
चंद्रगुप्त मौर्य एक महान नेता और विजेता रहा उसने 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस निकेटर से अपने जीवन में आखिरी युद्ध लड़ा, वह अपने साम्राज्य का विस्तार हिंदूकुश से बंगाल और हिमालय से नर्मदा नदी तक कर पाने में सफल रहा।
चंद्रगुप्त मौर्य के पास अपनी विजय यात्रा में शानदार सुसंगठित चतुरंगी सेना थी। सेना का प्रधान स्वयं सम्राट होता था। वह युद्ध के दौरान रण क्षेत्र में होता था। सेना का संपूर्ण प्रबंध 30 सदस्यों की एक परिषद के पास होता था। यह परिषद 6 समितियों में विभक्त होती, जिस हर समिति में 5 सदस्य हुआ करते थे। एक समिति पैदल सेना के लिए, दूसरी समिति अश्व रोहियों के लिए, तीसरी समिति रथ सेना के लिए, चौथी समिति हस्ति सेना के लिए, पांचवी समिति जल सेना के लिए और छठी समिति रसद रण क्षेत्र तक पहुंचाने वाली सेना के लिए प्रबंधक थी। सेना में चिकित्सा विभाग भी होता था। अस्त्र शास्त्र के निर्माण के लिए सरकारी कार्यालय हुआ करते थे। चंद्रगुप्त की यह सेना स्थाई हुआ करती थी, और राज्य से सीधे वेतन पाती थी।
इतने बड़े साम्राज्य में सेना का प्रबंध, वेतनभोगियों और लोक मंगलकारी कार्यों को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए आय के बड़े साधन की आवश्यकता थी। उस वक्त पर राज्य की आय का प्रमुख साधन भू कर था। किसानों की उपज का चौथा भाग और कभी कबार आठवां भाग सरकार को प्राप्त होता था। नगर में वस्तुओं पर विक्रय मूल्य का दसवां भाग राज्य को कर के तौर पर जाता था। इसके अतिरिक्त जुर्माना इत्यादि से भी राज्य की कुछ आए हो जाती थी।
चंद्रगुप्त का शासन विशाल था, अतः साम्राज्य को सुविधा के लिए उसने अनेक प्रांतों में विभक्त किया था। जो प्रांत अधिक महत्व के होते थे, वहां राजकुमारों को “प्रांतपति” के तौर पर नियुक्त किया जाता था। उन्हें “कुमार महामात्य” कहा जाता था। अन्य प्रांतों में प्रांतपति “राजुक” कहलाते थे। इन सब पर सम्राट की तीव्र दृष्टि होती थी। अपनी गुप्तचरों के माध्यम से सम्राट इनकी हर सूचना को प्राप्त करता था। प्रांतों में शांति और व्यवस्था बनाए रखना, इनका मुख्य कर्तव्य था, और इसे लेकर यह सम्राट के प्रति सीधे उत्तरदाई हुआ करते थे।
चंद्रगुप्त मौर्य के काल में स्थानीय प्रशासन का ज्ञान मेगस्थनीज की पुस्तक इंडिका से होता है। गांव शासन की सबसे छोटी इकाई होती है। उस समय पर उसका प्रबंधक “ग्रामिक” होता था। जो कि ग्राम वासियों द्वारा ही चुना जाता था। वह अवैतन कार्य करता था। हालांकि वह यह कार्य गांव के अन्या अनुभवी लोगों के परामर्श से करता था। हर गांव में एक राज कर्मचारी भी हुआ करता था। जिसे “ग्रामभोजक” कहते थे। पांच से दस गांव जिसके प्रबंधन में रहते थे, वह “गोप” कहलाता था, और गोप के ऊपर “स्थानिक” होता था, जिसके अनुशासन में आठ सौ गांव आते थ, और अंत में “समाहर्ता” होता था, जो कि पूरे जनपद का प्रबंधन करता था।
नगरों में प्रधान नगराध्यक्ष कहलाता था, नगर का प्रबंध समितियों के द्वारा होता था। इसके लिए छह समितियां हुआ करती थी, प्रत्येक समिति में वही पांच सदस्य हुआ करते थे। इन समितियों को अलग-अलग प्रमुख विषय दिए गए थे।
यदि यूं कहें कि चंद्रगुप्त मौर्य उस काल के पश्चात भारत में आने वाले बड़े शासकों के लिए एक पथ प्रदर्शक हुआ, तो गलत नहीं होगा। वह एक महान नेता और योद्धा भी था। इतने बड़े साम्राज्य को संगठित कर अनुशासन में रख संचालित कर सकने वाला वह हिंदुस्तान का एक सफल शासक रहा।
जैनियों की मानें तो चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म के अनुयाई हो गए थे। अपने जीवन के अंतिम दौर में उन्होंने राज पाठ धन वैभव को त्याग दिया। अपने जीवन के 24 वर्षों तक सफलता से शासन करने के पश्चात 298 ईसा पूर्व अपने राजकाज को अपने पुत्र बिंदुसार को सोंप कर स्वयं संन्यास ले लिया। अध्ययन में है, कि वह कर्नाटक के पर्वतों की ओर चला गया, और एक सच्चे जैनी की भांति अनशन कर अपने जीवन को समाप्त कर दिया।
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