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Showing posts from April, 2022

गुप्त शासकों की विवाह सम्बन्ध नीती

गुप्त वंश के राजाओं में विदेश नीति को लेकर विवाह संबंध का अहम स्थान है। उन्होंने इसका उपयोग अपने राज्य के विस्तार और शासन के विस्तृत क्षेत्रों में मैत्रीपूर्ण संबंधों को कायम रखने के लिए किया। इस प्रकार के सन्धियों में गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त प्रथम जिसने लिच्छिवियों  की कन्या राजकुमारी कुमार देवी से विवाह कर लिया। इससे उसे आर्यव्रत में मान और गौरव प्राप्त हुआ। समुद्रगुप्त स्वयं को “लिच्छवी दौहित्र” अपने अभिलेखों में कहता है। अर्थात लिच्छिवियों की पुत्री का पुत्र और इस प्रकार अपनी मातृ संबंध को अपना गौरव दर्शाने का प्रयत्न करता है।  अर्थात वैवाहिक संबंध का परिणाम प्रभावपूर्ण था।  यह भी बताया गया है। कि चंद्रगुप्त प्रथम के पुत्र समुद्रगुप्त ने शकों और अन्य राजवंशों के शासकों से उनकी कन्याओं को उपहार स्वरूप ग्रहण किया था। इस तरह से निकटवर्ती राज्यों  से संबंधों को अधिक मैत्रीपूर्ण बनाया गया।  ठीक इसी प्रकार चंद्रगुप्त द्वितीय ने एक नागकन्या राजकुमारी कुबेर नागा से विवाह कर अपना प्रभाव बढ़ाया। उससे उनकी एक पुत्री का जन्म हुआ। उसका नाम प्रभावती गुप्ता था। चंद्रग...

लिच्छवी गणराज्य का संपूर्ण इतिहास | प्राचीन भारत

आम्रपाली वही कन्या है, जिसे नगरवधू कहा गया। शाक्यमुनि बुद्ध के साथ उसकी एक कथा हम सब सुनते हैं। वह लिच्छवियों में थी। जब महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ, तो लिच्छवियों ने भी दीपमाला जलाई। कहते हैं कि जैन धर्म उनका राज धर्म बन गया था। बताया गया है कि वह लिच्छिवी ही गणराज्य था, जिनकी राजकुमारी कुमार देवी से गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त प्रथम के विवाह के कारण ही चौथी सदी ईस्वी में गुप्त वंश को मान और गौरव प्राप्त हुआ।   एक टीवी धारावाहिक आता था, चाणक्य उसमें गणराज्य मैंने सुना था। कि प्राचीन काल में गणराज्य थे। लिच्छिवी उन्हीं प्राचीन गणराज्यों में एक था। लिच्छवी गणराज्य का उदय लगभग 700 ईसा०पूर्व माना गया है। इनका राज्य वैशाली में था। हर्यक वंश लगभग छठी सदी ईसा पूर्व प्रकाश में आया। बिम्बिसार का पुत्र आजातशत्रु जिसकी मां लिच्छिवियों में से थी, अपने पिता का वध कर शासन हासिल करता है। और लिच्छिवियों के अंत का संकल्प करता है। इसके दो कारण बताए जाते हैं।    गंगा के पास के एक बंदरगाह जिस के आधे भाग पर आजातशत्रु और आधे भाग पर लिच्छिवियों का अधिकार था। उसके समीप ही...

आज तक जीवित सामाजिक दशा का प्राचीन बीज | diwakar

जाने कितने लोग इस सामाजिक व्यवस्था में जीत थे, और जीते रहे। आज भी वे उसका अनुसरण करते हैं। डॉक्टर अंबेडकर ने समाज की व्यवस्था को चुनौती दी।  समाज में उन्हें सर्वाधिक गिरी स्थिति में माना गया। उस समुदाय के प्रति तिरस्कार का भाव था। यह आज तक हमारे समाज की व्यवस्था का हिस्सा है। मनु ने शूद्रों को अन्य तीन वर्णों की सेवा का आदेश दिया था। उन्होंने साफ किया कि यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनके लिए कठोर दंड का विधान है। किंतु प्राचीन वैदिक काल में जब वर्ण व्यवस्था का उदय ऋग्वेद से हुआ, तो ऐसा नहीं था। कहा जाता है, कि तब कार्य के आधार पर वर्ण निर्धारण होता था।  ब्राह्मण और क्षत्रिय तो अपने कार्यों के आधार पर दूसरे वर्ण के भी पहचाने गए। इसके कई उदाहरण दिए जाते हैं। परशुराम ब्राह्मण थे किन्तु उन्होंने क्षत्रिय धर्म का पालन किया। द्रोणाचार्य एक क्षत्रिय कुल के थे, किंतु उन्होंने ब्राह्मण धर्म का पालन किया। राजा जनक क्षत्रिय होकर भी वेदों के महान ज्ञाता थे। क्षत्रिय और ब्राह्मणों में विवाह संबंध होते थे।  शूद्रों के विषय में कहते हैं कि ब्राह्मण और क्षत्रिय को शूद्र कन्या से विव...

जलियांवाला बाग 13 अप्रैल 1919 | लेख

उस बाग के मध्य में एक कुआं था। जाने कितने ही लोग उसमें कूद गए। वो दिन था 13 अप्रैल 1919 और अमृतसर का जलियांवाला बाग। जनरल रेगनॉल्ट डायर को इस हत्याकांड का सबसे बड़ा आरोपी माना गया, और यह ब्रिटिशों ने भी स्वीकार किया। किन्तु बदले में उसे सिर्फ भारत में अपने पद से रिजाइन करना था, और ब्रिटेन लौटने का आदेश दिया गया। उसका कहना था, कि वह अपनी ड्यूटी निभा रहा था। यदि वह गोलियां नहीं चलाने का आदेश नहीं देता तो संभवत वह भीड़ उसके सैनिक टुकड़ी पर हमला कर देती। जब दस-पन्द्रह हजार के उस विशाल भीड़ पर गोलियां चलनी आरंभ हुई, तो खुद साथ खड़े अंग्रेजी अफसर के चेहरे के भाव बिखर गए। किंतु वह बताते हैं, कि डायर खुद दौड़कर उस जगह गोलीबारी का संकेत करते जहां भीड़ अधिक थी। लोग बाग की ऊंची दीवारों को लांघने की कोशिश करते।  बाग की भीड़ जैसे जमींदोज हो गई। वहां कहीं कहीं तो गोली का निशान बने घायलों और शवों के ढेर लगने लगे। कुछ लोग तो भीड़ के भगदड़ में वही दबकर अपने प्राण खो दिए।    वहां 4 वर्ष का एक बच्चा जो अपने दादा जी के साथ गया था, आज बताते हैं, कि गोलियों के आदेश के बाद उनके दादाजी ...

उपन्यास देवदास पर्दे पर | शहंशाह कुंदन लाल सहगल

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के बंगाली उपन्यास देवदास को आज के समय में उतना ही जीवंत और लोकप्रिय रखने में जितना कि वह 1920s  के दशक में रहा होगा, पर्दे पर अभिनय का योगदान रहा है। उन पृष्ठों के किरदारों देवदास, पार्वती, चंद्रमुखी, को क्रमश: शाहरुख, ऐश्वर्या और माधुरी के चेहरों ने हरकतें दी, यूं जैसे जीवित कर दिया हो।    विमल रॉय के निर्देशन में यह उपन्यास पूर्व में भी फिल्म का रूप ले चुका था। जहां दिलीप साहब देवदास की भूमिका में थे, और सुचित्रा सेन और विजयंतीमाला मुख्य अदाकारा थी। यह फिल्म 1955 में प्रकाशित की गई थी।   किंतु देवदास पर बनी पहली फिल्म 1936 में प्रकाशित हुई थी। जिसमें के० एल० सहगल साहब, देवदास की मुख्य भूमिका में थे। साथी मुख्य अदाकारा जमुना और राजकुमारी जी थे। यूं कहें कि देवदास का पर्दे पर होने का पथ इन्होंने ही प्रशस्त किया था।    कुंदन लाल सहगल भारतीय सिनेमा जगत के पहले सुपरस्टार कहे जाते हैं। अभिनय के साथ में गायकी में बचपन से ही अपनी जन्मभूमि जम्मू में मशहूर थे। उनके पिता जम्मू में तहसीलदार थे वहां महाराजा प्रताप शासक थे। बचपन में सह...

पत्र व्यवहार पर एक संस्मरण लेख

पत्र व्यवहार पर एक संस्मरण लेख आज एक पत्र हाथ लगा। मेरे चाचा जी की एक पुरानी डायरी के पन्नों के बीच अभी भी ठीक से सुरक्षित है। पत्र 1998 का है।     पत्र के विषय में कुछ बातें मुझे याद आती है और कुछ पता हैं। पहली बात तो मेरे दादाजी के संबंध में है, वह बताते हैं। कि उनकी नौकरी के लिए यही कोई 1960-70 के दशक में उन्हें एक परीक्षा देनी पड़ी। जिसमें उन्हें दो सवाल हल करने थे। पहला तो गणित पर आधारित था, और दूसरा पत्र लेखन से संबंधित था।     लोग खूब दिल से चिट्ठी लिखते थे। तब कई महीनों और सालों तक भी बात नहीं हो पाती थी। आज तो किसी से जब चाहो बात हो सकती है। ऐसे में ज्यादातर बातों में दम नहीं रह जाता। क्योंकि रोज तो बात होती है। करने को बातें कम पड़ जाती हैं। लेकिन तब ऐसा नहीं था। कभी तो ऐसा भी होता, कि दोस्त की शादी आज है, और संदेशा एक महीने बाद मिलता। क्योंकि डाकिया का बहुत काम था। सब कुछ पैदल था। दूर-दूर गांव तक पैदल जाना होता था, और भी कई प्रकार की समस्याएं हो सकतीं हैं।   खबरें रेडियो से मिल जाती थी। छुट्टी पर आए सैनिकों के आदेश भी रेडियो पर जारी होते...

दिव्या भारती अदाकारी में अविस्मरणीय | फिल्मिस्तान

    आज यदि दिव्या भारती जीवित होती तो वह 46 साल की होती, और अब तक दुनिया को कई खूबसूरत यादें दे चुकी होती। वह केवल 19 साल में अलविदा कह गई। लेकिन उनकी अदाकारी से लोग उन्हें आज भी याद करते हैं।     छोटी सी उम्र में उन्होंने जो मुकाम हासिल किया वह फिल्म जगत के जाने कितने सितारों का सपना रह जाता है। वह चुलबुली सी लड़की श्रीदेवी की हमशक्ल के रूप में देखी गई। हालांकि एक इंटरव्यू में दिव्या ने कहा, “मुझे ऐसा नहीं लगता जब मैंने श्रीदेवी को देखा तो बहुत बहुत खूबसूरत हैं, मुझसे कहीं अधिक।”     शुरुआत में वह तेलुगु फिल्मों में दिखी। जब उन्होंने गोविंदा के साथ पहली फिल्म “शोले और शबनम” की तो वह फिल्म खाने की सितारा बन गई। साजिद नाडियावाला से मिलने के बाद दिव्या ने उनके शादी के लिए अपना धर्म बदल कर इस्लाम कबूल किया, और साजिद से शादी कर ली और खुद सना नाडियावाला बन गई। उनके भोलेपन और खूबसूरती से वह लोगों में आकर्षण बनी रही और डायरेक्टर्स की पहली पसंद बन गई।     ऐसा भी समय आया कि उन्होंने एक साल में चौदह फिल्में साइन कर ली। 90 के दशक के कई बड़े सितारों...

प्राचीन भारत से आज तक बौद्ध और जैन धर्म | लेख

हर्यक वंश में बिंबिसार और अजातशत्रु के विषय में बौद्ध और जैन साहित्य में अपनी अपनी बातें रखी गई। किंतु उनके धर्मों की चर्चा की गई है। बौद्ध ग्रंथ में बिंबिसार के बुद्ध से मिलने का भी वर्णन है। अजातशत्रु के संबंध में पहले तो शाक्य मुनि विरोधी प्रसंग है, किन्तु बाद में वह भी बुद्ध का अनुयाई प्रतीत होता है। उसने उस समय के मजबूत गणराज्य वैशाली के लिच्छिवियों के विनाश के संबंध में बुध से मंत्रणा की थी, और वह इसमें सफल रहा।    उसके पश्चात शिशुनाग और नंद वंश के विषय में धार्मिक भावना को लेकर कुछ खास पढ़ने को नहीं मिला। हां महापद्मनंद को काफी शक्तिशाली शासक दर्शाया  गया है। इतिहासकार महापद्मनंद के दक्षिण भारत विजय का समर्थन करते हैं। मौर्य के संदर्भ में सर्वत्र विदित है, और उनके संदर्भ में काफी साहित्य और अन्य सामग्री उपलब्ध है। चंद्रगुप्त अंतिम समय में जैन मुनि हो गया, और उसने सच्चे जैनी की भांति भूखे रहकर कर्नाटक के जंगलों में कहीं अपने प्राण त्याग दिए। वह भद्रबाहु मुनि का शिष्य था। उसके पुत्र बिंन्दुसार के धार्मिक संदर्भ में उतना पढ़ने को नहीं मिला।    अशोक के धम्...