सोमवार, 2 सितंबर 2024

2 Oct 1994 | रामपुर तिराहा कांड

फोटो स्त्रोत- https://images.app.goo.gl/LozKsV6fNdyRVqai8

सन 2003 में लेखक निर्माता अनुज जोशी जी के निर्देशन में एक फिल्म “तेरी सौ” बनाई गई जो कि उत्तरांचल अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन पर आधारित है। फिल्म में सक्षम जुयाल और पूजा रावत मुख्य पात्र नाम क्रम से मानव और मानसी हैं। जो डीएवी कॉलेज देहरादून के छात्र होते हैं। मानव उत्तराखंड आंदोलन में सेलाकुई के शहीद 15 वर्षीय सत्येंद्र चौहान के चचेरे बड़े भाई की भूमिका में होते हैं। 

डीएवी कॉलेज देहरादून तब छात्र एकता में उत्तराखंड आंदोलनकारियों का गढ़ हुआ करता था। डीएवी पीजी कॉलेज के छात्र दबंग माने जाते थे। हालांकि मानव और उसके साथियों का गांधीवादी विचार और शांतिपूर्ण ढंग से राज्य आंदोलन को आगे बढ़ाने वाला दिखाया गया है। मदन डुकलान जी के लिखे गीतों ने फिल्म को अधिक खूबसूरत बना दिया। फिल्म के गीत “मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़”,  “ले मशाले चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरी गांव के”,  “गढ़वाली अंताक्षरी”,  “तेरी सौं”, धार मा सी जून मुखड़ी च तेरी”,  “सौं उठोला कठ्ठा होला चला दिल्ली जोंला गढ कुमों द्वी हाथ बोटी हक अपड़ो ल्योला”,  “हक का बाना ह्वे गीं शहीद हमरा लाल देखी ल्या”,  “आंदी जांदी सांस छै तू  मेरा ज्यूणा की आश छै तू”।

जुयाल इस फिल्म में डीएवी छात्र के रूप में काफी रोचक पात्र है। उसका हर लब्ज गढ़वाली बोली और टोन में है। उसकी एक प्रेमिका भी है। मानव को जो लड़की पसंद होगी, वह पहले तो गढ़वाली बोल सकने वाली हो, गांव में रह सके, कॉलेज की पढ़ी लिखी, और घास भी काट सके।

मानव गांधीवादी विचारों को अनुसरण करने वाला छात्र हैं, वह आतंकवाद पर कहता है, कि हथियार उठाने वाला कैसा बुद्धिजीवी वह तो देशद्रोही है।

1 और 2 सितंबर 1994 के वे दिन जब खटीमा और मसूरी में आंदोलनकारियों के प्रदर्शन को गोलियों से शांत करने की कोशिश की गई, शहीदों के रक्त ने ऐसा मानो कि पूरे उत्तराखंड को बलिदान हो सकने का बल दे दिया हो। सारे उत्तराखंड में हड़ताल प्रदर्शन स्कूलों से कॉलेजों तक संस्थान बंद कर सड़कों पर भीड़ जमा होने का दौर था। अब आंदोलनकारी राज्य की आवाज दिल्ली तक प्रखर करने को स्वयं वहां पहुंचकर प्रदर्शन की योजना में थे। दिन तय किया गया। छात्रों ने भीड़ जुटाने का जिम्मा अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग गुटों में सौंप दिया। सर्वाधिक महत्वपूर्ण कि आंदोलन हर बूढ़े, बच्चे, जवान, पुरुष हो या महिला की मजबूत भागीदारी लिए था।

30 सितंबर 1994 को मेरठ मंडल के कमिश्नर साहब ने हरिद्वार, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और मेरठ के जिलाधिकारियों को दिल्ली जाने वाली बसों की चेकिंग के निर्देश दिए। 2 अक्टूबर को पर्वतीय शक्ति ने दिल्ली में प्रदर्शन की दिनांक तय की थी। कमिश्नर का निर्देश था, कि जितना हो सके बसों से आंदोलनकारियों को मना कर वापस रवाना किया जाए। जो अधिक जिद पर अड़े रहे तो उन्हें जाने दिया

जाए। किंतु इन सब में सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्देश जो रिकॉर्ड दर्ज है, मेरठ रेंज के डीआईजी बुआ सिंह जिन्होंने हरिद्वार मुजफ्फरनगर सहारनपुर पुलिस अधीक्षकों को किसी भी कीमत पर आंदोलनकारियों को रोकने गिरफ्तार करने के आदेश जारी किए। 

वह आदेश यूं कहें कि उस दिवस को उत्तराखंड के संपूर्ण इतिहास में काला कर देते हैं। पुलिस को उस समय पर गढवाल से आने वाले बसों और उनमें सवार आंदोलनकारियों पर विशेष ध्यान था। विशेषकर देहरादून से निकले आंदोलनकारियों पर रोक पुलिस की पहली कोशिश थी। क्योंकि देहरादून आंदोलनकारियों का केंद्र हो चुका था।

गढ़वाल से दिल्ली जाने के लिए मार्ग हरिद्वार से सहारनपुर होकर था, और वही कुमाऊं से जाने वाला मार्ग बिजनौर और बरेली से होकर था। पुलिस और प्रशासन का मुख्य ध्यान गढवाल वालों को काबू करना था। उस दिन परेड ग्राउंड में बसों की बड़ी संख्या और उनमें लोगों की हजारों की संख्या में ऐसे जमावड़ा लग गया था, कि जैसे सारे उत्तराखंड का मानव जीवन वहीं आकर रुक गया हो।

चमोली और उत्तरकाशी से बस ठीक समय पर निकल गई थी। किंतु देहरादून से दिल्ली उतना दूर नहीं यह सोचकर देहरादून से बसें शाम को रवाना होती हैं। जब तक कि चमोली और उत्तरकाशी की बसें हरिद्वार पार कर मुजफ्फरनगर की ओर निकल चुकी थी।

बहादराबाद और मोहन पुलिस चौकी पर आंदोलनकारियों को रोक की अड़चन झेलनी पड़ी। ऋषिकेश-हरिद्वार दिल्ली मार्ग पर बहादराबाद पुलिस चौकी के रोक ने डेढ-दो किलोमीटर की लाइन में बसों को जमा कर दिया। एक भारी पुलिस बल के बावजूद आंदोलनकारियों का विशाल जत्था रोक पाना नामुमकिन था। रास्ता खोल दिया गया, और आंदोलनकारी अपनी राह पर पर चल पड़े।

देहरादून-दिल्ली मार्ग पर मोहन पुलिस चौकी पर से कुछ बसों का वापस भेजा जा चुका था, किंतु वह भी पीछे से आ रहे जत्थे के साथ हो लिए। पचास से अधिक बसें और उनमें सवार तीन हजार से अधिक आंदोलनकारी जिसमें डीएवी के छात्रों का बड़ा समूह, अन्य आंदोलनकारियों का समूह दिल्ली को रवाना हुआ था। बैरियर तोड़ दिए गए और पुलिस की मौजूदगी को नाकाम कर दिया गया।


पुलिस ने मोहन और हरिद्वार से निकल चुके आंदोलनकारियों को नारसन में रोकने का पुख्ता इंतजाम कर लिया। किंतु नारसन में हरिद्वार और देहरादून दोनों मार्गों से पहुंचे आंदोलनकारियों का विशाल जत्था जमा हो गया, लगभग डेढ़ सौ से अधिक बसों मैं हजारों आंदोलनकारी और जमा कर दिया, पुलिस ने आगे की बसों के शीशे तोड़ दिए, आंदोलनकारी छात्रों से अभद्रता पर पुलिस पर पथराव प्रारंभ हो गया, वहीं कुछ अज्ञातों ने खड़ी बसों और ट्रकों को आग लगा दी, वह यूपी पुलिस के ही जवान थे। छात्रों और अन्य आंदोलनकारियों ने लगभग 200 पुलिस सिपाहियों पर पथराव किया, और उन्हें वहां से दौड़ा कर भागने को मजबूर कर दिया। पुलिस को काफिला रोक पाना संभव नहीं था।

काफिला आगे बढ़ता रहा, किंतु अगले ही नाके पर फिर पुलिस की कोशिश जो आंदोलनकारियों को कैसे भी कम से कम संख्या में प्रदर्शन तक पहुंचाने की थी, को लेकर इंतजाम किया गया। जिसमें रोक लगाई गई, और कहा गया कि इतनी बसें एक साथ नहीं जा सकती।  चार चार कर बसें आगे निकलेंगी। चमोली की बसें पहले मुजफ्फर के पहले के तिराहे पर जा पहुंची। यह तिराहा उत्तराखंड को अहिंसा दिवस पर राजनीति और प्रशासन का सबसे घृणित चेहरा दिखाने वाला था।

तिराहे पर पहले पहुंची बसों में पुलिस ने घुसकर भीतर बैठे पुरुषों जिन में भूतपूर्व सैनिक और अन्य आंदोलनकारियों पर लाठियां बरसानी प्रारंभ कर दी। बड़े पुलिस बल के चलते आंदोलनकारियों ने जाकर गन्ने के खेतों में शरण ली। बसों में शेष बची महिलाओं और युवतीयों जिन्हें सुनसान जगह पर ले जाकर अभद्रता की गई, उनके कपड़े फाड़ दिए गए। यह रात के अंधेरे में कितना निरंकुश और बर्बर है, जहां पुलिस की पोशाक में मानव तो नहीं है।


पीछे की बसों को अब रोक पाना मुश्किल हो रहा था, जब वह रामपुर तिराहे पर आ पहुंचे तो तीन सौ बसों का विशाल जमावड़ा वहां जनसैलाब ले आया। रात्रि का चौथा पहर था। अंधेरा बहुत था।

तेरी सौं फिल्म दिखाती है, कि जब मानव और उसके साथियों की बस रुक जाती है, तो मानव बस की छत में चढ़कर आगे जाम का कारण देखने की कोशिश करता है, तो मालूम चलता है कि आगे बहुत सारे छात्र आंदोलनकारी पथराव कर रहे हैं। मानव अपने साथियों के साथ उन लोगों तक पहुंचता है, और एक को चिल्लाकर कहता है,  “तुम पथराव क्यों कर रहे हो तुम पागल हो गए हो क्या”  तब वह छात्र जवाब देता है,  “हां मैं पागल हो गया हूं क्योंकि पुलिस हमारी पर्वतीय महिलाओं को उठाकर ले गई है”। मानव को इस बात पर विश्वास नहीं होता है।

क्योंकि रात के अंधेरे में आंदोलनकारियों को सारी घटना के विषय में कुछ समझ नहीं आता है। कुछ को घटना मालूम ही नहीं हो पाती है। किंतु सुबह हुई और घायल हुए आंदोलनकारी अब मिलने लगे रात को हुई घटना अब आग की तरह सभी आंदोलनकारियों में फैलने लगी। महिलाओं और युवतियों को जिनके साथ अभद्रता हुई जिनके कपड़े फाड़ दिए गए स्थानीय लोगों ने उन्हें वस्त्र दिए जो सुबह सब कुछ जान कर मदद करते हैं।

यह सब जानकर छात्रों का बड़ा जत्था अब पुलिस पर टूट पड़ा। साढे छः बजे का समय और छात्रों पर आंसू गैस के गोले दागे जाने लगे। आंदोलनकारी धैर्य खो चुके थे। लगभग छः बजकर पचास मिनट पर वहां बिना चेतावनी गोलियां चलनी आरंभ हो गई। पहाड़ी लोगों के लिए लोकतंत्र का यही न्याय था, जिसके चलते उनके साथ दागी गई बंदूक की गोलियों से पेश आया गया। उस फायरिंग ने राजेश लखेरा, रविंद्र रावत, गिरीश भत्री, बलवंत सिंह, सूर्य प्रकाश तपड़ियाल  की जान ले ली, घायल अशोक कौशिक जिन्हें चंडीगढ़ पीजीआई में भर्ती कराया गया, उनका वहीं देहांत हो गया। बंदूक से निकलती बेजान गोलियां और लाठियां पीड़ा का एहसास कर रही हैं, किंतु उन्हें थामे मानव के सेवकों के हाथ नहीं कांपे। वहीं विकास नगर की बस में 15 साल के सेलाकुई के सत्येंद्र चौहान भी थे, जब पुलिस और आंदोलनकारियों के टकराव में झुककर पत्थर उठा रहे थे, तभी पुलिस की गोली विकास नगर के ही विजय पाल सिंह रावत के पैर को भेदती हुए सीधे जाकर सतेंद्र के सिर पर लगी। वे शहीद हो गए। यह कितना भावुक कर देने वाला है।

यह दहशत की काली रात के बाद की सुबह थी। अहिंसा का दिन। जिन औरतों की आबरू पर हाथ डाला गया और जिन हाथों का यह घिनौना कृत्य था, उनके विरोध में उठे स्वरों को हमेशा के लिए दबा दिया गया। फिल्म में दिखाया गया है, कि जब मानव सुबह अपने साथियों से अपने भाई के विषय में पूछता है। वह उसे बताते हैं, कि मैंने उसे देखा है, और वह अपने गांव के लोगों के साथ ही है। किंतु मानसी का कोई पता नहीं।

इस घटना के दौरान आंदोलनकारी अपने घायल साथियों को रुड़की के अस्पताल के लिए रवाना कर रहे थे। हजारों लोग जख्मी हो गए। जब रुड़की में घायलों की बड़ी संख्या पहुंचने लगी। और यह देख कर रुड़की के स्थानीय पर्वतीय लोगों ने पुलिस थाने पर धावा बोल दिया। पुलिस थाना छोड़कर भागने लगी। चश्मदीद कहते हैं, कि घायलों की बड़ी संख्या वहां अस्पताल में दर्द से कराह रही थी, स्थानीय पर्वतीय गढ़वाली कुमाऊनी महिलाएं उनके घावों को सहला रहीं थी।

जब रुड़की के अस्पतालों में बड़ी भीड़ जमा होने लगी, तो एसडीएम श्रीवास्तव ने यह आदेश दिया कि लोगों को हटाया जाए, और एक और निरंकुश हुकुम जो कि उन पर लाठीचार्ज तक कर देने का था, कितनी अमानवीय को प्रस्तुत करता है। वहां खड़े एक गढ़वाल राइफल के जवान जो छुट्टी पर घर थे, ने यह सुना उन्होंने अपनी बेल्ट उतारकर एसडीएम श्रीवास्तव की वहीं जमकर पिटाई कर दी, और कहते रहे कि तुम लोगों ने हमारी जान मसूरी, खटीमा और रामपुर तिराहे पर ली है, अब अस्पताल में भी हमारी जान लोगे। एसडीएम श्रीवास्तव मदद के लिए चिल्लाता रहा। किंतु पुलिस के किसी एक सिपाही की इतनी हिम्मत ना हो सकी, की वह कदम आगे बढ़ाए।


राजनेता और प्रशासन एक ओर था, आंदोलनकारी पहाड़ियों को मानव भी नहीं समझा गया। थानाध्यक्ष चपार राजवीर सिंह और थानाध्यक्ष पुरकाजी दाताराम ने डॉक्टर प्रीतम सिंह से मिलकर ऑपरेशन के दौरान घायल सिपाहियों में छर्रे भीतर लगावा दिए। ताकि आंदोलनकारियों पर आरोप लगाया जा सके, कि उन्होंने गोलियां दागी है। राजनेताओं का एक कर्तव्य जवाबदेही उनसे क्या नहीं करवाती यहां स्पष्ट है।

इस घटना ने आंदोलनकारियों को वही जमा कर दिया, तिराहे पर हजारों आंदोलनकारी धरने पर बैठ गए। बीस हजार से अधिक गढ़वाली लोग वहां उपस्थित थे। वह सुबह से भूखे प्यासे किंतु आसपास के लोगों ने मदद की घायल लोगों और आंदोलनकारियों के लिए कई ट्रैक्टर भरकर भोजन उपलब्ध करवाया। देहरादून तक जैसे खबर पहुंची, पुलिस थानों को आग के हवाले कर दिया गया। पूरे उत्तराखंड में आग लगाकर और पुलिस का विरोध प्रारंभ हो गया। 3 अक्टूबर 1994 का दिन देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार, श्रीनगर, उखीमठ, गोपेश्वर, देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, में कर्फ्यू का ऐलान था। किंतु यह मात्र ऐलान तक सीमित था, सड़कों पर आंदोलनकारियों कि कोई रोक नहीं थी। पुलिस नदारद थी। जब पुलिस चौकियों को आग के हवाले कर देने का सारे उत्तराखंड में जैसे मुहिम चल पड़ी, तो पुलिस ने कई जगहों पर गोलियां चलाई। फायरिंग में शहादत रामपुर तिराहे तक सिमट नहीं गई थी। बल्कि देहरादून में फायरिंग से राजेश रावत और दीपक वालिया शहीद हो गए। कोटद्वार में पृथ्वी सिंह बिष्ट और राकेश देवरानी शहादत को प्राप्त हुए नैनीताल में प्रताप सिंह बिष्ट शहीद हो गए। यह शहादत केवल उत्तराखंडयों के भविष्य के लिए थी, क्योंकि लोकतंत्र और प्रशासन तो दुश्मन होकर गोलियां दाग रहा था।


मुलायम सिंह प्रशासन का तो यह तक बयान था, कि रात सुनसान जगह महिला बाहर होगी, तो रेप होगा। 2006 में बुआ सिंह को उत्तर प्रदेश का पुलिस महानिदेशक बनाया गया, और उत्तराखंड जैसे सब कुछ भूल गया। ऐसा प्रतीत होता है, कि उत्तराखंड हमें भेंट में मिला हो, हमें यह तय करना था, कि उत्तराखंड शहादत का फल है, और उस शहादत के कारक कैसे जीवन में उपलब्धियां हासिल किए, कैसे सामान्य जीवन जिये। उस शहादत का अंजाम सब कुछ भूलना तो नहीं।

तत्कालीन मुख्यमंत्री के इस बयान का भी तेरी सो फिल्म में जिक्र है, कि मैं उनकी चिंता क्यों करूं, उन्होंने मुझे दिया ही क्या है, सिर्फ एक विधायक।

मानव अपने भाई की शहादत के बाद अपने मूल विचार से डगमगा जाता है। जब उसका साथी पत्रकार बडोला उससे पूछता है, कि मानव यह हथियार तुम्हें किसने दिए, वह कौन था, क्या तुम उसे जानते हो। मानव जवाब में ना कहता है। तो बडोला उसे कहता है, कि वह हथियार तुम्हें देशद्रोही ने दिए हैं, और हमारा रास्ता हथियार नहीं है। तब मानव कहता है, देश, लोकतंत्र सब छलावा है। बडोला अब मानव का साथ छोड़ देता है। क्योंकि वह आज भी शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर विश्वास रखता है।

फिल्म का एकमात्र फाइट सीन जब मानव एक पुलिस कर्मचारी जम्बू सिंह को अपने साथियों के साथ मिलकर पीटता है। मानव के स्थितियों के साथ बदले विचारों को दर्शाता है।

जब मानव को प्रोफ़ेसर पाठक अपने यहां बुलाते हैं, उससे उसकी योजना के विषय में जानने के लिए, तो प्रोफेसरों उसे समझाते हैं, उससे सवाल करते हैं, कि तुम्हें इस काम के लिए एक बड़ा ग्रुप जोड़ना होगा, तुम पचास, साठ लोग जोड़ोगे किंतु इकसठवें के विषय में तुम्हारी क्या राय है, क्या तुम मुझे वचन दे सकते हो, कि वह इकसठवां आदमी तुम्हारे दिए हथियार का दुरुपयोग नहीं करेगा, निर्दोष का शोषण नहीं करेगा, अबला की इज्जत नहीं लूटेगा। डाकुओं का ग्रुप गिरोह तुम्हारे एसोसिएशन के नाम पर किसी को फिरौती के लिए नहीं उठाएगा। यदि तुम मुझे वचन दे सकते हो, तो हां मैं प्रोफेसर पाठक तुम्हारे साथ सबसे पहले हथियार उठा लूंगा। 

मानसी भी मानव को उसके बदले हुए विचार को लेकर समझाती है। वह उसे भी औरों की तरह एक ऐसा पुरुष बताती है, जो सोचता है, कि महिलाओं पर हुए जुल्म का बदला सिर्फ पुरुष ले सकता है, वह उसे पुरुष प्रधान समाज का एक तत्व बताती है।

आखिर में मानव सत्याग्रह मार्ग पर होता है। वह हथियार उठाता है, किंतु वार नहीं कर पाता। उसे एहसास होता है। कि हथियार से लड़ी लड़ाई कभी खत्म नहीं होती। मेरी एक गोली दागना कल मेरे समाज में उनकी दस गोलियां दागना लेकर आएगी।।

बुधवार, 15 नवंबर 2023

वर्ल्ड क्रिकेट सेमीफाइनल IND vs NZ | विशेष लेख

वर्ल्ड क्रिकेट सेमीफाइनल IND vs NZ

भारतीय क्रिकेट टीम वानखेड़े स्टेडियम की ओर रवाना हो रही है। हर चेहरा कितना मशहूर है, और खुश भी। वह सब कितने शानदार और सुंदर हैं। लेकिन उन्हीं चेहरों के पीछे जिम्मेदारियां का कितना भार है, अगर उनमें कोई उस भार को महसूस करने लगा हो तो अवश्य ही वह छुपाते छुपाते भी ना छुपा सकेगा।

संपूर्ण भारत क्रिकेट का विशाल स्टेडियम है। तमाम विषयों में रुचि रखने वाले भारतीय, क्रिकेट के लिए विशेष रूप से समर्पित हैं। इसका प्रमाण है, दुनिया के किसी मैदान में क्रिकेट के लिए, भारतीय टीम के समर्थन के लिए भारतीयों की संख्या। यह हमेशा से गौर करने वाली है।

हर भारतीय खिलाड़ी उस संख्या का सीधा भरवाहक है। वह हर खिलाड़ी जो क्रिकेट के लिए मशहूर है, जो भारतीय टीम का हिस्सा है, उसका स्वप्न है यह एक मैच खेलना, इस मैच में जीत की वजह बनना। नये खिलाड़ियों के लिए तो बड़ी चुनौती है और बाकी जो चेहरा जितना मशहूर उतनी आशाओं का वाहक।

मैं उन्हीं चेहरों को पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिन्हें भारत के लिए आज मैदान पर उतरना है। लेकिन आप वहां केवल सहजता और वैल कम्फर्ट पाएंगे, और यही है जो उन्हें भारतीय टीम का हिस्सा बनाता है। वह हर खिलाड़ी हमेशा की तरह है, क्योंकि वह जिन रास्तों को पार कर यहां पहुंचे हैं, वहां वे उन सब भावों को छोड़ आए हैं। इसलिए एक सामान्य व्यक्ति की तरह इस मैच की अहमियत उनके मैदान पर प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करेगी, और ना ही उनके चेहरे के भावों को।

यह हार्ड प्रेशर नॉकआउट मैच आपको प्रभावित नहीं करता। आप हमेशा की तरह ही खेलना चाहते हैं। मैदान पर उतरने के बाद तुरंत ही रोहित शर्मा के दो चौकों ने साफ कर दिया कि हम जहां हैं वह क्रिकेट की सर्वोत्तम स्थित है, और हम तैयार हैं…

अमोल पालेकर | फिल्म अपने पराये से

अमोल पालेकर


सादगी और केवल सादगी असल में अमोल पालेकर ने यही तो पेश किया है। अपनी लगभग हर फिल्म एक आदर्श गुणी पुरुष की भांति ही दिखे हैं। इन्हें नेक्स्ट डुअर पर्सन कहा गया। क्योंकि इनकी आवाज और अभिनय ने हर दूसरे व्यक्ति को अपने आप से मिलाया।


एक मृदंग को बजाते हुए अमोल जाने कब बड़े हो गए, यह वे खुद भी नहीं जान पाए। लेकिन वे इन सब बातों की सुध नहीं लेते। आज से 30 साल पहले एक अच्छे मध्यम वर्गीय परिवार में दो भाइयों के बाद उनका जन्म हुआ था, बहुत सुंदर मृदंग बजाते हैं अमोल। प्रातः होने के साथ उनकी ताल छिड़ जाती है। घर के सभी बच्चे दौड़कर चाचा की ओर बढ़ते हैं, और अमोल एक सुंदर भजन गाते हैं। उनकी भाभी पूजा करती हुई और साथ ही अमोल के भजन।

यूं तो अमोल का विवाह भी हो गया है, और वह एक खुशमिजाज और बेफिक्र व्यक्ति हैं। लेकिन यहां बेफिक्री उसकी पत्नी के लिए असहज है। हालांकि वह बहुत समझदार और शील स्त्री है, घर की लगभग सभी जिम्मेदारियां उसी के हाथों में हैं। लेकिन साथ ही वह एक स्वाभिमानी स्त्री है, और केवल इस बात से चिंतित है, कि उसका पति अमोल किसी काम को गंभीरता से नहीं लेता। यही है कि वह कुछ भी कमा कर घर नहीं लाता। इससे घर का खर्चा बड़े दो भाइयों की ही कमाई पर है। अमोल की पत्नी घर के खर्चे में योगदान न होने के चलते जिठानियों के साथ कई बार असहज महसूस करती है। कई बातें उसे चुभती हैं, और वह जो बेहद स्वाभिमानी है, यह भाव उसे चिंतित करता है।

लेकिन वह अमोल को कुछ बोल भी नहीं पाती। हां बार-बार समझाने का प्रयास करती है, अपना दुख व्यक्त करती है। लेकिन कभी क्रोध नहीं जताती, इसलिए क्योंकि अमोल एक कोमल हृदय व्यक्ति है। काम नहीं करता यह सबसे बड़ा दोस है अन्य तो उसमें कई ऐसे गुण हैं जो बेहद दुर्लभ हैं। उसका सादा व्यक्तित्व और उसी से सधी आवाज सीधे मन में प्रवेश कर जाती है। वह एक सरल पुरुष है, बस वह किसी काम को कमाई का जरिया बना ले तो उसकी पत्नी हर प्रकार से अपने आप को सहज महसूस करे।।

मंगलवार, 14 नवंबर 2023

महेंद्र सिंह धोनी | भारतीय क्रिकेट का सितारा

रेलवे प्लेटफार्म की बेंच पर बैठा युवा इंतजार कर रहा है। वह जीवन की सफलता के लिए प्रकाश चाहता है, जो उसकी राह प्रसस्त करे। वह असमंजस में है, कि वह अपनी रेलवे की नौकरी त्याग दे या नहीं।
वहां परिवार बड़ी आश बांधे है, की पुत्र रेलवे में नौकरी पा गया है भविष्य सुरक्षित है। लेकिन महेंद्र इतने में संतुष्ट नहीं है, क्योंकि वह जीवन भर अब तक क्रिकेट के लिए समर्पित रहा है। वह एक श्रेष्ठ खिलाड़ी है। लेकिन योग बनते नहीं दिखे कि वह भारत के लिए खेले।

यहां इस बेंच पर बैठा महेंद्र इसी के मध्य उलझा है, कि वह किस तरफ बढ़े। एक ओर तो वह रेलवे की नौकरी कर सकता है। वहीं दूसरी ओर क्रिकेट उसे बुला रहा है। वह आगे बढ़ना चाहता है। एक और उसके परिवार की आशाएं और खुशियां हैं, जो कहीं तो पूरी हो गई है, जबकि वह रेलवे में सरकारी नौकरी कर रहा है। लेकिन दूसरी ओर उसका मन स्थिर नहीं है।

आती ट्रेन को देख वह स्पष्ट होता गया और भी अधिक कि उसे किस राह पर चलना है। रेलवे की नौकरी के बाद वह रोज खेलता तो है, लेकिन यह उसे कहीं लेकर नहीं जा रहा, वे खिलाड़ी जो रणजी में उसके साथ खेले उनमें कई आज भारतीय क्रिकेट के सितारे हो गए हैं।
ट्रेन उसकी तरफ बढ़ रही है, ट्रेन की हेडलाइट उसके लिए क्रिकेट स्टेडियम के लाइट्स की तरह बनती चली गई। ट्रेन का शोर उसके नाम के शोर में तब्दील हो गया, जैसे कि वह भारतीय टीम के लिए क्रिकेट के मैदान पर उतर रहा हो एक महान पारी के लिए और वह दौड़कर ट्रेन को पकड़ लेता है। और चल पड़ता है, अपनी नौकरी को हमेशा के लिए छोड़कर जरूर अपने परिवार की उन खुशियों को तोड़कर लेकिन वह आगे निकलना चाहता है।
भारतीय क्रिकेट के लिए उसे बहुत करना है। उससे सब का पसंदीदा खिलाड़ी कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धोनी बनना है, और वह बना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट कप्तानों में एक श्री महेंद्र सिंह धोनी।।

शनिवार, 11 नवंबर 2023

हजारों असफलताओं की सफलता | एडिसन

थॉमस अल्वा एडिसन
थॉमस अल्वा एडिसन एक बहुत ही चर्चित नाम। वे केवल वैज्ञानिक जगत में बड़े आविष्कारों के लिए नहीं जाने जाते, बल्कि उनका जीवन एक प्रेरक कहानी के तौर पर भी पेश किया जाता है। इसका श्रेय उनकी माता को भी जाता है, कि एडिसन एक बेहद जिज्ञासु और लग्नशील व्यक्तित्व को प्राप्त करते हैं।

स्कूल के समय पर एडिसन बेहद एकांत प्रिय छात्र थे, साथ ही वह जिज्ञासु प्रकृति के थे, तो अपने गुरुजनों से बिल्कुल अटपटे सवाल करते। इन सब सवालों के जवाब तो दिए भी जा सकते थे, और शायद नहीं भी। लेकिन शिक्षकों द्वारा उनकी इस उत्सुकता को बढ़ावा न दिया जा सका। उनकी माता को विद्यालय बुलाया गया और एडिशन के शिक्षकों के साथ व्यवहार की शिकायत की गई। तब तक एडिशन छोटा बालक था।

अगले कुछ ही दिनों में एडिशन एक पत्र के साथ घर लौटा, मां को वह पत्र लाकर सौंप दिया कि स्कूल से प्राप्त हुआ है, एडिशन तब तक पूरा पढ़ना भी नहीं जानते थे, तो मां से उस पत्र में लिखा हुआ जानना चाहते थे।

  उस पत्र को पढ मां की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने एडिसन को बताया कि इस पत्र में लिखा है, कि हमारे स्कूल में एडिसन एक बेहद बुद्धिमान छात्र है। वह एक जीनियस है। किंतु हमारे विद्यालय में एडिसन को पढ़ाने के लिए उतने ही जीनियस शिक्षकों की आवश्यकता है, जिनका यहां अभाव है, इसलिए एडिसन इस विद्यालय में नहीं पढ़ सकता है।

हालांकि यह सब जो एडिसन की मां ने एडिसन को बताया, झूठ था।

लेकिन यहां एडिसन का मनोबल जरूर बढ़ता है। उसे दिशा मिलती है। वह घर में ही कई प्रयासों को आरंभ करता है। छोटे-छोटे आविष्कारों के लिए लगातार कोशिशें। एक समय के बाद एडिशन रुपए कमाने के लिए अखबार बेचने का काम करते हैं, और वहीं से केवल 14 साल की उम्र में ही अपना प्रिंटिंग प्रेस तक स्थापित करते हैं।

आगे उनकी मेहनती, जिज्ञासु और लग्नशील प्रकृति उन्हें आविष्कारों की दुनिया में ले आई। यूं तो उन्होंने अपने जीवन में सैकड़ो आविष्कार किये, लेकिन सर्वाधिक प्रसिद्ध आविष्कार बिजली का बल्ब है। जो 1879 में उनके द्वारा बनाया गया। हालांकि यह एक विवादपस्त विषय रहा, कि उनसे पहले ही यह बल्ब वह वूवकूंतक और मअंदे ने बना लिया था। हां उन्होंने पेटेंट नहीं करवाया था। लेकिन यह बल्ब कुछ ही घंटे जलता था। वहीं एडिसन का बल्ब लगभग 10 घंटे जलने में सक्षम था। वह बल्ब वास्तव में बड़ा प्रकाशमय था। उतना ही जितना की एडिसन के प्रयास थे। कहा गया कि इस बल्ब के आविष्कार में एडिसन ने हजार प्रयास किये, और तब यह प्रकाश मिला।

इन सफलताओं के बाद एडिसन पूरी दुनिया के चर्चित नामों में शामिल थे। एक दिन अलमारी में उन्हें वह पत्र मिला जो स्कूल से वे लाए थे, उन्होंने पढ़ा तो उस पर लिखा था, कि एडिशन को विद्यालय के शिक्षकों के साथ व्यवहार के चलते स्कूल से निकाल दिया गया है।

एडिसन उन लोगों में हैं जो नामी कॉलेजों से डिग्री तो हासिल न कर सके, लेकिन उनके नाम पर कई किताबें कॉलेज में पढ़ी जाती हैं।।

मंगलवार, 7 नवंबर 2023

संस्कृतियों का उदय | विशेष लेख

दुनिया एक गति के साथ है। यह केवल धरती का घूमना सूरज के चारों ओर चक्कर लगाना मात्रा नहीं है, बल्कि धरती से बाहर उस ब्रह्मांड की गति, वहां हर कारण जो अपना चक्र पूरा कर रहा है। साथ ही धरती के भीतर हर प्राणी हर वस्तु और पदार्थ अपना समय बिता रहे हैं। यह सब एक चक्र में है और एक गति से प्रेरित हैं।

यह पदार्थ प्राणियों के संबंध में है। क्या यह मानव सभ्यताओं और संस्कृतियों के लिए भी सत्य है, कि वह भी एक चक्र में है, और एक चक्र पूरा कर लेने के बाद उनका काल भी समाप्त हो जाएगा।

हजारों साल पुरानी कोई सभ्यता यदि आज भी प्रासंगिक है, तो यह वह दूरदृष्टि है जो तब हजारों साल पहले आने वाले हजारों सालों के लिए स्थापित की गई, और लोग तब से आज तक उसका निष्ठावान अनुसरण करते हैं। दुनिया की गति के साथ या इस बीते समय के साथ स्थितियां और जीवन जीने के लिए साधन और विकल्प भी बदल रहे हैं।

यह बात तो स्वीकार करनी होगी, की सभ्यताएं तभी पनपती हैं जब मानव अपने लिए मूलभूत आवश्यकता के संसाधन जुटा पा रहा हो। भूखे और प्यासे व्यक्ति के लिए अन्न जल का मिल जाना ही सबसे बड़ी बात है, हर भोजन की तलाश में भटकते संसार के किसी भी अन्य प्राणी की ही भांति।

इस प्रकार सभ्यता पनपने के लिए आवश्यक है, कि वह प्राणी मूलभूत आवश्यकता के साधनों को प्राप्त कर पा रहा हो, अन्यथा भोजन के लिए द्वारा द्वारा भटकते किसी जानवर की जाति में क्यों सभ्यता नहीं पनप जाती। 

दरअसल आरंभिक विषय किसी भी प्राणी जाति के लिए जीवन जीने के लिए साधन जुटाने का ही है। यही सवाल है जो जन्म के बाद किसी प्राणी को गति देता है।

आज जहां हम हैं, मानव जाति जो अनेक सांस्कृतिक भूमिकाओं में बंटी हुई है। लड़ाई इस प्रकार भी है कि सभी एक ही संस्कृति को सर्वोच्च मान लें, उसे स्वीकार करें। इस प्रकार तो यह बड़ी लड़ाई है, और संभव दिखती नहीं।

लेकिन कौन संस्कृति है, जो अपने आपको जीवित रख सकेगी। एक तो वह जो सबसे अधिक दूरदृष्टि को दर्शा रही है, और दूसरी जो समय के साथ स्वयं को अनुकूलित कर रही हैं।।

सोमवार, 6 नवंबर 2023

अब सचिन कहो या विराट! विशेष लेख

विराट कोहली ने क्रिकेट के मैदान पर उपलब्धियों के सबसे ऊंचे पायदान को छू लिया है। जिन्होंने उस पायदान को स्थापित किया था, वह भी भारतीय और आज फिर उसे दोहराया है वह भी भारतीय।

विराट कोहली ने अपने वनडे इंटरनेशनल करियर में 49वां शतक लगाया है। और यह सचिन तेंदुलकर के ही बराबर है। अब विराट कोहली इस कीर्तिमान को छू चुके हैं। तो वह सचिन तेंदुलकर के समकक्ष हो गए हैं, यह बात होनी स्वाभाविक है।

यह तो है, कि आधुनिक दौर के क्रिकेट में विराट कोहली ने एक स्तर स्थापित किया है, जिसे महान कहा जा सकता है। वह कीर्तिमान जो बीते समय में सचिन तेंदुलकर द्वारा स्थापित किए गए हैं, वे भावी भविष्य के लिए केवल महान कीर्तिमान नहीं, केवल प्रेरणा नहीं बल्कि आज यदि कोई उस कीर्तिमान को छूता है, उससे आगे बढ़ता है तो यह हमारी उन्नति का प्रतीक है। यह हमारे बढ़ते रहने का प्रतीक है। इसलिए कहते हैं कि रिकॉर्ड बनाये ही जाते हैं तोड़ने के लिए। क्योंकि हम भविष्य को उन्नति की ओर बढ़ता हुआ चाहते हैं, और ऐसा ही होता है।

लेकिन यह तो है, कि इस कीर्तिमान को हासिल कर लेने से विराट कोहली ग्रेट विराट कोहली कहे जाने के और योग्य हो गए हैं। तो अब उस सवाल कि सचिन के समकक्ष हैं विराट कोहली?

इस सवाल को कैसे जवाब दिया जाए जिससे महान बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर और उनके तमाम प्रशंसको तथा विराट कोहली और उनके प्रशंसकों जो की एक समान भी हैं तथा विचारों के उन तमाम पहलुओं जो इससे संबंधित है, के साथ न्याय हो सके।

यह भारत का सौभाग्य है कि क्रिकेट के दो महान सितारे हमारे हैं, और वे हमारे साथ हैं। लगभग एक ही दौर में इन दो महान उपलब्धियां ने हमें चर्चा की ओर और करीब लाया है।

सन् 2012 में सचिन तेंदुलकर ने अपना 100वां शतक लगाकर दुनिया के लिए क्रिकेट जगत में महानता का स्तर स्थापित किया। इस समय तक विराट कोहली भी भारतीय क्रिकेट टीम में अपने लगभग चार वर्ष पूरे कर चुके थे। जब सचिन तेंदुलकर फलक पर थे, तब विराट कोहली अपना आधार बना रहे थे। यहां शुरुआत और मुकाम साथ थे। यहां एक रोल मॉडल बना और विराट कोहली ने उन्हें गहराई से जाना और बहुत लग्नशील होकर उनका अनुसरण किया। इसी का नतीजा सामने है, आज उनके लिए कोई रिकॉर्ड कठिन नहीं है। वे मैदान पर उतरते हैं, कि आज जिस मुकाम पर वे हैं वहां नए रिकॉर्ड बनते चले जाते हैं।

आप यह भी कह सकते हैं, कि विराट कोहली के लिए मुकाम सचिन तेंदुलकर ने स्थापित किया था। हालांकि यह सब उनकी काबिलियत उनके धैर्य और समर्पण का फल है, जो भारत को विराट कोहली में सचिन तेंदुलकर का रूप दिखा है। और यह सचिन तेंदुलकर का महान खेल रहा है, की हर सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी की तुलना उनसे होगी, क्योंकि वह वे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने सबसे पहले आने वाली कई पीढ़ियों के लिए एक मुकाम स्थापित किया।

जो उस उपलब्धि को हासिल करेगा, वह स्वत: ही महान होगा। किंतु ऐसा कितनी ही बार भविष्य में होता रहे, आप इस बात को स्वीकार करेंगे, कि वह कभी सचिन तेंदुलकर के समकक्ष नहीं होगा।।

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏