मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

उपन्यास देवदास पर्दे पर | शहंशाह कुंदन लाल सहगल

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के बंगाली उपन्यास देवदास को आज के समय में उतना ही जीवंत और लोकप्रिय रखने में जितना कि वह 1920s  के दशक में रहा होगा, पर्दे पर अभिनय का योगदान रहा है। उन पृष्ठों के किरदारों देवदास, पार्वती, चंद्रमुखी, को क्रमश: शाहरुख, ऐश्वर्या और माधुरी के चेहरों ने हरकतें दी, यूं जैसे जीवित कर दिया हो।

   विमल रॉय के निर्देशन में यह उपन्यास पूर्व में भी फिल्म का रूप ले चुका था। जहां दिलीप साहब देवदास की भूमिका में थे, और सुचित्रा सेन और विजयंतीमाला मुख्य अदाकारा थी। यह फिल्म 1955 में प्रकाशित की गई थी।

  किंतु देवदास पर बनी पहली फिल्म 1936 में प्रकाशित हुई थी। जिसमें के० एल० सहगल साहब, देवदास की मुख्य भूमिका में थे। साथी मुख्य अदाकारा जमुना और राजकुमारी जी थे। यूं कहें कि देवदास का पर्दे पर होने का पथ इन्होंने ही प्रशस्त किया था।

   कुंदन लाल सहगल भारतीय सिनेमा जगत के पहले सुपरस्टार कहे जाते हैं। अभिनय के साथ में गायकी में बचपन से ही अपनी जन्मभूमि जम्मू में मशहूर थे। उनके पिता जम्मू में तहसीलदार थे वहां महाराजा प्रताप शासक थे। बचपन में सहगल ने एक बार जब राजा के दरबार में हो रहे सभा में मीरा का एक भजन गया, तो उन्हें बड़ी प्रशंसा मिली। वहां से सारे जम्मू में उनकी लोकप्रियता हो गई। रामलीला में मां सीता का अभिनय के लिए आमंत्रण मिलने लगे। जब वे मां सीता का अभिनय करते अपने गीतों और अभिनय से मां सीता का इतना जीवंत रूप सामने ले आते कि दर्शक रो ही पड़ते।
उनका गायन के प्रति लगाव और समर्पण का भाव उन्हें अभिनय के संसार में अनेक बाधाओं के बावजूद ले आया।

   "पूरणभगत" नाम की फिल्म में उनके गाए भजनों ने पूरे देश के हर घर को उनकी आवाज से वाकिफ कर दिया। बहुत से जानकार मानते हैं, कि बीसवीं सदी में मिर्जा गालिब के इतने लोकप्रिय होने का कारण सुर सम्राट सहगल थे। क्योंकि सहगल ने मिर्जा गालिब के बनाए गजलों को अपनी आवाज में अमर कर दिया।
"यहूदी की लड़की" फिल्म में सहगल साहब ने गालिब की ग़ज़ल गायी, जहां वे प्रिंस मार्कस की भूमिका में थे। यह फिल्म जर्मन तानाशाह हिटलर के यहूदियों पर अत्याचार की कहानी को दर्शाती है।

   उनके बाद के लगभग सभी गायक उनके गायन शैली और गायकी को सुनकर प्रभावित रहे हैं। लता जी, रफी साहब, किशोर कुमार जी, मुकेश जी आदि उन्हें अपना गुरु मानते हैं। जब गायक मुकेश जी ने गीत गाया “दिल जलता है तो जलने दो” लोगों ने यही सोचा कि यह सहगल गा रहे हैं। मुकेश जी ने इतनी खूबसूरती से सहगल साहब को अपनी आवाज में उतारा था।

   आज भारतीय सिनेमा जगत किस मुकाम पर है। किंतु कभी यह सड़क पर कुछ लड़कों की टोली के साथ एक ही शॉट में पूरी फिल्म रिकॉर्ड कर रहा था। वह आधार रख रहा था, आज सिनेमा के अपार सौहरत और शोर का।
लेकिन तब सब मूक था।।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

पत्र व्यवहार पर एक संस्मरण लेख

आज एक पत्र हाथ लगा। मेरे चाचा जी की एक पुरानी डायरी के पन्नों के बीच अभी भी ठीक से सुरक्षित है। पत्र 1998 का है।

    पत्र के विषय में कुछ बातें मुझे याद आती है और कुछ पता हैं। पहली बात तो मेरे दादाजी के संबंध में है, वह बताते हैं। कि उनकी नौकरी के लिए यही कोई 1960-70 के दशक में उन्हें एक परीक्षा देनी पड़ी। जिसमें उन्हें दो सवाल हल करने थे। पहला तो गणित पर आधारित था, और दूसरा पत्र लेखन से संबंधित था। 

   लोग खूब दिल से चिट्ठी लिखते थे। तब कई महीनों और सालों तक भी बात नहीं हो पाती थी। आज तो किसी से जब चाहो बात हो सकती है। ऐसे में ज्यादातर बातों में दम नहीं रह जाता। क्योंकि रोज तो बात होती है। करने को बातें कम पड़ जाती हैं। लेकिन तब ऐसा नहीं था। कभी तो ऐसा भी होता, कि दोस्त की शादी आज है, और संदेशा एक महीने बाद मिलता। क्योंकि डाकिया का बहुत काम था। सब कुछ पैदल था। दूर-दूर गांव तक पैदल जाना होता था, और भी कई प्रकार की समस्याएं हो सकतीं हैं।

  खबरें रेडियो से मिल जाती थी। छुट्टी पर आए सैनिकों के आदेश भी रेडियो पर जारी होते थे। ऐसा ही एक दृश्य “तेरी सौं” गढ़वाली फिल्म का मुझे याद है। जब मानव के पिता को युद्ध की जानकारी मिलती है, और छुट्टी रद्द होने का आदेश की सूचना रेडियो से मिलती है। लेकिन सैनिक अपने परिवार जनों से पत्र व्यवहार में ही बात कर सकते थे। “संदेशे आते हैं” जैसा गीत उस समय को सामने रखता है। चिट्ठी नाम से एक गढ़वाली गीत “ना चिट्ठी आई तेरी ना रेबार कैमा” मुझे याद आता है, जो चक्रचाल फिल्म में फिल्माया गया था।

   10वीं और 12वीं में बोर्ड परीक्षा में एक सवाल पत्र लेखन का रहता ही है। यह पत्र लेखन की विधा का और उसके महत्व को आधुनिक संचार के माध्यमों में जाहिर करता है। भारतीय इतिहास और उसमें आधुनिक भारत का इतिहास गहराई से समझने में तत्कालीन शासक और अन्य व्यक्तियों के पत्र व्यवहार का संग्रह भी खास भूमिका निभाता है। 

   छोटे में जब हम स्कूल में पत्र लेखन से इतने थे। तो हमें वह पत्र सेवा में श्रीमान से आपका आज्ञाकारी शिष्य तक शब्द के बाद शब्द वैसा ही याद था। पत्र प्रधानाचार्य महोदय को लिखना होता था, कि मुझे बुखार आ गया है, और मैं स्कूल नहीं आ सकता हूं। तब घर में यदि शादी भी हो, तो हम बुखार के ही नाम से प्रधानाचार्य को छुट्टी के लिए प्रार्थना पत्र लिखते थे। फिर धीरे-धीरे सीखे की बुखार की जगह पर जुकाम भी हो सकता है।

   मैंने जो पहली चिट्ठी लिखी डाकबक्से में डाल दी। पता नहीं किसी ने उसे देखा भी होगा या नहीं। वह अमर उजाला जिला मुख्यालय के लिए थी। तब मुझे पेंटिंग का बहुत शौक लग गया था। मैं तीसरी या चौथी कक्षा में रहा हूंगा। अमर उजाला तब एक सप्ताह में शुक्रवार के दिन एक खास पेज लिखता था। जिसमें बच्चों को उनकी पेंटिंग्स और नाम-पता के साथ छपता था। पहली बार जब मैं डाकखाना मास्टर को वह पत्र दिया। तब या तो कोई शुल्क नहीं लिया, या पांच रुपये लिए थे। मुझे ठीक से याद नहीं पर 5 से ज्यादा रुपए नहीं लिए थे।

  अगली बार से तो स्कूल के और भी पेंटिंग के उस्ताद मिलकर हम अपनी पेंटिंग अमर उजाला मुख्यालय पते पर भेजते थे। फिर एक बार अमर उजाला ने मेरी पेंटिंग को शामिल किया था।।

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

दिव्या भारती अदाकारी में अविस्मरणीय | फिल्मिस्तान

   आज यदि दिव्या भारती जीवित होती तो वह 46 साल की होती, और अब तक दुनिया को कई खूबसूरत यादें दे चुकी होती। वह केवल 19 साल में अलविदा कह गई। लेकिन उनकी अदाकारी से लोग उन्हें आज भी याद करते हैं। 

   छोटी सी उम्र में उन्होंने जो मुकाम हासिल किया वह फिल्म जगत के जाने कितने सितारों का सपना रह जाता है। वह चुलबुली सी लड़की श्रीदेवी की हमशक्ल के रूप में देखी गई। हालांकि एक इंटरव्यू में दिव्या ने कहा, “मुझे ऐसा नहीं लगता जब मैंने श्रीदेवी को देखा तो बहुत बहुत खूबसूरत हैं, मुझसे कहीं अधिक।”

    शुरुआत में वह तेलुगु फिल्मों में दिखी। जब उन्होंने गोविंदा के साथ पहली फिल्म “शोले और शबनम” की तो वह फिल्म खाने की सितारा बन गई। साजिद नाडियावाला से मिलने के बाद दिव्या ने उनके शादी के लिए अपना धर्म बदल कर इस्लाम कबूल किया, और साजिद से शादी कर ली और खुद सना नाडियावाला बन गई। उनके भोलेपन और खूबसूरती से वह लोगों में आकर्षण बनी रही और डायरेक्टर्स की पहली पसंद बन गई। 

   ऐसा भी समय आया कि उन्होंने एक साल में चौदह फिल्में साइन कर ली। 90 के दशक के कई बड़े सितारों के साथ में उन्होंने काम किया, वह भी अपने छोटे से करियर में।

   लोग उन्हें याद करते हैं। दुनिया में लोग कई तरह से जीते हैं, कुछ लोग दुनिया बदलने को जीते हैं। और कुछ लोगों को दुनिया केवल चाहती है, वे जिएं दुनिया उन्हें प्यार करती है। उनमें कलाकार भी एक हैं।।

प्राचीन भारत से आज तक बौद्ध और जैन धर्म | लेख

हर्यक वंश में बिंबिसार और अजातशत्रु के विषय में बौद्ध और जैन साहित्य में अपनी अपनी बातें रखी गई। किंतु उनके धर्मों की चर्चा की गई है। बौद्ध ग्रंथ में बिंबिसार के बुद्ध से मिलने का भी वर्णन है। अजातशत्रु के संबंध में पहले तो शाक्य मुनि विरोधी प्रसंग है, किन्तु बाद में वह भी बुद्ध का अनुयाई प्रतीत होता है। उसने उस समय के मजबूत गणराज्य वैशाली के लिच्छिवियों के विनाश के संबंध में बुध से मंत्रणा की थी, और वह इसमें सफल रहा।

   उसके पश्चात शिशुनाग और नंद वंश के विषय में धार्मिक भावना को लेकर कुछ खास पढ़ने को नहीं मिला। हां महापद्मनंद को काफी शक्तिशाली शासक दर्शाया  गया है। इतिहासकार महापद्मनंद के दक्षिण भारत विजय का समर्थन करते हैं। मौर्य के संदर्भ में सर्वत्र विदित है, और उनके संदर्भ में काफी साहित्य और अन्य सामग्री उपलब्ध है। चंद्रगुप्त अंतिम समय में जैन मुनि हो गया, और उसने सच्चे जैनी की भांति भूखे रहकर कर्नाटक के जंगलों में कहीं अपने प्राण त्याग दिए। वह भद्रबाहु मुनि का शिष्य था। उसके पुत्र बिंन्दुसार के धार्मिक संदर्भ में उतना पढ़ने को नहीं मिला।

   अशोक के धम्म तो सर्वत्र विदित है। वह बौद्धों का पुरजोर संरक्षक था। हाँ उसमे अन्य धर्मों को नुकसान नहीं किया। उसने आजीविका धर्म के सन्यासियों के लिए गुफाओं का निर्माण करवाया था। इस काल में बुद्ध और जैन धर्म का प्रचलन हुआ। किंतु वैदिक धर्म के कारण ब्राह्मणों और क्षत्रियों को मिला बल यहां छीण हो रहा था। यह वैदिक व्यवस्था में व्यवधान था। किंतु जब मौर्यो का अंत और शुंगों का आगमन हुआ, तो उन्होंने ब्राह्मण धर्म का पुनर्जागरण कर दिया। लिखा गया है, कि पुष्यमित्र शुंग बौद्ध धर्म का कट्टर शत्रु था। एक जगह यह भी लिखा गया कि पुष्यमित्र ने यह घोषणा की कि मुझे जो कोई किसी श्रमण का शीश भेंट करेगा मैं उसे 100 दिनार दूंगा। यह दिव्यवदान म़े उल्लेखित है। उसमें  पर उसके अत्याचार का और वर्णन मिलता है। 

   किंतु इतिहासकार इसे बढ़ा चढ़ाकर लिखा मानते हैं। ठीक वैसे ही जैसे बौद्धों में अपने साहित्य में अशोक के राज्यभिषेक के संबंध में लिखा कि वह अपने 99 भाइयों के वध के बाद शासन पाया था। सबसे महत्वपूर्ण यह है, कि बौद्धों के सरल धार्मिक आचरण ही वैदिक धर्म के जटिल चक्रव्यू को बहुत समय तक जनसाधारण की व्यथा के रूप में सदस्य स्थापित न कर सके।

   सच कहे तो आज जब बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि में लगभग लुप्त सा प्रतीत होता है। तब इतिहास के पृष्ठों में उसके उत्थान को ब्राह्मण धर्म में सुधार करने वाला बताया जा सकता है। जब बौद्धों का प्रभाव तेजी से जनसाधारण पर पड़ने लगा तो ब्राह्मण धर्म में जटिलताओं के निवारण पर कार्य हुए। और उसके बाद शंकराचार्य जैसी मुनियों ने उसके जागरण की कमान संभाली।

   मुस्लिमों के आगमन पर बौद्ध धर्म को अति नुकसान हुआ। वैदिक धर्म में सुरक्षा के लिए क्षत्रीय संकाय को जन्म दिया गया। किंतु बौद्ध और जैन अपनी और अपने समृद्ध ऐतिहासिक सामग्री की रक्षा न कर सके। क्योंकि वे तो अहिंसा धर्म के पालक थे। और बह्यय आक्रमणों की दशा में उनके पास प्लायन के अलावा कोई विकल्प नहीं था।।

रविवार, 27 मार्च 2022

World Theatre Day विशेष लेख | 27 march

world theatre day

जब गोविंदा ने शुरुआत की। तो उन्होंने जो कोई फिल्में की, किंतु उनमें उन्हें उस धारा की तलाश थी, जहां वह अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकते हैं। तब तक संजय, अनिल कपूर काफी काम कर चुके थे। गोविंदा तलाश में थे, कि लोगों पर उनके किस अलग स्टाइल की छाप छोड़ी जा सकती है। जिससे गोविंदा नाम सुनते ही दर्शकों को एक दृश्य स्पष्ट हो जाए, कि गोविंदा है, तो ऐसा होगा। यह तब हुआ, जब गोविंदा को कॉमेडी फिल्में मिली। यह मानना होगा कि उस समय पर केवल कॉमेडी में किसी पूरी फिल्म को चला पाया हो ऐसा कोई अभिनेता पर्दे पर आपको कुछ ही मिलेंगे। हालांकि कॉमेडी मसाले के लिए कई कलाकार मशहूर रहे हैं। गोविंदा ने इससे ट्रेंड किया।

यह सब हो रहा था, जब सलमान और शाहरुख का आगाज हो चुका था। जो 90s का दौर था। जिस एक्शन पर फिल्मों का चलन हो गया था। उस किरदार में सटीक अभिनय के लिए पहली पसंद अक्षय और अजय देवगन बन गए। सनी देओल पहले ही एंग्री यंग मैन और उसके लिए जरूरी शानदार पर्सनैलिटी से इस ट्रेंड में कंपटीशन हाई कर चुके थे। पारिवारिक फिल्मों के लिए आमिर, सलमान जैसे क्यूट फेस बड़ी शालीनता से फिल्माए जा सकते थे। उनमें शाहरुख अभिनय में बादशाह होने की शुरुआत कर चुके थे। तब गोविंदा की अलग ट्रेंड के साथ पहचान बनती है। शानदार डायलॉग और उसमें कॉमेडी टाइमिंग, जोरदार डांस स्टेप और आवाज में बढ़िया वेरिएशन कि उनकी काबिलियत ने उनको खास जोन दे दिया। उन्होंने वहीं से उछाल हासिल किया। वह गाते भी बहुत सुंदर हैं। रंग बिरंगी हाफ टीशर्ट और डायलॉग कहने के शानदार तरीके ने अभिनय में गोविंदा की जमीन तैयार की।

   ऐसा ही मिथुन चक्रवर्ती का रहा था। शुरुआती फिल्मों में उन्हें ट्राईबल हीरो की भूमिका में लिया गया। धीरे-धीरे मिथुन ने ट्रेंड समझा और डांस और एक्शन का शानदार कंबीनेशन पैकेज बन गये। लंबी टांगे माइकल जैक्सन और अमिताभ की तरह और उसमें काफी चौड़ी मोरी वाली पैंट और फिर डांस। यह अदा दुनिया को मिथुन की दीवानी कर गई।

   जब एक्शन नया था, तो उसे कर सकने वाले ट्रेंड करने लगे। कॉमेडी का साधारणतया फिल्मों में हल्की मसाले की तरह कहीं-कहीं प्रयोग होता था। जब कॉमेडी को मुख्य आधार मानकर फिल्में बनने लगी तो शानदार कलाकारों की खोज हुई, और वे दुनिया की पसंद बन गए।

कलाकारी उन क्षेत्रों में एक है। जो प्यार की एक नई वजह देता है। इसीलिए चित्रकार, कलाकार, पत्रकार को  सम्मोहक होना चाहिए। वह कैसे भी हो सकता है। उसके दिखने से, उसकी बातों से, उसकी रचनात्मकता से, और भी।

बुधवार, 23 मार्च 2022

23 march | शहीद दिवस पर एक खास लेख

गांधी के तरीके ने जितनी बड़ी संख्या में लोगों को सड़कों पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लाकर खड़ा कर दिया। संभवत उतना क्रांतिकारी न कर सके। और यही कारण है, कि देश के आजादी का लंबा संघर्ष हुआ। अन्यथा क्रांति तो ऐसा प्रवाव है, कि संपूर्ण भारत में यदि यह पुरजोर होती, तो आजादी लंबे समय का संघर्ष नहीं था। किंतु ऐसा नहीं हो सका, क्रांति की ज्वाला जब-जब भड़की उसे उसी तीव्रता से आत्तयायियों ने दफन कर दिया। आम जनमानस का बड़ा भाग क्रान्ति के संघर्ष कि उस ज्वलंत धारा में प्रवेश कर पाने में असक्षम रहा। यही कारण है, कि आजाद भारत तेज क्रांतिकारी विचारों से तेज अथवा जल्दी स्थापित ना हो सका, बल्कि वह तो अपेक्षाकृत धीमी प्रक्रिया से अस्तित्व में आया। इस बात से इंकार नहीं जा सकता।

  किंतु इसका तात्पर्य नहीं कि गांधी के मार्ग से ही आजादी प्राप्त हुई है। ऐसा कहना उस महान बलिदान का अपमान है।  सच तो यह है, कि उन महान क्रांतिकारियों के बलिदान की ज्वलंत भावना ने ब्रिटिश हुकूमत के जहन में पहले ही आजाद भारत स्थापित कर दिया था। क्रांतिकारियों के अतिरेक आजादी की लड़ाई तो उनके बलिदान के आश्रय में लड़ी गई।

   कांग्रेस के प्रारंभिक दौर में एक नाम बाल गंगाधर तिलक, उन्हीं तीव्र विचारों के समर्थक रहे। वे कांग्रेस के धीमे मिजाज के विरोध में ही रहे। उनका प्रभाव जनता पर खासा था। यूं कहें कि कांग्रेस के उस समय पर वह पहले ऐसे नेता थे, जिनका आम जनमानस पर अच्छा वर्चस्व था। कहते हैं, कि तब महाराष्ट्र के लोग उनके नाम का लॉकेट गले में पहनते थे। उनके तमाम प्रयास सर्वज्ञ ज्ञात है। किंतु यह अवश्य स्वीकारना होगा, कि उनके विचार भी उतनी बड़ी संख्या में आम जनमानस को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सीधी लड़ाई में ला सकने में उतने सफल नहीं रहे।

  किंतु क्रांतिकारियों का संघर्ष उनके हर बलिदान के साथ आजाद भारत के दर्शन करवा रहा था। जाने कितनी संख्या में वे थे। हम कितनों का नाम जान सके हैं। और उनमें हम कितनों को जानते ही नहीं। क्योंकि वह तो गंगा की धार में थे, जिसकी हर बूंद क्रांतिकारी था, और वह देश भक्ति के प्रवाह में गतिशील था।

  जब भगत और उनके साथी अपनी सेना इकट्ठे कर रहे थे। कहते हैं, कि वे लाइब्रेरी में पढ़ने आने वाले नए छात्रों पर खास नजर रखते थे। फिर ख्याल रखते थे, कि वह कोई छात्र किन पुस्तकों की ओर रुचि रखता है। उस आधार पर वे अपने क्रांतिकारी का चुनाव करते थे। भगत अपने आप में बहुत विद्धान थे। भगत के साथ एक पुस्तक ना हो ऐसा होना कठिन था।

    वे लोग जिनका रक्त अपने सारे नाते रिश्ते केवल इस भारत भूमि से जोड़ लिया था। मृत्यु तक जिनके चेहरे पर संकोच नहीं था। उस महान आत्मा को हर दिल सलाम करता है। वह कभी मर नहीं सकते। वह राष्ट्र के नींव के वह अडिग पत्थर हैं, जो चिरकाल तक भारत को अपनी प्रेरणा व आशीष के छत से आश्रय देते रहेंगे।।

बुधवार, 2 मार्च 2022

सबका साथ सबका विकास एक भावना | विशेष लेख

“सबका साथ सबका विकास”
इस नारे कि मैं दो प्रकार से विवेचना कर सकता हूं। एक राजनीतिक दृष्टि से, दूसरा सामाजिक परिपेक्ष में।

इस नारे की राजनैतिक दृष्टि से विवेचना में मैं आपको लेकर चलता हूं, इस प्रकार के नारों का प्रयोग राजनीति में पूर्व में भी हुआ है। इंदिरा गांधी जी के समय में हमने देखा, गरीबी हटाओ का नारा किस तरह से लोकप्रियता के ऊंचे आयाम को चुमता है। अटल जी प्रधानमंत्री बन कर आए तो हमने सुना शाइनिंग इंडिया, इंडिया शाइनिंग। 2014 में मोदी जी प्रधानमंत्री बनकर आते हैं, नारा रहा “अच्छे दिन आएंगे” उसके बाद “सबका साथ सबका विकास” पड़ोस के मुल्क पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान बनते हैं, तो नारा होता है, “तब्दीलियत आएगी, बेहतरी आएगी”। आजकल उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल में जब लोगों से पूछा जाता है, कि राज्य सरकार की नीति कैसी है, तो लोग कहते हैं, कि इस सरकार की नीति है, “सबका साथ सबका विकास”।
यहां मैं मानता हूं कि राजनीतिक दृष्टि से इस नारे की सार्थकता निकल कर आती है। सरकार को और क्या चाहिए। आम जनमानस के मुख में वह नारा पुरजोर है, जो सरकार के कार्यों को सारगर्भित करता है। सरकार को और क्या चाहिए।

अब मैं आपको इस नारे की सामाजिक परिपेक्ष में विवेचना पर लेकर चलता हूं। ऋग्वेद में लिखा है, “वसुधैव कुटुंबकम” अर्थात यह संपूर्ण वसुधा एक कुटुम्ब के समान है। कुटुंब का व्यवहार क्या है, कुटुंब का प्रबंध क्या है, एक पिता अपने चार पुत्रों को जो लाभ दे सकता है, समान रूप से वितरित करने का प्रयत्न करता है, अर्थात समानता का प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो सबका साथ सबका विकास चाहता है। किंतु पिता का एक पुत्र अधिक बुद्धिमान है, एक पुत्र कम बुद्धिमान है, एक पुत्र अधिक शक्तिशाली है, एक पुत्र कम शक्तिशाली है, किसी पुत्र में अन्य प्रकार की कोई योग्यता है, कोई पुत्र किसी अन्य प्रकार की अक्षमता को लिए है। इस दशा में प्राकृतिक तौर से असमानता की एक रेखा खिंच जाती है। यह केवल एक परिवार के लिए नहीं है, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र पर लागू होती है। इन स्थितियों में राजा का अपनी प्रजा के प्रति क्या कर्तव्य है। राजा का कर्तव्य है, कि राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को इस राष्ट्र की इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था से, इस राष्ट्र के इतने बड़े संसाधन भंडार से कम से कम इतना तो उपलब्ध करवाया जाए, कि वह अपने और अपने परिवार का भरण पोषण कर सके। मैं मानता हूं “सबका साथ सबका विकास” राजा की उसी भावना को प्रदर्शित करता है।

अब “सबका विश्वास” पर मैं कुछ कहना चाहूंगा। जब राजा अपनी प्रजा में सबका साथ सबका विकास की भावना से कार्य करने में सफल हो पाता है, तो प्रजा का विश्वास राजा को प्राप्त होता है, इस दशा में राष्ट्र केवल अपने भीतर नहीं बल्कि वैश्विक पटल पर अपने वजूद की मजबूत छाप छोड़ता है। जिसका मूल होता है, सबका साथ सबका विकास की भावना।

अतः यह कह सकते हैं, कि सबका साथ “सबका विकास सबका विश्वास” एक उन्नत राष्ट्र होने के लिए मूल भावना है।

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏