शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

Alexander in india झेलम का युद्ध in hindi विस्तृत वर्णन | सिकन्दर का भारत पर आक्रमण तथा वापस लौटने का कारण

सिकंदर की भारत यात्रा / Alexander in india विस्तृत वर्णन विशेष –

सिकंदर

    327 ईसा पूर्व में सिकंदर ने हिंदूकुश पर्वत को पार कर वह काबुल में आ डटा था, वहां पर उसने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त किया, जिसमें एक सेना का संचालन उसने अपने विश्वस्त सेनापति को दिया जो खैबर के दर्रे से आगे बढ़ी। और दूसरी सेना को अपने नियंत्रण में रखकर वह काबुल की घाटी में प्रवेश करता है, अनेक छोटे-छोटे राजाओं को  जीतते हुए वह आगे बढ़ता है। और अंततः यह दोनों सेनाएं ओहिंद नामक स्थान पर पुनः मिलती हैं, वहां से ये आसानी से सिंधु नदी को पार कर जाते हैं।

   सिंध नदी के पार उस समय पर अर्थात सिधु नदी के पूर्व में उस समय पर मुख्य तौर से दो सबल शासक थे, आंभी तथा पुरु या पोरस।

किंतु उन दोनों के मध्य में सहयोग का संबंध न था, वे एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बने रहे। और यह सिकंदर के पक्ष में था। इससे पहले कि सिकंदर आक्रमण करता आंभी ने सिकंदर को अपने राज्य में आने का निमंत्रण दे दिया। दरअसल वह सिकंदर के माध्यम से पोरस को नीचा दिखाना चाहता था। यदि पोरस और आंभी साथ मिलकर सिकंदर का सामना करते तो शायद वे जरूर जीत जाते।

   326 ईसा पूर्व में आंभी की राजधानी तक्षशिला में सिकंदर अपनी सेना के साथ प्रवेश करता है। आंभी उसका स्वागत करता है, और पोरस के खिलाफ सिकंदर की विजय में उसका साथ देता है।

   पोरस का राज्य झेलम तथा चुनाव नदी के बीच में था। सिकंदर ने पोरस के राज्य पर आक्रमण कर दिया, वह झेलम नदी के पश्चिम तट पर आ डटा किंतु पोरस की सेना पहले से ही झेलम नदी के पूर्वी तट पर झंडा गाड़े खड़ी थी। कई महीनों तक दोनों सेनाएं जैसी की तैसी वही पड़ी रही, किंतु झेलम नदी को पार करने का साहस किसी ने ना किया, फिर एक दिन अंधेरी रात में जब बहुत भयानक आंधी चल रही थी, सिकंदर की सेना झेलम नदी को पार कर जाती हैं, और जब पोरस को यह मालूम होता है, तो वह भी रण के मैदान में अपनी सेना के साथ पहुंचता है। दोनों में भीषण संग्राम होता है, पहले तो पोरस की सेना सिकंदर की सेना को शिकस्त दे रही होती है। किंतु बाद में किसी तरह सिकंदर जीत जाता है, और पोरस को बंदी बना लिया जाता है।

   इस रण क्षेत्र का एक प्रसंग सम्मुख आता है, कि जब पोरस को बंदी बना लिया जाता है, और उन्हें सिकंदर के सामने लाया जाता है, तो सिकंदर पोरस से प्रश्न करता है, कि कहो तुम्हारे साथ क्या व्यवहार किया जाए पोरस बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे, उनका जवाब आता है कि जैसे “एक राजा दूसरे राजा के साथ व्यवहार करता है”।

   सिकंदर पोरस जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति से मित्रता का महत्व समझता था। जब तक सिकंदर भारत में रहता है पुरु उससे अपने मैत्री भाव का निर्वाह करता है। सिकंदर पोरस से मैत्री संबंध स्थापित करता है, और वहां से आगे बढ़ता है, जहां दो अन्य राज्यों को मार्ग में जीतता है। अंत में वह पंजाब की अंतिम नदी व्यास के पश्चिमी किनारे पर आ खड़ा होता है, और यह वही सीमा थी, जहां से मगध का विशाल साम्राज्य भारत के पूर्वी छोर तक विस्तारित था, यदि सिकंदर यहां विजय हासिल करता तो पूरे भारत पर उसका वर्चस्व स्थापित हो जाता।

   किंतु मगध के साम्राज्य पर आक्रमण करने का उसकी सेना का कोई विचार न था। उस उत्साह में कमी थी। उसकी सेना में अब इतना साहस न रहा था कि मगध जैसे विशाल साम्राज्य को चुनौती दे सकें। क्योंकि बहुत लंबे समय अपने घर से बाहर थे, और युद्ध करते करते वे थक भी गए थे। वह बहुत दूर आ गए थे। अब घर वापस लौटना चाहते थे। यही कारण होगा, कि मगध की सीमा को सिकंदर पार न कर सका, और उसने वापस लौटने का निश्चय किया।

वह पोरस से मिला शासन संबंधी नीति पर विचार विमर्श किए, और वहां से लौट गया, लौटते वक्त भी उसे अनेक सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा, अनेक छोटे-छोटे राज्यों से उसका सामना हुआ। सिंध के निचले प्रदेश में पटल नाम के स्थान पर उसने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त कर दिया, एक को उसने समुद्री मार्ग से और दो को स्थल मार्ग से भेज दिया, वह स्वयं स्थल मार्ग से हो चला, अंत में वह अपनी टुकड़ी के साथ बेबीलोन जा पहुंचा, वहां पर ज्वर से पीड़ित हो गया, और 32 वर्ष की उम्र में 323 ईसा पूर्व उसका परलोकवास हो गया।

यहीं पर उसके विश्व विजय की यात्रा का अंत हो जाता है। हालांकि उसकी विश्वविजय का ख्वाब पूर्ण तो ना हो सका, किंतु वह विश्व के महान सेनानियों में अपने आप को दर्ज करा सकने में सफल रहा।

    उपरोक्त प्रसंग आप सब ने इसी प्रकार से अध्ययन जरूर किया होगा।

किंतु यह एक पक्ष की कहानी है, कई तथ्य आज भी इस प्रश्न को जीवित रखते हैं कि जीता कौन था, पोरस या सिकंदर? 

यदि सिकंदर विश्व विजेता था तो वह पोरस के राज्य से वापस क्यों लौटा?

वे यूरोपीय लेखकों के द्वारा सिकंदर की प्रसंग को यथावत लिखा नहीं मानते हैं, बल्कि सिकंदर की महानता को अथवा यूरोपियों की महानता को प्रस्तुत करती हुई दृष्टि में रहकर लिखा हुआ मानते हैं।

वे आज भी इस विषय के निचोड़ को रत हैं।

बुधवार, 17 नवंबर 2021

सिकंदर का परिचय | सिकंदर भारत की सीमा तक | sikandar की विजय यात्रा

सिकंदर का परिचय तथा सिकन्दर भारत की सीमा तक-

 

   उस समय में यूनान के छोटे से राज्य मकदूनिया पर फिलिप नामक शासक का शासन था। फीलिप के पुत्र सिकंदर हुए। यह वही सिकंदर है, जिसे दुनिया के सबसे महान विजेताओं की पंक्ति में स्थान प्राप्त है। सिकंदर विश्व का महान विजेता।

   336 ईसा पूर्व में फिलिप की मृत्यु हो जाने के कारण अब सिंहासन सिकंदर को मिला। हालांकि उस समय पर सिकंदर की आयु महज 20 वर्ष थी, किंतु सिकंदर उस वक्त के सबसे महान विद्वान और दार्शनिक अरस्तु के शिष्य रहे, जिसके प्रभाव से सिकंदर बड़े सभ्य व्यक्ति बना, वह बेहद कुशल शासक अपने आप को साबित कर पाने में सफल रहा। शासन पर आरूढ़ हो जाने के पश्चात उसने दो प्रमुख ध्येय स्वयं को सदैव दिए रखें। पहला अपने साम्राज्य का विस्तार और दूसरा अपने देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रसार।

    सिकंदर ने विजय यात्राओं का चक्र प्रारंभ किया। वह अपने आसपास के पड़ोसी छोटे-छोटे राज्यों को जीत हासिल कर फारस के जर्जर साम्राज्य को रौंदता हुआ भारत की सीमा पर आ पहुंचा।

    उस समय तक उत्तर भारत के पूर्वी भाग में मगध का विशाल साम्राज्य स्थापित हो चुका था। किंतु अभी उत्तर भारत में पश्चिमोउत्तर प्रदेशों की राजनीतिक दशा बड़ी सोचनीय थी। वहां छोटे-छोटे राज्य थे, जिन में सहयोग का सदैव अभाव रहा, उनमें एक दूसरे को नीचा दिखाने का भाव था। और यही कारण था कि विदेशी आक्रमणकारियो को लाभ मिला।

   सिकंदर से पहले ईरान के शासक साइरस तथा डेरियस के आक्रमण इस भूभाग पर हो चुके थे। अब सिकंदर जब भारत की सीमा तक पहुंचा था, और ईरान के साम्राज्य को पहले ही रौंद चुका था। तो स्वाभाविक तौर से वह भारत पर भी आक्रमण की योजना तय कर चुका था।

   सिकंदर जहां कहीं गया सफलता ने विजय ने उसका स्वागत किया, उसका आलिंगन किया उसका उत्साह चरम पर था। यह उसकी महत्वाकांक्षा को और तीव्र करता गया, और उसकी विजय यात्रा का मार्ग उसके उत्साह के प्रभाव में कभी जर्जर ना हो सका।

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

बौद्ध कालीन भारत |16 महाजनपदों की विस्तृत व्याख्या | Boddh period india explaination

16 महाजनपदों में बौद्ध कालीन भारत की विस्तृत व्याख्या

बौद्ध कालीन भारत जब भगवान बुद्ध के द्वारा बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हो रहा था। उस समय पर भारत किस प्रकार से था, इसकी दशा क्या थी। इस विषय में बौद्ध धर्म ग्रंथों से कुछ जानकारी प्राप्त होती हैं। उन दिनों उत्तरी भारत में कोई ऐसा सशक्त साम्राज्य ना था, जो कि केंद्र में रहकर एक शक्तिशाली शासन पूरे उत्तर भारत में स्थापित कर सकें, ऐसा ना हो कर उन दिनों उत्तरी भारत 16 छोटे-बड़े राज्यों में बंटा हुआ था, इन राज्यों को महाजनपद कहा जाता था।

   ● अंग (पूर्वी बिहार) राजधानी चंपा, ● मगध (दक्षिणी बिहार) राजधानी गिरिब्रज, ● काशी (वाराणसी) राजधानी काशी, ● कौशल (अवध) राजधानी श्रावस्ती, ● वज्जी (उत्तरी बिहार) राजधानी वैशाली, ●.मल्ल (देवरिया, गोरखपुर) राजधानी कुसिनारा तथा पावा, ● चेदी  (बुंदेलखंड) राजधानी सुक्तिमती, ● वत्स (प्रयाग) राजधानी कौशांबी, ● कुरु (दिल्ली मेरठ) राजधानी इंद्रप्रस्थ तथा हस्तिनापुर, ● पांचाल (रोहिलखंड) राजधानी अहिक्षेत्र तथा कम्पिल्य, ● मत्स्य (जयपुर) राजधानी विराटनगर, ● शूरसेन (मथुरा) राजधानी मथुरा, ● अवंती (पश्चिमी मालवा) राजधानी उज्जैन, ● गांधार (पूर्वी अफ़गानिस्तान) राजधानी तक्षशिला, ● कंबोज (काश्मी) राजधानी द्वारका, ● अस्सकं (हैदराबाद) राजधानी  पोतली या पोतन।

    इन राज्यों में कुछ में तो राजतंत्रात्मक और कुछ में गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्थाएं थी। राजतांत्रिक राज्य तुलना में लोकतांत्रिक राज्यों से बड़े हुआ करते थे। इन राज्यों में प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। अतः बड़े राज्यों ने अपने पड़ोस के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर दिया, और उन्हें अपने में मिलाकर अंत तक आते-आते यह चार बड़े राज्यों कौशल, वत्स, अवंती, तथा मगध में विलीन हो गए।

    कौशल वर्तमान का अवध ही हुआ करता था। इस राज्य के बीच में से सरयू नदी बहती थी। इसके दो राजधानियां हुआ करते थी, उत्तरी भाग की राजधानी श्रावस्ती तथा दक्षिण भाग की राजधानी कुशावती थी। जिस वक्त पर बौद्ध धर्म का प्रचार हो रहा था, यहां के राजा प्रसेनजीत थे।

   कौशल राज्य के दक्षिण में वत्स राज्य था। जिसकी राजधानी कौशांबी थी उस वक्त पर जब बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हो रहा था, तब वहां का शासक उदयन था।

   वत्स राज्य के दक्षिण पश्चिम में स्थित राज्य अवंती था, इसकी राजधानी उज्जैनी थी। बुद्ध भगवान जब बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार में थे, तब वहां के राजा प्रद्योत हुए।

   आधुनिक बिहार के गया तथा पटना जिलों को मिलाकर मगध का साम्राज्य बना था, इसकी राजधानी राजगृह थे  बुद्ध जी के समय में यहां बिंबिसार नामक शासक शासन करता था।

   इन चार बड़े राज्यों में भी प्रतिस्पर्धा लगातार जारी थी। वे अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए प्रयत्न करते रहते थे। धीरे-धीरे इन चारों में मगध राज्य ने अपनी शक्ति में वृद्धि की और पूरे उत्तर भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर दिया।

मगध के राजा बिंबिसार ने बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म दोनों को आश्रय दिया था। वह बड़े उदार थे, किंतु उनके पुत्र अजातशत्रु ने सिंहासन के लिए उनका वध कर दिया। अजातशत्रु एक कुशल शासक था। किंतु उसके निर्बल उत्तराधिकारीयों ने भविष्य में अपना शासन खो दिया। और क्रमशः शिशुनाग वंश और तत्पश्चात नंद वंश ने मगध के साम्राज्य को शासन किया नंद वंश के साम्राज्य का विनाश कर चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध में अपना शासन स्थापित किया।

   उस वक्त पर जिन जिन भारतीय क्षेत्रों में बौद्ध और जैन धर्म का प्रचार प्रसार हो रहा था, वहां जाती पाती व्यवस्था कुछ ढीली पड़ गई थी। ब्राह्मणों के प्रधानता को चुनौती दी गई थी, उनके स्थान को क्षत्रियों ने ग्रहण करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया था। आश्रम व्यवस्था भी अब ढीली पड़ गई थी। क्योंकि बौद्ध धर्म ने सत्कर्म और सदाचार पर बल दिया। उस समय पर स्त्रियों की दशा इतनी भी संतोषजनक ना थी। उस समय पर पहले भगवान बुद्ध ने भी बौद्ध संघों में स्त्रियों के होने पर मना ही किया था, किंतु बाद में स्त्रियों को भी संघ में रखा जाने लगा। उस वक्त पर लोग मुख्यता गांव में समूह बनाकर रहते थे। गांव में उनका मुख्य व्यवसाय कृषि हुआ करता था। हालांकि शहरों का भी उन्नयन आरंभ हो चुका था, वहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय शिल्प और व्यापार हुआ करता था।

   बौद्ध काल में साथ ही साथ जैन धर्म तथा भागवत धर्म का भी प्रादुर्भाव हुआ। जो उन लोगों को अति भाई जो यज्ञ तथा बली दोनों से तंग आ चुके थे। और किसी नई मार्ग के खोज में थे। बौद्ध तथा जैन धर्म ने सत्कर्म तथा सदाचार का और भगवत धर्म ने उपासना तथा भक्ति के सरल मार्ग पर चलकर मोक्ष की प्राप्ति का उपदेश दिया, और यही कारण रहा कि इस मार्ग पर चलने को जनसाधारण सहर्ष स्वीकार करता गया।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

बौद्ध और जैन धर्म की भारत को देन | Indian history | Boddh and jain dharma

बौद्ध और जैन धर्म की भारत को महान देन-

बौद्ध और जैन धर्म ने भारत भूमि को हिंसा के महत्वपूर्ण पाठ से अवगत कराया। प्राणी मात्र पर दया की शिक्षा दी। यह वही अहिंसा है, जिसका अनुसरण कर महात्मा गांधी जी ने भारत में स्वतंत्रता के आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान दिया। आम जनमानस से स्वतंत्रता के आंदोलन को इसी मार्ग से जोड़ सकने में समर्थ रहे।

   ऊंच नीच जात पात भेदभाव को ना मानकर एक लोकतांत्रिक समझ का संदेश दिया। मानव के सत्कर्म और सदाचार पर अधिक बल देकर देशवासियों की नैतिक स्तर को ऊंचा किया।

   उत्तर वैदिक काल में आते-आते यज्ञ और बलिदान के विरोध में हिंदुओं में प्रबल विचारधारा जन्म ले चुकी थी और यही विचारधारा “भागवत धर्म” के तौर पर सम्मुख आई। जिसके प्रवर्तक श्री कृष्ण थे। उनका कहना था, कि देवी-देवताओं के ऊपर भी भगवान है, जिसे प्रसन्न करने के लिए न यज्ञों की आवश्यकता है, न जंगल में जाकर चिंतन करने की, न तपस्या करने की जरूरत है। बल्कि उपासना और भक्ति के मार्ग मात्र से ही मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। और यह मार्ग उतना ही सरल था जितना कि बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का था।   

   बौद्ध और जैन धर्म की कुछ महान संस्कृतिक देन रही है। वे आज भी मानव को उज्जवल मार्ग की ओर प्रशस्त कर रही है।

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

बौद्ध धर्म के पतन के प्रमुख कारण | बौद्ध धर्म का अपनी ही भूमि पर न्यून अनुयायी | Boddh dharma

बौद्ध धर्म के तीव्र उत्कर्ष के पश्चात पतन के कुछ प्रमुख कारण-

   बौद्ध धर्म ने जिस तीव्रता के साथ उन्नति की उसके पतन की कहानी भी उतनी ही तीव्र रही। बौद्ध धर्म का अपनी ही जन्मभूमि में जैसे उन्मूलन सा हो गया। हालांकि विश्व के अनेक राष्ट्रों में आज भी बौद्ध धर्म विद्यमान है।

   बौद्ध धर्म के उन्नति के कारणों का ज्ञान होने के पश्चात इस के पतन के कारणों का भी अनुमान लगाया जा सकता है। उन्नति में जिन कारणों ने साथ दिया था, उनका अभाव कालांतर में हो जाने पर बौद्ध धर्म का पतन हुआ। 

   बुद्ध जी के पश्चात बौद्ध धर्म के अनेक शाखाओं ने जन्म लिया, मतों में भेद होने लगा। प्रारंभ में बौद्ध संघों में जो भिक्षुक-भिक्षुणियां रहते थे। उनका जीवन बहुत श्रेष्ठ था, वह बहुत पवित्र और आदर्शमय थे। किंतु कालांतर में उनका चारित्रिक पतन हो गया, जिससे वे लोगों में घृणा के पात्र हो गए।

जब बौद्ध धर्म ने उन्नति करना प्रारंभ किया तो ब्राह्मणों ने अपने धर्म के दोषों को जांचना प्रारंभ किया। उन्होंने तेजी से इसमें सुधार के प्रयत्न प्रारंभ किए। शंकराचार्य आदि जैसे बड़े सुधारक आचार्य हुए, जिन्होंने बौद्ध धर्म का खंडन किया और ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान पर कार्य किया। उन्होंने ब्राह्मण धर्म वैष्णव और शैव धर्म के रूप में प्रचलन में खूब सहयोग दिया। भक्ति मार्ग दिखाया जो इतना ही सरल था, जितना कि बुद्ध जी द्वारा दिखाया गया मार्ग।

यदि आप बौद्ध धर्म के पतन का एक सबसे बड़ा कारण कलान्तर में राजाओं द्वारा सहयोग न मिलना कहें तो गलत ना होगा, क्योंकि जब बौद्ध धर्म प्रारंभ में उन्नति के पथ पर तीव्र गतिमान था। तब उसे तत्कालीन अनेक राजाओं का संवर्धन मिला, किंतु कालांतर में राजाओं का आश्रय न मिल सका। शुंग वंश के राजा ब्राह्मण थे। उन्होंने ब्राह्मण धर्म को संरक्षण दिया। गुप्त सम्राटों ने भी ब्राह्मण धर्म को अपना संरक्षण दिया आगे चलकर राजपूत राजाओं ने भी जो बेहद रण प्रिय थे। अहिंसा के धर्म को समर्थन देने की बजाय ब्राह्मण धर्म को ही उन्नति के पथ पर होने को सहयोग किया। बौद्ध धर्म का पतन का श्रेष्ठ कारण कालांतर में राजाओं का संवर्धन न मिल पाना भी है।

   कालांतर में विदेशी आक्रमणकारियों ने भी बौद्ध धर्म को पतन की ओर ले जाने को राह प्रशस्त की, विशेषकर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने कई बौद्ध मठों और बिहारो को नष्ट कर दिया।

यही कारण कुछ प्रमुख रहे होंगे, जो बौद्ध धर्म अपनी ही भूमि में आज न्यून संख्या में अनुयायियों को लिए है।

 

सोमवार, 8 नवंबर 2021

बौद्ध धर्म की उन्नति के प्रमुख कारण | boddh dhrma in hindi | ancient india

 बौद्ध धर्म के प्रसार के मुख्य कारण-

बौद्ध धर्म ने देशभर में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी प्रचलन के श्रेष्ठ स्तर को प्राप्त किया। नेपाल, चीन, कंबोडिया, जापान, तिब्बत, सुमात्रा, जावा, वर्मा, लंका, मध्य एशिया में अपनी जड़ों को मजबूत करने में बौद्ध धर्म बेहद सफल रहा।

इसके कई कारण देखे जा सकते हैं, जो बौद्ध धर्म के उन्नति के प्रमुख कारक है, सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि उस वक्त तक वैदिक सभ्यता का धर्म दोषपूर्ण हो चुका था। लोग यज्ञ तथा बली से तंग आ चुके थे, और यज्ञ में सरलता समाप्त हो जाने के कारण साधारण लोगों की पहुंच से ये बाहर हो गए थे।

   भगवान बुद्ध के बेहद आकर्षक रूप और उपदेशों के कारण बौद्ध धर्म में तीव्र उन्नति की।

मोनियर विलियम्स ने लिखा की “व्यक्तिगत चरित्र का प्रभाव उनके उपदेशों के अद्भुत आकर्षण से मिलकर अचूक हो जाता था”।

   भगवान बुद्ध अपने उपदेशों में पाली भाषा का प्रयोग करते थे। यह साधारण बोलचाल की भाषा थी। लोग इसे बेहद आसानी से समझ पाते थे। यह कारण भी वैदिक सभ्यता की जटिल संस्कृत भाषा में ज्ञान का विकल्प बौद्ध धर्म को जनसाधारण में दिखा पाने में सफल रहा।

   भगवान बुद्ध ने कभी जातिवाद और भेदभाव को नहीं माना। उन्होंने संपूर्ण मानव समाज को मोक्ष का अधिकारी कहा।  भगवान बुद्ध ने हर जाती हर वर्ग के व्यक्ति के लिए मोक्ष के मार्ग खोल दिये, यही कारण है कि जनसाधारण बौद्ध धर्म से एक बड़ी संख्या में जुड़ने लगा।

   बौद्ध धर्म के प्रचार में बौद्ध संघों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है, देश के कोने कोने में बौद्ध संघ स्थापित किए गए, और सर्वाधिक महत्वपूर्ण गौर करने योग्य विषय है, कि बौद्ध धर्म की उन्नति में बौद्ध मठों के निर्माण में सेठ साहूकारों और बड़े-बड़े सम्राट बिंम्बिसार, अशोक, कनिष्क, हर्ष आदि ने भरसक योगदान दिया।

बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए समय-समय पर बौद्ध भिक्षुओं की और आचार्यों की सभा होती थी। बौद्ध प्रथम संगति राजगृह में हुई, दूसरी संगति वैशाली में, तीसरी अशोक के काल में पाटलिपुत्र में, और चौथी कनिष्क के काल में कश्मीर में हुई थी।

   बुद्ध की सीख में जीवन को मध्यम मार्ग से जीने का उपदेश सर्वाधिक सरल और व्यापक हो सकने योग्य था। एक साधारण जनमानस का विशाल भाग न तो बहुत अधिक विलासिता का जीवन जीता था, और ना ही बहुत अधिक कठिन तप का जीवन, वह तो मध्यम जीवन जीने के मार्ग का ही अनुसरण करता था, और इस पर जीवन में कुछ सरल आचरण जिसे आम जनमानस सुगमता से निभा सकता था। सत्य बोलना, जीवो पर दया करना आदि कुछ नैतिक आदर्श की बातें एक साधारण गृहस्थ का व्यक्ति भी पालन कर सकता था।

   भगवान बुद्ध का संपूर्ण जीवन ज्ञान की प्राप्ति और बौद्ध धर्म के प्रचार में व्यतीत हुआ। सिद्धार्थ नामक बालक ने अपने जीवन में राजसी सुख और विलासिता को देखा। किन्तु उन्होंने अपने जीवन में उसका तिरस्कार किया। जब वे कठिन तप में लीन थे, अपने शरीर को कष्ट दे रहे थे, तब शरीर सूखकर कांटा हो गया।

भगवान बुद्ध ने निष्कर्ष निकाला बेहद कठिन तपस्या का और अत्यधिक विलासिता का जीवन व्यर्थ है, निरर्थक है। अतः जीवन जीने के मध्यम मार्ग को अपनाओ।

रविवार, 7 नवंबर 2021

बौद्ध धर्म की शिक्षाएं विस्तृत व्याख्या | boudh dharma Mahayan & heenyaan

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म के प्रचार में भगवान बुद्ध ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, और यही कारण रहा कि मात्र भारत में नहीं बल्कि बौद्ध धर्म ने विदेशों में भी अपनी जड़ें मजबूत कर ली। मध्य एशिया, जापान, चीन, तिब्बत, सुमात्रा, जावा, कंबोडिया, वर्मा, लंका आदि देशों में बौद्ध धर्म बेहद प्रचलित हुआ। हालांकि आज हमारे देश में यह न्यून स्थिति में है, किंतु विदेशों में इसका प्रचार अब भी सुदृढ़ है।

   जब भगवान बुद्ध को बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति हुई तो वे वहां से सर्वप्रथम सारनाथ में अपने उन साथियों को जो उन्हें छोड़कर चले आए थे। अपने ज्ञान से उन्हें अपने जीवन का पहला उपदेश दिया। तत्पश्चात वाराणसी और वहां से राजगृह चले गए। यहां पर उन्हें अपने धर्म के प्रचार में बेहद सफलता मिली।

इसके बाद वे अपनी मातृभूमि गए जहां पर उन्होंने शाक्यों को अपने धर्म से दीक्षित किया। तत्पश्चात सारे मगध, कौशल, लिच्छवी के अपने धर्म के प्रचार को बेहद सफलता से किया, और सारे उत्तर भारत में बौद्ध धर्म को एक जागृत धर्म के तौर पर प्रचलित किया, हालांकि आज बौद्ध धर्म दो संप्रदाय में महायान और हीनयान में वितरित है।

महायान संप्रदाय के लोग उदारवादी और सुधार में विश्वास रखते हैं। वे कट्टरपंथी नहीं होते हैं। बौद्ध धर्म के कठोर नियमों को लेकर कुछ ढीलाई करना चाहते हैं। 

किंतु हीनयान संप्रदाय वाले कठोरता से बौद्ध धर्म के नियमों को पालन करने में विश्वास करते हैं। वे भगवान बुद्ध को मात्र एक महापुरुष मानते हैं। तो वे उनकी पूजा नहीं करते हैं। वहीं महायान संप्रदाय के लोग भगवान बुद्ध को इश्वर की भांति पूजते हैं। उनकी मूर्तियों की स्थापना करते हैं।

   भगवान बुद्ध अपने धर्म के प्रचार के दौरान अपनी उदारता और सहिष्णुता का परिचय भी दे रहे थे। उनका कहना था कि यदि बात लोगों को ठीक लगती हैं तो उनका पालन करें लेकिन यदि गलत और अनुचित मालूम हो पड़ती है, तो वह इसका पालन ना करें। किंतु मोक्ष की प्राप्ति के लिए जिस राह को वे दे रहे थे। वह लोगों को सर्वाधिक सरल भी लगी और उचित भी।

   भगवान बुद्ध ने कभी आत्मा और परमात्मा पर नहीं कहा इस विषय पर मौन रहे कोई इस संबंध में प्रश्न करता तो वे मौन ही रहते, उन्होंने ना हां कहा कि यह है, और ना ही कहा कि यह नहीं है। उनका मत था कि यह बेवजह एक झमेला है। जिसमें इंसान जीवन भर फंस कर रह जाता है। मनुष्य को सत्कर्म और सदाचार की राह पर चलना चाहिए। यही निर्वाण तक लेकर जाएगा जो जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

   भगवान बुद्ध का कहना था, कि संपूर्ण संसार में दुख  है, और जो ज्ञात है जब भगवान बुद्ध वैराग्य को अपना लक्ष्य बनाते हैं, तब भी कुछ दृश्य, दुख के दृश्य उनके सम्मुख आते हैं। वही उन्हें उनके लक्ष्य की प्राप्ति को  प्रेरित करते हैं।

उनका कहना था, कि संसार में दुख ही दुख है, और हर दुख का एक कारण है। उनका कहना था, कि दुख के तीन कारण हैं, अविद्या या अज्ञानता, तृष्णा या विषय वासना तथा कर्म।

   दुख से छुटकारा पाने के लिए भगवान बुद्ध ने जिन तीन मार्गों को बताया है, वह “अहिंसा” अर्थात जीव की हत्या ना करना। “समाधि” अर्थात मन को एकाग्र करना, तथा “प्रज्ञा” अर्थात ज्ञान। 

भगवान बुद्ध का कहना है, कि यदि मनुष्य इस राह पर चलता है, तो वह निर्वाण को जरूर प्राप्त करेगा। उनका मत है, कि निर्वाण मनुष्य अपने जीवन काल में भी प्राप्त कर सकता है, क्योंकि निर्वाण जीवन की वह स्थिति है, जब मनुष्य संसार के सभी विषय वासनाओं, सुख-दुख से मुक्त हो जाता है।

   भगवान बुद्ध ने अपने जीवन में राजसी सुख का भी उपभोग किया कठोर तपस्या का पालन किया किन्तु उन्होने इन दोनों जीवन को निरर्थक बताया। उन्होंने मध्यम मार्ग के अनुसरण का उपदेश दिया, उन्होंने कहा कि अत्यंत विलासिता का जीवन अथवा अत्यंत कठोर तपस्या का जीवन व्यर्थ है। अतः उन्होंने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया, और इस पर चलने के लिए उन्होंने आठ मार्ग बतलाए। सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्मान्त, सम्यक जीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक् स्मृति, और सम्यक समाधि।

   भगवान बुद्ध का कहना है  कि मनुष्य को जीवन में सत्कर्म करना चाहिए। सदाचार के मार्ग पर चलना चाहिए। क्योंकि उसे अपने कर्मों का फल इसी संसार में भोगना होता है, बल्कि मात्र इस जन्म का नहीं बल्कि पूर्व जन्म का फल भी उसे भोगना पड़ता है, और मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसका वैसा ही अगला जन्म बनता है। मनुष्य को सदैव सत्कर्म करना चाहिए, सत्कर्म से ही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है, भले ही वह किसी जाति का क्यों ना हो। भगवान बुद्ध जात-पात और भेदभाव ऊंच-नीच को नहीं मानते थे. उनका कहना था कि सभी मनुष्य मोक्ष के अधिकारी हैं।

   भगवान बुद्ध ने सदाचार की शिक्षा दी, उनका कहना था, कि मनुष्य का आचरण अच्छा होना चाहिए, जिससे मनुष्य में नैतिक बल आ जाए। उनके अनुसार नैतिक आचरण दस हैं, पहला जीवो की हत्या न करना, दूसरा चोरी न करना, तीसरा सत्य भाषण, चौथा धन का संग्रह न करना, पांचवा ब्रह्मचर्य, छठवां नाच गाने का त्याग, सातवा सुगंधित पदार्थ का त्याग, आठवां असमय में भोजन का त्याग, नवां कोमल शैय्या का त्याग तथा दसवां कामिनी कंचन का त्याग।

   भगवान बुद्ध ने सदाचार और सत्कर्म का उपदेश दिया और मोक्ष की प्राप्ति के लिए ऐसी सरल राह का उपदेश दिया जो साधारण मानव अपने जीवन में अनुसरण कर सकें।

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