वैदिक काल का जीवन-

वैदिक काल की सभ्यता कैसी रही होगी। इतिहास जो कुछ माध्यमों से सूचित करा पाता है, उससे एक लेख इस विषय पर तैयार कर रहा हूं। वैदिक काल में वेदों की रचना तत्पश्चात उनकी व्याख्या के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की रचना और अंत में सूत्रों की रचना की गई। जो वैदिक काल की व्यवस्था का भी वर्णन करते हैं।
उस काल में आर्य कुटुंब, कुल की इकाई में रहते थे। गृह का प्रधान पिता होता था। कई गृह से ग्राम जिसका प्रधान ग्रामीण होता था। कई ग्राम मिलकर विश बनाते थे, जिसका प्रधान विशपति होता तथा कई विशों से जन, जिसका प्रधान गोप होता था, जो राजा स्वयं होता था। ऋगवैदिक काल में आर्यों के छोटे-छोटे राज्य थे। किन्तु अनार्यों पर विजय होने पर वे राज्य विस्तार करते रहे। विजय के उपलक्ष में राजसूया, अश्वमेध यज्ञ करने लगे।
वैदिक काल में राज्य का प्रधान राजन था। वह अनुवांशिक था, किंतु निरंकुश नहीं होता था। परामर्श हेतु उसके लिए एक समिति तथा सभा होती थी। सभा के सदस्य बड़े बड़े तथा उच्च वंश के लोग थे। किंतु समिति के सदस्य राज्य के सभी लोग थे। ऋगवैदिक काल में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी राज्य के प्रमुख पद थे। पुरोहित सबसे ऊंचा पद था। संभवत यह पद भी अनुवांशिक रहा होगा। प्रारम्भिक वैदिक काल में हर आर्य सैनिक ही हुआ करता था। क्योंकि वे तब प्रसार कर रहे थे। किंतु उत्तर वैदिक काल तक वर्ण व्यवस्था का चलन हो चुका था, और परिणाम था, कि क्षत्रिय सेना के लिए एक अलग शाखा तैयार हुई। वही रणभूमि में भाग लेते थे।
आर्य व्यवस्था में स्त्रियों का समाज में ऊंचा स्थान था। हालांकि वह स्वतंत्र ना थी। वह किसी तो पुरुष के संरक्षण में जीवन भर रहती थी। वह गृह स्वामिनी समझी जाती थी। तब विवाह एक पवित्र बंधन था, जो जीवन के अंत पर ही समाप्त होता था। बहु विवाह का प्रचलन आम ना था। हां राजवंशों में यह होता था। हालांकि उत्तर वैदिक काल में यह आम लोगों में भी चलन में आ गया। ज्ञात है, कि मनु की 10 पत्नियां थी।
वैदिक काल के लोग मांस और शाक दोनों को ग्रहण करते थे। उनके मुख्य दो पेय थे, सोमरस और सुरा। सोमरस मादकता रहित था, किंतु सुरा मादकता के लिए था, अतः सुरा का पान समाज में दोष था। वह अवगुण समझा जाता था।
जाति प्रथा का उदय-
प्राचीन आर्यों की सर्वाधिक प्रचलित व्यवस्था वर्ण व्यवस्था है। जिसका प्रभाव आज तक भारतीय समाज पर है। वर्ण का अर्थ रंग है। यह दरअसल तब व्यवस्था प्रचलन में आई होगी, जब आर्य अनार्यों के संपर्क में हुए होंगें। क्योंकि आर्य स्वयं को श्रेष्ठ कहते थे, वह तो एक ही जाती थी, किंतु यह भी सत्य है, कि आर्यों का भी उनके व्यवसाय उनके काम-काज के अनुरूप वितरण है। गौर वर्ण के लोग आर्य थे और कृष्ण वर्ण के लोग अनार्य। यही संभवत भारतीय समाज का दो भागों में प्रारंभिक विभाजन था।
आर्यों ने अपने कार्यों के अनुरूप स्वयं की जाति को चार वर्णों में विभक्त कर लिया था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र।
पाठ पूजन करने वाले ब्राह्मण हुए, रण कुशल क्षत्रिय, वैश्य खेती-बाड़ी, व्यापारिक वाणिज्य में संलग्न लोग और शुद्र, क्षत्रीय तथा वैश्यों की सेवा में लगे लोग हुए।
इन सबके बावजूद समाज में अनियमितता नहीं थी, लोग अपने कार्यों को लेकर निश्चित थे, जन्म से ही। क्योंकी व्यवस्था उन्हें जीवन में कामकाज को लेकर पहले ही तय कर चुकी होती थी।
ऋग्वेद में इस विषय में लिखा है, कि ब्राह्मण परम पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जांघों से, और शुद्र उसकी चरणों से पैदा हुए हैं। समाज का यह ऊंच-नीच विभाजन जरूर था, किंतु संकीर्णता नहीं थी। यही उस समाज को जीवित रखे था। ब्राह्मण लोग समाज का बौद्धिक आध्यात्मिक उत्कर्ष में लगे होते थे। क्षत्रिय लोग समाज की सुरक्षा में राज्य को शत्रुओं से रक्षा में, वैश्या लोगों का समाज में भौतिक आवश्यकताओं को प्राप्त करवाने में और शूद्र लोग समाज को सुचारू रूप से संचालित करने में योगदान देते रहे।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण था, कि हर वर्ग अपनी कार्य में संलग्न था। छुआछूत की भावना नहीं थी, न किसी प्रकार की कटुता थी, किंतु उत्तर वैदिक काल में आते-आते वर्ण व्यवस्था ने बेहद जटिलता प्राप्त कर ली, जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया, अर्थात जाति का निश्चय व्यवसाय से नहीं बल्कि जन्म से होने लगा जातिवाद का प्रकोप बढ़ने लगा और भारतीय समाज के लिए यह बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ है।
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