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चार लोगों के चक्रव्यूह में फंस कर हजारों लोग काम करते हैं।
जब विजय कपूर शहर के नामी बिजनेसमैन अपने पुत्र अजय को समझाता है। वह चाहता है, कि उसका पुत्र एक बड़ा बिजनेसमैन केवल अपने पिता के बदौलत ना बन जाए बल्कि जमीन से लगातार अपने प्रयासों से एक सफल व्यक्ति बनकर पिता की कुर्सी हासिल करे। अजय अपने ही पिता की कंपनी में मजदूरों के काम से आरंभ करता है। मजदूरों का एक यूनियन लीडर जो काम तो करता नहीं अपने दो-तीन करीबियों के साथ बैठकर जुआ खेलता अन्य मजदूरों को अपनी सेवा पर रखता। यह बात अजय को जमी नहीं। वह उससे भिड़ गया, यह कहते कि वह विजय कपूर का बेटा है, और तुम उसकी मिल में काम की बजाय जुआ खेलते हो।
यूनियन लीडर उसे अपने अंडर एक मजदूर कहकर पुकारता है और उसकी बात नहीं सुनता। अजय उस पर हाथ उठाता है, यूनियन लीडर मजदूरों की हड़ताल करवा देता है। विजय कपूर को यह बात मालूम हुई तो वह अजय को यूनियन लीडर से सबके सामने माफी मांगने को कहता है। अजय बेहद संवेदनशील, स्वाभिमानी और सैद्धांतिक व्यक्ति झुकना कभी नहीं चाहेगा क्योंकि वह सही था।
अपने पिता की आज्ञा पर यूनियन लीडर से माफी मांग लेता है उसकी आत्मा में ग्लानी का एक भाव यूं भर जाता है, कि रह-रहकर उमड़ता है। उसके पिता ने इस मामले का कारण अजय के अनुभव की कमी बताया। उसे बताया कि मिल मजदूरों, मैनेजमेंट और मालिक के आपसी तालमेल से चल रही है। रही बात मजदूरों की यदि तुम्हें मालूम है कैसे भेड़ों के बड़े समूह को नियंत्रण में रखने के लिए चार कुत्तों को रखा जाता है।
“यहां चार लोगों के चक्रव्यू में हजारों मजदूर काम करते हैं”
पूर्व से ही भारत के साथ स्थल और जलमार्ग दोनों से व्यापार हो रहा था। भारत से यूरोप जाने के लिए आज के पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, तुर्की से होकर पहुंचा जाता और जलमार्ग से अरब सागर से फारस की खाड़ी या लाल सागर से प्रवेश मिलता हुआ आगे भूमध्य सागर के साथ लगे देशों जैसे इटली और ग्रीस आदि में पहुंचा जाता।
यूरोप का रोमन साम्राज्य दो भागों में विभाजित एक पश्चिम का पश्चिम रोमन साम्राज्य जिसकी राजधानी रोम और पूरब का पूर्वी रोमन साम्राज्य किसकी राजधानी कॉन्सटेन्टिनोपल थी। इस पूर्वी रोमन साम्राज्य को बैजंतिया साम्राज्य भी कहा जाता था। अरबी लोगों ने बैजन्तिया साम्राज्य की राजधानी कॉन्सटेन्टिनोपल कहा।
तुर्की में उस्मानिया साम्राज्य का उदय हुआ, और 1453 में बैजन्तिया साम्राज्य पर विजय प्राप्त कर अब कुस्तुनतुनिया उस्मानिया साम्राज्य में मिल गया। जोकि बैजन्तिया साम्राज्य की राजधानी थी।
कुस्तुनतुनिया का आधुनिक नाम इस्तांबुल है। यह टर्की का हिस्सा है, यह यूरोप महाद्वीप में है, जबकि टर्की शेष पूरा एशिया महाद्वीप में स्थित है। यह कुस्तुनतुनिया या आधुनिक इस्तांबुल यूरोप जाने के मार्ग में अहम था। क्योंकि यहां उस्मानिया साम्राज्य का विस्तार हो गया, उस्मानिया के अधिकार में व्यापार पर बड़े करारोपण हुए इससे वस्तुएं महंगी भी हुई। उस्मानिया साम्राज्य के इस अधिपत्य ने भी यूरोपियों को नया मार्ग ढूंढने के लिए प्रेरित किया।
पूर्व से ही अरब और ईरान के लोग भारत से व्यापार कर यूरोप के देशों तक पहुंचाते थे। इससे उन्हें भी भारत में सीधे व्यापार की लालसा होती।
यूरोप ठंडा क्षेत्र होने के कारण वे मांस का भी काफी प्रयोग करते हैं। उसको सुरक्षित रखने के लिए भी उन्हें मसालों की आवश्यकता होती जो उन्हें भारत से प्राप्त होते थे।
भारत की खोज के लिए यूरोपियों के लिए एक अहम कारण यूरोप में पुनर्जागरण भी था। यूरोप में प्राचीन साहित्य जो मानव पर केंद्रित था, यदि वह कर्म करेगा तो प्राप्त कर सकेगा। तर्क इत्यादि का समावेश था। मध्यकाल में ईश्वर केंद्रित समाज का निर्माण हो गया। सब कुछ ईश्वर की कृपा पर आश्रित है, मान लिया गया। जब कुस्तुनतुनिया को उस्मानिया साम्राज्य में विलीन कर दिया गया, तो बैजन्तिया साम्राज्य के विद्धान अपने प्राचीन साहित्य को भी अपने साथ ले गए। प्रिंटिंग प्रेस की सहायता से उसका प्रसार किया गया। तर्कशक्ति और वैज्ञानिक दृष्टि का विकास हुआ वे सोचने लगे, कि ईश्वर की शक्ति सर्वोच्च है तो बैजन्तिया या जैसे साम्राज्य का अंत कैसे हुआ। यूरोप में पुनर्जागरण हुआ, नवीन ज्ञान की लौ जली। खोज और अविष्कारों का दौरा आया। उनमें जिज्ञासा बढ़ने लगी, और यही जिज्ञासा उन्हें विशाल समुद्र में ले आई।
उन अभियानों को जान लेते हैं, जो यूरोप के देशों ने भारत की खोज के लिए भेजे और उनके प्रयास-
स्पेन ने कोलंबस के नेतृत्व में एक अभियान भेजा जो पश्चिम दिशा में चले जाने से अमेरिका की ओर बढ़ गया और इसलिए हम पढ़ते हैं, 1492 में कोलंबस ने अमेरिका की खोज की।
पुर्तगाल का प्रिंस हेनरी को द नेविगेटर कहा गया। क्योंकि समुद्री खोजों के प्रति उसकी जिज्ञासा और प्रयासों से कुछ हासिल भी हुआ। प्रिंस हेनरी के संरक्षण में अफ्रीका महाद्वीप के पश्चिम तट की ओर कई अभियान भेजे जाते रहे, और अफ्रीका के पश्चिम तट का एक मानचित्र भी तैयार किया गया।
1487 में एक बड़ी सफलता पुर्तगालियों को मिली यह बार्थोलोम्यो डियाज के नेतृत्व में एक जहाजी अभियान का अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिणतम हिस्से तक पहुंचना था। इस स्थान को केप ऑफ गुड होप कहा गया, आशा अंतरीप।
हालांकि बार्थोलोम्यो डियाज ने इसे केप ऑफ स्टोर्म कहा। वह 1488 में लिस्बन पुर्तगाल वापस लौट गया। लगभग 10 वर्षों के बाद 1497 में पुर्तगाली एक अन्य जहाजी बेड़ा वास्कोडिगामा के नेतृत्व में भारत की खोज के लिए निकलता है। केप ऑफ गुड होप से आगे हिंद महासागर में बढ़ने के लिए उसे अब्दुल मनीक नाम का एक व्यापारी जो पूर्व से अरब के व्यापारियों के साथ रहा था, पथ प्रदर्शन के रूप में मिलता है। एक दिशा में चल वे हिंद महासागर से भारत के दक्षिण तटीय क्षेत्र में मालाबार तट तक पहुंचता है। जहां वह पहुंचता है, वह कालीकट था। वर्तमान में से कोझीकोड कहा जाता है। वास्कोडिगामा 1498 में यहां पहुंचा तब कालीकट का शासक जमोरिन था। इसे शामुरी भी कहा गया है।
वास्कोडिगामा अपने सब खर्चों के बाद लगभग 60 गुना मुनाफे के साथ पुर्तगाल पहुंचता है। यह उनकी बड़ी सफलता थी, और अन्य के लिए आकर्षण।
1500 में पेड्रो अल्वारेज एक अभियान का नेतृत्व कर भारत आया इस पुर्तगाली अभियान और आने वाले अभियानों में अब पुर्तगाल की नीति हिंद महासागर में अरब का वर्चस्व तोड़ने की थी। उन्होंनें अरबों पर हमले किए, उनके जहाजों पर हमले किए। 1502 में वास्कोडिगामा फिर भारत आया था पुर्तगालियों ने ब्रिटिश के आने तक लगभग 150 सालों तक अपनी शक्ति भारत में स्थापित रखी।
एक तरफ कांग्रेस अपनी साख बचाने को देश भर में भारत जोड़ो जात्रा से मिशन राहुल को साधने पर लगी है। साथ ही भारत जोड़ो यात्रा आम जनमानस से संवाद स्थापित करने में भी अहम है। और यह राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को जरूर लाभ पहुंचाएगी। किंतु फिर भी 24 का चुनाव ऐसा तो नहीं संभव की कॉन्ग्रेस इकलौती चलकर विजय हासिल कर ले। उसे भाजपा के विपक्षी दलों को एकत्रित करना होगा। लेकिन समस्या यह है, कि विपक्ष क्या वे सभी कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार करेंगे। इसके संबंध में कई बिखराव युक्त टिप्पणियां आना आरंभ हो गया है। इसके चलते ऐसे समीकरण बनते नजर नहीं आ रहे हैं।
देखिए यह तो साफ है, कि विपक्षी दलों का एकजुट होना आवश्यक है। अन्यथा भाजपा को अलग-अलग चलकर पराजय तक ले जाएं, यह तो उतना सरल नहीं। कांग्रेस पिछले कई चुनावों के परिणामों में अपने नेतृत्व की अहम स्थिति को भाजपा के विपक्ष के कई बड़े दलों की दृष्टि में खोई हुई प्रतीत होती है। हां भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी ने कुछ छलांग जरूर लगाई है। किंतु सूचना यह भी आती रही की इस यात्रा में ही कई कांग्रेस के समर्थक दलों ने सीधी भूमिका के स्थान पर शुभकामना भेजना ही ठीक समझा।
ऐसे में सवाल यह है, कि क्या वे राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करते अथवा वे कांग्रेस को ही विपक्षी दलों के गठबंधन का नेतृत्व नहीं देना चाहते। यदि विपक्षी दलों का यह मानना है, तो कांग्रेस के लिए यह बड़ा संकट है। किंतु कांग्रेस ऐसा क्यों मानेगी, वह देश की सबसे पुरानी पार्टी है, और आज भी भाजपा के सामने विपक्ष का अहम चेहरा कांग्रेस ही दे रही है।
इन सब सवालों में प्रमाण सामने हैं, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने यह कह दिया, कि कांग्रेस को इस बार लोकसभा चुनाव में 200 ही के लगभग सीटों पर लड़ना चाहिए, बाकी उसे क्षेत्रीय दलों पर और अन्य पार्टियों पर विश्वास करना चाहिए। यह सलाह शायद भाजपा को हराने के लिए परिस्थिति अनुरूप ठीक लग रहा हो। लेकिन यह कांग्रेस के लिए अपनी बड़ी विरासत छोड़ना है। कांग्रेस का सीमित होना है। उन सबमें जो एक सवाल हमेशा वही बना रहता है, विपक्ष का नेता कौन?
कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी के नाते विपक्ष के गठबंधन में अहम भूमिका निभाने वाली है। किंतु यह किन शर्तों पर हो सकेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यदि वह हो जाता है, ऐसे में विपक्षी गठबंधन नेतृत्व के सर्वसम्मत चेहरे के बिना यह पूर्व की भांति ही गठबंधन होगा। ऐसे में जहां सामने मोदी जी हैं जिनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता ही विपक्षी दलों के लिए भारी पड़ जायेगी।।
राहुल गांधी से ही कांग्रेस पार्टी के हर स्तर पर चुनाव कर आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना की बात करते रहें हैं। यह परिवारवाद के उस बड़े सवाल का जिसे लगातार भारतीय जनता पार्टी द्वारा उठाया जाता रहा है, का परिणाम है। नागालैंड में प्रचार रैली में मोदी जी ने परिवारवाद के हवाले से पुनः कांग्रेस को घेरा। ऐसे में कांग्रेस इन सवालों के निदान में पूरा जोर लगा रही है।
कांग्रेस पार्टी के अहम निर्णय लेने वाली कार्यसमिति में सदस्यों की संख्या कुछ बढ़ाई गई। अब 30 सदस्य कार्यसमिति में होंगे। इसमें महिलाओं, एससी, एसटी, युवाओं आदि को आरक्षण भी दिया गया है। किंतु जब यह तय किया गया कि कांग्रेस पार्टी कि निर्णय लेने वाली अहम कार्यसमिति के सदस्यों का चुनाव नहीं होगा, बल्कि यह प्रस्ताव पारित किया गया कि मलिकार्जुन खरगे जी जो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, को यह अधिकार होगा कि वह सदस्यों को नामित करें, ऐसे में कांग्रेस पर लगने वाले परिवारवाद के सवालों के निवारण अभियान से जो वह आंतरिक हर स्तर पर चुनाव के माध्यम से दर्शाना चाहती थी, से पीछे हट गई। ऐसे में राहुल गांधी और गांधी परिवार का कोई सदस्य संचालन समिति की बैठक में शामिल नहीं हुआ, जहां कार्यसमिति के सदस्यों को नामित किया जाना था। मतलब साफ है, कि कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ताओं में यह दर्शना चाहती है, कि गांधी परिवार के हस्तक्षेप से इतर अब मलिकार्जुन खरगे जी ही कांग्रेस के सभी फैसले लेंगे। कार्यसमिति के सदस्यों को चुनाव के माध्यम से नहीं चुने जाने का फैसला जितना विपरीत है, उतना ही यह न करने के पीछे दिया गया कारण एक तरह से सही भी है। कारण दिया गया, कि इस समय चुनाव से कांग्रेस में आंतरिक विभाजन हो जाएगा। कांग्रेस की अपनी वर्तमान परिस्थितियों के लिए यह फैसला ठीक हो सकता है। किंतु आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापना की कांग्रेस की पहल इस के कारण से पीछे हो गई है। लोकतंत्र में चुनाव एक अहम प्रक्रिया है। इस से निर्मित व्यवस्था सर्वसम्मति की व्यवस्था मानी गई है।
दरअसल कांग्रेस पूर्व से ही अपने दिल के शासनकाल में उपजे घोटालों, भ्रष्टाचार, परिवारवाद, कुशासन जैसे आरोपों के घेरे में है। उसे इससे पार पाने के लिए बड़े प्रयासों की आवश्यकता है। इसमें भारत जोड़ो यात्रा बड़ा कदम है। जिसका उद्देश्य आम जनमानस तक पहुंच बनाना था। संवाद ही लोकतंत्र में पार्टियों का मूल हथियार है। जिसका संवाद आम जनमानस से जितना बेहतर होगा वह पार्टी उतनी ऊंचाई हासिल कर लेगी। कांग्रेस ने यात्रा से यही करने का प्रयास किया है। इससे जरूर लाभ होगा। किंतु चुनाव में आगामी वर्ष कांग्रेस को कितना लाभ इससे मिलेगा यह देखने का विषय है। क्योंकि तर्क यह भी है, की यात्रा की भीड़ उत्साहित करने वाली हो सकती है, किंतु यह चुनावी रैलियों की भीड़ के जैसे भी हो सकती है, जिन्हें पार्टी के वोटर होना पक्का नहीं कहा जा सकता।।
एक वर्ष हो चुका है। रूस और यूक्रेन के मध्य युद्ध जारी है। यह युद्ध पूरी दुनिया के लिए मुसीबत बना हुआ है। कोरोना से उभरने के बाद कुछ गति जो विकास कार्यों की ओर अपेक्षित थी रूस-यूक्रेन युद्ध ने उस गाड़ी का टायर पंचर कर दिया। बात साफ है, वैश्वीकरण के युग में आप दुनिया के किसी राष्ट्र में हो रही हलचल से बिना प्रभावित हुए बचकर नहीं निकल सकते। हमारे देश में जो मांगे पैदा होती हैं, उनकी आपूर्ति के लिए विदेशों से आयात होता है, और विदेशों की आवश्यकता की आपूर्ति के लिए भारत उन्हें वस्तुएं निर्यात करता है। अतः हम संपूर्ण विश्व से परस्पर जुड़े हैं। इस वर्ष भारत को जी-20 सम्मेलन की अध्यक्षता के संदर्भ में प्रधानमंत्री जी ने इसीलिए ही कहा, कि कोई तीसरी दुनिया नहीं है हम सब एक नाव पर सवार है। यह कहने का तात्पर्य ही था कि हम सब की संपूर्ण दुनिया में तमाम राष्ट्रों की समस्याएं एक समान ही हैं। इसका प्रमाण दिया है, कोरोना महामारी ने और उसके बाद रूस-यूक्रेन युद्ध के समय दुनिया का हर राष्ट्र आज महंगाई, खाद्य संकट, ऊर्जा संकट आदि समस्याओं का सामना करने को मजबूर है। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के एक वर्ष होने के साथ अब तक शांति के कोई प्रयास साकार होते नहीं दिखते। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ में रूस-यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर भारत, चीन, पाकिस्तान के साथ लगभग 30 से अधिक देशों ने वोट नहीं दिए, और अपनी स्थिति को बरकरार रखा। इसका यही कारण रहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जो प्रस्ताव रखा गया, उसमें रूस के पक्ष में कोई बात नहीं थी, अर्थात रूस जिन कारणों से युद्ध में है, उन विषयों को प्रस्ताव में कोई स्थान नहीं दिया गया। ऐसे में यह प्रस्ताव रूस की सैनिक अभियान को निरर्थक साबित करता है। क्योंकि प्रस्ताव में रूस जिन कारणों से युद्ध में है, अथवा रूस की महत्वकांक्षी का स्थान नहीं है, इस कारण से इस प्रस्ताव को रूस और उसके समर्थक राष्ट्र स्वीकृति क्यों देंगे। वहीं भारत, चीन, पाकिस्तान आदि राष्ट्र इस पर वोटिंग ना करना ही ठीक समझते रहेंगें। इस प्रकार यह प्रस्ताव केवल एक प्रयास ही रह जाएगा। भारत का पक्ष शांति स्थापित हो इसी और है। इसका प्रमाण है, जब मोदी जी ने रूसी राष्ट्रपति से कहा था, कि यह युद्ध का समय नहीं है। किंतु साथ ही भारत का अपने पारंपरिक मित्र से दोस्ती बनाए रखने का भी प्रश्न है। किंतु भारत की अंतरराष्ट्रीय मंचों पर निष्पक्षता और स्पष्टवादिता ने यूक्रेन को निराश नहीं किया है। भारत ने इसीलिए वोटिंग में प्रतिभाग नहीं किया। इससे यह तो साफ होता है, कि भारत रूस के सैनिक अभियान कि साथ नहीं है। किंतु वहीं भारत ने यूक्रेन के पक्ष में भी मत नहीं दिया है। चीनी भी रूस के सैनिक अभियान पर कुछ नहीं कहा है। हां अमेरिका और यूरोपियन राष्ट्रों द्वारा यूक्रेन को हथियार उपलब्ध कराए जाने की निंदा की और इसी को यूक्रेन में युद्ध जारी रहने का कारण बताया।
अमेरिका ने हाल ही में यूक्रेन को 2 अरब डॉलर के हथियार उपलब्ध करवाने की घोषणा की है। इस प्रकार के निरंतर समर्थन के चलते यूक्रेन युद्ध के मोर्चे से पीछे नहीं हटने वाला है, और सामने रूस अपने दृढ़ हठ पर अड़ा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के एक वर्ष हो जाने पर दुनिया के अनेक देशों ने रूस के सैनिक अभियान के विरोध में प्रदर्शन किए। जर्मनी में एक खूनी रंग का केक बनाकर उस पर मानव खोपड़ी रखकर प्रदर्शन किया गया। रूसी दूतावास के सामने एक जर्जर टैंक को रखा गया, और रूस की दुनिया में कमजोर स्थिति को दर्शाया गया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने भी यूक्रेन में हुए हमलों से गई जानों के लिए 2 मिनट का मौन धारण किया। ब्रिटेन के सम्राट जेम्स तृतीय ने भी अपनी संवेदना प्रकट की। अन्य कई और स्थानों पर भी प्रदर्शन की खबरें रही।।
प्राचीन समय से ही राज परिवारों ने और शासकों ने अपनी कन्याओं के विवाह से अपने साम्राज्य को स्थापित करने की नीति का अनुसरण किया। कन्या को श्रेष्ठ पक्ष को सौंपकर विवाह संबंध स्थापना से उन्हें राजनीतिक लाभ प्राप्त हुए। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हर्यक वंश का शासक बिम्बिसार ने विवाह नीति का अनुसरण किया। उसकी तीन रानियां थी। पहली महाकौशल देवी जो कौशल प्रदेश की राजकुमारी थी, और प्रसनजीत जो अति प्रसिद्ध राजा हुआ, कि बहन थी। से विवाह किया और उसे दहेज में काशी प्राप्त हुआ। उसकी दूसरी रानी लिच्छवी शासक चेटक की बहन थी। इन्हीं से बिंबिसार का पुत्र अजातशत्रु का जन्म हुआ। लिच्छवी बेहद मजबूत गणराज्य हुआ करता था। और इससे बिंबिसार को अवश्य बल और राजनीतिक वर्चस्व हासिल हुआ होगा। उसकी तीसरी रानी मद्र की राजकुमारी क्षेमा थी।
आज से 2300 साल पहले जब चंद्रगुप्त मौर्य ने 305 ईसा पूर्व में सेल्युकस को परास्त किया, तो उसने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य से किया। और भी संधि के अनुसार कार्य किए गए। किंतु यह भी राजनीतिक क्रियाकलाप के फल स्वरुप ही हो सका। अतः यह विवाह भी राजनीतिक रूप से प्रेरित था।
भारत ही नहीं विदेशों में भी यह चलन रहा। जुलियस सीजर की कथा में और अन्य कई चलचित्रों में भी दिखाया जाता है, कि राज परिवार किस प्रकार अपनी पुत्री धन का प्रयोग अपनी सत्ता को कायम रखने या और ऊंचा उठाने में करते रहे थे। जुलियस सीजर को ही दिखाया गया है, कि वह कैसे अपनी पुत्री का विवाह अपनी ही उम्र के अपने मित्र से कर देता है। बदले में वह अपने मित्र से सेना की टुकड़ी हासिल कर लेता है, फिर अपनी विजय यात्रा के लिए निकल पड़ता है, जिससे वह रोम में अथाह प्रसिद्धि हासिल करता है, और रोम के लोगों के लिए अत्यधिक धन लूट कर लाता है। यह सब इसलिए कि वह अपनी पुत्री का अपने मित्र से विवाह कर देता है। और बदले में सैनिक टुकड़ी पाता है।
गुप्त काल में चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छिवियों की राजकुमारी से विवाह कर दिया। जिसका नाम कुमारदेवी था। लिच्छवी गणराज्य की शक्ति पर ही वह अपना गुप्त साम्राज्य स्थापित कर पाता है, यह वर्णन आता है।
आधुनिक भारत के इतिहास में पुर्तगाली गवर्नर अलबुकर्क ने विवाह संबंध नीति को प्रयोग कर अपने साम्राज्य को स्थापित करने का प्रयास किया। क्योंकि भारत में हिंदू धर्म में विधवा औरतों का विवाह वर्जित था, उसने उन्हें अपने पुर्तगाली ईसाइयों से विवाह कर लेने को कहा, और पुर्तगाली बस्ती स्थापित करने का प्रयास करता रहा।
जोशीमठ यह स्थल कुछ अप्रिय घटनाओं के कारण चर्चा का विषय बना हुआ है। जोशीमठ में बड़ी मात्रा में भूधंसाव हो रहा है। यह इतना गंभीर मामला है, क्योंकि उस शहर के अस्तित्व पर ही खतरे की तरह दिख रहा है। जोशीमठ जो ऐतिहासिक धार्मिक और सामरिक महत्व के बारे स्थान है। ऐतिहासिक इस प्रकार से जोशीमठ की स्थापना आदि शंकराचार्य ने आठवीं सदी में की। यह वही आदि शंकराचार्य हैं, जिन्होंने संपूर्ण देश को एकता के सूत्र में बांधने के लिए चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। श्रृंगेरी मठ, गोवर्धन मठ, शारदा मठ और ज्योर्तिमठ। ज्योर्तिमठ नाम इसलिए है, क्योंकि यहां आदि शंकराचार्य ने ज्ञान प्राप्त किया, यहां उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। क्योंकि उन्हें ज्ञान रूपी ज्योति यहां प्राप्त की इसलिए यह ज्योर्तिमठ है। हर मठ के अंतर्गत एक वेद रखा गया है। ऋग्वेद की बात करें, तो यह गोवर्धन मठ के अंतर्गत रखा गया है। वही ज्योर्तिमठ के अंतर्गत जो वेद रखा गया है, वह अर्थवेद है। हर मठ में दीक्षा लेने वाले सन्यासियों के नाम के बाद संप्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है, जिस आधार पर वे उसी संप्रदाय के सन्यासी कहे जाते हैं। हर मठ का एक महावाक्य होता है। “अहं ब्रह्मास्मि” जो हम सब जानते हैं, श्रृंगेरी मठ का महावाक्य है। ज्योर्तिमठ का महावाक्य है- “अयमात्मा ब्रह्मा”
यह स्थान धार्मिक महत्व का है। यह स्थान जहां आदि शंकराचार्य ने भारतीय दर्शन की महत्वपूर्ण रचना शंकर भाष्य लिखी। यह स्थान प्राचीन समय से ही वैदिक शिक्षा का केंद्र बना रहा। आज तक यह बद्रिकाश्रम धाम का शीतकालीन गद्दीस्थल है। यहीं पूजा होती है। सामरिक दृष्टि से भी जोशीमठ महत्वपूर्ण है, क्योंकि चीन के साथ अपनी सीमा को साझा करने वाला चमोली जिला वहां अर्धसैनिक बलों के लिए जोशीमठ एक अहम पड़ाव है, यहां से सैनिकों को सीमा तक संचालित किया जाता है। इसलिए यह स्थान अपना सामरिक महत्व रखता है। जोशीमठ में लगातार भूधंसाव हो रहा है। ऐसा नहीं है, कि यह अभी प्रकाश में आया हो, यह पूर्व में भी प्रकाश में आया है। इस वक्त यह बेहद विकराल रूप में सामने आया है। इस वक्त पर जिन कारणों को सामान्य दृष्टि से देखा जा रहा है- 1. क्षेत्र में चल रही हाइड्रो परियोजना कार्य जिसमें तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजना का कार्य है। 2. चार धाम ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट के तहत बदरीनाथ हाईवे पर हो रहे कार्य। 3. जल निकासी की उचित व्यवस्था नहीं होना। हालांकि ये निर्माण कार्य वहां सरकार द्वारा या वहां जिला प्रशासन द्वारा रोक दिये गए हैं। किन्तु यह कुछ कारणों को ही अहम माना जा रहा है। इसके अलावा अन्य भी कुछ जैसे वहां कई बड़े-बड़े होटलों का निर्माण को अनियमित मानकर दोसपूर्ण बताया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि यह सब इतने विकराल स्वरूप में एकदम से चमत्कारिक ढंग से सामने आया हो। बल्कि यह लंबे समय से धीरे-धीरे सामने आ रहा था। जो पूर्व में भी प्रकाश में आया था। तत्कालीन सरकार ने कार्यवाही भी की। 1970 से ही जोशीमठ में भूधंसाव की घटनाएं सामने आ रही है। 1976 में तत्कालीन सरकार ने इस संबंध में एक कमेटी गठित की। तत्कालीन गढ़वाल मंडल आयुक्त महेश चंद्र मिश्रा उनका नाम की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने क्षेत्र का गहराई से अध्ययन किया। कारणों की जांच की और रिपोर्ट सरकार को सौंपी, कमेटी ने सुझाव दिए- 1. जोशीमठ में वर्षा और घर से निकालने वाले जल की निकासी का उचित प्रबंधन किया जाए। 2. अलकनंदा नदी के द्वारा होने वाले कटाव का रोकथाम किया जाए। उस समय कुछ कार्य भी किए गए, कुछ नहरें इत्यादि बना दी गई। किंतु इस पर आवश्यकता अनुरूप अमल नहीं किया गया। विषय को गंभीरता से नहीं देखा गया। परिणाम आज भीषण समस्या बनकर सामने है। इसी में यह बात निकलकर भी सामने आई थी, जोशीमठ शहर पूर्व में कुंवारी पास के नजदीक हुए भूस्खलन में आए मलबे के ऊपर बसा है। वही नीचे से अलकनंदा नदी जो सामान्य नदी का गुण वो कटान कर रही हैं। अब नीचे कटान होगा तो ऊपर भूस्खलन होगा ही। हिमालय क्षेत्र में गांव मलबे पर ही बसे हैं। हां यह बात है कि वह चट्टान का रूप ले चुका है। उधर हिमालय की निर्माण प्रक्रिया अभी जारी है, ऐसे में भूगर्भिक हलचल का होना स्वाभाविक बात है। वहां जो टीम कारणों का पता लगाने पहुंची है। क्योंकि वहां मटमैला जल मिला है, तो भूगर्भीक हलचल होने की बात कही जा रही है। बस मानव के लिए यह विषय देखने का है, कि हम किस प्रकार विज्ञान का अपनी आधुनिकता का प्रयोग कर इन चुनौतियों का सामना करते हैं, और बच कर निकल जाते हैं। तब हम उसे विकास कह सकते हैं। हमें यह समझना है, कि मैदानी क्षेत्रों में निर्माण कार्य और पहाड़ी क्षेत्र में निर्माण कार्य दो अलग बातें हैं। जिस गति से मैदानों में भारी कंस्ट्रक्शन हो सकता है, पहाड़ों में यह उतना संभव नहीं है, जो पहाड़ों को मैदान बनाने की प्रक्रिया चल रही है। यदि प्रकृति स्वयं कर रही है, तो ठीक है। किन्तु यदि यह मानव करेगा तो प्रकृति रिप्लाई करेगी। आपने निर्माण कार्य के लिए जो इस भूमी में परिवर्तन किया है, और उस परिवर्तन से जो इस भूमि में विरूपण हुआ है, उस विरूपण को संतुलित करने के लिए यह भूमी रिप्लाई करेगी। वह रिप्लाई भूगर्भीय हलचल होगी। और उसका परिणाम भूस्खलन, भूकंप, बाढ़ आदि अनेक आपदाएं होंगी।
नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏