रविवार, 4 दिसंबर 2022

प्रसिद्ध बुंखाल मेला | एक संस्मरण लेख

बुंखाल मेला पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
        

हर बार की तरह बुंखाल की सुंदर झलकियां इस बार भी प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा सामने लाई गई हैं। और यह बेहद सुंदर हैं, और जो लोग मेले में नहीं थे, उन्हें यह और भी सुंदर लग रही हैं।

बहुत से दोस्तों की तस्वीर देखी जो अन्य दोस्तों को फ्रेम में लिए हैं। जिन से मेरी मुलाकात भी काफी समय से नहीं हुई है। मेले का मतलब ही यह है, मिलना।

बूंखाल मेले की एक पुरानी तस्वीर

अब तो कई साधनों के माध्यम से हम एक दूसरे से जुड़े रहते हैं, संपर्क में रहते हैं। लेकिन पहले यह सब साधन नहीं थे, तो मेला बड़े उल्लास का विषय था, क्योंकि वहां जाने कौन-कौन मिलने वाला है, इसके लिए मन में उत्साह होता था।

वो एक सुंदर वीडियो जो शायद पिछले वर्ष का है, और इस प्रसिद्ध मेले के स्थान बुंखाल का भूगोल आकाश से दिखा रहा है, उसे सभी लोग साझा कर रहे हैं। वह वीडियो इस सुंदर मेले के लगभग सुंदरता को दर्शा भी रहा है।

मैं जब पहली बार बुंखाल मेला गया। शायद 2009 में तो मुझे याद है, तब सभी पैदल जाते थे। एक तंग रास्ते में जो बुंखाल बाजार के ठीक नीचे की ओर से जो रास्ता मलुंड गांव को जाता है, पर बागी के साथ एक बड़ी भक्तों की भीड़ जो पीछे से आ रही थी। वही ढोल दमाऊ और बागी के चारों ओर रस्सों के साथ और डंडों के साथ लड़कों की बड़ी संख्या साथ ही बच्चे, महिलाएं सभी मां काली के भक्त पूरे जोर-शोर से आगे बढ़ रहे हैं। बागी इससे विचलित भी होता है, और कभी कभी आगे को दौड़ने लगता है, और लोगों को जो उस पर बंधी रास्सियों को पकड़े हैं, खींचने लगता है। यह मेरे लिए तो डरने का मामला था। लगभग सभी लोग एक किनारे हो गए, क्योंकि रास्ता भी लोगों से पूरी तरह भरा हुआ था। ऐसे में अफरा-तफरी हो जाए लगभग संभव था। हम वैसे ही घर से लड़ कर आए थे। क्योंकि अकेले तो आ नहीं सकते थे, किसी के साथ ही आना था, और कोई क्यों दिन भर मेले में एक आफत के रूप में जिम्मेदारी का हाथ पकड़ कर घूमता रहे। ऐसे में हम आधा दिन किसी के साथ रहते थे, और आधा दिन किसी और के साथ। जो भी होता था सख्त निर्देश होता था, हाथ नहीं छोड़ना।

जहां बलि दी जा रही थी वहां मेरी मां ने मुझे उठा कर दिखाया। क्योंकि वहां भीड़ ही इतनी थी, चारों तरफ से लोग घेरे हुए थे। बली के स्थान के दोनों तरफ हथियार के साथ दो या चार आदमी थे। उधर बागियों को पहले पूरे खेत में घुमाया जाता था, उन्हें थकाने के बाद उनकी बलि दी जाती थी। लोग अपनी बकरी और बागी को किसी तरह से तो उतनी भीड़ में बलि के स्थान तक ला रहे थे। बकरियों की संख्या तो गिनना मुश्किल होगा। मैं यह देखता उससे पहले में उतर गया, मुझसे यह नहीं देखा जाता।

बूंखाल में बलि प्रथा- एक पुरानी तस्वीर
                                        

तब बलि प्रथा पर खूब नारेबाजी हुआ करती थी। जागरूकता के लिए स्कूली बच्चों द्वारा सड़कों पर रैलियां निकाली जाती थी। विशेषकर बुंखाल मेले से एक-दो दिन पूर्व लगभग स्कूल क्षेत्र में रैलियां निकालते थे। 

बच्चों के माध्यम से घर-घर तक आवाज पहुंचीं। प्रशासन पहले से ही निर्देशित था। बहुत बड़ा जन-विरोध नहीं होगा, ऐसी स्थिति जब सरकार को महसूस हुई, तो 2011 में बलि प्रथा बुंखाल में निषेध है, कि घोषणा कर दी गई। यदि मैं ठीक हूं तो वह तिथि बुंखाल मेले की 26 नवंबर को तय थी। और प्रशासन के कड़े इंतजाम में मां काली के पूज्य स्थान में कहीं भी पशुबलि नहीं दी गई। लोगों ने दूर जहां से मां काली का स्थान दिखता हो,बली जरूर दी थीं। शायद यह भी खबर थी, कि कुछ बागियों को पुलिस तब जफ्त कर ले गई थी।

बलि प्रथा और लोगों में अपने लोगों से मिलने का उत्साह इस मेले का अहम आकर्षण था, और जोरदार भीड़ का कारण भी। अब यह सब सांस्कृतिक कार्यक्रम के माध्यम से किया जाने का प्रयास है। सांस्कृतिक कार्यक्रम मेले का मूल आकर्षण प्रतीत हो रहा है। अच्छा बजट लगाकर कार्यक्रम में लोकप्रिय कलाकारों की उपस्थिति से लोग मेले का शानदार आनंद उठा रहे हैं।

लेकिन मेले में भीड़ की उपस्थिति का सबसे अहम कारण बलि प्रथा और लोगों ने मिलन का उत्साह से अधिक और बड़ा मां बुंखाल काली के प्रति लोगों में आस्था की भावना है। यह मां काली के प्रति लोगों की श्रद्धा ही है, जो उन्हें तब से आज तक हमेशा से अपने गांव इस मेले के लिए खींच लाती है।

जय मां बुंखाल काली🙏

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏