
उस बाग के मध्य में एक कुआं था। जाने कितने ही लोग उसमें कूद गए। वो दिन था 13 अप्रैल 1919 और अमृतसर का जलियांवाला बाग।
जनरल रेगनॉल्ट डायर को इस हत्याकांड का सबसे बड़ा आरोपी माना गया, और यह ब्रिटिशों ने भी स्वीकार किया। किन्तु बदले में उसे सिर्फ भारत में अपने पद से रिजाइन करना था, और ब्रिटेन लौटने का आदेश दिया गया। उसका कहना था, कि वह अपनी ड्यूटी निभा रहा था। यदि वह गोलियां नहीं चलाने का आदेश नहीं देता तो संभवत वह भीड़ उसके सैनिक टुकड़ी पर हमला कर देती।
जब दस-पन्द्रह हजार के उस विशाल भीड़ पर गोलियां चलनी आरंभ हुई, तो खुद साथ खड़े अंग्रेजी अफसर के चेहरे के भाव बिखर गए। किंतु वह बताते हैं, कि डायर खुद दौड़कर उस जगह गोलीबारी का संकेत करते जहां भीड़ अधिक थी। लोग बाग की ऊंची दीवारों को लांघने की कोशिश करते। बाग की भीड़ जैसे जमींदोज हो गई। वहां कहीं कहीं तो गोली का निशान बने घायलों और शवों के ढेर लगने लगे। कुछ लोग तो भीड़ के भगदड़ में वही दबकर अपने प्राण खो दिए।
वहां 4 वर्ष का एक बच्चा जो अपने दादा जी के साथ गया था, आज बताते हैं, कि गोलियों के आदेश के बाद उनके दादाजी उन्हें सैनिकों से दूर दीवार की ओर लेकर गए और दीवार से फेंक कर दूसरी तरफ पहुंचा दिया। उनका कंधा वहां टूट गया, और वह दृश्य वह कभी ना भूल सके।
वहां मरने वाले लोगों की संख्या का अनुमान लगाते हैं, तो हजारों की संख्या बताई जाती हैं। हालांकि भारतीय ब्रिटिश सरकार ने उसमें सवा तीन सौ लोगों की मृत्यु को दर्शाया।
बताते हैं, कि कई घायल लोग तो अपने घर लौट कर मृत्यु को प्राप्त हुए। तब ऐसा माहौल तैयार हो गया, कि जलियांवाला बाग में उस दिन गए तमाम लोग सरकार के सीधे निशाने पर हैं। इससे लोग यह नहीं बताते कि उनके संबंधी उनके परिवार के कोई वहां जिलियांवाला बाग में उपस्थित थे, या मारे गए हैं।
वह घटना भारत को सीधे तौर से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कर गई। महान क्रांतिकारियों ने इस घटना के बाद जन्म लिया। किंतु उन निर्दोषों को जो बर्बरता का शिकार हुए उनकी महान शहादत के लिए भारत का आज, आज भी उन्हें याद करता है। उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है।।
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