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अशोक के पश्चात मगध के शासन पर 48 वर्षों तक उसी के वंशजों ने शासन किया। अशोक का पुत्र कुणाल अशोक के पश्चात सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, तत्पश्चात दशरथ संप्रति, शालिशुक, देववर्मा, शतधनुष तथा वृहद्रथ नाम के शासकों ने मगध के शासन पर मौर्य वंश का गौरव रखा।मौर्य वंश का अंतिम शासक वृहद्रथ की हत्या उसके ही मंत्री पुष्यमित्र शुंग ने कर मौर्य वंश का अंत कर दिया।
मौर्य साम्राज्य का पतन यूं कहें कि अशोक के शासनकाल से ही प्रारंभ हुआ तो गलत ना होगा। अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति श्रद्धा ब्राह्मण धर्म के कट्टर अनुयायियों को रास नहीं रही होगी। उन्होंने अशोक के पश्चात आने वाले मगध सम्राटों को असहयोग प्रस्तुत किया होगा। अशोक की अहिंसात्मक नीति ने सेना पर भी एक बड़ा प्रभाव डाला।राजकोष का अत्यधिक धन सार्वजनिक हित में प्रयोग होने लगा। शिलालेख, स्तंभों का निर्माण यह सब राज्य की सुरक्षा के अतिरेक राजकोष पर भार था। अशोक के शासनकाल के पश्चात उसके उत्तराधिकारी इतनी भी योग्य ना थे, कि वह मगध के इतने विशाल साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचा सकें। साम्राज्य की इतनी विशालता, अशोक के उत्तराधिकारियों की केंद्रीय शासन में निर्बलता ने प्रांतपतियों में स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के प्रयत्न के भाव को जन्म दिया। अशोक के पश्चात साम्राज्य का विस्तार कम हो जाने के कारण राजकोष राज्य की आय पर गहरा धक्का लगा। इतना ही नहीं अर्थशास्त्र में प्रमाण मिलता है कि मौर्य काल में करों की अधिकता थी।
यह सब प्रजा में असंतोष का कारण बन रही थी। अशोक के उत्तराधिकारिओं प्रांतपतियों और अन्य अधिकारियों के द्वारा प्रजा पर किए अत्याचारों ने प्रजा को शासन के विरोध में लाकर खड़ा कर दिया। अशोक के पश्चात तो मौर्य शासन की राज्यसभा में आंतरिक गुटबंदी, आंतरिक कलह ने जन्म ले लिया। स्वयं मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ को अपने ही सेनापति के द्वारा उसकी हत्या कराने की राजनीतिक षड्यंत्र की सूचना हुई। यह कारण मौर्य वंश को भीतर से निर्बल करते गए।
अशोक मात्र भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व के महान सम्राटों में गिना जाता है। उसकी महानता में अनेक विद्वान लिखते हैं। एच जी वेल्स ने लिखा “प्रत्येक युग और प्रत्येक राष्ट्र इस प्रकार के सम्राट को नहीं उत्पन्न कर सकता है। अशोक अब भी विश्व के इतिहास में अद्वितीय है”। अशोक का सभी राजस्व सुखों का त्याग विलासिता का त्याग और संत के समान जीवन यापन उस समय पर एक सम्राट के विषय में बेहद रोचक प्रसंग दिखाता है। उसकी सहष्णुता तथा उदार प्रवृत्ति ने कभी प्रजा पर अपने धर्म को थोपने का प्रयत्न नहीं किया। हां स्वतंत्र प्रसार का प्रयत्न जरूर किया। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। किंतु उसने कभी प्रजा पर बौद्ध धर्म के अनुसरण को लेकर अत्याचार नहीं किए। वह सभी संप्रदाय के साधु-संतों में दान दक्षिणा करता रहा। उसने अपने धर्म को राज्य धर्म घोषित कर दिया था, और इस धर्म की बातें इतनी सरल थी, कि कोई भी व्यक्ति इन्हें अपनाकर भौतिक सुखों में निर्लज्जता से बचा रहे, और एक स्वस्थ समाज को जन्म देने में योगदान दे।
मात्र एक महान धर्म प्रचारक होने के साथ-साथ अशोक एक महान राष्ट्र निर्माता भी था। उसने अपने साम्राज्य में एक भाषा तथा एक लिपि का प्रयोग करवाया, यह भाषा पाली थी, और लिपि ब्राह्मी। उसके द्वारा बनवाए गए स्तंभ लेख, शिलालेख, स्तूप आज भी राष्ट्रीय समृद्धि है। अशोक की महानता को एक लेखक इन शब्दों में प्रस्तुत करता है कि-
“हम यही कहेंगे कि विश्व के भागीरथ भूपति भूधरों उत्तुंग शिखर शिखरों के मध्य अशोक को गौरी शंकर की गगनचुंबी शिखा ही मानना चाहिए। वह विश्व के राजनीतिक गगन मंडल का देदीप्यमान प्रभाकर है। जिस का अनुपम आलोक अमर रहेगा धन्य है। धन्य है वह धर्म धुरीण धनुर्धर जिसने अपनी धर्मायुध से धर्म हीनता धूली-धूसरित कर धर्म विजय की धवल ध्वजा फहराई, और धन्य है, वह धर्म धरा-धात्री जिसने अपनी पुनीत पयोधर से पावन पय-पान कराकर उस परम पुरुष का पालन पोषण किया, इसी से तो उसके चक्र को स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय झंडे में स्थान देकर भारत सरकार भारत की जनता से उसका अभिनंदन करा रही है और उसे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रही है”।
डॉक्टर हेमचंद्र रायचौधरी ने अशोक की महानता को कुछ इस प्रकार लिखा कि-
“भारत के इतिहास में अशोक का व्यक्तित्व बड़ा ही रोचक है, उसमें चंद्रगुप्त की क्षमता, समुद्रगुप्त की प्रतिभा और अकबर की धर्म निष्ठा विद्यमान थी”।
यह सबसे महत्वपूर्ण है, कि अशोक के जीवन में कलिंग विजय के पश्चात कभी ऐसा समय ना सामना हुआ, जिसमें अशोक को युद्ध में शरीक होना पड़े। अशोक राज्य के शासन को लोक मंगलकारी और प्रजा के भौतिक जीवन को सुख समृद्धि संपन्न मात्र न करने वाला बल्कि प्रजा के जीवन का नैतिक और आध्यात्मिक स्तर को ऊंचा करने वाला बताया है।
एक सम्राट जो भारत के विशाल साम्राज्य का सबसे बड़ा शासक है, वह अपनी युद्ध यात्रा का त्याग करता है, और सबसे महत्वपूर्ण हिंसा का त्याग कर देता है। यह घोषणा आत्यायियों को कितना बल देती होगी। किंतु यह अशोक के धम्म के प्रसार का ही प्रभाव रहा होगा, कि पड़ोसी अन्य राज्यों ने भी लोक मंगलकारी कार्यों को लक्ष्य रखा ना कि युद्ध को।यही कारण होगा की अशोक की सीमाएं उसके आजीवन कलिंग विजय के बाद स्थिर रही, और वह तब जब सम्राट शस्त्रों का त्याग कर देता है, किंतु आक्रमणकारियों ने शस्त्र त्याग दिए हों ऐसा तो नहीं था। यदि अशोक कलिंग के युद्ध के बाद भी अपने राज्य की रक्षा के लिए युद्ध में आशक्त था, तो वह उसके अहिंसा के धर्म, उसके स्वयं के निभा पाने में, उसकी आजीवन पीड़ा रही होगी।
बिंदुसार के बड़े पुत्र अशोक का सिहासनारोहण कलिंग विजय और अशोक के धम्म तक की यात्रा उस काल के बेहद रोचक शासक होना दर्शाती है। अशोक ने अपने काल में कलिंग विजय के पश्चात अपनी युद्ध यात्रा को समाप्त कर धर्म यात्रा का मार्ग अनुसरण किया। उसने एक लोक मंगलकारी प्रशासन का संचालन किया। अपनी प्रजा के भौतिक सुख मात्र के सम्पन्नता के अलावा उनके आध्यात्मिक और नैतिक स्तर का उन्नयन किया।
अशोकबिंदुसार का जेष्ठ पुत्र था। उसका एक छोटा भाई विगतशोक था। इन दोनों भाइयों की मां एक ब्राह्मण कन्या जिनका नाम चंपा या सुभद्रांगी था। अशोक मगध का सम्राट होने से पूर्व शासन की अच्छी समझ रखता था। वह अपने पिता के शासनकाल में अवंती या उज्जैनी तथा तक्षशिला का गवर्नर रह चुका था।
बौद्ध धर्म की मानें तो अशोक के सिंहासनारोहण होना उसके द्वारा उसके 99 सौतेली भाइयों की हत्या का परिणाम था। अथवा यूं कहें कि अशोक ने सिंहासन के लिए अपने 99 सौतेले भाइयों की हत्या की थी। हालांकि बहुत से बुद्धिजीवी इसे कपोलकल्पित मानते हैं। किंतु एक विषय यह भी है कि अशोक का राज्यअभिषेक सिहासनारोहण के चार वर्षों पश्चात हुआ था। अतः यह तो निश्चित है, कि संघर्ष जरूर हुआ होगा और इसमें कुछ भाइयों की हत्या भी अवश्य हुई होगी।
अशोक ने सम्राट हो जाने के पश्चात सर्वप्रथम अपने पूर्वजों की भांति साम्राज्यवादी नीति अपनाकर कलिंग पर विजय की योजना बनाई, उसने अपने राज्यभिषेक के नवें वर्ष में ही कलिंग जो कि उसके साम्राज्य के दक्षिण पूर्वी हिस्से में था, और एक शक्तिशाली स्वतंत्र राज्य था, जो कि भविष्य में उसके लिए और उसके साम्राज्य के लिए खतरा बना हुआ था, उस पर विजय हासिल की।
कलिंग विजय अशोक के हृदय परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण हुआ, अशोक ने विजय यात्रा की जगह धर्म यात्राएं करना प्रारंभ कर दिया। वह कलिंग के युद्ध में हुए लाखों लोगों की हत्या और उस हिंसा के प्रभाव से अहिंसा का पुजारी हो गया।
वास्तव में कहें तो अशोक का पूर्णतः लोक मंगलकारी शासन कलिंग की विजय के पश्चात प्रारंभ होता है, जहां अशोक युद्ध यात्रा से अपने आपको पीछे खींच लेता है, और जनकल्याण के लिए धर्म के प्रचार-प्रसार में प्रयत्न प्रारंभ करता है। अशोक की शासन व्यवस्था पुरखों से चली आ रही व्यवस्था का ही ज्यों का त्यों स्वरूप रही, हां अशोक का बड़ा साम्राज्य उस समय पर पांच प्रांतों में विभक्त था, और प्रत्येक प्रांत में पूर्व की भांति एक प्रांतपति नियुक्त किया जाता था।
अशोक के समय और उसके शासन का महत्वपूर्ण ज्ञान के साधन उसके द्वारा खुदवाय गए शिलालेख और स्तंभ हैं। अशोक ने अपने राजधानी में पशु हत्या पर निषेध कर दिया था। प्रारंभ में अशोक को हिंसा से परहेज न था। अध्ययन में यह भी है, कि अशोक के रसोई में प्रतिदिन पशुओं की हत्या होती थी। वह युद्ध प्रिया भी था। इससे यह अनुमान लगाया जाता है, कि प्रारंभ में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयाई रहा। जिसका अनुसरण उसने कलिंग विजय तक किया।
कलिंग विजय के पश्चात अशोक का दया भाव जागृत होता है। वह स्वयं को परिवर्तित करता है। उसने उन सब उत्सव समारोह को बंद करा दिया, जहां मांस, मदिरा, नाच-गाना आदि का प्रयोग होता था। आनंद-यात्राओं के स्थान पर उसने धर्म-यात्राओं का प्रचलन प्रारंभ किया। उसने प्रजा तक धर्म के प्रसार के लिए और उनके नैतिक और आध्यात्मिक उन्नयन के लिए “धर्म महामात्र” तथा “प्रादेशिक” नाम के कर्मचारी नियुक्त किए थे, जो घूम घूम कर प्रजा में धर्म के प्रसार का कार्य करते थे।
अशोक में दया भाव इस कदर हो चला था, कि केवल मानव नहीं बल्कि उसने पशु पक्षियों की भी सेवा की। उसने मनुष्यों के साथ-साथ पशु पक्षियों के लिए भी ओषधालय बनवाएं।
अशोक स्वयं को परिवर्तित करने का निश्चय कर चुका था। उसने बौद्ध धर्म के प्रसार में भी बौद्ध धर्म के अनुयायियों का सहयोग किया। उसने अनेक बौद्ध मठों की स्थापना की भिक्षुओं को घूम-घूम कर इस धर्म के प्रसार के लिए प्रोत्साहित किया। अशोक ने भगवान बुद्ध के जीवन के संबंध रखने वाले उन सभी स्थानों पर विचरण किया। अशोक के काल में तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन पाटलिपुत्र में हुआ। और उसने इस सभा के माध्यम से बौद्ध धर्म में हुए आपसी मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न किया।
अशोक ने अपना एक धर्म का प्रसार किया। जिसे “अशोक के धम्म” के नाम से प्रसिद्ध मिली यह सभी धर्मों के अच्छी बातों के लिए था, और मनुष्य तथा अन्य सभी प्राणियों के उत्थान पर केंद्रित है। अशोक अपने धर्म कि शिक्षा प्रजा तक पहुंचाने से पूर्व स्वयं उस धर्म का अनुसरण करता था। या यूं कहें, कि स्वयं अशोक भिक्षु हो चुका था। जीवन भर उसने मांस खाना, शिकार खेलना, नाच देखना, जैसी राजसी विलासिता से दूरी बनाए रखी, और स्वयं के धर्ममय जीवन से आवाम को एक सुंदर संदेश दिया।
अशोक ने अपने धर्म के प्रचार प्रसार में कोई कसर न छोड़ी उसने अपनी धार्मिक शिक्षाओं को स्तंभों तथा शिलाओं पर खुदवाया उसने अपने धर्म के प्रसार को मात्र अपने राज्य की सीमा तक सीमित ना रखा, बल्कि अपने धर्म के प्रचार के लिए अनुयायियों को वर्मा, तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, तथा पूर्वी द्वीप समूह में भेजा। इतना ही नहीं उसने अपने पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा को धर्म के प्रसार के उद्देश्य से लंका भेजा।
कलिंग की हिंसा अशोक के जीवन को हिंसा के पथ से किस दिशा में ले आती है। अशोक का हृदय परिवर्तन उसके जीवन को अत्यधिक रोचक प्रस्तुत करती है।
इसी से आगे बढ़ते हुए, महान शासक अशोक के विषय में अन्य पोस्ट भी अपलोड की गई हैं, जो भारतीय प्राचीन इतिहास में मौर्यों के संबंध में आपकी जानकारी में इजाफा करेगा। मौर्यसाम्राज्य पर क्रमवार पोस्ट अपलोड की गई हैं जिन्हें आप विजिट कर सकते हैं।
चंद्रगुप्त मौर्य ने 298 ईसा पूर्व अपने पुत्र बिंदुसार के हाथों में मगध के विशाल साम्राज्य को सौंप कर स्वयं संयास ले लिया। बिंदुसार अपने पिता की भांति साम्राज्यवादी नीति के अनुरूप चलकर मगध के साम्राज्य को और अधिक विस्तारित तो नहीं कर सका, किंतु उसने अपने साम्राज्य में शासन का सफलता से संचालन किया।
बिंदुसार के काल में तक्षशिला में एक विद्रोह हुआ था, अध्ययन में आता है, उस विद्रोह को बिंदुसार के बड़े पुत्र अशोक ने शांत किया था। विदेशियों के साथ बिंदुसार के संबंध बेहद अच्छे थे। यूनानीयों के साथ उसके अच्छे संपर्क थे। इसलिए व्यापार में अच्छी वृद्धि हुई। अतः यह कहना उचित है, कि बिंदुसार एक कुशल प्रशासक था।
273 ईसा पूर्व में बिंदुसार परलोक सिधार गया, और यहीं आरंभ होता है, अशोक।
चंद्रगुप्त मौर्य एक महान नेता और विजेता रहा उसने 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस निकेटर से अपने जीवन में आखिरी युद्ध लड़ा, वह अपने साम्राज्य का विस्तार हिंदूकुश से बंगाल और हिमालय से नर्मदा नदी तक कर पाने में सफल रहा।
चंद्रगुप्त मौर्य के पास अपनी विजय यात्रा में शानदार सुसंगठित चतुरंगी सेना थी। सेना का प्रधान स्वयं सम्राट होता था। वह युद्ध के दौरान रण क्षेत्र में होता था। सेना का संपूर्ण प्रबंध 30 सदस्यों की एक परिषद के पास होता था। यह परिषद 6 समितियों में विभक्त होती, जिस हर समिति में 5 सदस्य हुआ करते थे। एक समिति पैदल सेना के लिए, दूसरी समिति अश्व रोहियों के लिए, तीसरी समिति रथ सेना के लिए, चौथी समिति हस्ति सेना के लिए, पांचवी समिति जल सेना के लिए और छठी समिति रसद रण क्षेत्र तक पहुंचाने वाली सेना के लिए प्रबंधक थी। सेना में चिकित्सा विभाग भी होता था। अस्त्र शास्त्र के निर्माण के लिए सरकारी कार्यालय हुआ करते थे। चंद्रगुप्त की यह सेना स्थाई हुआ करती थी, और राज्य से सीधे वेतन पाती थी।
इतने बड़े साम्राज्य में सेना का प्रबंध, वेतनभोगियों और लोक मंगलकारी कार्यों को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए आय के बड़े साधन की आवश्यकता थी। उस वक्त पर राज्य की आय का प्रमुख साधन भू कर था। किसानों की उपज का चौथा भाग और कभी कबार आठवां भाग सरकार को प्राप्त होता था। नगर में वस्तुओं पर विक्रय मूल्य का दसवां भाग राज्य को कर के तौर पर जाता था। इसके अतिरिक्त जुर्माना इत्यादि से भी राज्य की कुछ आए हो जाती थी।
चंद्रगुप्त का शासन विशाल था, अतः साम्राज्य को सुविधा के लिए उसने अनेक प्रांतों में विभक्त किया था। जो प्रांत अधिक महत्व के होते थे, वहां राजकुमारों को “प्रांतपति” के तौर पर नियुक्त किया जाता था। उन्हें “कुमार महामात्य” कहा जाता था। अन्य प्रांतों में प्रांतपति “राजुक” कहलाते थे। इन सब पर सम्राट की तीव्र दृष्टि होती थी। अपनी गुप्तचरों के माध्यम से सम्राट इनकी हर सूचना को प्राप्त करता था। प्रांतों में शांति और व्यवस्था बनाए रखना, इनका मुख्य कर्तव्य था, और इसे लेकर यह सम्राट के प्रति सीधे उत्तरदाई हुआ करते थे।
चंद्रगुप्त मौर्य के काल में स्थानीय प्रशासन का ज्ञान मेगस्थनीज की पुस्तक इंडिका से होता है। गांव शासन की सबसे छोटी इकाई होती है। उस समय पर उसका प्रबंधक “ग्रामिक” होता था। जो कि ग्राम वासियों द्वारा ही चुना जाता था। वह अवैतन कार्य करता था। हालांकि वह यह कार्य गांव के अन्या अनुभवी लोगों के परामर्श से करता था। हर गांव में एक राज कर्मचारी भी हुआ करता था। जिसे “ग्रामभोजक” कहते थे। पांच से दस गांव जिसके प्रबंधन में रहते थे, वह “गोप” कहलाता था, और गोप के ऊपर “स्थानिक” होता था, जिसके अनुशासन में आठ सौ गांव आते थ, और अंत में “समाहर्ता” होता था, जो कि पूरे जनपद का प्रबंधन करता था।
नगरों में प्रधान नगराध्यक्ष कहलाता था, नगर का प्रबंध समितियों के द्वारा होता था। इसके लिए छह समितियां हुआ करती थी, प्रत्येक समिति में वही पांच सदस्य हुआ करते थे। इन समितियों को अलग-अलग प्रमुख विषय दिए गए थे।
यदि यूं कहें कि चंद्रगुप्त मौर्य उस काल के पश्चात भारत में आने वाले बड़े शासकों के लिए एक पथ प्रदर्शक हुआ, तो गलत नहीं होगा। वह एक महान नेता और योद्धा भी था। इतने बड़े साम्राज्य को संगठित कर अनुशासन में रख संचालित कर सकने वाला वह हिंदुस्तान का एक सफल शासक रहा।
जैनियों की मानें तो चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म के अनुयाई हो गए थे। अपने जीवन के अंतिम दौर में उन्होंने राज पाठ धन वैभव को त्याग दिया। अपने जीवन के 24 वर्षों तक सफलता से शासन करने के पश्चात 298 ईसा पूर्व अपने राजकाज को अपने पुत्र बिंदुसार को सोंप कर स्वयं संन्यास ले लिया। अध्ययन में है, कि वह कर्नाटक के पर्वतों की ओर चला गया, और एक सच्चे जैनी की भांति अनशन कर अपने जीवन को समाप्त कर दिया।
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