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मानव का क्रमिक विकास | पूर्व ऐतिहासिक काल और ऐतिहासिक काल | Evolution of human from stone age to metal age in hindi

    मानव का विकास कर्मिक है। विद्वानों के मतानुसार प्रारंभ में मानव अज्ञानी और बर्बरता के अंधकार में डूबा हुआ था। वह सभ्यता की ओर धीरे-धीरे आया है। किंतु यह भी सत्य है, कि सभ्यता का फल चख लेने पर वह नियत  ढंग से इसके विकास में स्वयं को संलग्न रखता आया है।

  ईश्वर ने मानव को बुद्धि बल, सोच विचारने की शक्ति दी है। और मानव ने अपने जीवन को उन्नत बनाने के क्रम में इसका भरपूर प्रयोग किया।

   भारतीय सभ्यता के लगभग 3500 ई०पू० से पहले के काल को पूर्व ऐतिहासिक काल की सभ्यता और 3500 ई०पू० के बाद के काल को ऐतिहासिक काल की सभ्यता के नाम से पुकारा गया है। ऐतिहासिक काल की सभ्यता का पता लगाना कुछ बहुत अधिक कठिन नहीं है। क्योंकि हमें उस काल के ग्रंथ, मुद्रा, लेख, अभिलेख, बर्तन, औजार, स्मारक आदि प्राप्त होते हैं।

  ऐतिहासिक काल को दो भागों में विभक्त किया गया है। पाषाण काल को लेकर विद्वानों का मत है कि पूर्व मानव पत्थर के औजार बनाता था। किंतु यदि बहुत अधिक जंगली और असभ्य था, तब उस काल को पाषाण काल के एक खंड में पूर्व पाषाण काल कहा गया, और जब मनुष्य औजार निर्माण में पत्थर का प्रयोग तो करता था, किंतु कुछ सभ्य हो चला था, उसे उत्तर पाषाण काल कहा गया।

  भारतीय सभ्यता के विकास में धातु का वह काल है। भले ही वह जब से प्रारंभ हुआ हो, किंतु मानव सभ्यता के विकास में इसका प्रयोग लगातार हो रहा है। मानव का उत्थान उसकी सभ्यता के उत्थान से आंकलित होने लगा, और वास्तव में मानव उत्थान से तात्पर्य मानव सभ्यता के उत्थान से ही है।

  उत्तर भारत में धातु काल का क्रम ताम्रकाल तथा तत्पश्चात लौहकाल होने का ज्ञान है। किंतु दक्षिण भारत में ताम्रकाल का स्थान नहीं है। विश्व के इतिहास में ताम्रकाल के बाद कांस्यकाल का ज्ञान होता है, किंतु भारतीय इतिहास में इसका स्थान नहीं है।

  पाषाण काल में पत्थरों के हथियार का प्रयोग था। हड्डियों का प्रयोग करते थे। किंतु सभ्यता के कुछ विकास के बाद  भारतीय सभ्यता के विकास के मानव  ने सर्वप्रथम तांबा धातु का प्रयोग किया था। क्योंकि धातु को   गलाया जा सकता है, उसे रुप दिया जा सकता है, और उसके हथियार कुछ हल्के होते थे, पत्थर के हथियारों से तो सहज जरूर होते थे। और मानव उन्हें प्रयोग में लाने लगा। अतः भारतीय सभ्यता का क्रमिक विकास पूर्व पाषाण काल, उत्तर पाषाण काल, ताम्रकाल और लौहकाल से होकर आता है।

  विद्वानों के अनुसार पूर्व पाषाण काल का व्यक्ति नंगा रहता था। वह असभ्य था। किंतु बाद में  पत्तों, वृक्षों के छाल का, पशुओं की खाल को वस्त्रों के रूप में प्रयोग करने लगा। वह गुफाओं में और वृक्षों पर रहता था। जलाशय के पास ही रहता जो जल की सुविधा रहे। वह खानाबदोश था। वह प्रकृतिक जीवी थे, अपने परिश्रम से किसी चीज को पैदा नहीं करते थे।

   वही उत्तर पाषाण काल का मानव सभ्य हो गया था। वह पत्थर के औजार जरूर प्रयोग करता था। किंतु उन्हें रूप दे रहा था। वह पत्थर के सुंदर मकान बनाने लगा था। वह सहयोग और मेलजोल को समझने लगे। और आपस में मिलकर रहने लगे थे। गांव बसने लगे। अब वह कृषि की ओर बढ़ने लगा, और ग्राम समुदाय का स्थाई निवासी हो गया। कृषि के लिए लकड़ी के चीजों की आवश्यकता रही होगी, तो कुछ लोग बढई का काम करने लगे और कुछ बर्तन तब गांव में कुम्हारों का भी  एक समुदाय रहने लगा।

इस युग में मानव पशुओं को मांस के लिए ही नहीं बल्कि जान गया था कि कुछ पशु अन्य प्रकार से भी उपयोगी हैं। अतः वह भैंस, गाय, भेड़, घोड़ा, बैल को पालने लगा।

जब कभी वर्षा से फसल खराब हो जाती थी। उनकी झोपड़ियां आंधियों में उड़ जाती थी। तब उनका विश्वास दैवी शक्ति पर होने लगा और वह चेतना जन्म लेने लगी। और वे प्रकृति में जल, वायु, अग्नि को देवता मानने लगे उनकी पूजा होने लगी।

   ताम्रकाल में विद्वानों के मतानुसार तांबे का औजारों और अन्य आवश्यकता की चीजों के लिए प्रयोग होने लगा। पशुओं का उपयोग बोझा ढोने के लिए होने लगा। पशु-गाड़ियों का प्रयोग हुआ। पकी ईंटों का प्रयोग होने लगा। प्राकृतिक शक्तियों पर दृढ़ विश्वास होने लगा और वे उसे प्रसन्न करने के लिए पूजा करने लगे।।

   धातु काल का अगला युग लौह काल है। इसमें लोहे का प्रयोग होने लगा।

  आधुनिक विद्वानों ने  कुछ उपलब्ध हुए साक्ष्यों में ही पुरा-इतिहास का अनुमान किया है। और इसे गढने में सफल रहे हैं।

कालांतर में सभ्यता में संशोधन तथा परिवर्तन होता रहा है। और यह आज तक चलायमान है। 

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