सोमवार, 3 अक्टूबर 2022

भारत में पुर्तगाली | खंड -3

भारत में पुर्तगाली

भारत में पुर्तगालियों ने अपनी कई कोठियां जो अधिकतर पश्चिम तट पर स्थापित की। जिनमें कोचीन से आरंभ कर गोवा, दमन, दीव, कन्नूर के क्षेत्र में थी। इससे पूर्व की घटनाएं हम खंड पुर्तगालियो का भारत आगमन | खंड 2 में जान चुके हैं। 

दो अन्य पुर्तगाली गवर्नर जिनके नाम किन्ही कारणों से आते हैं। एक 1929 में पुर्तगाली गवर्नर बनकर भारत आए नीनो डी कुन्हा। जिसने 1530 में अपना मुख्यालय कोचीन से बदलकर गोवा कर दिया। और गोवा पुर्तगालियों का लंबे समय तक आजादी के बाद तक भी अड्डा बना रहा। 1535 में दीव और 1559 में दमन पर पुर्तगालियों ने कब्जा कर लिया।

गुजरात तट पर दमन तथा दीव -चित्र में

आप देखेंगे कि पुर्तगालियों ने सूरत की ओर अधिक आकर्षण नहीं दिखाया। जबकि बाद में हम जानेंगे, कि डच और ब्रिटिश भारत आते हैं। तो वह सूरत में अपनी कोठियों को स्थापित करते हैं। वहां से सूती वस्त्रों का व्यापार बहुत उन्नत स्थिति में होता था।
यह लोग जब किसी स्थान पर कोठियां बनाते थे। कोठियां जो बंदरगाह पर होती थी। या समुद्र तटों पर किन्हीं स्थानों में यह बसने का प्रयास करते थे। जैसे मुंबई क्षेत्र बंदरगाह था ही नहीं। लेकिन अंग्रेजों ने वहां उस क्षेत्र को बसाया। वहां बंदरगाह अथवा जहाज के उतरने के लिए उपयुक्त स्थल तैयार किया।

एक अन्य नाम गवर्नर अल्फांसो डिसूजा एक पुर्तगाली गवर्नर के कार्यकाल में 1542 में तब के प्रसिद्ध ईसाई धर्मगुरु सेंट जेवियर भारत आए।
पुर्तगालियों ने भारत में कोचीन, कन्नूर, गोवा, दमन जो पश्चिम तट पर तथा पूर्वी तट पर हुगली, मद्रास पर कब्जा किया। इसके अलावा एशिया में इन्होंने मलक्का के क्षेत्र और फारस की खाड़ी में हरमुज को अपने कब्जे में कर लिया था।
पुर्तगाली भारत व्यापार के लिए ही आए थे। यह प्रत्यक्ष स्पष्ट होता है, लेकिन साथ ही इनका गुप्त उद्देश्य धर्म का प्रचार भी था। और यह उसके लिए भी प्रयास करते थे। हिंद महासागर पर इन्होंने अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित किए रखा, जब तक की डच और अंग्रेजों ने अपना वर्चस्व स्थापित नहीं किया था। इन्होंने हिंद महासागर में अपने वर्चस्वता की ताकत पर एक कोर्टेज की व्यवस्था स्थापित की। पुर्तगाली व्यापारियों को छोड़ अन्य को, स्थानीय व्यापारियों को यदि यूरोप व्यापार के लिए जाना था और हिंद महासागर से गुजारना था, उन्हें यह कोर्टेज या परमिट लेना होता था।

स्वयं तब दिल्ली का बादशाह अकबर कोर्टेज परमिट लेते थे। क्योंकि इसके ही आधार पर पुर्तगाली यह जताना चाहते थे, कि भारत का बादशाह भी उनका परमिट लेता है। भले वह बादशाह से शुल्क ले या ना ले, लेकिन संकेत स्थानीय व्यापारियों के लिए था। कि वे परमिट लें अवश्य, जैसे कि बादशाह भी लेता है।

बिना कोर्टेज परमिट के व्यापारिक जहाजों को सागर में लूट लेते थे लेकिन परमिट होने पर भरोसा देते थे, कि उनकी सुरक्षा करेंगे। कोर्टेज व्यवस्था के अलावा जब अल्फांसो डी अल्बुकर्क 1509 में भारत में पुर्तगाली गवर्नर बन कर आया। उसने भी ब्लू वाटर पॉलिसी और विवाह नीति अपनाई। ब्लू वाटर पॉलिसी से हिंद महासागर में वर्चस्व हासिल करना। विवाह नीति से वह अपनी संख्या भारत में बढ़ाना चाहते थे। हिंदू धर्म में विधवा औरतों की शादी निषेध थी। लेकिन क्योंकि वह इसाई थे। तो वह उनसे शादी कर लेते थे। इस तरह वे अपनी बस्ती बता रहे थे।
गोवा के चर्च जो आज भी प्रसिद्ध हैं। वे पुर्तगालियों ने बनाए थे। इनके निर्माण की गोथिक शैली पुर्तगालियों की ही थी। 1556 में पुर्तगालियों ने गोवा में पहला प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की थी। और इससे लेख छापकर, पत्रिका छाप ईसाई धर्म के प्रचार में भी प्रयोग किया जाता था। इसके अलावा भारत में तंबाकू, आलू गन्ना, पपीता, लाल मिर्च को पुर्तगाली ही भारत लाए थे।
उनके पतन के कारण इनके धार्मिक प्रचार की नीति जिसमें इसाई धर्म को सर्वोच्च मानना और अन्य को नहीं भी कारण था। वहीं स्पेन का वर्चस्व पुर्तगाल पर यूरोप में बढ़ता जा रहा था। तथा ब्रिटिश और डचों के आगमन से इनकी शक्ति क्षीण होने लगी।

पुर्तगालियो का भारत आगमन | खंड 2

पुर्तगालियो का भारत आगमन

वास्कोडिगामा मालाबार तट पर कलीकट नामक स्थान पर पहुंचता है। जिस का वर्तमान नाम कोझीकोड है। यहां का शासक जमोरिन या सामुरी था। इससे पूर्व की घटनाएं हम खंड -1 यूरोपियों की भारत खोज और पुर्तगाली अभियान -1 में जान चुके हैं। 

जमोरिन वास्कोडिगामा का स्वागत करता है। इसलिए भी कि अब तक भारत में व्यापार पर अरब के लोगों का एकाधिकार था। व्यापार में एकाधिकार हो, तो भारत के लोगों को लाभ कम होता था। क्योंकि माल जिसे बेचना है, यदि कोई अन्य विकल्प ही ना हो, तो माल खरीदने वाला अपनी ही मनमानी से मोलभाव करता है। इसलिए पुर्तगाली व्यापारी जमोरिन को एक विकल्प के रूप में दिखा। जिससे अरबों और पुर्तगालियों में माल खरीदने की प्रतिस्पर्धा होगी और इससे भारत को लाभ होगा।

वास्कोडिगामा साठ गुना लाभ के साथ पुर्तगाल लौटता है। और उसने वहां के अन्य व्यापारियों को भी प्रेरित किया। 1500 में एक अन्य जहाजी अभियान पेट्रो अल्वारेज के नेतृत्व में भारत आया। यह तेरह जहाजों का बेड़ा था। अब पुर्तगालियों का उद्देश्य यह भी था। कि अरब के लोगों जो अरब सागर, हिंद महासागर में अपना वर्चस्व बनाए हैं। इनका वर्चस्व तोड़ा जाए। इसलिए वह बड़े जहाजी बेड़े के साथ आया था। कि समुद्र में हो सकने वाली संभावित लड़ाई में अरबों को मात दी जा सके। वह कोच्चि और कन्नूर पहुंचा। यह दोनों क्षेत्र भी केरल के ही तट पर हैं। मानचित्र में कन्नूर, कलीकट के ऊपर और कोच्चि, कलिकट के नीचे है। 1502 में एक बार फिर वास्कोडिगामा भारत की यात्रा पर आता है। 1503 में वह अपनी पहली व्यापारिक कोठी कोचीन में स्थापित करता है। आपको बता दें कि वास्कोडिगामा इस बार तो लौट गया। किंतु इसी कोचीन में 1524 में जब वह एक बार फिर भारत आया तो 1527 कि यहां उसकी मृत्यु हो गई।

 वहां 1498 में पुर्तगाल में भारत से व्यापार के लिए एक कंपनी “एस्तादो द इंडिया” नाम से बनाई गई। 1505 में पहला पुर्तगाली गवर्नर फ्रासिस्को डी अल्मीडा भारत आता है। जो 1509 तक भारत में पुर्तगाली गवर्नर रहता है। कोचीन पुर्तगालियों का मुख्यालय बना रहा। 

पुर्तगालियों की स्थिति में भारत के लिए पुर्तगाली नये गर्वनर अल्फांसो डी अल्बुकर्क के आने के बाद परिवर्तन हुए। अल्बुकर्क को अधिकारियों की भारत में वास्तविक सत्ता का संस्थापक कहा जा सकता है। उसने भारत की राजनीति में प्रवेश किया, और युद्ध से भूमि जीतने का प्रयास करना आरंभ किया। 1510 में ही उसने राजनीतिक रूप से गोवा पर नियंत्रण हासिल कर लिया। इसके बाद लगभग 450 साल तक यह पुर्तगालियों के नियंत्रण में रहा। जब तक कि 1961 में भारत ने अपने अधीन किया। और भारत का अभिन्न अंग बना दिया।

सुमात्रा व मलेशिया के मध्य में मलक्का जलसंधि -चित्र में

 अल्बुकर्क ने 1510 में गोवा को बीजापुर के शासक युसूफ आदिलशाह से जीता था। 1511 में इन्होंने मलक्का पर नियंत्रण कर लिया। मलक्का, मलेशिया और इंडोनेशिया के मध्य जल संधि का क्षेत्र है। इसके अलावा उन्होंने फारस की खाड़ी में एक अन्य खाड़ी को अपने कब्जे में कर लिया। यहां से यूरोप जाने वाले व्यापार को नियंत्रण किया जा सकता था। और हरमूज पर पुर्तगाली अधिकार का तात्पर्य अरबों के वर्चस्व में सेंध लगाने जैसा था। क्योंकि यह वही हरमुज है, जहां पर नियंत्रण रख अब तक अरबों ने यूरोप तक व्यापार पर कब्जा किया हुआ था। और इसी हरमुज जलसंधि जो फारस की खाड़ी में है, पर अरबों के नियंत्रण से यूरोपियों को भारत के लिए अन्य राह की तलाश करनी पड़ी।

ओमान की खाड़ी फारस की खाड़ी के मध्य में हरमूज की खाड़ीचित्र में

 1515 तक हरमूज भी अब पुर्तगालियों के कब्जे में था। अब तक पुर्तगालियों ने लगभग हिंद महासागर के क्षेत्र में अरबों के वर्चस्व को छिन्न-भिन्न कर दिया था।।

इसके बाद की घटनाएं अगले खंड -3 में…

रविवार, 2 अक्टूबर 2022

2 oct | आजादी में गांधीजी | आज अप्रासंगिक क्यों?

गांधीजी



गांधीजी की राजनीतिक सक्रियता के चलते हम कभी उनके व्यक्तिगत जीवन की ओर की दृष्टि नहीं डालते हैं। और यह आज भी है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय नेताओं का व्यक्तिगत जीवन जैसे शून्य हो गया हो।
गांधीजी ने भारत में किसी व्यक्ति की लोकप्रियता का सबसे ऊंचा आयाम उस जमाने में हासिल किया। तब कोई इंटरनेट का जमाना तो नहीं था। घर घर जाकर आवाज पहुंचाई जाती थी। उस जमाने में गांधी जी भारत के हर व्यक्ति की समूची शक्ति का प्रतीक बन गये। भारत में लोकप्रियता का वास्तविक अर्थ गांधीजी ने दुनिया को बताया जहां प्रेम करने वाले भी भारतीय थे,और प्रेम पाने वाला भी भारतीय, यही नहीं पूरी दुनिया जिनका सम्मान करती थी। जिनकी एक आवाज पर करोड़ों भरतीय ने सड़कों पर लाठियां खाना स्वीकार किया। ऐसा समर्थन युक्त आवाज का नेता अब तक नहीं जन्मा था।

अंग्रेज तो हिंसा चाहते थे, वह चाहते थे, कि भारत के लोग की तरफ से यह हो, और उसके बाद वे दमन का क्रूर चक्र चलाएं। जिसमें दुनिया को दर्शाया जाए की अपराधियों को सजा दी गई है, और भारतीय आम लोगों को दमन और सजा के एक भयानक चक्र की मिसाल देकर आंदोलन से दूर रखा जाए। जिससे भारतीय, अंग्रेजों के सर्वोच्च शक्ति होने और अपनी गुलामी की सोच से ही न उभर सकें। 1857 की क्रांति में यही किया गया था। भले तब भारतीयों की परिस्थितियां और उद्देश्य अलग थे। लेकिन अंग्रेजों की नीति तब भी यही थी।

ब्रिटिश दमन करते तो कैसे? भारतीय तो लाठियां खा रहे थे। जवाब तो वे दे ही नहीं रहे थे। गांधीजी के सत्याग्रह के तरीके में अंग्रेजों का सहयोग मत करो (असहयोग आंदोलन) और उनकी आज्ञा को मत मानो किंतु विनम्रता के साथ (सविनय अवज्ञा आंदोलन ) ने ब्रिटिश को बड़े स्तर पर उनकी क्रूर दमनकारी नीति के प्रयोग का अवसर ही नहीं दिया। इसी कारण सबसे अहम आम जनमानस सड़कों पर आंदोलन से जुड़ पाया, और अंग्रेजों को चुनौती दे सकने की सोच हर व्यक्ति में विकसित होने लगी। साथ ही गांधीजी के तरीके ने जिस तरह ब्रिटिशों की अत्याचारी नीतियों को दुनिया के सामने लाकर रख दिया। यह महत्वपूर्ण है।

भारत के लिए सब कुछ लुटा देने वाले महान क्रांतिकारियों और गांधी जी की नीति में यह एक अंतर था, कि गांधीजी जैसे लोकप्रिय अहिंसावादी व्यक्ति जो ब्रिटिशों के खिलाफ मुखर रहे। फिर भी ब्रिटिश उन्हें समाप्त करना तो दूर जेल की सजा के अलावा कोई नुकसान नहीं पहुचा सकते थे। गांधी जी की लोकप्रियता और दुनिया की राजनीति में स्तर ही इतना ऊंचा हो गया था कि ऐसा करना जनता में महान कांति के उदय का कारण बन सकता था। साथ ही दुनिया में ब्रिटेन की प्रतिष्ठा पर सबसे बड़ा धक्का लगता। और सबसे अहम कि गांधीजी के कार्य में हिंसा थी ही नहीं। इस स्थिति में अंग्रेज उनका कुछ ना कर सके। अंग्रेजों की स्थिति ऐसी थी, कि वे मर भी ना सके, और जी भी ना सके।
ब्रिटिशों की दमनात्मक आत्मा पर भारतीयों की सहनशीलता से बार बार बार वार किया गया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद कहा गया कि भारतीयों को आजादी मिल गई है, क्योंकि भारत में ब्रिटिश हुकूमत जो अत्याचार है, को भारतीयों ने सहन कर लिया है, और अपना सिर भी नहीं झुकाया।

गांधी जी की भारत की विभाजन के संदर्भ में भूमिका पर सवाल होते रहे हैं। जिन्ना पहले ही यह तय कर चुके थे। कि मुस्लिमों के लिए पृथक राष्ट्र बनाया जाएगा। उनका यह हठ था। जब गांधी जी ने अली जिन्ना से कहा कि वह भारत के प्रधानमंत्री पद स्वयं और अहम पदों पर मुस्लिम नेताओं को स्थान दें। तो गांधी जी को बताया गया, कि यह संभव नहीं, क्योंकि नेहरू व अन्य नेता तो मान जाएंगे। किंतु भारत के लोग जो सड़कों पर पहले ही मजहब के नाम पर लड़ रहे हैं, यह स्वीकार नहीं करेंगे।
अली जिन्ना तो पहले ही भारत का विभाजन या सिविल वॉर की घोषणा कर चुके थे। वहां मुस्लिम लीग द्वारा घोषित 16 अगस्त 1946 को प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस के बाद से सड़कें युद्ध भूमि बन गई थी। कत्लेआम का दौर था।

इस स्थिति में प्रशासन की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। किंतु वह शून्य हो चुकी थी। क्योंकि अब अंग्रेज अधिकारी दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। वे तो वापसी की तैयारी में थे। और अपने देश लौट रहे थे।
उस समय के तमाम घटना के तत्काल दर्शी लिखते हैं। कि सड़कें हथियार सहित गुंडों से भरी थी। किंतु प्रशासन का कोई हस्तक्षेप नहीं था। इन सब स्थितियों में भारत ने विभाजन की महान त्रास्दी देखी।

जब तक लड़ाई ब्रिटिशों से थी। गांधी सबसे आगे दौड़ते रहे। लेकिन जैसे-जैसे अपने ही देश में फूट पड़ गई, और विभाजन की मांग उठने लगी, गांधीजी सबसे पीछे छूट गए। वहां से अली जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि क्रांतिकारी विचार युक्त नेताओं की राजनीति हावी हो गई।

आज के क्रांतिकारी युग में तीव्र उन्नति की इच्छा में युग को क्रांतिकारी कहा जाता है। वहीं गांधीजी के कार्य में सभी को संतुष्ट कर आगे बढ़ने का प्रयास था। जिसमें बिना किसी को कष्ट दिए हक के लिए संघर्ष हो, और उन्नति भी हो। किंतु आज का युग बदला है, क्रांतिकारी विचारों और तीव्र उन्नति का महत्व है, और इसलिए शायद इस युग में गांधी कुछ अप्रासंगिक हो गये हैं।।

शनिवार, 1 अक्टूबर 2022

यूरोपियों की भारत खोज और पुर्तगाली अभियान -1

यूरोपियों की भारत खोज और पुर्तगाली अभियान

यूरोपियों को भारत के लिए किसी वैक्लपिक राह की तलाश थी। वे प्रयास कर रहे थे। पूर्व तक भारत से यूरोप तक के लिए स्थल और समुद्र दोनों मार्ग थे। किंतु मध्यकालीन इतिहास में हम जानते हैं, कि कैसे पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ ही व्यापार में एशिया और यूरोप के समीकरण भी बदल जाते हैं। 

अब तक भारत से यूरोप का स्थल मार्ग अफगान से ईरान, इराक और तुर्की से होता हुआ यूरोप के देशों में जाता था। तुर्की जहां समाप्त होता और यूरोप से जुड़ता है, यहां पर काला सागर और मरमरा सागर को एक जलसंधि बासपोरस जोड़ती है। इस जलसंधी से यूरोप आरंभ हो जाता है। जहां कुस्तुनतुनिया आधुनिक नाम इस्तांबुल से यूरोप आरंभ होता है। जबकि यह तुर्की का ही शहर है। जब यह पूर्वी रोमन साम्राज्य का भाग था, इसका नाम कैंन्सटैनटिनोपल था। यही पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी थी। 

यूरोप में इस्तांबुल -चित्र में

तुर्की में उभरे उस्मानिया साम्राज्य ने 1453 में पूर्वी रोमन साम्राज्य का अंत कर दिया। और कुस्तुनतुनिया पर उनका अधिकार हो गया। अरब के लोग इसे कुस्तुनतुनिया नाम से कहते थे। उस्मानिया साम्राज्य के नियंत्रण से अब इस मार्ग से यूरोप जाने वाले माल पर कर अधिक लगाया गया। इसके चलते यूरोप में माल महंगा हो गया, व्यापार ठप हो गया। माल को यूरोप ले जाने का विकल्प समुद्री रास्ता जो अरब सागर से होकर फारस की खाड़ी और वहां से भूमध्य सागर से लगे देशों को जाता था। या अरब सागर से होते हुए लाल सागर के रास्ते भी जाया जाता था। लेकिन यहां अरब का पूरा नियंत्रण था। और उनकी मनमानी थी। अब यूरोप राह की तलाश में था। वह भारत तक पहुंचना चाहता था।

  स्पेन से जहाजी बेड़ा कोलंबस के नेतृत्व में 1492 में दिशा भटक कर अमेरिका जा पहुंचा। प्रिंस हेनरी जो पुर्तगाल का था, जिसे द नेविगेटर भी कहा जाता है। उसने पुर्तगाली साहसी नाविकों को खूब प्रोत्साहन दिया। उसने कई जहाजी अभियान दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट से होते हुए भेजे। इस तरह उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट का एक मैप तैयार कर लिया। 1487 में पहली बार एक पुर्तगाली साहसी व्यक्ति बार्थोलोम्य डियाज जहाज का नेतृत्व करता हुआ सबसे दूर अफ्रीका के दक्षिण छोर पर जा पहुंचा। जिसे आशा अंतरीप या केप ऑफ गुड होप कहा जाता है। हालांकि बार्थोलोम्यो डियाज ने इस स्थान को केप ऑफ स्टोर्मस कहा था। 1488 में वह वापस लिस्बन लौट गया। लेकिन यात्रा अब तक अधूरी थी। जब तक कि ऐशिया नहीं पहुंच लिया जाता।

आशा अंतरीप या केप ऑफ गुड होप -चित्र में

  इसके लिए पुर्तगाली शासन इमैनुअल प्रथम द्वारा एक और जहाजी बेड़े को वास्कोडिगामा के नेतृत्व में अभियान पर भेजा गया। बार्थोलोम्यो डियाज के ठीक दस वर्ष बाद 1497 में निकला वास्कोडिगामा केप ऑफ गुड होप तक पहुंच जाता है। क्योंकि पुर्तगालियों को अब तक यूरोपीय किसी अन्य देश की अपेक्षा अफ्रीका के पश्चिम तट से सटे सागर का अधिक ज्ञान हो गया था।

मालाबार तट पर कोझीकोड -चित्र में

वास्कोडिगामा के जहाजी बेड़े को केप ऑफ गुड होप से एक व्यक्ति व्यापारी जिसका नाम अब्दुल मनीक था, मिलता है। यह अरब के लोगों के साथ मिलकर भारत से व्यापार करता रहा होगा। इसे इतना जरुर पता था, कि इस दिशा में अरब सागर को निकलेंगे तो जरूर भारत पहुंचेंगे। 1498 में वास्को डी गामा अपने जहाज के साथ मालाबार तट 【 केरल के तट को मालाबार तट कहते हैं 】 के कलीकट नामक स्थान पर पहुंचता है। जिस का वर्तमान नाम कोझीकोड है।।

इसके बाद की घटनाएं अगले खंड पुर्तगालियो का भारत आगमन | खंड 2 में…

शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

केशव चंद्र सेन | स्वामी दयानंद सरस्वती से मुलाकात

केशव चंद्र सेन

1875 में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना से पूर्व स्वामी दयानंद सरस्वती आचार्य केशव चंद्र सेन से मुलाकात करते हैं। आचार्य केशव चंद्र सेन व्यक्ति जिनके ब्रह्म समाज में प्रवेश से ब्रह्म समाज का विस्तार द्रुत गति से होने लगा। इन्हीं के नेतृत्व में ब्रह्म समाज की अनेक स्थानों पर जैसे मुंबई, मद्रास, उत्तर प्रदेश में शाखाएं खुल गई। महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर के बाद ब्रह्म समाज का नेतृत्व इन्हीं के हाथों में था। 1857 में जब वे ब्रह्म समाज के सदस्य बने, और उसके बाद 1859 में उन्हें आचार्य पद पर नियुक्त कर दिया गया। इनकी सोच प्रगतिवादी रही। इससे विचारधारा में अंतर आ गया।

कोलकाता मेडिकल कॉलेज में भाषण के बाद जिसका शीर्षक “जीसस क्राइस्ट: यूरोप तथा इंडिया” के बाद जो धारणा बनी कि इनका झुकाव ईसाई धर्म की ओर है।
ऐसा ही पूर्व में जब 1820 में ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने एक पुस्तक “प्रिसेप्स आफ जीसेस” अर्थात “ईशा के नीति वचन” लिखी। इससे लोगों को लगा कि राजा राम मोहन राय ईसाई धर्म अपनाने वाले हैं। किंतु ऐसा नहीं था, वह सभी धर्मों की अच्छी बातों के समर्थक थे।

  लेकिन आचार्य केशव चंद्र सेन की विचारों से महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर के विचारों का टकराव होने लगा। ब्रह्म समाज पाश्चात्य का समर्थन तो जरूर करता था। किंतु वेदों को महत्व देना प्रमुख था। इस विचारधारा के टकराव में ब्रह्म समाज दो भागों में टूट गया। आचार्य केशव चंद्र सेन 1866 में भारतवर्षीय ब्रह्म समाज की स्थापना करते हैं। देवेंद्र नाथ टैगोर के नेतृत्व में ब्रह्म  समाज “आदि ब्रह्म समाज” कहलाया। 1864 में आचार्य केशव चंद्र सेन की ही प्रेरणा पर मद्रास में के०श्री० धरालु नायडू ने वेद समाज की स्थापना की। 1867 में उन्हीं की प्रेरणा पर महाराष्ट्र में आत्माराम पांडुरंग द्वारा प्रार्थना समाज की स्थापना की गई। इस समय तक आचार्य केशव चंद्र सेन ब्रह्म समाज से अलग हो गए थे। 1866 में ही वह आचार्य पद से मुक्त हो गए थे। और वे अब भारतवर्षीय ब्रह्म समाज की स्थापना कर चुके थे।

1878 तक आते आचार्य केशव चंद्र सेन से उन्हीं के बनाए भारतवर्षीय ब्रह्म समाज के सदस्यों का मतभेद हो जाता है। क्योंकि आचार्य केशव चंद्र सेन अपनी 13 साल की पुत्री का विवाह कूचबिहार के राजा से कर देते हैं। और इसे ईश्वर की इच्छा बताते हैं। वही ब्रह्म समाज पहले से ही और साथ ही भारतवर्षीय ब्रह्मसमाज भी बाल विवाह का विरोधी रहा था। और इससे कुछ पूर्व 1872 में ही आचार्य केशव चंद्र सेन के प्रयास से ही “ब्रह्म मैरिज एक्ट” अथवा “सिविल मैरिज एक्ट” आया। जिसमें विवाह के लिए लड़कियों की आयु 14 वर्ष और पुरुषों की आयु 18 वर्ष तय की गई थी।
इस विवाह के संबंध में मतभेद से शिवनाथ शास्त्री आदि के नेतृत्व में साधारण ब्रह्म समाज प्रकाश में आया।

1872 में जब स्वामी दयानंद सरस्वती अपने विचारों का प्रकाश बिखेरने के लिए मंच तलाश रहे थे। तो वह आचार्य केशव चंद्र सेन से मुलाकात करते हैं। इस समय तक आचार्य केशव चंद्र सेन भारतवर्षीय ब्रह्म समाज की स्थापना कर समाज सुधार में लगे थे। स्वामी दयानंद सरस्वती और आचार्य केशव चंद्र सेन के विचार मेल नहीं खाते हैं। आर्य समाज तथा ब्रह्म समाज की विचारधारा के संबंध में हम पूर्व के लेख 【 स्वामी विवेकानंद पर ब्रह्म समाज और गुरु रामकृष्ण का प्रभाव 】 में भी कुछ चर्चा कर चुके हैं।  आचार्य केशव चंद्र सेन इस मुलाकात में संस्कृत के प्रकांड ज्ञानी स्वामी दयानंद सरस्वती को हिंदी भाषा की सलाह देते हैं। और इन्हीं की सलाह पर स्वामी दयानंद सरस्वती अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” का हिंदी में प्रकाशन करते हैं।।

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

जूलियस सीज़र | प्रकरण 2 | पोम्पी और सीजर में दूरी

जूलियस सीज़र

रोम की राजनीति में तीन बातें उस समय तक, जिसमें एक राज परिवार की औरतों द्वारा पुरुषों पर वर्चस्व रखना, या पीछे से शासन में हस्तक्षेप रखना, और कहीं तो राज परिवार में औरत ही राजनीति में मुख्य भूमिका में होती थीं। वही दूसरा, की राज परिवार अपने पुत्र पुत्रियों का प्रयोग अपनी राजनीति जमाने में भी करते थे। अपनी पुत्री का विवाह किसी व्यक्ति से कर जो वर्चस्व शाली प्रतीत होता है। या राजनीति में जो स्थान मजबूत रखता है। और तीसरी बात, अहम अंधविश्वास और जादू टोना तथा बलि देकर अपनी कामना के लिए अपनी देवी से प्रार्थना करना। आगे हम जानेंगे कैसे ब्रूटस जब मारा जाता है, तब उसकी मां शाप देते हुए अपनी आत्महत्या कर देती है।

उधर पोम्पी मैग्नेस और जूलियस सीज़र में दूरियां बढ़ रही हैं। पिछले प्रकरण में हमने जान लिया था, कि पोम्पी मैग्नेस जो रोम में शांति बनाए रखे है, लगभग 8 वर्षों से जिन वर्षों में जूलियस सीज़र यूरोप के तमाम देशों में अपनी सेना के साथ विजय का पताका फहरा रहा था। दरअसल इस विजय अभियान का अहम कारण 390 ईसा पूर्व में गॉल द्वारा रोम शहर पर हुए आक्रमण और उसे लूट लेने से जन्मा था। इस अपमान का बदला लेने गॉल पर रोम ने आक्रमण किया।

  गॉल शब्द रोमन का ही उस क्षेत्र को दिया गया था। वर्तमान में इस क्षेत्र में फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमबर्ग और नीदरलैंड का कुछ भाग, स्विट्जरलैंड, जर्मनी का कुछ भाग और इटली का वर्तमान का कुछ भाग इसमें आता था।

पोम्पी मेग्नस को यह मालूम था, कि सीजर बहुत धनवान हो चुका है। और शक्तिशाली भी उसके पास अनेक सैनिक हैं। और कई शत्रु देशों के पकड़े सैनिक, औरत, बच्चे सभी दासो के रूप में रोम के बाजारों में बेचे जाते थे। वही रोम की जनता जब जुलियस सीजर के विजय की खबर सुनती, तो वह अपने विजेता प्रतिनिधि जुलियस सीजर को शक्तिशाली और अपने अपमान का बदला लेने वाला मानती और अपना रक्षक मानने लगती है। जुलियस सीजर रोम की जनता में भी अपने विजय अभियान की सफलता की वजह से अधिक लोकप्रिय होता जाता है। वही जब सैनिकों की कोई टुकड़ी युद्ध क्षेत्र से रोम लौटती तो वह बहुमूल्य वस्तुएं, धातुएं अपने साथ लाते। लूटा हुआ खजाना लोगों में गलियों में से वे बांटते हुए निकलते। सिक्कों की बौछारें की जाती, और रोम में उन्हें हीरो की तरह देखा जाता। एक सैनिक बेड़ा भी इतना धनवान होकर लौटता की पोम्पी मैग्नेस को उनकी शक्ति अपने पद और समृद्धि से अधिक लगने लगी। किंतु उसे जो रोके हुए था। वह जुलियस सीजर की दोस्ती। किंतु यह अधिक समय तक उसे रोक न सकी, क्योंकि सीनेट में कई सदस्य जो अब अनुमान लगा रहे थे, कि जूलियस सीज़र अपने आप को तानाशाह घोषित कर देगा, और गणतंत्र को समाप्त कर देगा। वह पोम्पी मैग्नेस को गणतंत्र की रक्षा के लिए नेतृत्व करने को उकसाते हैं। और वे इसमें सफल भी हो जाते हैं।

अब दो नाम, जिस प्रकार मार्क एंटोनी जुलियस सीजर का करीबी व्यक्ति था, और विश्वसनीय भी था। वह जुलियस सीजर की हत्या होने तक सीजर के ही पक्ष में रहा। वही ब्रूटस जो एक सैद्धांतिक व्यक्ति है, और वह काफी जवान लड़का है। जो गणतंत्र का पक्षधर है। और उसी अनुमान में है, कि जुलियस सीजर गणतंत्र को समाप्त कर देगा। और अपने आप को तानाशाह घोषित करेगा। इसलिए वह पोम्पी मेग्नेस की गणतंत्र की रक्षक सेना का अंग बनता है। वह स्वयं भी राज परिवार से है।

स्वामी विवेकानंद पर ब्रह्म समाज और गुरु रामकृष्ण का प्रभाव

स्वामी विवेकानंद

द न्यूयॉर्क हेराल्ड में तब छपा था, कि स्वामी विवेकानंद धर्म सम्मेलन में पहुंचे प्रतिनिधियों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। और जिस धरती से स्वामी विवेकानंद जैसे विचारक दार्शनिक आते हैं, यदि हम वहां अन्य धर्म के प्रचारक भेजते हैं, तो यह मूर्खता है।
   यह सब 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन के बाद छापा गया था। इन्हीं भाषणों के साथ स्वामी विवेकानंद विश्व प्रसिद्ध हो गए। स्वामी विवेकानंद पूर्व में जिन्हें नरेंद्र नाम से जाना जाता था। ब्रह्म समाज के द्वारा स्थापित प्रेसीडेंसी कॉलेज के विद्यार्थी रहे, ब्रह्म समाज द्वारा इसकी स्थापना हिंदू कॉलेज के रूप में की गई थी। 2010 में इसे प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया है।

   ब्रह्म समाज के संदर्भ में जिसे 1828 राजा राममोहन राय द्वारा गठित किया गया था। और उनके बाद यह महर्षि द्वारिका नाथ टैगोर और देवेंद्र नाथ टैगोर और केशव चंद्र सेन के नेतृत्व में रहा। हालांकि देवेंद्र नाथ टैगोर और केशव चंद्र सेन के विचारों में टकराव रहा, और वे बंट भी गए।
  किंतु प्रेसिडेंसी कॉलेज की स्थापना कोलकाता में 1817 में ही हो गई थी। जबकि राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना ही नहीं की थी। लेकिन राजा राम मोहन राय द्वारा ही इस कॉलेज की स्थापना की गई। और ब्रह्म समाज की विचारधारा राजा राममोहन राय के ही विचार थे। अतः प्रेसीडेंसी कॉलेज उनके विचारों से प्रभावित था। तब इसका नाम हिंदू कॉलेज था। 1855 में इसका नाम प्रेसिडेंसी कॉलेज हो गया। अब क्योंकि ब्राह्म समाज पाश्चात्य शिक्षा अथवा अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन करता था। साथ ही मूर्ति पूजा का, धर्म में फैले आडंबर और अंधविश्वास का विरोध करता था। और सामान्य सी बात है, कि प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र पर ब्रह्म समाज के विचारों का प्रभाव था।
लेकिन यदि कहा जाए, कि क्या विवेकानंद मूर्ति पूजा का समर्थन करते थे, तो जवाब हां होगा।

इसका सबसे अहम कारण था। गुरु रामकृष्ण परमहंस का काली पुजारी होना। रामकृष्ण परमहंस स्वामी विवेकानंद के गुरु थे। वे हिंदू, इस्लाम और ईसाई धर्म के ज्ञाता थे। उनके सानिध्य में स्वामी विवेकानंद को अपने मन में उपजे तमाम सवालों का जवाब मिला। जो कि उन्हें अपनी शिक्षा के द्वारा प्राप्त नहीं हो सके। गुरु रामकृष्ण परमहंस द्वारा प्राप्त ज्ञान का मूल था,  “मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म है” और इसी तत्व को आत्मसात कर स्वामी विवेकानंद ने दुनिया में हिंदू धर्म का परचम लहराया। इसी कारण रामकृष्ण मिशन की विचारधारा में मानव सेवा भाव था। उनका मानना था कि मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म है और वे मानव में ही ईश्वर देखते हैं। इस तरह ब्रह्म समाज साथ ही उसी की एक शाखा प्रार्थना समाज, दयानंद सरस्वती द्वारा 1875 में स्थापित आर्य समाज के बाद स्वामी विवेकानंद मानव सेवा के मूल भाव के साथ एक नए विचार में रामकृष्ण मिशन की स्थापना करते हैं।

क्योंकि आर्य समाज और ब्रह्म समाज में मूल अंतर था। कि ब्रह्म समाज में वेदों की शिक्षा के साथ-साथ पाश्चात्य शिक्षा का भी समर्थन था। किंतु आर्य समाज का मानना था। कि यदि भारत को आगे बढ़ना है, तो मूल, वेदों की ओर लौटना होगा।
वहीं रामकृष्ण मिशन मानव सेवा के एक नए विचार के साथ कार्य करता है।

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