गौतम बुद्ध संपूर्ण जीवन यात्रा का वर्णन तथा बौद्ध धर्म-
यह वही युग था, जब भारत भूमि पर आम जनमानस मोक्ष की प्राप्ति में सरल राह की तलाश में था, तब भगवान बुद्ध का जन्म एक क्रांति ही थी।
जब एक समय महामाया देवी अथवा माया देवी अपने मायके जा रही थी, तो राह में एक वन लुंबिनी में उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया, यह क्षेत्र नेपाल के तराई भाग में है, किंतु महामाया देवी का प्रसव पीड़ा से परलोक वास हो जाता है। निसंतान माता-पिता के लिए यह बेहद खुशी का विषय था, इस वजह से कि जैसे किसी कामना की सिद्धि या पूर्ति हो गई हो, इसलिए बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया, किंतु बालक सिद्धार्थ अपनी माता के प्रेम से वंचित रह गया।
सिद्धार्थ के पिता का नाम शुद्धोधन था। वह सूर्यवंश के शाक्य जाती के क्षत्रिय थे, और कपिलवस्तु नामक एक छोटे से गणराज्य के प्रधान थे। सिद्धार्थ का बचपन से ही उनकी विमाता गौतमी देवी ने पोषण किया उन्हें हर राजसी सुख राजकुमारोचित दिए गए। संभवत गौतमी के नाम पर या सिद्धार्थ का गौतम गोत्र होने के कारण उन्हें गौतम के नाम से पुकारा गया है।
सिद्धार्थ बाल्यकाल से ही चिंतनशील थे। चिंतन में इतना मग्न रहते कि सब कुछ भूल जाते थे। उनके बाल्यकाल में ही ज्ञानियों ने यह भविष्यवाणी की कि यह बालक एक दिन एक बहुत बड़ा चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या एक बहुत बड़ा संत महात्मा।
समय बीतने के साथ राजकुमार की चिंतनशील प्रवृत्ति में वृद्धि होती गई। पिता शुद्धोधन को भविष्यवाणी सदैव याद थी, उन्हें चिंता होने लगी, उन्होंने सिद्धार्थ के लिए राजसी सुखों और मधुर बंधनों में बांधने के लिए कई प्रयत्न किए। राजकुमार के लिए सर्दी गर्मी बरसात के लिए अलग-अलग भवन बनाए गए, जो प्रकृति के अलौकिक दृश्य का आनंद देते थे और आदेश भी दिया गया कि राजकुमार को दुख का दृश्य ना हो पाए।
इसी क्रम में सिद्धार्थ का विवाह गोपा या यशोधरा नामक एक रूपवती राजकुमारी से करवा दिया गया, जिन से सिद्धार्थ का एक पुत्र राहुल ने जन्म लेते हैं। परंतु विवाह का यह सुख सिद्धार्थ के जीवन का लक्ष्य न था।
समय बीतने के साथ एक दिन संयोगवश सिद्धार्थ के सामने कुछ ऐसे दृश्य आए जिनसे उनका जीवन का लक्ष्य निर्धारित हुआ, सिद्धार्थ अपने सारथी छंदक के साथ घूमने निकले हैं, तभी उन्होंने एक रोग से पीड़ित व्यक्ति को देखा, उसकी पीड़ा को देखकर सिद्धार्थ का ह्रदय दुख से भर गया, और दूसरी दृश्य में उन्होंने एक वृद्ध को दर्शन किया, जो छड़ी के सहारे अपनी जर्जर शरीर को किसी प्रकार तो आगे बढ़ा रहा था। तीसरी दृश्य में सिद्धार्थ एक मृतक शरीर को जिसे उसके संबंधी रोते-पीटते जलाने को ले जा रहे थे, देखते हैं, सिद्धार्थ का कोमल हृदय इस घटना से बेहद प्रभावित हुआ और चिंतन में खो गया, और उसी दरमियान उन्होंने एक और दृश्य देखा उसमें उन्होंने एक सन्यासी को देखा जो अद्भुत कांति को अपने मुख पर लिए था, चिंता से मुक्त विचरण कर रहा था, सिद्धार्थ को अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हुआ।
सिद्धार्थ 29 वर्ष की अवस्था प्राप्त करने पर एक रात्रि अपनी सोती पत्नी और पुत्र को संपूर्ण राज वैभव को छोड़कर वैराग्य को प्राप्त हो गए। इस घटना को “महाभिनिष्क्रमण” कहते हैं। कहते हैं, कि जब सिद्धार्थ अपने राज्य की सीमा से बाहर निकल रहे थे, तो उन्होंने अपने सारथी को वापस लौटा दिया अपने सभी राजसी वस्त्र और आभूषण को एक भिखारी को सौंप दिया और स्वयं सन्यास का रूप धारण कर लिया, सत्य और मोक्ष की प्राप्ति के लिए राह की खोज में इधर उधर भटकने लगे।
अध्ययन में आता है, कि वे राजगृह पहुंचते हैं, जहां उस समय के सुप्रसिद्ध ब्राह्मणों का एक आश्रम था, वे कुछ समय वहां रहते हैं, किंतु अपने प्रश्नों का सटीक उत्तर न मिलने पर कुछ समय पश्चात वहां से निकल जाते हैं। वहां से उनके साथ पांच और साथी हो लेते हैं। वे घूमते घूमते गया के निकट उरुवले नामक वन में प्रवेश कर जाते हैं। सिद्धार्थ अपने शरीर को घोर तपस्या में झोंक देते हैं। उनका शरीर सुख कर कांटा हो जाता है। किंतु उन्हें सत्य के दर्शन ना हो सके। इस पर सिद्धार्थ ने यह निष्कर्ष निकाला कि बिना स्वस्थ शरीर के सत्य की खोज बेहद मुश्किल है। अतः उन्होंने न अधिक सुख और ना अधिक कष्ट का जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया। किंतु उनके पांच साथी उनके इस निर्णय से सहमत न थे। वे उन्हें छोड़कर काशी की ओर चले गए।
बैराग्य के छठे वर्ष 35 वर्ष की आयु में एक दिन रात्रि को जब वे बरगद के वृक्ष के नीचे समाधि लगा कर चिंतन कर रहे थे। तो उन्हें ज्ञान का आलोक प्राप्त होता है, इस घटना को “संबोधी” के नाम से भी पुकारा जाता है। क्योंकि सिद्धार्थ को बुद्धि या ज्ञान प्राप्त हुआ, इसलिए उनका नाम “बुद्ध” हो गया, जिस धर्म का उन्होंने प्रचार किया वह धर्म बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलन में आया, जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, उस वृक्ष को “बोधि वृक्ष” कहा जाने लगा। और गया का नाम बोधगया हो गया।
भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश काशी के निकट सारनाथ में अपने उन पांच साथियों को दिया जो उन्हें छोड़कर चले आए थे। सारनाथ के पश्चात वे कपिलवस्तु में शाक्यों को उन्होंने अपने धर्म से दीक्षित किया। बुद्ध बेहद अलौकिक आकर्षण को लिए होते थे। लोग उनके उपदेशों को सुनने के लिए आतुर रहते थे। उनके शिष्य बन जाते थे। भगवान बुद्ध ने बिहार, उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में, नेपाल में घूम घूम कर 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार किया यही कारण है, कि केवल भारत में नहीं बल्कि विदेशों में भी यह धर्म प्रचलन की श्रेष्ठता पर पहुंचा।
अस्सी वर्ष की उम्र में “महापरिनिर्वाण” की घटना हुई। 483 ईसा पूर्व भगवान बुद्ध का परलोक वास हो गया।
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
Please comment your review.