बुधवार, 23 मार्च 2022

23 march | शहीद दिवस पर एक खास लेख

गांधी के तरीके ने जितनी बड़ी संख्या में लोगों को सड़कों पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लाकर खड़ा कर दिया। संभवत उतना क्रांतिकारी न कर सके। और यही कारण है, कि देश के आजादी का लंबा संघर्ष हुआ। अन्यथा क्रांति तो ऐसा प्रवाव है, कि संपूर्ण भारत में यदि यह पुरजोर होती, तो आजादी लंबे समय का संघर्ष नहीं था। किंतु ऐसा नहीं हो सका, क्रांति की ज्वाला जब-जब भड़की उसे उसी तीव्रता से आत्तयायियों ने दफन कर दिया। आम जनमानस का बड़ा भाग क्रान्ति के संघर्ष कि उस ज्वलंत धारा में प्रवेश कर पाने में असक्षम रहा। यही कारण है, कि आजाद भारत तेज क्रांतिकारी विचारों से तेज अथवा जल्दी स्थापित ना हो सका, बल्कि वह तो अपेक्षाकृत धीमी प्रक्रिया से अस्तित्व में आया। इस बात से इंकार नहीं जा सकता।

  किंतु इसका तात्पर्य नहीं कि गांधी के मार्ग से ही आजादी प्राप्त हुई है। ऐसा कहना उस महान बलिदान का अपमान है।  सच तो यह है, कि उन महान क्रांतिकारियों के बलिदान की ज्वलंत भावना ने ब्रिटिश हुकूमत के जहन में पहले ही आजाद भारत स्थापित कर दिया था। क्रांतिकारियों के अतिरेक आजादी की लड़ाई तो उनके बलिदान के आश्रय में लड़ी गई।

   कांग्रेस के प्रारंभिक दौर में एक नाम बाल गंगाधर तिलक, उन्हीं तीव्र विचारों के समर्थक रहे। वे कांग्रेस के धीमे मिजाज के विरोध में ही रहे। उनका प्रभाव जनता पर खासा था। यूं कहें कि कांग्रेस के उस समय पर वह पहले ऐसे नेता थे, जिनका आम जनमानस पर अच्छा वर्चस्व था। कहते हैं, कि तब महाराष्ट्र के लोग उनके नाम का लॉकेट गले में पहनते थे। उनके तमाम प्रयास सर्वज्ञ ज्ञात है। किंतु यह अवश्य स्वीकारना होगा, कि उनके विचार भी उतनी बड़ी संख्या में आम जनमानस को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सीधी लड़ाई में ला सकने में उतने सफल नहीं रहे।

  किंतु क्रांतिकारियों का संघर्ष उनके हर बलिदान के साथ आजाद भारत के दर्शन करवा रहा था। जाने कितनी संख्या में वे थे। हम कितनों का नाम जान सके हैं। और उनमें हम कितनों को जानते ही नहीं। क्योंकि वह तो गंगा की धार में थे, जिसकी हर बूंद क्रांतिकारी था, और वह देश भक्ति के प्रवाह में गतिशील था।

  जब भगत और उनके साथी अपनी सेना इकट्ठे कर रहे थे। कहते हैं, कि वे लाइब्रेरी में पढ़ने आने वाले नए छात्रों पर खास नजर रखते थे। फिर ख्याल रखते थे, कि वह कोई छात्र किन पुस्तकों की ओर रुचि रखता है। उस आधार पर वे अपने क्रांतिकारी का चुनाव करते थे। भगत अपने आप में बहुत विद्धान थे। भगत के साथ एक पुस्तक ना हो ऐसा होना कठिन था।

    वे लोग जिनका रक्त अपने सारे नाते रिश्ते केवल इस भारत भूमि से जोड़ लिया था। मृत्यु तक जिनके चेहरे पर संकोच नहीं था। उस महान आत्मा को हर दिल सलाम करता है। वह कभी मर नहीं सकते। वह राष्ट्र के नींव के वह अडिग पत्थर हैं, जो चिरकाल तक भारत को अपनी प्रेरणा व आशीष के छत से आश्रय देते रहेंगे।।

बुधवार, 2 मार्च 2022

सबका साथ सबका विकास एक भावना | विशेष लेख

“सबका साथ सबका विकास”
इस नारे कि मैं दो प्रकार से विवेचना कर सकता हूं। एक राजनीतिक दृष्टि से, दूसरा सामाजिक परिपेक्ष में।

इस नारे की राजनैतिक दृष्टि से विवेचना में मैं आपको लेकर चलता हूं, इस प्रकार के नारों का प्रयोग राजनीति में पूर्व में भी हुआ है। इंदिरा गांधी जी के समय में हमने देखा, गरीबी हटाओ का नारा किस तरह से लोकप्रियता के ऊंचे आयाम को चुमता है। अटल जी प्रधानमंत्री बन कर आए तो हमने सुना शाइनिंग इंडिया, इंडिया शाइनिंग। 2014 में मोदी जी प्रधानमंत्री बनकर आते हैं, नारा रहा “अच्छे दिन आएंगे” उसके बाद “सबका साथ सबका विकास” पड़ोस के मुल्क पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान बनते हैं, तो नारा होता है, “तब्दीलियत आएगी, बेहतरी आएगी”। आजकल उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल में जब लोगों से पूछा जाता है, कि राज्य सरकार की नीति कैसी है, तो लोग कहते हैं, कि इस सरकार की नीति है, “सबका साथ सबका विकास”।
यहां मैं मानता हूं कि राजनीतिक दृष्टि से इस नारे की सार्थकता निकल कर आती है। सरकार को और क्या चाहिए। आम जनमानस के मुख में वह नारा पुरजोर है, जो सरकार के कार्यों को सारगर्भित करता है। सरकार को और क्या चाहिए।

अब मैं आपको इस नारे की सामाजिक परिपेक्ष में विवेचना पर लेकर चलता हूं। ऋग्वेद में लिखा है, “वसुधैव कुटुंबकम” अर्थात यह संपूर्ण वसुधा एक कुटुम्ब के समान है। कुटुंब का व्यवहार क्या है, कुटुंब का प्रबंध क्या है, एक पिता अपने चार पुत्रों को जो लाभ दे सकता है, समान रूप से वितरित करने का प्रयत्न करता है, अर्थात समानता का प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो सबका साथ सबका विकास चाहता है। किंतु पिता का एक पुत्र अधिक बुद्धिमान है, एक पुत्र कम बुद्धिमान है, एक पुत्र अधिक शक्तिशाली है, एक पुत्र कम शक्तिशाली है, किसी पुत्र में अन्य प्रकार की कोई योग्यता है, कोई पुत्र किसी अन्य प्रकार की अक्षमता को लिए है। इस दशा में प्राकृतिक तौर से असमानता की एक रेखा खिंच जाती है। यह केवल एक परिवार के लिए नहीं है, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र पर लागू होती है। इन स्थितियों में राजा का अपनी प्रजा के प्रति क्या कर्तव्य है। राजा का कर्तव्य है, कि राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को इस राष्ट्र की इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था से, इस राष्ट्र के इतने बड़े संसाधन भंडार से कम से कम इतना तो उपलब्ध करवाया जाए, कि वह अपने और अपने परिवार का भरण पोषण कर सके। मैं मानता हूं “सबका साथ सबका विकास” राजा की उसी भावना को प्रदर्शित करता है।

अब “सबका विश्वास” पर मैं कुछ कहना चाहूंगा। जब राजा अपनी प्रजा में सबका साथ सबका विकास की भावना से कार्य करने में सफल हो पाता है, तो प्रजा का विश्वास राजा को प्राप्त होता है, इस दशा में राष्ट्र केवल अपने भीतर नहीं बल्कि वैश्विक पटल पर अपने वजूद की मजबूत छाप छोड़ता है। जिसका मूल होता है, सबका साथ सबका विकास की भावना।

अतः यह कह सकते हैं, कि सबका साथ “सबका विकास सबका विश्वास” एक उन्नत राष्ट्र होने के लिए मूल भावना है।

मंगलवार, 1 मार्च 2022

दुनिया के कदम शांति की ओर | रूस यूक्रेन युद्ध

शांति केवल तब कायम हो सकती है, जब दुनिया में कोई ना हो, यह सब शून्य हो और कोई हलचल ना हो, शांति का इसके अतिरिक्त कोई स्थाई पता नहीं दिखता, भले वे कोई, सभ्यता और शिक्षा की महान स्थिति में क्यों ना हों, किंतु शांति वहां भी स्थाई नहीं।

शांति का स्थाई पता शायद हम में से कोई जीते जी जान पाया हो। मैं दुनिया में शांति के विषय पर कह रहा हूं, व्यक्तिगत शांति नहीं।
इसका एक कारण यह हो सकता है, कि संसार क्योंकि किसी एक राह पर नहीं चल सकता है। संसार एक जैसा नहीं सोच सकता है। संसार में असमानता ओं की विशाल सूची है। इन सब कारणों के चलते हम कहीं ना कहीं तो जरूर टकराते हैं, और हम टकराव में स्वयं को ही स्वाभाविक तौर से ठीक साबित करना चाहते हैं, हम विजेता होंगे, क्योंकि हम सही हैं, और हम अपनी संपूर्ण शक्ति को झोंकने से पीछे नहीं हटेंगे।

यदि यह कहा जाए कि दुनिया में प्रकृति से उपलब्ध हर वस्तु का उपयोग होना है, तो उनसे इजाद हुए हर आधुनिक साधन का प्रयोग होना भी तय है। चाहे वह परमाणु हथियार क्यों ना हों, और सबसे महत्वपूर्ण की उनके प्रयोग होने को तब बल मिलता है, जब उन्हें शांति के लिए इजाद किया गया हो। क्योंकि इस संसार का हर दशा में मूल अलाप शांति के लिए ही है। भले ही वह भीषण युद्ध में संलग्न क्यों ना हो।

आज यूरोप के वे राष्ट्र जो सभ्यता और नगरीकरण की मिसाल बने थे, और दुनिया को आकृष्ट करते रहे हैं। वह आज भी लोगों को उनके विषय में बात करने के लिए आकर्षित कर रहे हैं। बस अंतर यह है, कि पूर्व में लोग उनके आकर्षण के प्रभाव में उनकी तरफ बढ़ते थे। किन्तु आज लोग वहां से निकलने को आतुर हैं। कारण शांति के लिए- रूस यूक्रेन युद्ध!

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ | woman empower

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ”।

बेटी, स्त्री ईश्वर की धरा पर सर्वाधिक खूबसूरत कृति है। हमें स्त्री का सम्मान केवल इसलिए नहीं करना चाहिए, बल्कि इसलिए भी क्योंकि उसमें मिलकर रहने की, एकता में रख सकने की, उस भावना की अधिक गहरी समझ होती है।
   एक महिला केवल एक परिवार को बांधकर नहीं रखती। बल्कि इसी तर्ज में वह संपूर्ण संसार के बंधन का कारण है। उसमें संसार के आधी शक्ति विलीन है।

प्रेमचंद जी ने लिखा है-
स्त्री के मूल गुण ममता, सौम्यता, शीलता, सौंदर्य उसे पुरुषों से महान बनाते हैं। पुरुष उसके बराबर नहीं बल्कि उससे पीछे हैं।

सुष्मिता सेन जब मिस यूनिवर्स बनी तब उन्होंने कहा सृष्टि में नारी ममता की स्रोत है, हमें उसका सम्मान करना चाहिए।
इन सब के बाद सवाल यह है, कि इश्वर की इस महान कला का कहां तिरस्कार हुआ है, जो आज तक यह नारा “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” बुलंद है। यह नारा बुलंद होता है। जब एक बच्ची को मां के गर्भ में ही मार दिया जाता है, यदि वह धरा पर जन्म ले भी लेती है, तो उसे स्कूल शिक्षा से वंचित रखने का प्रयास होता है। यदि वह शिक्षा प्राप्त कर भी लेती है या नहीं कर पाती है, तब एक दिन जब उसकी शादी होती है, तो उसे दहेज प्रथा का शिकार होना पड़ता है, और यह केवल उसका नहीं बल्कि उसके परिवार का भी आत्मबल तोड़ देता है। यही कारण है, कि आज तक भी शादी नाम की संस्था में एक पक्ष विश्वस्त नहीं है वह बेटी का पक्ष है।

आज इस विचार को स्वीकार करना होगा, कि महिला और पुरुष रेल की पटरियों के समान है, जिन्हें साथ मिलकर चलना होगा। इनमें से किसी एक द्वारा सृष्टि का आधा उत्कर्ष ही संभव है।

सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

28 फरवरी | राष्ट्रीय विज्ञान दिवस

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस, 28 फरवरी को प्रतिवर्ष मनाया जाता है। यह दिवस भारत के महान वैज्ञानिक सर चंद्रशेखर वेंकटरमन की महान खोज रमन प्रभाव की उपलब्धि से मनाया जाता है। जहां सर चंद्रशेखर वेंकटरमन ने 28 फरवरी 1928 को रमन प्रभाव की खोज की थी, वे अपनी इसी खोज के लिए 1930 की नोबेल पुरस्कार प्राप्तकर्ता बने। वे एशिया के पहले, और एक नॉन वाइट थे, जिन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। उन्हें 1954 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया।

   भारत में युवा दिवस राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद एवं विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तत्वाधान में प्रतिवर्ष 28 फरवरी को मनाया जाना सुनिश्चित है। 1986 में नेशनल काउंसिल फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी ने भारत सरकार से अपील की कि 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस घोषित किया जाए तब 1987 के वर्ष और उसके पश्चात प्रतिवर्ष आज तक यह दिवस देश भर के विद्यालयों, कॉलेजों और अन्य सभी एकेडमिक्स संस्थाओं ने मनाया जाता है।

चंद्रशेखर वेंकटरमन जिन्हें सीवी रमन के नाम से भी जानते हैं, वे एक भौतिक विज्ञानी रहे। उन्होंने 19 वर्ष की आयु में भौतिक विज्ञान में m.a. किया, और वित्त संबंधी परीक्षा में सफलता पाकर वे कलकत्ता में असिस्टेंट अकाउंटेंट जनरल अधिकारी बन गए। यहां से वे दिनभर अपने कार्य में होने के बाद क्योंकि विज्ञान अनुसंधान में गहरी रुचि ने उन्हें विज्ञान अनुसंधान संस्था “इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन आफ साइंस” से जोड़ दिया। वह यहां अपने दिन भर के कार्यों के पश्चात देर रात तक का समय यही बिताते। जब 1917 में उन्हें भौतिक विज्ञान का प्रोफेसर बनने का अवसर मिला, जो कोलकाता विश्वविद्यालय से था। तो उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी, और मात्र अपनी पहले की नौकरी की तनख्वाह के आधे पर ही यह प्रोफेसर की नौकरी स्वीकार कर ली।

1921 में सी० वी० रमन को एक अध्ययन यात्रा में विदेश का दौरा करना हुआ। और इसी को वे रमन प्रभाव की खोज का आधार बताते हैं। जब रमन पानी के जहाज से विदेश के लिए यात्रा कर रहे थे, तो सागर के नीले जल ने उन्हें शोध के लिए एक नया कारण दिया। लॉर्ड रैले के आकाश के नीले रंग की व्याख्या जो वायुकणों से प्रकाश प्रकीर्णन के कारण होता है, जो एक सफल व्याख्या थी। किंतु सागर के जल का नीला होने का कारण उन्होंने, आकाश का जल में प्रतिबिंब बताया था, जो व्याख्या रमन के लिए स्वीकार्य नहीं थी। वह इसे अपना शोध का विषय बना लेते हैं। अपने अथक प्रयास लगभग 7 वर्षों तक अनेकों द्रवों पर प्रकाश के प्रकीर्णन का अध्ययन करते रहे, और 28 फरवरी को 1928 में उन्होंने रमन प्रभाव की खोज की महान घोषणा की।

उसी 28 फरवरी की उपलब्धि को भारत में 1987 से राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

रविवार, 27 फ़रवरी 2022

भाषण कला पर | How to speak on stage in hindi

भाषण कला पर कुछ लिखा है-

यदि आप लिखते हैं, और लगातार बोलते रहे हैं, तो उस दशा में आप बेहतर वक्ता हो सकते हैं। 

   मैंने यह भी पाया कि यदि आप किसी प्रतियोगिता का हिस्सा हैं, तब अन्य साथियों के भाषणों में ज्ञान की भारी मात्रा हो सकती है। उन्होंने इतनी अधिक सूचनाएं एकत्रित कर अपने भाषणों को तैयार किया होता है, और ऊपर से समय की बंदिश, जिसके चलते प्रतिभागी को जल्दी-जल्दी भाषण कहना होता है। किंतु उसमें आपकी साफ नीति हो सकती है, दो बात कहूंगा, तो ऐसे कहूंगा कि वह श्रोताओं पर सीधा प्रभाव डालें। 


भाषण के अनेक तरीके हो सकते हैं, उनमें दो पर बात करते हैं।

एक तरीका जिसमें बात को सीधे ढंग से रखा जाता है, अभिनय कला की कोई भूमिका नहीं। जैसे हमारे पूर्व प्रधानमंत्री माननीय मनमोहन सिंह जी का तरीका रहा है। वहीं एक और भाषण का तरीका जिसमें शब्दों को चुन चुन कर हर वाक्य को बड़ा प्रभावी बनाया जाता है, जैसा डॉ कुमार विश्वास जी के भाषणों के संबंध में है। अब इसी तरीके को दो अलग अलग वक्ताओं में अलग-अलग ढंग से पाते हैं-
   इसी स्टाइल की भाषण कला, एक ओर आप अटल जी में पाएंगे। किंतु वे थोड़ा ठहर कर जरूर बोलते थे, और बड़ी रुचि के साथ स्वर ऊँचा और नीचा करना, वाक्य को अंत करते हुए आवाज पर विशेष नियंत्रण रखना। यह उनके अभिभाषणों की अनेक विशेषता में एक रही है।
   वहीं दूसरी ओर आप बीजेपी के प्रवक्ता सुधांशु चतुर्वेदी जी को इसी स्टाइल में सुनेंगे। किंतु वे थोड़ा कम ठहरते हैं, और कम समय में अधिक से अधिक बातें बोलते हैं। इसमें कई बार कई श्रोता समझने में पीछे रह जाते हैं, और सुधांशु जी काफी आगे पहुंच चुके होते हैं। किंतु उनका यह तरीका उन्हें बहुत प्रभावी बनाता है।

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

मौर्य काल का भारत कैसा था | Maurya empire

मौर्य काल में मगध साम्राज्य में विस्तार हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल में पहले सौराष्ट्र को और फिर 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस को हराकर संधि में अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान का प्रदेश भी प्राप्त किया। इस विजय यात्रा को पुनः अशोक ने बढ़ाया, जो 261 ईसा पूर्व कलिंग की विजय के पश्चात अहिंसात्मक नीति का अनुसरण करने लगा। यूं कहें कि मौर्य काल की विजय यात्रा अशोक की कलिंग विजय तक रही। इसके पश्चात तो मौर्य वंश के पतन का ही अध्ययन प्राप्त होता है। मौर्य काल के समय भारत की क्या दशा थी, अर्थात मौर्यकालीन भारत कैसा था, इस पर एक संक्षिप्त परिचय कुछ इस प्रकार से है।

कौटिल्य ने अपने महान ग्रंथ अर्थशास्त्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार जातियों का जिक्र किया है। और वही यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने सात जातियों का अर्थात दार्शनिक, किसान, ग्वाले, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक और अमात्य का जिक्र किया है। इस काल में दास प्रथा का भी प्रचलन हुआ करता था। अध्ययन में आता है, कि आठ प्रकार के विवाह उस काल में प्रचलन में थे। शादी के लिए कन्या की उम्र बारह वर्ष और वर की उम्र सोलह वर्ष होनी चाहिए थी। पुनर्विवाह का भी प्रचलन था।

उस वक्त पर मदिरापान मांस भक्षण का भी चलन था, किंतु अशोक ने अपने काल में इन पर काफी प्रतिबंधित कर दिया था। अध्ययन में आता है, कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने काल में जैनियों को समर्थन दिया था। अशोक के काल तक आते-आते बौद्ध धर्म को यह समर्थन प्राप्त हुआ। अशोक ने बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया। हालांकि ब्राह्मण धर्म का अभी अच्छा जोर था, जिसके अंतर्गत यज्ञ और बली प्रथा का भी समाज में अनुसरण होता था।

इन सब में सबसे महत्वपूर्ण की मौर्य शासन में धार्मिक स्वतंत्रता थी। लोगों को किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता रहती थी। उस काल में सभी धर्मों ने समान रूप से फल फूल कर चलन हासिल किया। मूर्ति पूजा का भी चलन था, और मंदिरों का निर्माण हुआ करता था। धर्म सभा और तीर्थ यात्राओं का प्रचलन हो चला था। मैगस्थनीज के विवरण में यह मालूम होता है, कि उस वक्त पर मौर्य काल में विदेशियों के सुरक्षा की पूरी व्यवस्था की जाती थी। यातायात और व्यापार के लिए समुचित सुलभता प्रदत्त दी जाती थी।

कृषि और पशुपालन समाज में लोगों का मुख्य व्यवसाय था, वही उनकी आर्थिक मजबूती का आधार था। सूती वस्त्रों के उद्योग धंधे और धातु की बनी सुंदर चीजों का व्यापारिक प्रचलन भी था।

साहित्य और शिक्षा के उत्थान में मौर्य काल की महत्वपूर्ण भूमिका है। बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों का संकलन भी इसी काल में हुआ है। तक्षशिला उच्च शिक्षा का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण केंद्र रहा। गुरुकुल, बिहारो, मठों में शिक्षा वितरण होती थी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र महान ग्रंथ उसी काल की देन है।

मौर्य काल में कला ने विभिन्न आयामों में उन्नति का चरम प्राप्त किया। कहते हैं, कि जब चीनी यात्री फाह्यान ने पाटलिपुत्र का राजप्रासाद देखा, तो आश्चर्यचकित हो गया उसे लगा कि यह मानवों ने नहीं बनाया है, बल्कि यह तो देवताओं ने बनाया है। यह कहे कि इस काल में सुंदर गृहों के निर्माण की कला फल-फूल रही थी। मौर्य काल में सम्राट अशोक के द्वारा बनाए स्तूप, स्तंभ और उन पर की गई पोलिश आज भी शीशे की तरह साफ चमक रही है। अशोक की लाट पर अंकित चित्र कैसे सुंदर सजीव प्रतीत होते हैं।

मौर्य काल को पाषाण काल का श्रेष्ठ दौर कहें तो गलत नहीं होगा। क्योंकि पत्थर और मूर्तियों का निर्माण इस काल में उन्नत दशा में था।

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏