कहीं नहीं। और इसका पूरा श्रेय श्री प्रधानाचार्य सरजी को देते हैं। वास्तव में यही आम जनमानस की आवाज है।
लिखने को इतना है, जैसे एक किताब ही प्रकाशित हो जाए। कुछ और खास यादों को जरूर साझा करूंगा, और अगर आप के० डब्ल्यू० एम० मेरियन हैं, तो इन्हें अपने आप से जोड़ते चले।

रविवार, 4 दिसंबर 2022

प्रसिद्ध बुंखाल मेला | एक संस्मरण लेख

बुंखाल मेला पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
        

हर बार की तरह बुंखाल की सुंदर झलकियां इस बार भी प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा सामने लाई गई हैं। और यह बेहद सुंदर हैं, और जो लोग मेले में नहीं थे, उन्हें यह और भी सुंदर लग रही हैं।

बहुत से दोस्तों की तस्वीर देखी जो अन्य दोस्तों को फ्रेम में लिए हैं। जिन से मेरी मुलाकात भी काफी समय से नहीं हुई है। मेले का मतलब ही यह है, मिलना।

बूंखाल मेले की एक पुरानी तस्वीर

अब तो कई साधनों के माध्यम से हम एक दूसरे से जुड़े रहते हैं, संपर्क में रहते हैं। लेकिन पहले यह सब साधन नहीं थे, तो मेला बड़े उल्लास का विषय था, क्योंकि वहां जाने कौन-कौन मिलने वाला है, इसके लिए मन में उत्साह होता था।

वो एक सुंदर वीडियो जो शायद पिछले वर्ष का है, और इस प्रसिद्ध मेले के स्थान बुंखाल का भूगोल आकाश से दिखा रहा है, उसे सभी लोग साझा कर रहे हैं। वह वीडियो इस सुंदर मेले के लगभग सुंदरता को दर्शा भी रहा है।

मैं जब पहली बार बुंखाल मेला गया। शायद 2009 में तो मुझे याद है, तब सभी पैदल जाते थे। एक तंग रास्ते में जो बुंखाल बाजार के ठीक नीचे की ओर से जो रास्ता मलुंड गांव को जाता है, पर बागी के साथ एक बड़ी भक्तों की भीड़ जो पीछे से आ रही थी। वही ढोल दमाऊ और बागी के चारों ओर रस्सों के साथ और डंडों के साथ लड़कों की बड़ी संख्या साथ ही बच्चे, महिलाएं सभी मां काली के भक्त पूरे जोर-शोर से आगे बढ़ रहे हैं। बागी इससे विचलित भी होता है, और कभी कभी आगे को दौड़ने लगता है, और लोगों को जो उस पर बंधी रास्सियों को पकड़े हैं, खींचने लगता है। यह मेरे लिए तो डरने का मामला था। लगभग सभी लोग एक किनारे हो गए, क्योंकि रास्ता भी लोगों से पूरी तरह भरा हुआ था। ऐसे में अफरा-तफरी हो जाए लगभग संभव था। हम वैसे ही घर से लड़ कर आए थे। क्योंकि अकेले तो आ नहीं सकते थे, किसी के साथ ही आना था, और कोई क्यों दिन भर मेले में एक आफत के रूप में जिम्मेदारी का हाथ पकड़ कर घूमता रहे। ऐसे में हम आधा दिन किसी के साथ रहते थे, और आधा दिन किसी और के साथ। जो भी होता था सख्त निर्देश होता था, हाथ नहीं छोड़ना।

जहां बलि दी जा रही थी वहां मेरी मां ने मुझे उठा कर दिखाया। क्योंकि वहां भीड़ ही इतनी थी, चारों तरफ से लोग घेरे हुए थे। बली के स्थान के दोनों तरफ हथियार के साथ दो या चार आदमी थे। उधर बागियों को पहले पूरे खेत में घुमाया जाता था, उन्हें थकाने के बाद उनकी बलि दी जाती थी। लोग अपनी बकरी और बागी को किसी तरह से तो उतनी भीड़ में बलि के स्थान तक ला रहे थे। बकरियों की संख्या तो गिनना मुश्किल होगा। मैं यह देखता उससे पहले में उतर गया, मुझसे यह नहीं देखा जाता।

बूंखाल में बलि प्रथा- एक पुरानी तस्वीर
                                        

तब बलि प्रथा पर खूब नारेबाजी हुआ करती थी। जागरूकता के लिए स्कूली बच्चों द्वारा सड़कों पर रैलियां निकाली जाती थी। विशेषकर बुंखाल मेले से एक-दो दिन पूर्व लगभग स्कूल क्षेत्र में रैलियां निकालते थे। 

बच्चों के माध्यम से घर-घर तक आवाज पहुंचीं। प्रशासन पहले से ही निर्देशित था। बहुत बड़ा जन-विरोध नहीं होगा, ऐसी स्थिति जब सरकार को महसूस हुई, तो 2011 में बलि प्रथा बुंखाल में निषेध है, कि घोषणा कर दी गई। यदि मैं ठीक हूं तो वह तिथि बुंखाल मेले की 26 नवंबर को तय थी। और प्रशासन के कड़े इंतजाम में मां काली के पूज्य स्थान में कहीं भी पशुबलि नहीं दी गई। लोगों ने दूर जहां से मां काली का स्थान दिखता हो,बली जरूर दी थीं। शायद यह भी खबर थी, कि कुछ बागियों को पुलिस तब जफ्त कर ले गई थी।

बलि प्रथा और लोगों में अपने लोगों से मिलने का उत्साह इस मेले का अहम आकर्षण था, और जोरदार भीड़ का कारण भी। अब यह सब सांस्कृतिक कार्यक्रम के माध्यम से किया जाने का प्रयास है। सांस्कृतिक कार्यक्रम मेले का मूल आकर्षण प्रतीत हो रहा है। अच्छा बजट लगाकर कार्यक्रम में लोकप्रिय कलाकारों की उपस्थिति से लोग मेले का शानदार आनंद उठा रहे हैं।

लेकिन मेले में भीड़ की उपस्थिति का सबसे अहम कारण बलि प्रथा और लोगों ने मिलन का उत्साह से अधिक और बड़ा मां बुंखाल काली के प्रति लोगों में आस्था की भावना है। यह मां काली के प्रति लोगों की श्रद्धा ही है, जो उन्हें तब से आज तक हमेशा से अपने गांव इस मेले के लिए खींच लाती है।

जय मां बुंखाल काली🙏

मेरे बारे में

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏