बुधवार, 12 अक्टूबर 2022

Union of state & Federation of state में अंतर?

भारत के संविधान का मूल लेखन अनुच्छेद -1 में “राज्यों के संघ” को अंग्रेजी में “Union of state” लिखता है। “Federation of state” नहीं। जबकि अमेरिका दुनिया का सबसे पहला लिखित संविधान अमेरिका को “Federation of state” बताता है।

“फेडरेशन” और “यूनियन” इन दोनों में जिन का हिंदी अनुवाद “संघ” ही है में अंतर भारत और अमेरिका के संघ में अंतर से स्पष्ट किया जा सकता है।

अमेरिका की स्वतंत्रता के बाद 13 राज्यों ने मिलकर एक संघ का निर्माण किया। यहां राज्यों ने संघ का निर्माण किया है। अर्थात 13 राज्य आपस में संगठित हुए और अपनी कुछ शक्तियां सौंपकर एक संघ का निर्माण किया जो अमेरिका हुआ। आप अमेरिका के राज्यों की स्वायत्ता से अनुमान कर सकते हैं, क्योंकि वहां पर दोहरी नागरिकता होती है, अर्थात हर राज्य की अलग नागरिकता होती है, और देश की नागरिकता तो होती ही है। साथ ही वहां हर राज्य अपने अपने झंडे रखता है, इत्यादि।

अमेरिका संघ को शक्ति नहीं है, कि वह राज्यों का विनाश या पुनर्गठन कर सके। इसलिए अमेरिका को “अविनाशी राज्यों का अविनाशी संघ कहा गया है”

वहीं भारत अपने आपको पहले संघ मानता है, और तत्पश्चात राज्यों को प्रशासन की दृष्टि से बांटता है। 

जहां अमेरिका में राज्य अपनी कुछ शक्तियां संघ को सौंपते हैं, वहीं भारत में संघ राज्यों को शक्तियां प्रदान करता है। भारत में एक ही नागरिकता है और राज्यों को अपने-अपने झंडे की अनुमति नहीं है। साथ ही भारत को “विनाशी राज्यों का अविनाशी संघ” कहा गया है। जबकि अमेरिका “अविनाशी राज्यों का अविनाशी संग” है भारत में विनाशी राज्यों से तात्पर्य राज्यों के पुनर्गठन से हैं। जिसमें संसद को शक्ति प्राप्त है की वह राज्यों की सीमाएं, क्षेत्रफल, नामों में परिवर्तन कर सकती है, और नए राज्यों का निर्माण भी कर सकता है। यह शक्ति संसद को संविधान का अनुच्छेद -3 के तहत प्राप्त है। अतः भारत ने, राज्यों के द्वारा निर्मित संघ  “Federation of state” के स्थान पर संघ द्वारा निर्मित राज्य “Union of state” के रूप में अपने आपको बताया है ।

रविवार, 9 अक्टूबर 2022

ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापार नहीं किया?

ईस्ट इंडिया कंपनी: VICTORIA MEMORIAL

1600 में महारानी एलिजाबेथ की आज्ञा पत्र के साथ अंग्रेजों का भारत आगमन होता है। इनकी आरंभ में जो नीती थी वह अब तक के यूरोपीय व्यापारियों की अपेक्षा कुछ अलग थी। अब तक पुर्तगाली और डचों का भारत में प्रवेश हो चुका था। पुर्तगालियों ने 1498 में ही भारत में प्रवेश कर लिया था और अपनी एक व्यापारी कंपनी “एस्तादो द इंडिया” के नाम से भारत से व्यापार के लिए स्थापित कर ली थी।

वही डचों का भी 1595-96 में भारत में दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में विशेष इंडोनेशिया में प्रवेश हुआ। डचों का हस्तक्षेप इंडोनेशिया के द्वीपों में आरंभ हो गया था। उन्होंने युद्ध नीति अपनाई और डचों ने पुर्तगालियों से इंडोनेशिया में 1602 में वाण्टम जीत लिया। उसके बाद 1605 में अम्बयाना, 1613 में जकार्ता, 1641 में मलक्का पर अधिकार किया। भारत में उन्होंने 1605 में मसूलीपट्टनम में अपनी कोठी बनाई जो आंध्रप्रदेश के तट पर था। डचों का भारत आगमन तो 1695-96 में ही हो गया था। लेकिन उन्होंने अपनी कंपनी “Veerengde Oost Indische Compagnie” (VOC) या डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1602 में की थी। यह भी व्यापारिक कंपनी थी। पुर्तगालियों के व्यापार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए उन्हें युद्ध करने पड़े और राजनीति में उनका प्रवेश हुआ। ठीक ऐसे ही ऐसे ही भारत के स्थानीय राजाओं से भी इन्हें युद्ध करने पड़े और राजनीति में इनका प्रवेश हुआ।

अंग्रेजों की नीति इनसे कुछ अलग थी। उन्होंने भारत के शासकों के साथ संधि की और इसी नीति के अंतर्गत 1608 में विलियम हॉकिंस, 1615 में टॉमस रो भारत आए। 1600 में जब अंग्रेजों ने कंपनी की स्थापना की तो वह व्यापार के लिए ही स्थापित की थी। किंतु जिस कंपनी ने व्यापार किया और 1600 में जिसे स्थापित किया गया था। उसका नाम “द गवर्नर एंड मर्चेंट ऑफ लंदन ट्रेडिंग इनटू  द ईस्ट इंडीज” था। इसी नाम की कंपनी ने भारत में व्यापार किया था। जो एलिजाबेथ प्रथम के आज्ञा पत्र के साथ भारत आई थी। ब्रिटेन कि दो अन्य कंपनियां न्यू कंपनी तथा राजा विलियम तृतीय द्वारा बनाए कंपनी का 1708 में “द गवर्नर एंड मर्चेंट ऑफ लंदन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडीज” में विलय हो गया व नया नाम “यूनाइटेड कंपनी ऑफ मर्चेंट ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडीज” कर दिया गया।

इस कंपनी का नाम 1833 में ईस्ट इंडिया कंपनी कर दिया गया। अब आप तिथि याद करें 1833 जब भारत के लिए चार्टर एक्ट 1833 आया था। इसी में यह प्रावधान आया। आप जानिए कि 1835 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापारके अधिकार को समाप्त कर दिया गया। अब 1833 के बाद कंपनी पूर्णतया राजनैतिक और प्रशासनिक कार्य के लिए तब्दील कर दी गई। और वह क्राउन के ट्रस्टी के रूप में रहेगी।

इस तरह आप पाएंगे, कि नाम के कारण यह कहा जा सकता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापार नहीं किया बल्कि वह तो शुद्ध राजनीतिक व प्रशासनिक कार्य के लिए थी।।

शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

भारत में समाजवाद | कांग्रेस vs भाजपा

भारत में समाजवाद

समाजवाद किसी भी राष्ट्र का अपने नागरिकों के लिए अंतिम लक्ष्य है। जिसका तात्पर्य नागरिकों में समानता लाने से है। समाजवाद को आप इस आलेख [ समाजवाद का विचार और पूंजीवादी | मार्क्सवाद में समझ सकते हैं।

मोटे तौर पर समाजवाद वंचितों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने का सिद्धांत है। भारत में समाजवाद की दिशा में कई कार्य आजादी के बाद से ही आरंभ किए गए जैसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण, जमींदार प्रथा के अंत के लिए कानून, भूमि सुधार कानून जिसमें जो जमीन के बड़े भाग जमीदारों ने अपने कब्जे में किए थे। वह बड़ी जमीन के भाग उनकी संपत्ति हो गई थी, जिसके चलते जो अन्य लोग थे, वे जमीदारों के यहां केवल मजदूर के रूप में कार्य करते थे और इससे बेगारी, मजदूरी और भीषण गरीबी, असमानता और अन्याय की संभावना बनी रहती थी। 

आजादी के बाद सबसे पहले यही कार्य किया गया। उन जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों में बांट दी गई, और जमीदारी प्रथा का भी अंत कर दिया गया। यह समाजवादी विचार के अंतर्गत किया गया कार्य है। जहां संसाधन को समाज के हर व्यक्ति में बराबर बांट दिया गया और जमीदार वर्ग की इतिहास में उस बड़े जमीन के भाग को हासिल करने के लिए की गई मेहनत मशक्कत को महत्व नहीं दिया गया तथा संसाधनों का समाजीकरण कर दिया गया।

यह कदम सरकार के समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हैं, ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि समाज में सभी तबके के लोग गरीब, अमीर, मध्यम के लिए एक सरकार जो सबकी है, स्थापित है। वह सरकार कृषि की सारी जमीन को जो जमीदार के एकाधिकार में थी, उसे छीन लेती है और किसानों में बराबर बांट देती हैं, यह समाजवाद है। 

 समाजवादी विचार का मुख्य उद्देश्य यह भी है, कि राज्य के संपूर्ण संसाधनों पर या तो सीधे जनता का नियंत्रण हो, या राज्य की सरकार का, किंतु पूंजीवाद का पूर्ण विरोध किया गया है।

कांग्रेस के शासन से ही भारत में समाजवाद के साथ-साथ पूंजीवाद भी पनपता रहा है। निजी क्षेत्रों में पूंजीपतियों ने बड़े-बड़े व्यापार को स्थापित किया है। इसलिए भारत के समाजवाद को विशिष्ट स्वरूप का कहा गया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण की समाजवाद को पूंजीवाद के विपरीत देखा गया है।

  हो सकता है, कि कांग्रेस का अधिक झुकाव था, कि देश की तमाम संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया जाए और पूजीपतियों को हावी ना होने दिया जाए। अथवा सरकार संस्थाओं को अपने हाथ में रखे, और तब जनता को एक समान रूप से उसका लाभ मिलता रहे, एक समान नीतियों के अंतर्गत जो कि सरकार तय करेगी। और इसलिए कांग्रेस की ओर से भाजपा की वर्तमान सरकार पर लगातार आरोप लगाए जाते हैं, कि भाजपा ने देश में तमाम सरकारी संस्थाओं का जैसे रेलवे, संचार, एयर सर्विस आदि का प्राइवेटाइजेशन कर दिया है। अथवा प्राइवेट व्यापारियों को सौंप दिया है और यह निजीकरण है क्योंकि संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण या सरकारीकरण की अपेक्षा संस्थाओं का प्राइवेटाइजेशन और पूंजीवाद अधिक बढ़ता दिख रहा है। जिससे समाजवादी विचार को खतरा है।

यह सत्य है, कि पूंजीवाद में खतरा होता है, कहीं पूजीपतियों का एकाधिकार ना हो जाए और वे मनमानी करने लगेंगे। लेकिन पूंजीवाद आजादी के बाद से कांग्रेस के काल में भी पनपता रहा है क्योंकि कांग्रेस सरकार भी पूंजीवाद के महत्व को समझती थी। और विश्वास करती थी कि समाजवाद कि यूरोपीय सिद्धांत के साथ चलकर पूंजीवाद को पूर्णता समाप्त करने के बजाए पूंजीपतियों और सरकार के सामन्जस्य से तीव्र विकास के चलते समाजवाद को अधिक तीव्रता से हासिल किया जा सकता है।

आप इसे ऐसे समझे की निजीकरण ने एक प्रकार से समाजवाद की ओर भी प्रयास किया है। हमें स्वीकार करना होगा, कि निजी व्यापार में कार्य सरकारी व्यवस्था की अपेक्षा अधिक तीव्रता से होता है। इससे यदि किसी पूंजीपति व्यापारी ने जो संचार के क्षेत्र में कंपनी का मालिक है, ने सरकारी संचार की कंपनियों की अपेक्षा अधिक तीव्रता से और देश के दूरस्थ क्षेत्रों को संचार से जोड़ पाने में सफलता हासिल की है। जहां सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत संचार सेवा आज तक पहुंच ही नहीं सकी थी। क्योंकि पूंजीपति ने बाजार में प्रतिस्पर्धा के चलते अधिक मेहनत से कार्य किया और दूर-दूर तक संचार व्यवस्था स्थापित की यह भी समाजवाद की दिशा में एक कदम है। जहां शहर के लोग जो संचार तथा इंटरनेट की सुविधा का उपभोग करते हैं, लेकिन दूर विषम परिस्थितियों युक्त गांव के लोग इस सुविधा का उपभोग नहीं कर सकते। सरकारी व्यवस्थाओं के अंतर्गत अब तक उन गांव में संचार व्यवस्था नहीं पहुंच सकी थी। अब वहां संचार व्यवस्था की सुविधा है, इस वजह से गांव और दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले लोग और शहरों में रहने वाले लोगों को संचार के मामले में समान सुविधा मिल रही है। अर्थात समानता आई है, और समानता लाने का विचार ही समाजवाद है। इस प्रसंग में समाजवाद पूंजीपतियों के द्वारा लाया गया, इसलिए यह कहा जा सकता है, की सरकार पूंजीपतियों के सहयोग से विकास के कार्यो को तो तीव्र कर ही सकती है, साथ ही समाजवाद की दिशा में भी आगे बढ़ सकती है।

यह मानना होगा, कि पूंजीपतियों के हाथ में विकास की गति तीव्र हो जाती है। बजाय सरकारी व्यवस्थाओं में हो रही विकास की गति से। इसीलिए आज युवाओं से स्टार्टअप और अपने इनिशिएटिव को आगे बढ़ाने के लिए जागरूक किया जा रहा है।

 किंतु साथ ही सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए, कि पूंजीपतियों की मनमानी आरम्भ ना हो जाए, और ख्याल रखना होगा, कि कहीं समाज में ऐसा भी वर्ग हो जिसका जीवन स्तर इतना निम्न है। तथा आय इतनी कम है, कि वह किसी भी सेवा का लाभ नहीं उठा पा रहा है।।

पूंजीवाद के चरम पर होने के नुकसान हम अगले आलेख में देखेंगे….

साम्यवाद का विचार | मार्क्सवाद


समाजवाद की चरमता साम्यवाद है। या ऐसा कह सकते हैं, कि समाजवाद के विचार को जब अधिक विकसित किया गया तो साम्यवाद विचार का जन्म हुआ, और जो कि मार्क्सवाद है। जब समाजवादी विचार लोकप्रिय होने लगा तो इस विचार को चरमता तक पहुंचाने के लिए साम्यवादी विचार का जन्म हुआ।

 यदि ऐसा कहा जाए, कि जहां समाजवाद में समाज में संसाधनों को सभी में समान रूप से वितरण की बात की गई है, और व्यक्तिवाद का विरोध किया गया है। तो साम्यवाद कुछ अन्य मूल्यों को समाज के लोगों के लिए होने की पैरवी करता है। हालांकि साम्यवाद भी समाजवाद की भांति पूर्ण तो परिभाषित नहीं किया जा सकता। जैसे समाजवाद को पूंजीवाद के स्वरूप और परिस्थितियों के अनुरूप अलग-अलग प्रकार का हो सकता है और अलग-अलग ढंग से परिभाषित और प्रयोग किया गया है। 

मार्क्स तथा एंगेल्स  द्वारा साम्यवाद विचार को जन्म दिया गया। “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र” जिसे वैज्ञानिक कम्यूनिज्म का मूल कहा जाता है। इसी में मार्क्सवाद और साम्यवाद के विचार की विवेचना की गई है। इसे कॉल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने तैयार किया था।

जहां समाजवाद व्यक्तिवाद का विरोध संसाधनों का समाज में समान वितरण की पैरवी करता है। वही साम्यवाद लोगों के लिए कुछ अन्य मूल्यों की प्राप्ति का भी सिद्धांत रखता है। जैसे स्वतंत्रता और समानता के सामाजिक राजनीतिक आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। न्याय सबको प्राप्त हो, समाज वर्ग विहीन होगा केवल मानवता एकमात्र जाति हो। इसीलिए साम्यवाद समाजवाद की चरम अवस्था को व्यक्त करता है।

जहां समाजवाद में व्यक्ति के कर्तव्य व अधिकार का वितरण~>

“प्रत्येक को अपनी क्षमता अनुसार और प्रत्येक को अपनी कार्य के अनुसार” 

वहीं साम्यवाद में~>

“प्रत्येक को अपनी क्षमता अनुसार और प्रत्येक को आवश्यकतानुसार” सिद्धांत को लागू किया जाता है।

साम्यवाद के सिद्धांत निजी संपत्ति होने को पूर्ण विरोध व संपत्ति की समाप्ति की पैरवी करता है। भारत में समाजवाद का स्वरूप इस समाजवाद और साम्यवाद से अलग है, जिसमें पूंजीवाद या निजीवाद को पूर्ण निषेध किया गया है। भारत के समाजवाद को जो समाजवाद का विशेष स्वरुप है, लोकतांत्रिक समाजवाद कहा जाता है।।

समाजवाद का विचार और पूंजीवादी | मार्क्सवाद

समाजवाद समाज में समानता के लक्ष्य का सिद्धांत है। इसे पूर्ण रूप से परिभाषित तो नहीं लेकिन समाजवाद मजदूर वर्ग को अपना आधार मानकर समाज में बराबरी के लिए एक संघर्ष का आंदोलन रहा है। क्योंकि समाजवाद मजदूर वर्ग को वंचित वर्ग मानता है। समाजवाद का अंतिम लक्ष्य समाज को वर्ग रहित करना है। इसलिए मार्क्स ने कहा “दुनिया के मजदूर एक हो जाओ”

समाजवाद की राजनीतिक विचारधारा 19वीं सदी में यूरोप के देशों में विशेषकर इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों में लोकप्रिय होने लगी। समाजवाद दरअसल वहां के समाज और उन देशों में औद्योगिकरण की तेज विकास गति का परिणाम था। पूंजीपतियों के जन्म ने समाज में अन्य वर्गों को बहुत नीचे गिरा दिया और उनमें समाजवाद का विचार लोकप्रिय हो गया।

समाज जो पूर्व से व्यक्तिवाद पर चल रहा था। अर्थात हर व्यक्ति अपने उत्थान के लिए अपनी क्षमता अनुसार प्राप्त कर सकता है, और आगे बढ़ता है। किंतु औद्योगिकीकरण के बाद यह बड़े अंतर का कारण हो गया। समाज में एक वर्ग पूंजीपतियों का बहुत ऊंचा तैयार हो गया तथा एक अन्य वर्ग जो निम्न वर्ग कहलाया या वंचित वर्ग। 

समाजवादियों ने मजदूर वर्ग को वंचित वर्ग कहा और उनसे अपील की कि वे एक हो जाएं।

यूं भी कह सकते हैं, कि उन्नीसवीं सदी के आरंभ में समाजवादी वह विचारधारा है, जो व्यक्तिवाद का विरोध करते और दुनिया के या राज्य के सभी संसाधनों को सभी में समान रूप से वितरण होना चाहिए ऐसा मानते। 

समाजवादी पूंजीवाद के विरोधी हैं। समाजवादी सिद्धांत का एक मुख्य विरोध है, कि वह समाज में निजी संपत्ति और उसके आधार पर उस व्यक्ति को प्राप्त अधिकारों का विरोध करते हैं। वे चाहते हैं, कि राज्य की संपूर्ण धन संपत्ति का स्वामित्व और उसका विवरण या तो सीधे समाज के हाथों में रहे या राज्य के हाथों में।।

साम्यवादी विचारधारा ही मार्क्सवाद कहलाती है। कार्ल मार्क्स एक समाजवादी विचारक थे। साम्यवाद को इस आलेख में जाने… साम्यवाद का विचार | मार्क्सवाद

लोकतांत्रिक समाजवाद | भारत में समाजवाद का स्वरूप

समाजवाद

लोकतांत्रिक समाजवाद वह विचार है। जिसमें समाजवादी विचार का अनुसरण तो है ही, किंतु साथ ही पूंजीवादी विचार को भी स्थान प्राप्त है। अर्थात समाज में धनवान वर्ग को भी स्थान दिया गया है। जबकि समाजवाद इसका विरोध करता है। उसका अंतिम लक्ष्य समाज को वर्ग रहित बनाना है जहां सभी बराबर हो।

लेकिन भारत में समाजवाद का स्वरूप यही है। जहां पूंजीपतियों को उन्नति का अवसर प्राप्त है। और सरकार भी अपनी संस्थाओं को जिन पर उसका नियंत्रण है, आगे बढ़ाती है। और यह सरकार और पूंजीपतियों के प्रयास से और कार्यों में उनके सामन्जस्य से प्राप्त समाजवाद की धारणा पर विश्वास करता है।

भारत के संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा जिसे मिनी कॉन्स्टिट्यूशन कहा जाता है, समाजवाद शब्द जोड़ा गया था। भारत का समाजवाद सदैव विशेष स्वरुप को लिए रहा। जहां भारत में समाजवादी विचार के तहत वंचित वर्ग को महत्व दिया गया। वहीं पूंजीवादी वर्ग को भी उनकी उन्नति से वंचित नहीं किया गया। वंचित को बराबरी तक लाने के प्रयास आरंभ हुए किंतु यह पूंजीपतियों का विनाश कर ऐसा नहीं किया गया, बल्कि दोनों को स्वतंत्र रूप से बढ़ने के अवसर उपलब्ध किए गए। वहीं वंचित वर्ग को विशेष तौर से आगे बढ़ाने के लिए प्रयास आरंभ हुए जैसे आरक्षण आदि अनेक सरकारी योजनाएं जिनका उद्देश्य वंचित वर्ग को बराबरी तक लाना होता है।

समाजवाद और साम्यवाद की धारणा जब अपनी सर्वोच्चता पर थी तो विचार था, कि सभी मजदूर वंचित वर्ग एक हो जाओ और पूंजीपतियों का अंत कर दो और सारा धन संपत्ति सब में बराबर बांट दो।

किंतु भारत में पूंजी पतियों की उन्नति को भी समाजवाद लाने की दिशा में एक कदम के रूप में देखा गया।

1982 में बी०एस० नाकारा केस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में समाजवाद के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए टिप्पणी की कि समाजवाद~>

“पालने से लेकर कब्र तक सुरक्षा प्रदान करना” है।

 इस समाजवाद को प्राप्त करने के लिए तीन बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित किया गया~>

● आय की असमानता को कम किया जाए।

● जीवन स्तर के असमानता को दूर किया जाए। 

● मजदूर, शोषित वर्ग, वंचितों का कल्याण।

 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस निर्णय में नहीं कहा गया, कि संसाधनों का समाजीकरण या उन्हें बांट दिया जाए। अर्थात पूंजीवाद की संभावना है। और भारत के समाजवाद में पूंजीवाद का उन्नयन होता रहा। इस प्रकार भारत का समाजवाद विशिष्ट स्वरूप लिए है।।

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2022

धैर्य की उपयोगिता Aug 1965 | Shantikunj Haridwar

   कोई भी काम करने में धैर्य की नितांत आवश्यकता है। जो धैर्यवान है, वह कर्म करने से पहले उसके शुभ अशुभ परिणाम पर विचार कर सकता है। उसको सफल बनाने के लिए मार्ग निर्धारित कर सकता है। अपने कर्म के सत्-असत एवं उपयोगिता-अनुपयोगिता पर सोच सकता है। इसके विपरीत जो अधैर्यवान है, आवेश अथवा उद्वेगपूर्ण है, वह ना तो कर्म की इन आवश्यक भूमिकाओं पर विचार कर सकता है और न दक्षता प्राप्त कर सकता है। वह तो अस्त-व्यस्त क्रियाकलाप की तरह एक निरर्थक श्रम ही होता है।

    अधैर्य मनुष्य का बहुत बड़ा दुर्गुण है। अधीर व्यक्ति में अपेक्षित गंभीरता का अभाव ही रहता है, जिससे वह चपलता के कारण समाज में उपहास, उपेक्षा और निंदा का पात्र बनता है। अधिक व्यक्ति के मन बुद्धि स्थिर नहीं रहते। वह न किसी विषय में ठीक से सोच सकता है और ना कर्तव्य का निर्णय कर सकता है। अधैर्यवान व्यक्ति अदक्षता, अस्त-व्यस्तता, अनिर्णयात्मकता एवं अक्षमता के कारण जीवन के हर क्षेत्र में असफल होकर दुख भोगता है इसके विपरीत जो धैर्यवान है, वह जिस कार्य को पकड़ता है, उसे पूर्ण मनोयोग, विवेक, बुद्धि और समग्र शक्ति लगाकर पूरा किए बिना नहीं रहता। धैर्यवान व्यक्ति कर्म करके उसके फल की प्रतीक्षा में व्यग्र नहीं होता, बल्कि फलाशक्ति से रहित होकर कार्य किया करता है।।

-अखंड ज्योति द्वारा 

24 अगस्त 1965

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏