नमस्कार साथियों
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कोई भी काम करने में धैर्य की नितांत आवश्यकता है। जो धैर्यवान है, वह कर्म करने से पहले उसके शुभ अशुभ परिणाम पर विचार कर सकता है। उसको सफल बनाने के लिए मार्ग निर्धारित कर सकता है। अपने कर्म के सत्-असत एवं उपयोगिता-अनुपयोगिता पर सोच सकता है। इसके विपरीत जो अधैर्यवान है, आवेश अथवा उद्वेगपूर्ण है, वह ना तो कर्म की इन आवश्यक भूमिकाओं पर विचार कर सकता है और न दक्षता प्राप्त कर सकता है। वह तो अस्त-व्यस्त क्रियाकलाप की तरह एक निरर्थक श्रम ही होता है।
अधैर्य मनुष्य का बहुत बड़ा दुर्गुण है। अधीर व्यक्ति में अपेक्षित गंभीरता का अभाव ही रहता है, जिससे वह चपलता के कारण समाज में उपहास, उपेक्षा और निंदा का पात्र बनता है। अधिक व्यक्ति के मन बुद्धि स्थिर नहीं रहते। वह न किसी विषय में ठीक से सोच सकता है और ना कर्तव्य का निर्णय कर सकता है। अधैर्यवान व्यक्ति अदक्षता, अस्त-व्यस्तता, अनिर्णयात्मकता एवं अक्षमता के कारण जीवन के हर क्षेत्र में असफल होकर दुख भोगता है इसके विपरीत जो धैर्यवान है, वह जिस कार्य को पकड़ता है, उसे पूर्ण मनोयोग, विवेक, बुद्धि और समग्र शक्ति लगाकर पूरा किए बिना नहीं रहता। धैर्यवान व्यक्ति कर्म करके उसके फल की प्रतीक्षा में व्यग्र नहीं होता, बल्कि फलाशक्ति से रहित होकर कार्य किया करता है।।
इस परिसर को देख मुझे जो ख्याल आता है। जैसे इतिहास के पृष्ठों में हम यूं तो भारत के प्राचीन सभी धर्म किंतु विशेषकर बौद्धों के संघाराम तात्पर्य बौद्ध मठों या मंदिरों से है, जहां बहुत से व्यक्तियों के ठहरने का प्रबंध होता था। जहां वे लगातार निर्बाध अध्ययन करते रहते थे। पूरे भारत में ऐसे कई संघाराम होते थे। जो बौद्ध भिक्षुओं को संरक्षण व बौद्ध धर्म को बढ़ावा देने के लिए होते थे। भगवान बुद्ध के बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद से और ईसा के जन्म के बाद जब तक मोटे तौर पर गुप्त वंश का साम्राज्य नहीं आया था। बौद्धों को खूब संरक्षण मिला। कन्नौज का राजा हर्षवर्धन भी बौद्धों का ही मुख्य संरक्षक था। लेकिन पुष्यमित्र शुंग का प्रण की वह बौद्धों बिग को समाप्त कर देगा। दूसरी सदी ईस्वी में बौद्धों के एक ग्रंथ में बताया गया है, कि पुष्यमित्र ने कैसे एक संघाराम कुक्कुटाराम जो पाटलिपुत्र में था, को नष्ट कर दिया।वहां बौद्धों को कैसे मार दिया। यह भी एक प्रसंग बताया गया है।
शांतिकुंज के परिसर में वैदिक ऋषियों के नाम पर और विद्वानों के नाम पर भवन बनाए गए हैं। और ध्येय वाक्यों और विद्धानों की कही बातों को जगह जगह पर उकेरा गया है।
शांतिकुंज -संस्कारशाला
संस्कारशाला से आगे बढ़ते हैं। संस्कारशाला नाम से जो धर्मशाला का भी एक बड़ा हॉल है। जहां बड़ी संख्या में लोग आप पाएंगे। इसी संस्कारशाला में लोगों के शादी विवाह के कार्यक्रम भी संपन्न होते हैं। बड़ी संख्या में जोड़ें यहां विवाह को वैदिक परंपरा विधि विधान से बड़े सामान्य ढंग से संपन्न करवाते हैं। पंडित, मंत्रों का उच्चारण मंच से ही करते हैं, और सामने बैठे कई जोड़े का विवाह एक साथ संपन्न होता है। यह विवाह वैदिक विधान से संपन्न करवाते हैं। यह धूमधाम से विवाह के लिए आपको जगह नहीं देते हैं।
चित्र में -शांतिकुंज में विवाह
वहां के पुरोहितों की यह निष्ठा ही है, कि वह जिस प्रकार विवाह के अर्थ को और विवाह के लिए हर विधि विधान जो वे कर रहे हैं। उनके संदर्भ में स्पष्ट करते हुए समझाते जाते हैं। पति-पत्नी के धर्म की व्याख्या करते हैं। विवाह के अर्थ को स्पष्ट करते हैं।
संस्कारशाला के इस दीवार पर आप लिखा पढ़ सकते हैं। कि || वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः || हम पुरोहित राष्ट्र को जागृत एवं जीवंत बनाए रखेंग
संस्कारशाला से आगे नचिकेता भवन जो एक बड़ी बिल्डिंग है। यहां भी बहुत से कपड़े बिल्डिंग के हर मंजिल में बाहर रेलिंग पर सूख रहे हैं। लगता है, यहां भी यात्री आदि या शांतिकुंज के विद्यार्थी, ब्राह्मण या स्वयंसेवी रहते होंगे। शायद कुछ लोग यहां के स्थाई रहने वाले भी हैं। वह भी इन भवनों में उपलब्ध कमरों में रहते होंगे। नचिकेता भवन के मुख्य द्वार पर ही नौ दिवसीय संजीवनी साधना सत्र की सूचना का भी एक बोर्ड लगा है। तात्पर्य है, कि यहां दैनिक रूप से कार्यक्रम होते ही रहते हैं। शान्तिकुन्ज के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता है।
जगह जगह पर मार्ग के दोनों ओर तख्तियों पर मानव के लिये लिखे आलेखों द्वारा सीख दी जा रही हैं। ऐसा ही एक नचिकेता भवन के बाहर अखंड ज्योति द्वारा 1965 अगस्त 24 का लिखा आलेख “धैर्य की उपयोगिता” धैर्यवान होने की सीख देता है।।
चित्र में- शांतिकुंज परम तपस्वी ऋषियुग्म पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा
शांतिकुंज से पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का नाम याद आ जाता है। आपने इनका नाम भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा जो गायत्री तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार के तत्वाधान में अखिल विश्व गायत्री परिवार के सौजन्य से करवाई जाती है, के कारण जरूर सुना होगा। पूरे देश में इनकी शाखाएं और कई कार्यकर्ता होते हैं। और यह परीक्षा उन्हीं के द्वारा पूरे देश में संचालित होती है। संस्कृति ज्ञान परीक्षा की किताब जो हर छात्र को विद्यालय स्तर तक और सभी अन्य स्तरों पर होने वाली इस परीक्षा की तैयारी के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं। विद्यालय स्तर से अन्य सभी स्तरों पर विजेताओं को प्रथम द्वितीय और तृतीय स्तर के पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। उद्देश्य एक ही है, भारतीय प्राचीन संस्कृति के ज्ञान से नई पीढ़ी को अवगत करवाना।
चित्र में- शांतिकुंज परिसर मे प्रवेश के लिए एक द्वार
शांतिकुंज एक आश्रम एक धर्मशाला जहां कई लोग निशुल्क रुकते हैं, हरिद्वार में यह धार्मिक आकर्षण का एक मुख्य केंद्र है। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज के विषय में यहां इस आलेख से पता चलता है कि-
चित्र में- गायत्री तीर्थ शांतिकुंज के विषय में
“शांतिकुंज परम तपस्वी ऋषियुग्म पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा की तपोभूमि है। यहां 1926 से प्रज्वलित अखंड ज्योति, हर व्यक्ति के लिए उपयोगी युग ऋषि की लिखी 3200 पुस्तकें, गायत्री माता मंदिर, देवात्मा हिमालय मंदिर, ऋषियुग्म के समाधि स्थल दर्शनीय एवं आस्था के केंद्र हैं। करोड़ों साधकों द्वारा किए गए गायत्री मंत्र, जप, अनुष्ठान, यज्ञ संस्कार और यहां चलने वाले प्रशिक्षण शिविर इसे ऊर्जावान बनाते हैं। जाति लिंग भाषा प्रांत धर्म संप्रदाय आदि के भेदभाव के बिना मानव मात्र के लिए कल्याणकारी सर्वमान्य व विज्ञानसम्मत अध्यात्म चेतना का विश्वव्यापी विस्तार युग तीर्थ शांतिकुंज का प्रमुख अभियान है। शांतिकुंज का संकल्प है-
मानव में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण”
चित्र में- शांतिकुंज परिसर मे एक भवन
शांतिकुंज का परिसर एक वैदिक समाज का परिवेश तैयार करता दिखता है। शानदार उपयोगी वृक्ष वाटिका मुख्य मार्ग के दोनों ओर कम मात्रा में किंतु अलग-अलग प्रकार के होने से आकर्षण का भाग है। बहुत से लोग यहां निशुल्क रुके हुए हैं। यह धर्मशाला के रूप में भी है। कई लोग जो प्रतीत होता है, कि यहां के स्थाई हो गए हैं। लोगों ने अपने वस्त्र यहां मुख्य मार्ग के दोनों और सुखाने को धूप पर रखे हैं। जो एक बड़ा हॉल है, वही धर्मशाला है। जहां लोग अपने अपने सामान के साथ कोई जगह देख कर लेटे हैं, या बैठे हैं। कुछ लोग अंदाजा है, कि स्थाई रूप से यहां रह रहे होंगे, या कुछ लंबे समय से यहां होंगें। शायद वही लोग हैं, जो परिसर में चार पांच मंजिला भवनों में कमरे पाए हुए हैं।
चित्र में- शांतिकुंज द्वारा संचालित अन्य संसथान
परिसर काफी बड़ा है, धर्मशाला के अलावा बाकी अधिकतर क्षेत्र शांत ही है। शांतिकुंज के परिसर में ही लगभग मध्य में एक कैंटीन को भी जगह दी गई है। यहां लोग जो दैनिक रूप से श्रद्धालु या यात्री देखने आते होंगे वह कुछ फास्ट फूड खा लेते होंगे।
भारत में पुर्तगालियों ने अपनी कई कोठियां जो अधिकतर पश्चिम तट पर स्थापित की। जिनमें कोचीन से आरंभ कर गोवा, दमन, दीव, कन्नूर के क्षेत्र में थी। इससे पूर्व की घटनाएं हम खंड पुर्तगालियो का भारत आगमन | खंड 2 में जान चुके हैं।
दो अन्य पुर्तगाली गवर्नर जिनके नाम किन्ही कारणों से आते हैं। एक 1929 में पुर्तगाली गवर्नर बनकर भारत आए नीनो डी कुन्हा। जिसने 1530 में अपना मुख्यालय कोचीन से बदलकर गोवा कर दिया। और गोवा पुर्तगालियों का लंबे समय तक आजादी के बाद तक भी अड्डा बना रहा। 1535 में दीव और 1559 में दमन पर पुर्तगालियों ने कब्जा कर लिया।
गुजरात तट पर दमनतथा दीव -चित्र में
आप देखेंगे कि पुर्तगालियों ने सूरत की ओर अधिक आकर्षण नहीं दिखाया। जबकि बाद में हम जानेंगे, कि डच और ब्रिटिश भारत आते हैं। तो वह सूरत में अपनी कोठियों को स्थापित करते हैं। वहां से सूती वस्त्रों का व्यापार बहुत उन्नत स्थिति में होता था। यह लोग जब किसी स्थान पर कोठियां बनाते थे। कोठियां जो बंदरगाह पर होती थी। या समुद्र तटों पर किन्हीं स्थानों में यह बसने का प्रयास करते थे। जैसे मुंबई क्षेत्र बंदरगाह था ही नहीं। लेकिन अंग्रेजों ने वहां उस क्षेत्र को बसाया। वहां बंदरगाह अथवा जहाज के उतरने के लिए उपयुक्त स्थल तैयार किया।
एक अन्य नाम गवर्नर अल्फांसो डिसूजा एक पुर्तगाली गवर्नर के कार्यकाल में 1542 में तब के प्रसिद्ध ईसाई धर्मगुरु सेंट जेवियर भारत आए। पुर्तगालियों ने भारत में कोचीन, कन्नूर, गोवा, दमन जो पश्चिम तट पर तथा पूर्वी तट पर हुगली, मद्रास पर कब्जा किया। इसके अलावा एशिया में इन्होंने मलक्का के क्षेत्र और फारस की खाड़ी में हरमुज को अपने कब्जे में कर लिया था। पुर्तगाली भारत व्यापार के लिए ही आए थे। यह प्रत्यक्ष स्पष्ट होता है, लेकिन साथ ही इनका गुप्त उद्देश्य धर्म का प्रचार भी था। और यह उसके लिए भी प्रयास करते थे। हिंद महासागर पर इन्होंने अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित किए रखा, जब तक की डच और अंग्रेजों ने अपना वर्चस्व स्थापित नहीं किया था। इन्होंने हिंद महासागर में अपने वर्चस्वता की ताकत पर एक कोर्टेज की व्यवस्था स्थापित की। पुर्तगाली व्यापारियों को छोड़ अन्य को, स्थानीय व्यापारियों को यदि यूरोप व्यापार के लिए जाना था और हिंद महासागर से गुजारना था, उन्हें यह कोर्टेज या परमिट लेना होता था।
स्वयं तब दिल्ली का बादशाह अकबर कोर्टेज परमिट लेते थे। क्योंकि इसके ही आधार पर पुर्तगाली यह जताना चाहते थे, कि भारत का बादशाह भी उनका परमिट लेता है। भले वह बादशाह से शुल्क ले या ना ले, लेकिन संकेत स्थानीय व्यापारियों के लिए था। कि वे परमिट लें अवश्य, जैसे कि बादशाह भी लेता है।
बिना कोर्टेज परमिट के व्यापारिक जहाजों को सागर में लूट लेते थे लेकिन परमिट होने पर भरोसा देते थे, कि उनकी सुरक्षा करेंगे। कोर्टेज व्यवस्था के अलावा जब अल्फांसो डी अल्बुकर्क 1509 में भारत में पुर्तगाली गवर्नर बन कर आया। उसने भी ब्लू वाटर पॉलिसी और विवाह नीति अपनाई। ब्लू वाटर पॉलिसी से हिंद महासागर में वर्चस्व हासिल करना। विवाह नीति से वह अपनी संख्या भारत में बढ़ाना चाहते थे। हिंदू धर्म में विधवा औरतों की शादी निषेध थी। लेकिन क्योंकि वह इसाई थे। तो वह उनसे शादी कर लेते थे। इस तरह वे अपनी बस्ती बता रहे थे। गोवा के चर्च जो आज भी प्रसिद्ध हैं। वे पुर्तगालियों ने बनाए थे। इनके निर्माण की गोथिक शैली पुर्तगालियों की ही थी। 1556 में पुर्तगालियों ने गोवा में पहला प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की थी। और इससे लेख छापकर, पत्रिका छाप ईसाई धर्म के प्रचार में भी प्रयोग किया जाता था। इसके अलावा भारत में तंबाकू, आलू गन्ना, पपीता, लाल मिर्च को पुर्तगाली ही भारत लाए थे। उनके पतन के कारण इनके धार्मिक प्रचार की नीति जिसमें इसाई धर्म को सर्वोच्च मानना और अन्य को नहीं भी कारण था। वहीं स्पेन का वर्चस्व पुर्तगाल पर यूरोप में बढ़ता जा रहा था। तथा ब्रिटिश और डचों के आगमन से इनकी शक्ति क्षीण होने लगी।
वास्कोडिगामा मालाबार तट पर कलीकट नामक स्थान पर पहुंचता है। जिस का वर्तमान नाम कोझीकोड है। यहां का शासक जमोरिन या सामुरी था। इससे पूर्व की घटनाएं हम खंड -1 यूरोपियों की भारत खोज और पुर्तगाली अभियान -1 में जान चुके हैं।
जमोरिन वास्कोडिगामा का स्वागत करता है। इसलिए भी कि अब तक भारत में व्यापार पर अरब के लोगों का एकाधिकार था। व्यापार में एकाधिकार हो, तो भारत के लोगों को लाभ कम होता था। क्योंकि माल जिसे बेचना है, यदि कोई अन्य विकल्प ही ना हो, तो माल खरीदने वाला अपनी ही मनमानी से मोलभाव करता है। इसलिए पुर्तगाली व्यापारी जमोरिन को एक विकल्प के रूप में दिखा। जिससे अरबों और पुर्तगालियों में माल खरीदने की प्रतिस्पर्धा होगी और इससे भारत को लाभ होगा।
वास्कोडिगामा साठ गुना लाभ के साथ पुर्तगाल लौटता है। और उसने वहां के अन्य व्यापारियों को भी प्रेरित किया। 1500 में एक अन्य जहाजी अभियान पेट्रो अल्वारेज के नेतृत्व में भारत आया। यह तेरह जहाजों का बेड़ा था। अब पुर्तगालियों का उद्देश्य यह भी था। कि अरब के लोगों जो अरब सागर, हिंद महासागर में अपना वर्चस्व बनाए हैं। इनका वर्चस्व तोड़ा जाए। इसलिए वह बड़े जहाजी बेड़े के साथ आया था। कि समुद्र में हो सकने वाली संभावित लड़ाई में अरबों को मात दी जा सके। वह कोच्चि और कन्नूर पहुंचा। यह दोनों क्षेत्र भी केरल के ही तट पर हैं। मानचित्र में कन्नूर, कलीकट के ऊपर और कोच्चि, कलिकट के नीचे है। 1502 में एक बार फिर वास्कोडिगामा भारत की यात्रा पर आता है। 1503 में वह अपनी पहली व्यापारिक कोठी कोचीन में स्थापित करता है। आपको बता दें कि वास्कोडिगामा इस बार तो लौट गया। किंतु इसी कोचीन में 1524 में जब वह एक बार फिर भारत आया तो 1527 कि यहां उसकी मृत्यु हो गई।
वहां 1498 में पुर्तगाल में भारत से व्यापार के लिए एक कंपनी “एस्तादो द इंडिया” नाम से बनाई गई। 1505 में पहला पुर्तगाली गवर्नर फ्रासिस्को डी अल्मीडा भारत आता है। जो 1509 तक भारत में पुर्तगाली गवर्नर रहता है। कोचीन पुर्तगालियों का मुख्यालय बना रहा।
पुर्तगालियों की स्थिति में भारत के लिए पुर्तगाली नये गर्वनर अल्फांसो डी अल्बुकर्क के आने के बाद परिवर्तन हुए। अल्बुकर्क को अधिकारियों की भारत में वास्तविक सत्ता का संस्थापक कहा जा सकता है। उसने भारत की राजनीति में प्रवेश किया, और युद्ध से भूमि जीतने का प्रयास करना आरंभ किया। 1510 में ही उसने राजनीतिक रूप से गोवा पर नियंत्रण हासिल कर लिया। इसके बाद लगभग 450 साल तक यह पुर्तगालियों के नियंत्रण में रहा। जब तक कि 1961 में भारत ने अपने अधीन किया। और भारत का अभिन्न अंग बना दिया।
सुमात्रा व मलेशिया के मध्य में मलक्का जलसंधि -चित्र में
अल्बुकर्क ने 1510 में गोवा को बीजापुर के शासक युसूफ आदिलशाह से जीता था। 1511 में इन्होंने मलक्का पर नियंत्रण कर लिया। मलक्का, मलेशिया और इंडोनेशिया के मध्य जल संधि का क्षेत्र है। इसके अलावा उन्होंने फारस की खाड़ी में एक अन्य खाड़ी को अपने कब्जे में कर लिया। यहां से यूरोप जाने वाले व्यापार को नियंत्रण किया जा सकता था। और हरमूज पर पुर्तगाली अधिकार का तात्पर्य अरबों के वर्चस्व में सेंध लगाने जैसा था। क्योंकि यह वही हरमुज है, जहां पर नियंत्रण रख अब तक अरबों ने यूरोप तक व्यापार पर कब्जा किया हुआ था। और इसी हरमुज जलसंधि जो फारस की खाड़ी में है, पर अरबों के नियंत्रण से यूरोपियों को भारत के लिए अन्य राह की तलाश करनी पड़ी।
ओमान की खाड़ी फारस की खाड़ी के मध्य में हरमूज की खाड़ी –चित्र में
1515 तक हरमूज भी अब पुर्तगालियों के कब्जे में था। अब तक पुर्तगालियों ने लगभग हिंद महासागर के क्षेत्र में अरबों के वर्चस्व को छिन्न-भिन्न कर दिया था।।
गांधीजी की राजनीतिक सक्रियता के चलते हम कभी उनके व्यक्तिगत जीवन की ओर की दृष्टि नहीं डालते हैं। और यह आज भी है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय नेताओं का व्यक्तिगत जीवन जैसे शून्य हो गया हो। गांधीजी ने भारत में किसी व्यक्ति की लोकप्रियता का सबसे ऊंचा आयाम उस जमाने में हासिल किया। तब कोई इंटरनेट का जमाना तो नहीं था। घर घर जाकर आवाज पहुंचाई जाती थी। उस जमाने में गांधी जी भारत के हर व्यक्ति की समूची शक्ति का प्रतीक बन गये। भारत में लोकप्रियता का वास्तविक अर्थ गांधीजी ने दुनिया को बताया जहां प्रेम करने वाले भी भारतीय थे,और प्रेम पाने वाला भी भारतीय, यही नहीं पूरी दुनिया जिनका सम्मान करती थी। जिनकी एक आवाज पर करोड़ों भरतीय ने सड़कों पर लाठियां खाना स्वीकार किया। ऐसा समर्थन युक्त आवाज का नेता अब तक नहीं जन्मा था।
अंग्रेज तो हिंसा चाहते थे, वह चाहते थे, कि भारत के लोग की तरफ से यह हो, और उसके बाद वे दमन का क्रूर चक्र चलाएं। जिसमें दुनिया को दर्शाया जाए की अपराधियों को सजा दी गई है, और भारतीय आम लोगों को दमन और सजा के एक भयानक चक्र की मिसाल देकर आंदोलन से दूर रखा जाए। जिससे भारतीय, अंग्रेजों के सर्वोच्च शक्ति होने और अपनी गुलामी की सोच से ही न उभर सकें। 1857 की क्रांति में यही किया गया था। भले तब भारतीयों की परिस्थितियां और उद्देश्य अलग थे। लेकिन अंग्रेजों की नीति तब भी यही थी।
ब्रिटिश दमन करते तो कैसे? भारतीय तो लाठियां खा रहे थे। जवाब तो वे दे ही नहीं रहे थे। गांधीजी के सत्याग्रह के तरीके में अंग्रेजों का सहयोग मत करो (असहयोग आंदोलन) और उनकी आज्ञा को मत मानो किंतु विनम्रता के साथ (सविनय अवज्ञा आंदोलन ) ने ब्रिटिश को बड़े स्तर पर उनकी क्रूर दमनकारी नीति के प्रयोग का अवसर ही नहीं दिया। इसी कारण सबसे अहम आम जनमानस सड़कों पर आंदोलन से जुड़ पाया, और अंग्रेजों को चुनौती दे सकने की सोच हर व्यक्ति में विकसित होने लगी। साथ ही गांधीजी के तरीके ने जिस तरह ब्रिटिशों की अत्याचारी नीतियों को दुनिया के सामने लाकर रख दिया। यह महत्वपूर्ण है।
भारत के लिए सब कुछ लुटा देने वाले महान क्रांतिकारियों और गांधी जी की नीति में यह एक अंतर था, कि गांधीजी जैसे लोकप्रिय अहिंसावादी व्यक्ति जो ब्रिटिशों के खिलाफ मुखर रहे। फिर भी ब्रिटिश उन्हें समाप्त करना तो दूर जेल की सजा के अलावा कोई नुकसान नहीं पहुचा सकते थे। गांधी जी की लोकप्रियता और दुनिया की राजनीति में स्तर ही इतना ऊंचा हो गया था कि ऐसा करना जनता में महान कांति के उदय का कारण बन सकता था। साथ ही दुनिया में ब्रिटेन की प्रतिष्ठा पर सबसे बड़ा धक्का लगता। और सबसे अहम कि गांधीजी के कार्य में हिंसा थी ही नहीं। इस स्थिति में अंग्रेज उनका कुछ ना कर सके। अंग्रेजों की स्थिति ऐसी थी, कि वे मर भी ना सके, और जी भी ना सके। ब्रिटिशों की दमनात्मक आत्मा पर भारतीयों की सहनशीलता से बार बार बार वार किया गया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद कहा गया कि भारतीयों को आजादी मिल गई है, क्योंकि भारत में ब्रिटिश हुकूमत जो अत्याचार है, को भारतीयों ने सहन कर लिया है, और अपना सिर भी नहीं झुकाया।
गांधीजी
गांधी जी की भारत की विभाजन के संदर्भ में भूमिका पर सवाल होते रहे हैं। जिन्ना पहले ही यह तय कर चुके थे। कि मुस्लिमों के लिए पृथक राष्ट्र बनाया जाएगा। उनका यह हठ था। जब गांधी जी ने अली जिन्ना से कहा कि वह भारत के प्रधानमंत्री पद स्वयं और अहम पदों पर मुस्लिम नेताओं को स्थान दें। तो गांधी जी को बताया गया, कि यह संभव नहीं, क्योंकि नेहरू व अन्य नेता तो मान जाएंगे। किंतु भारत के लोग जो सड़कों पर पहले ही मजहब के नाम पर लड़ रहे हैं, यह स्वीकार नहीं करेंगे। अली जिन्ना तो पहले ही भारत का विभाजन या सिविल वॉर की घोषणा कर चुके थे। वहां मुस्लिम लीग द्वारा घोषित 16 अगस्त 1946 को प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस के बाद से सड़कें युद्ध भूमि बन गई थी। कत्लेआम का दौर था।
इस स्थिति में प्रशासन की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। किंतु वह शून्य हो चुकी थी। क्योंकि अब अंग्रेज अधिकारी दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। वे तो वापसी की तैयारी में थे। और अपने देश लौट रहे थे। उस समय के तमाम घटना के तत्काल दर्शी लिखते हैं। कि सड़कें हथियार सहित गुंडों से भरी थी। किंतु प्रशासन का कोई हस्तक्षेप नहीं था। इन सब स्थितियों में भारत ने विभाजन की महान त्रास्दी देखी।
जब तक लड़ाई ब्रिटिशों से थी। गांधी सबसे आगे दौड़ते रहे। लेकिन जैसे-जैसे अपने ही देश में फूट पड़ गई, और विभाजन की मांग उठने लगी, गांधीजी सबसे पीछे छूट गए। वहां से अली जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि क्रांतिकारी विचार युक्त नेताओं की राजनीति हावी हो गई।
आज के क्रांतिकारी युग में तीव्र उन्नति की इच्छा में युग को क्रांतिकारी कहा जाता है। वहीं गांधीजी के कार्य में सभी को संतुष्ट कर आगे बढ़ने का प्रयास था। जिसमें बिना किसी को कष्ट दिए हक के लिए संघर्ष हो, और उन्नति भी हो। किंतु आज का युग बदला है, क्रांतिकारी विचारों और तीव्र उन्नति का महत्व है, और इसलिए शायद इस युग में गांधी कुछ अप्रासंगिक हो गये हैं।।
यूरोपियों को भारत के लिए किसी वैक्लपिक राह की तलाश थी। वे प्रयास कर रहे थे। पूर्व तक भारत से यूरोप तक के लिए स्थल और समुद्र दोनों मार्ग थे। किंतु मध्यकालीन इतिहास में हम जानते हैं, कि कैसे पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ ही व्यापार में एशिया और यूरोप के समीकरण भी बदल जाते हैं।
अब तक भारत से यूरोप का स्थल मार्ग अफगान से ईरान, इराक और तुर्की से होता हुआ यूरोप के देशों में जाता था। तुर्की जहां समाप्त होता और यूरोप से जुड़ता है, यहां पर काला सागर और मरमरा सागर को एक जलसंधि बासपोरस जोड़ती है। इस जलसंधी से यूरोप आरंभ हो जाता है। जहां कुस्तुनतुनिया आधुनिक नाम इस्तांबुल से यूरोप आरंभ होता है। जबकि यह तुर्की का ही शहर है। जब यह पूर्वी रोमन साम्राज्य का भाग था, इसका नाम कैंन्सटैनटिनोपल था। यही पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी थी।
यूरोप मेंइस्तांबुल -चित्र में
तुर्की में उभरे उस्मानिया साम्राज्य ने 1453 में पूर्वी रोमन साम्राज्य का अंत कर दिया। और कुस्तुनतुनिया पर उनका अधिकार हो गया। अरब के लोग इसे कुस्तुनतुनिया नाम से कहते थे। उस्मानिया साम्राज्य के नियंत्रण से अब इस मार्ग से यूरोप जाने वाले माल पर कर अधिक लगाया गया। इसके चलते यूरोप में माल महंगा हो गया, व्यापार ठप हो गया। माल को यूरोप ले जाने का विकल्प समुद्री रास्ता जो अरब सागर से होकर फारस की खाड़ी और वहां से भूमध्य सागर से लगे देशों को जाता था। या अरब सागर से होते हुए लाल सागर के रास्ते भी जाया जाता था। लेकिन यहां अरब का पूरा नियंत्रण था। और उनकी मनमानी थी। अब यूरोप राह की तलाश में था। वह भारत तक पहुंचना चाहता था।
स्पेन से जहाजी बेड़ा कोलंबस के नेतृत्व में 1492 में दिशा भटक कर अमेरिका जा पहुंचा। प्रिंस हेनरी जो पुर्तगाल का था, जिसे द नेविगेटर भी कहा जाता है। उसने पुर्तगाली साहसी नाविकों को खूब प्रोत्साहन दिया। उसने कई जहाजी अभियान दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट से होते हुए भेजे। इस तरह उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट का एक मैप तैयार कर लिया। 1487 में पहली बार एक पुर्तगाली साहसी व्यक्ति बार्थोलोम्य डियाज जहाज का नेतृत्व करता हुआ सबसे दूर अफ्रीका के दक्षिण छोर पर जा पहुंचा। जिसे आशा अंतरीप या केप ऑफ गुड होप कहा जाता है। हालांकि बार्थोलोम्यो डियाज ने इस स्थान को केप ऑफ स्टोर्मस कहा था। 1488 में वह वापस लिस्बन लौट गया। लेकिन यात्रा अब तक अधूरी थी। जब तक कि ऐशिया नहीं पहुंच लिया जाता।
आशा अंतरीप या केप ऑफ गुड होप -चित्र में
इसके लिए पुर्तगाली शासन इमैनुअल प्रथम द्वारा एक और जहाजी बेड़े को वास्कोडिगामा के नेतृत्व में अभियान पर भेजा गया। बार्थोलोम्यो डियाज के ठीक दस वर्ष बाद 1497 में निकला वास्कोडिगामा केप ऑफ गुड होप तक पहुंच जाता है। क्योंकि पुर्तगालियों को अब तक यूरोपीय किसी अन्य देश की अपेक्षा अफ्रीका के पश्चिम तट से सटे सागर का अधिक ज्ञान हो गया था।
मालाबार तटपर कोझीकोड -चित्र में
वास्कोडिगामा के जहाजी बेड़े को केप ऑफ गुड होप से एक व्यक्ति व्यापारी जिसका नाम अब्दुल मनीक था, मिलता है। यह अरब के लोगों के साथ मिलकर भारत से व्यापार करता रहा होगा। इसे इतना जरुर पता था, कि इस दिशा में अरब सागर को निकलेंगे तो जरूर भारत पहुंचेंगे। 1498 में वास्को डी गामा अपने जहाज के साथ मालाबार तट 【 केरल के तट को मालाबार तट कहते हैं 】 के कलीकट नामक स्थान पर पहुंचता है। जिस का वर्तमान नाम कोझीकोड है।।
नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏