आर्यों के जीवन के चरण / ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वन-प्रस्थानम और संन्यास-
वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था प्रचलन में थी। आश्रम शब्द संस्कृत के श्रम शब्द से निर्मित है, जिसका तात्पर्य परिश्रम से है। वैदिक काल की सभ्यता में जीवन का पहला चरण ब्रम्हचर्य से प्रारंभ होता है, जो कि आश्रम में बीतता था।
छात्र यज्ञोपवीत के बाद आश्रम जाता था। विद्या के अर्जन के लिए जब ब्रह्मचर्य का जीवन आश्रम में बिता कर घर लौटता तो गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता जहां उसकी शादी होती और वह जीवन के भौतिक सुखों को प्राप्त करता एक समय पर वह जीवन के तीसरे चरण वनप्रस्थान को प्राप्त कर लेता, जिसमें वह अपने घर परिवार को छोड़कर वन की ओर निकल पड़ता। जहां वह लगातार एकांतवास में चिंतन करता।
वनप्रस्थान के पश्चात जीवन का अंतिम चरण जिसमें वह प्रवेश करता है, वह सन्यासी है। सन्यासी व्यक्ति घूम घूम कर अपने जीवन के चिंतन का प्रचार प्रसार करता।
अतः वैदिक काल में जीवन के चार चरण हुए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वनप्रस्थान तथा सन्यासी।
जीवन के इन चार चरणों का मूल आर्यों के चार ऋणों तथा चार पुरुषार्थों पर विश्वास होना भी प्राप्त होता है। क्योंकि आर्यों के विश्वास में उन पर जो चार ऋण होते थे, वह पहला तो ऋषियों के प्रति दूसरा पितरों के प्रति तीसरा देवताओं के प्रति तथा चौथा अन्य व्यक्तियों के प्रति होता था।
इन ऋणों को वे अपने जीवन के उन चार भागों में स्वयं से तर देते थे। ऋषियों के प्रति जो ऋण था वह ब्रह्मचारी होकर आश्रम में विद्यार्जन से, पितरों के प्रति जो ऋण था वह गृहस्थ जीवन में संतान पैदा करने से, देवताओं के प्रति ऋण वनप्रस्थान में चिंतन से और अन्य लोगों के प्रति ऋण सन्यासी जीवन में अपने चिंतन से प्राप्त ज्ञान के प्रसार से उतार देते थे।
जिन चार पुरुषार्थों में आर्यों का विश्वास था। वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष थे। यह भी परस्पर उनके जीवन के चार भागों से जुड़े हुए थे।
धर्म का ब्रह्मचर्य से, अर्थ और काम का गृहस्थ जीवन से, मोक्ष का वनप्रस्थान तथा सन्यासी जीवन से संबंध था। इस प्रकार आर्यों का जीवन कुछ धारणाओं से नियमों में बंधा था।
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