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रक्षाबंधन पर एक रीत | वैचारिक लेख by- diwakar

राखी पर हमारे यहां एक चलन रहा है। भाई बहन का प्यार और राखी के अलावा। अब यह चलन अपने पहाड़ में ही है, या और भी विस्तृत है, यह मालूम करना रहेगा।

बहन की राखी के साथ एक और राखी होती है। ब्राह्मण की भेजी राखी। अब तक भी यह चलन में है। हालांकि इस प्रकार का सामाजिक ताना-बाना तकरीबन कमजोर हो चुका है, और यह चलन भी।

पड़ोस के पंडित जी जो सामने के मंदिर में होते हैं, राखी लेकर हमारे घर पहुंचे और सब को राखी पहनाई दरअसल मोहल्ले में पंडित जी एक मात्र यही हैं। जो हर कार्यक्रम संस्कार पर पूजा पाठ की विद्या जानते हैं। मोहल्ले में गांव जैसा व्यवहार पैदा हुआ होगा तो, और पंडित जी भी इकलौते मोहल्ले के कार्यक्रमों में पुजारी रहे हैं तो, मोहल्ले को स्वीकार भी है। जो लोग मोहल्ले में इस रीत से अवगत हैं, पुजारी जी उन लोगों से अवगत हैं, उन्होंने राखी बांधी हालांकि पंडित जी चमोली के हैं। हम चमोली के नहीं।

पुश्तैनी गांव में पुरखों से आज तक यह रीत कैसे काम करती है। गांव में राखी भेजने वाले ब्राह्मण को राशि का ब्राह्मण कहते हैं। यह कुछ ऐसे है, कि वह हमारे या आपके कई पुस्तों से ब्राह्मण होंगे। तब उनके पुरखे और आज वे। ब्राह्मण का सत्कार श्रेष्ठ माना जाता है। ऐसा समाज में व्यवहार रहा है।

परिवार अपनी खुशहाली में पूजा पाठ करते हैं। वह ब्राह्मणों को श्रेष्ठ सत्कार करते हैं। जैसे प्राचीन काल में राजा प्रजा की सुख शांति में अश्वमेघ यज्ञ करते थे।

ब्राह्मण का सत्कार सदैव से व्यवहार में रहा यह एक भावना रही, कुछ ऐसे ही जैसे गाय का घर के गौशाला में होना बहुत समृद्धि का प्रतीक माना जाता था। यदि आप इसे मिथक मानते हैं, तो मैं मुंशी प्रेमचंद जी के उपन्यास गोदान का जिक्र करूंगा। इस उपन्यास को लेकर एक फिल्म गोदान मुख्य भूमिका में राजकुमार साहब और शशिकला जी पर फिल्माई गई थी। आप इसका प्रसंग इसी तथ्य के सत्यापन पर पाएंगे।

खैर यह सब भावनाएं रहीं। आज के प्रयोगिक जीवन में सामाजिक उस ताने-बाने का कोई अर्थ शेष नहीं रहता। यह लेख ब्राह्मणों की आवाज बिल्कुल नहीं। यह लेख तो समाज में वह भावना जो शेष बची है, उसका एक दृश्य है।

सबसे महत्वपूर्ण यह है, कि यह भावना आज भी समाज में टिकी है। हालांकि यह कमजोर हो चली है जो समय के साथ हुआ है। विषय यह नहीं है, कि यह भावना गलत है, सही है, या यह कोई आडंबर अंधविश्वास है। बल्कि विषय यह है, कि हमारे पूर्वजों ने कितना समय लिया होगा, उस व्यवहार को अपने आप से और हम तक के लिए इतनी गहराई से बिठाने में। जो आज तक भी वह भावना व्यवहार में शेष रही है। क्योंकि हम में वह लोग हैं, जो राष्ट्रगान को राष्ट्र के सम्मान में 52 सेकंड अपने पथ पर नहीं ठहरते, ना अपनी कुर्सी छोड़ते हैं, और न काम। इस व्यवहार को हम में से अनेकों, वर्षों से अपने में विकसित नहीं कर सके हैं।

किसी भावना को व्यवहार में विकसित करना इतना तो आसान नहीं।

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