जैन धर्म एक परिचय / श्वेतांबर दिगंबर तथा विभिन्न मान्यताएं-
जैन धर्म को मानने वाले लोगों को जैनी कहा जाता है। कालांतर में जैनी लोग दो संप्रदाय में विभक्त हो गए, पहला श्वेताम्बर और दूसरा दिगंबर।
श्वेताम्बर लोग उदार और सुधारवादी होते हैं। यह श्वेत वस्त्र पहनते हैं। तथा अपनी मूर्तियों को भी सफेद वस्त्र पहनाते हैं। यह जैन धर्म के कठोर नियमों को कुछ ढीला करने के पक्ष में है।
दूसरी और दिगंबर होते हैं। यह जैन धर्म के कठोर नियम को पालन करते हैं। यह बेहद कट्टरपंथी लोग होते हैं। यह लोग नंगे रहते हैं। और अपनी मूर्तियों को भी नंगा रखते हैं।
जैन धर्म एक क्रांतिकारी धर्म रहा जिसने वैदिक धर्म को चुनौती दी। जैन धर्म के सिद्धांत बिल्कुल अलग हैं, जिनमें सृष्टि की नित्यता पर विश्वास अर्थात सृष्टि का ना तो आदी है ना अंत, इसे किसी ने नहीं बनाया है, और ना ही कोई इसका विनाश कर सकता है।
जैनी लोगों का मानना है, कि ईश्वर ने सृष्टि को नहीं बनाया है, किंतु सृष्टि को बनाया किसने है?
इस सवाल के जवाब में जैनी लोगों का मानना है, कि सृष्टि जीव तथा अजीव इन दो तत्वों के संयोग से बनी है, और यह दो तत्व सतत हैं, इनका नाश नहीं हो सकता और ठीक इसी प्रकार इन तत्वों से बनी सृष्टि का भी कभी नाश नहीं हो सकता। उनका मत है कि जीव की दो प्रवृतियां होती हैं, पहली भौतिक तथा दूसरे आध्यात्मिक। उनका मत है की भौतिक प्रवृत्ति का मनुष्य विनाश की ओर जाता है। वह उसे बुरे कर्मों में बांधती है।
दूसरी ओर आध्यात्मिक प्रवृत्ति मनुष्य को सतकर्मों की ओर लेकर जाते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक प्रवृत्ति अमर है। यह प्रवृत्ति मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर देती है।
वे कर्म के बंधन को मनुष्य के सांसारिक वासना से मुक्त न हो सकने का कारण मानते हैं। उनका मत है, कि जीव का उसके कर्मों से घनिष्ठ संबंध होता है। अर्थात आत्मा का उसके कर्मों से घनिष्ठ संबंध होता है, मात्र इस जन्म के कर्मों का ही नहीं बल्कि पिछले जन्म के कर्मों का प्रभाव भी आत्मा पर होता है।
उनका मत है, कि आत्मा तो स्वयं में निर्मल और आनंदमय होती हैं। किंतु मनुष्य के कर्मों और उनके प्रभाव से आत्मा बंधन में आ जाती है। और जब आत्मा का निर्मल तथा आनंदमय स्वरूप समाप्त हो जाता है, तब आत्मा दुख के वशीभूत हो जाती है। आत्मा को सुख-दुख से मुक्त मोक्ष की प्राप्ति के लिए बंधनों से मुक्त करना होगा। अर्थात कर्मों का बंधन नहीं बांधना होगा।
उनका मत है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य है कि आत्मा कर्मों के नई बंधनों में ना फंसे और यदि आत्मा जो कर्मों के बंधन में फंस चुकी है, तो उसे उन बंधनों से मुक्त किया जाए जिसके लिए पहला मार्ग सत्कर्म तथा सदाचार है, और दूसरा मार्ग कठिन तपस्या।
जैनियों के विचार में मनुष्य के जीवन का लक्ष्य कर्मों के बंधन से मुक्त होना है, वही मोक्ष है। और इसके लिए मनुष्य को जीवन में सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र की आवश्यकता है। जैनियों ने इसे “त्रिरत्न” भी कहा है। मनुष्य सम्यक ज्ञान प्राप्ति से सांसारिक वासना में नहीं आ सकता। वासना में फंसने का मुख्य कारण उसकी अज्ञानता है। सम्यक दर्शन से तात्पर्य है, कि जैन आचार्य जैन तीर्थंकरों पर विश्वास किया जाए, उनके उपदेशों में दिए गए मार्ग का अनुसरण किया जाए। जीवन में सम्यक चरित्र की भी आवश्यकता होती है, मनुष्य को कर्मों के बंधन से मुक्त करने के लिए। इसके लिए मनुष्य को इंद्रियों वाणी और अपने कर्मों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना होगा
जैन धर्म के लोग पंच महाव्रत का पालन करते हैं। जो “अहिंसा” जीव हत्या महापाप है। “सत्य” सदैव सत्य बोलना। “अस्तेय” कभी चोरी ना करना। “अपरिग्रह” अर्थात संपत्ति का संचय न करना, और अंतिम “ब्रम्हचर्य” इसका तात्पर्य है, सांसारिक विषय वासनाओं से दूर रहना।
जैनियों का यही मानना है, कि यदि इन पांच महाव्रतों का पालन किया जाए तो मनुष्य कर्मों के बंधन में कभी बंध ही नहीं सकता।
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