रविवार, 31 अक्टूबर 2021

Metaverse explain in hindi आसान भाषा में समझे | facebook metaverse explanation

 Metaverse-

   फेसबुक ने नाम बदल लिया है। यह Meta हो गया है। फेसबुक ने अपना और उसकी अन्य सभी कंपनियों को मिलाकर एक पेरेंट ब्रेंड को जन्म दिया है। इस से तात्पर्य है कि, अब फेसबुक, व्हाट्सएप और इनस्टाग्राम आदि  सभी कंपनियां Meta के अंतर्गत आती हैं। कुछ ऐसे जैसे ब्रिटिश क्रॉउन कई औपनिवेशिक राष्ट्रों पर नियंत्रण रखता था।

   किंतु सबसे अहम चर्चा का विषय है, कि नया नाम क्यों। नाम Meta हो गया है, इस नाम बदलने में और नाम Meta हो जाने मे Metaverse चर्चा में आ गया है। फेसबुक के सीईओ मार्क जुकवर्ग का कहना है, कि इंटरनेट का भविष्य Metaverse है, आज या कल यह सत्य होने वाला है।

  अब यह जानना आवश्यक है, कि Metaverse क्या है, Metaverse में क्या कुछ ला पाना संभव है, इस पर साफ-साफ कह पाना तो फिलहाल संभव नहीं, किंतु यह वास्तविक दुनिया के समानांतर चलने वाली दुनिया होगी। यूं कहें कि आपके सामने साक्षात वह माहौल तैयार हो जाना, जहां आप होना चाहते हैं।
    यूं तो यह शब्द Metaverse सर्वप्रथम एक नोबल Snow crash में छपा है, 1992 में नील स्टीफेनसन नाम के लेखक ने इस पुस्तक को प्रकाशित करवाया था। यह नोबल एक कल्पना के संसार की व्याख्या है, जहां सरकार सब कुछ प्राइवेट कंपनियों के हाथ में दे देती है, सरकार अपनी शक्तियां भी प्राइवेट कंपनियों को सौंप देती है, और परिणाम वहां मॉडर्न वर्ल्ड जैसे वर्चुअल रियलिटी और डिजिटल करेंसी की दुनिया हो जाती है।
 यह कुछ ऐसी ही है, जो फेसबुक करने की बात कर रहा है। फेसबुक का कहना है, “कि आप समर्थ हो सकेंगे, अपने दोस्तों, काम, खेल, पढ़ाई, खरीददारी इत्यादि से जुड़ सकने में। हम आप के समय जो ऑनलाइन बीतता है, उसे और अधिक उपयोगी बनाना चाहते हैं”
  अब आप इसे कुछ इस प्रकार समझे एक दुनिया जिसमें आप दिल्ली जा रहे हैं, जो वास्तविक है। और इसी दिल्ली जाने की यात्रा को आप अपने इंटरनेट सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पोस्ट कर देते हैं। यह आपने पोस्ट किया तो आप उन सभी लोगों तक पहुंच गए, जिन्हें आप बताना चाहते हैं, या सारी दुनिया के सामने आपने यह पोस्ट रख दी है।
अब सोचिए यदि यह लाइव और निरंतर हो जाए, अर्थात आप, आप की स्थिति, समय, स्थान सब कुछ जहां आप हैं, वह सब कुछ किसी अन्य व्यक्ति जो वहां नहीं है, के सामने भी इस प्रकार से आ गया है, जैसे वह वहीं हो आपके साथ।
   कुल मिलाकर आप जहां पहुंचना चाहते हैं, आप वहां पहुंच पा रहे हैं, वहां जाए बिना। और इस प्रकार से जैसे आप वही हैं, ऐसा माहौल आपके सामने तैयार हो रहा है।
अब यह होगा कैसे, Metaverse प्रोग्राम लंबे समय में तैयार हो सकेगा। 10 -15 वर्षों में।
अगले 5 वर्षों में वे यूरोप यूनियन देशों में दस हजार नए लोगों को काम पर लेने वाले हैं। जिससे यह प्रोजेक्ट पूर्ण हो सके।

सोमवार, 25 अक्टूबर 2021

काला पानी| | देवानंद फिल्म 1958 | Kala Pani movie 1958 | Dev Anand movie

Kala Pani

डायरेक्टर-   राज खोसला
प्रोड्यूसर-   देवानंद
गीत-   आशा भोसले, मोहम्मद रफ़ी
कलाकार-   देवानंद, मधुबाला, नलिनी, सप्रु, नासिर हुसैन, Johnnie Walker, मुमताज बेगम, जयवत साहू, Samson, Ravikant

  1958 की फिल्म काला पानी एक आपराधिक मामले की दास्तां है। माला एक तवायफ का नाम है।  नाच- गाने के शौकीन और विलासी जीवन यापन करने वाले लोग कोठे पर शिरकत देते हैं। माला का कत्ल हुए 15 साल बीत चुके हैं, और अदालत के द्वारा कातिल शंकरलाल नाम के व्यक्ति को ठहराया गया है। यह फिल्म जिस मुख्य पात्र के ऊपर बनी है। वह शंकरलाल का पुत्र है, जिसका नाम करण है। करण 15 वर्ष तक इस झूठ के साथ जीता है, कि उसके पिता मर चुके हैं। किंतु 1 दिन उसे यह मालूम चल जाता है, कि उसके पिता जीवित है, और हैदराबाद की जेल में सजा काट रहे हैं। वह अपने पिता से मिलने के लिए उत्सुक हो उठता है, यह  सच्चाई जानने के लिए कि क्या वास्तव में उसके पिता कातिल है, और हैदराबाद जाने का मन बना लेता है।

   उसकी मां उसे समझाती है, ऐसा भी कहती है, कि उसके पिता ने उसकी मां का त्याग कर दिया था, और उस तवायफ माला को अपना लिया था, और बाद में उसका भी कत्ल कर दिया। करण की मां भी उसके पिता को कातिल समझती है। करण यह सब जानकर भी सच की तलाश के लिए हैदराबाद चला आता है। और हैदराबाद में करन की प्रेम कहानी भी प्रारंभ होती है। जहां आशा नाम की एक लड़की जो प्रेस में काम करती हैं, और करण जिस होटल में कमरा लिए होता है, उस होटल की मालकिन आशा की चाची होती है। करण हैदराबाद की जेल में अपने पिता से मिलने के लिए इंचार्ज से मिलता है। 

   जब करन अपने पिता से मिलने लगता है, तो उसे अपने पिता की बेगुनाही का एहसास होता है। वह 15 साल पहले उसके पिता को गिरफ्तार करने वाले पुलिस अफसर से भी मिलता है। अपने पिता के बेगुनाही में सबूत इकट्ठे करने लगता है। इन सबके जरिए उसे शहर के एक और तवायफ किशोरी के बारे में मालूम चलता है। जिसने उसके पिता के अपराधी ठहराए जाने को लेकर गवाही दी थी। उसे यह भी मालूम चलता है, कि किशोरी के पास कुछ पत्र हैं, जो उसके पिता को बेगुनाह साबित कर सकते हैं। करण उसे अपने प्रेम जाल में फसाने में कामयाब हो जाता है। वह करण पर मर मिटने को तैयार होती है।

   वह करण को यह बताती है, कि उसके पास पैसे की कमाई का एक और जरिया है। करण जब उसके कमरे में तलाश करता है, तो वह खुद ही उन पत्र को करण के सामने फेंक देती है। किशोरी को भी यह मालूम चल जाता है, कि 15 साल पहले उसकी झूठी गवाही से जिस बेगुनाह को सजा हुई है, वह करण के पिता हैं। करण उन पत्रों को लेकर वकील राय बहादुर जसवंत राय के पास पहुंचता है। किंतु रायबहादुर भी 15 साल पहले करन के पिता को हुई सजा की साजिश में शामिल था। इसलिए राय बहादुर ने वह पत्र करन के सामने ही जला दिए। करन शहर में अपने पिता के बेगुनाही के लिए वकील के घर के बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठा कर इंसाफ की मांग करता रहा। आशा जो करन की प्रेमिका थी, अपने अखबार में इस सच्चाई को छापती रही, आखिर में एक बार फिर करन की मुलाकात किशोरी से होती है, और किशोरी करण से मिलकर उसे असली पत्र देती है।

   वह कहती है, कि जो पुराने पत्र वकील ने जला दिए हैं, वह तो झूठे थे, और करन इन पत्रों को आशा के अखबार में छपवा देने के बाद अपने पिता को बेगुनाह साबित करवा देता है। इसके साथ ही फिल्म समाप्त हो जाती है।

शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

आर्यों का जीवन | ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वन प्रस्थानम, सन्यास | Area's life

आर्यों के जीवन के चरण / ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वन-प्रस्थानम और संन्यास-

 वैदिक काल

    वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था प्रचलन में थी। आश्रम शब्द संस्कृत के श्रम शब्द से निर्मित है, जिसका तात्पर्य परिश्रम से है। वैदिक काल की सभ्यता में जीवन का पहला चरण ब्रम्हचर्य से प्रारंभ होता है, जो कि आश्रम में बीतता था। 

छात्र यज्ञोपवीत के बाद आश्रम जाता था। विद्या  के अर्जन के लिए जब ब्रह्मचर्य का जीवन आश्रम में बिता कर घर लौटता तो गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता जहां उसकी शादी होती और वह जीवन के भौतिक सुखों को प्राप्त करता एक समय पर वह जीवन के तीसरे चरण वनप्रस्थान को प्राप्त कर लेता, जिसमें वह अपने घर परिवार को छोड़कर वन की ओर निकल पड़ता। जहां वह लगातार एकांतवास में चिंतन करता। 

वनप्रस्थान के पश्चात जीवन का अंतिम चरण जिसमें वह प्रवेश करता है, वह सन्यासी है। सन्यासी व्यक्ति घूम घूम कर अपने जीवन के चिंतन का प्रचार प्रसार करता।

अतः वैदिक काल में जीवन के चार चरण हुए ब्रह्मचर्य, गृहस्थवनप्रस्थान तथा सन्यासी

   जीवन के इन चार चरणों का मूल आर्यों के चार ऋणों तथा चार पुरुषार्थों पर विश्वास होना भी प्राप्त होता है। क्योंकि आर्यों के विश्वास में उन पर जो चार ऋण होते थे, वह पहला तो ऋषियों के प्रति दूसरा पितरों के प्रति तीसरा देवताओं के प्रति तथा चौथा अन्य व्यक्तियों के प्रति होता था।

इन  ऋणों को वे अपने जीवन के उन चार भागों में स्वयं से तर देते थे। ऋषियों के प्रति जो ऋण था वह ब्रह्मचारी होकर आश्रम में विद्यार्जन से,  पितरों के प्रति जो ऋण था वह गृहस्थ जीवन में संतान पैदा करने से, देवताओं के प्रति ऋण वनप्रस्थान में चिंतन से और अन्य लोगों के प्रति ऋण सन्यासी जीवन में अपने चिंतन से प्राप्त ज्ञान के प्रसार से उतार देते थे।

जिन चार पुरुषार्थों में आर्यों का विश्वास था। वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष थे। यह भी परस्पर उनके जीवन के चार भागों से जुड़े हुए थे।

धर्म का ब्रह्मचर्य से, अर्थ और काम का गृहस्थ जीवन से, मोक्ष का वनप्रस्थान तथा सन्यासी जीवन से संबंध था। इस प्रकार आर्यों का जीवन कुछ धारणाओं से नियमों में बंधा था। 

बुधवार, 20 अक्टूबर 2021

वैदिक काल का जीवन | जाति प्रथा का उदय | vedic period and the rise of caste system in hindi

वैदिक काल का जीवन-

वैदिक काल

   वैदिक काल की सभ्यता कैसी रही होगी। इतिहास जो कुछ माध्यमों से सूचित करा पाता है, उससे एक लेख इस विषय पर तैयार कर रहा हूं। वैदिक काल में वेदों की रचना तत्पश्चात उनकी व्याख्या के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की रचना और अंत में सूत्रों की रचना की गई। जो वैदिक काल की व्यवस्था का भी वर्णन करते हैं।

   उस काल में आर्य कुटुंब, कुल की इकाई में रहते थे। गृह का प्रधान पिता होता था। कई गृह से ग्राम जिसका प्रधान ग्रामीण होता था। कई ग्राम मिलकर विश बनाते थे, जिसका प्रधान विशपति होता तथा कई विशों से जन, जिसका प्रधान गोप होता था, जो राजा स्वयं होता था।  ऋगवैदिक काल में आर्यों के छोटे-छोटे राज्य थे। किन्तु अनार्यों पर विजय होने पर वे राज्य विस्तार करते रहे। विजय के उपलक्ष में राजसूया, अश्वमेध यज्ञ करने लगे।

   वैदिक काल में राज्य का प्रधान राजन था। वह अनुवांशिक था, किंतु निरंकुश नहीं होता था। परामर्श हेतु उसके लिए एक समिति तथा सभा होती थी। सभा के सदस्य बड़े बड़े तथा उच्च वंश के लोग थे। किंतु समिति के सदस्य राज्य के सभी लोग थे। ऋगवैदिक काल में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी राज्य के प्रमुख पद थे। पुरोहित सबसे ऊंचा पद था। संभवत यह पद भी अनुवांशिक रहा होगा। प्रारम्भिक वैदिक काल में हर आर्य सैनिक ही हुआ करता था। क्योंकि वे तब प्रसार कर रहे थे। किंतु उत्तर वैदिक काल तक वर्ण व्यवस्था का चलन हो चुका था, और परिणाम था, कि क्षत्रिय सेना के लिए एक अलग शाखा तैयार हुई। वही रणभूमि में भाग लेते थे।

   आर्य व्यवस्था में स्त्रियों का समाज में ऊंचा स्थान था। हालांकि वह स्वतंत्र ना थी। वह किसी तो पुरुष के संरक्षण में जीवन भर रहती थी। वह गृह स्वामिनी समझी जाती थी। तब विवाह एक पवित्र बंधन था, जो जीवन के अंत पर ही समाप्त होता था। बहु विवाह का प्रचलन आम ना था। हां राजवंशों में यह होता था। हालांकि उत्तर वैदिक काल में यह आम लोगों में भी चलन में आ गया। ज्ञात है, कि मनु की 10 पत्नियां थी।

   वैदिक काल के लोग मांस और शाक दोनों को ग्रहण करते थे। उनके मुख्य दो पेय थे, सोमरस और सुरा। सोमरस मादकता रहित था, किंतु सुरा मादकता के लिए था, अतः सुरा का पान समाज में दोष था। वह अवगुण समझा जाता था।

जाति प्रथा का उदय-

  प्राचीन आर्यों की सर्वाधिक प्रचलित व्यवस्था वर्ण व्यवस्था है। जिसका प्रभाव आज तक भारतीय समाज पर है। वर्ण का अर्थ रंग है। यह दरअसल तब व्यवस्था प्रचलन में आई होगी, जब आर्य अनार्यों के संपर्क में हुए होंगें। क्योंकि आर्य स्वयं को श्रेष्ठ कहते थे, वह तो एक ही जाती थी, किंतु यह भी सत्य है, कि आर्यों का भी उनके व्यवसाय उनके काम-काज के अनुरूप वितरण है। गौर वर्ण के लोग आर्य थे और कृष्ण वर्ण के लोग अनार्य। यही संभवत भारतीय समाज का दो भागों में प्रारंभिक विभाजन था।

आर्यों ने अपने कार्यों के अनुरूप स्वयं की जाति को चार वर्णों में विभक्त कर लिया था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र।

पाठ पूजन करने वाले ब्राह्मण हुए, रण कुशल क्षत्रिय, वैश्य खेती-बाड़ी, व्यापारिक वाणिज्य में संलग्न लोग और शुद्र, क्षत्रीय तथा वैश्यों की सेवा में लगे लोग हुए।

इन सबके बावजूद समाज में अनियमितता नहीं थी, लोग अपने कार्यों को लेकर निश्चित थे, जन्म से ही। क्योंकी व्यवस्था उन्हें जीवन में कामकाज को लेकर पहले ही तय कर चुकी होती थी।

ऋग्वेद में इस विषय में लिखा है, कि ब्राह्मण परम पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जांघों से, और शुद्र उसकी चरणों से पैदा हुए हैं। समाज का यह ऊंच-नीच विभाजन जरूर था, किंतु संकीर्णता नहीं थी। यही उस समाज को जीवित रखे था। ब्राह्मण लोग समाज का  बौद्धिक आध्यात्मिक उत्कर्ष में लगे होते थे। क्षत्रिय लोग समाज की सुरक्षा में राज्य को शत्रुओं से रक्षा में, वैश्या लोगों का समाज में भौतिक आवश्यकताओं को प्राप्त करवाने में और शूद्र लोग समाज को सुचारू रूप से संचालित करने में योगदान देते रहे। 

   इसमें सबसे महत्वपूर्ण था, कि हर वर्ग अपनी कार्य में संलग्न था। छुआछूत की भावना नहीं थी, न किसी प्रकार की कटुता थी, किंतु उत्तर वैदिक काल में आते-आते वर्ण व्यवस्था ने बेहद जटिलता प्राप्त कर ली, जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया, अर्थात जाति का निश्चय व्यवसाय से नहीं बल्कि जन्म से होने लगा जातिवाद का प्रकोप बढ़ने लगा और भारतीय समाज के लिए यह बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ है।

 

सोमवार, 18 अक्टूबर 2021

Arya in india explain in hindi | आर्यों को जानने की साधन | vedas, upnishad, brahmin, sutra, etc in hindi

आर्यों का विस्तार तथा संहिता, वेद, आरण्य, सूत्र इत्यादि की व्याख्या-

आर्यों को जानने की साधन
 

आर्यों का विस्तार- सप्त सिंधु, मध्य देश, आर्यव्रत और दक्षिणाव्रत

● उत्तर भारत में आर्य-

आर्य भारत में धीरे-धीरे आगे बढ़े भले ही वह मूल किसी भी प्रदेश के हों। किंतु भारतीय आर्य प्रारंभ में सप्त सिंधु में ही निवास करते थे। वह सात नदियां का देश जो सिंधु (सिन्ध), झेलम (वित्स्ता),  चुनाव (अस्कनी), रावी (परुषणो), व्यास (पिषाका), सतलज (शतुद्री), सरस्वती।

आर्य जैसे जैसे आगे बढ़े। भारतीय प्रदेशों के नाम देते रहें। कुरुक्षेत्र के निकट के भागों में अधिकार करने से उन्होंने उस प्रदेश का नाम ब्रह्मा व्रत रखा। मुख्य विषय यह है, कि उन्हें भीषण संघर्ष अनार्य से करना पड़ा होगा। जब वह और आगे बढ़े और गंगा यमुना दोआब और उसके निकट के प्रदेश पर अधिकार प्राप्त किया, उन्होंने उस प्रदेश का नाम ब्रह्मर्षि देश रखा जब उन्होंने आगे बढ़कर हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य के भाग को अधिकार में लिया और स्वयं को प्रसारित किया तो इस प्रदेश को उन्होंने मध्य देश नाम दिया। जब उन्होंने वर्तमान बंगाल और बिहार के क्षेत्रों को भी अधिकार में लिया तो संपूर्ण उत्तर भारत को आर्यवर्त पुकारा।

● आर्यों का दक्षिण भारत में प्रवेश-

बहुत समय तक आर्य विंध्याचल को पार न कर सके। किंतु सबसे पहले अगस्त्य ऋषि विंध्याचल को पार कर दक्षिण भाग में पहुंचे। वहां भी उन्होंने अपने आर्य सभ्यता का प्रचार प्रसार किया। वे दक्षिण में भी फैल गए।उन्होंने दक्षिण प्रदेश को दक्षिणाव्रत नाम से पुकारा। 

आर्यों को जानने के साधन-

आर्यों का परिचय उनके ग्रंथों से प्राप्त होता है। उनके ग्रंथ संहिता या वेद, ब्राह्मण तथा सूत्र तीन भागों में विभक्त किया जा सकते हैं।

■ संहिता, वेद, श्रुति –

संहिता से तात्पर्य संग्रह है। अर्थात मंत्रों का संग्रह। वेद संस्कृत के विद शब्द से है, जिसका तात्पर्य जानना है। भारतीय आर्यों के ज्ञान का संग्रह है, वेद। वेद मनुष्य वक्तव्य नहीं है। वह ब्रह्मा वाक्य है। इन्हें ऋषि-मुनियों ने ब्रह्मा मुख से सुना है। यह श्रुति भी कहलाए।

आर्यों के चार वेद-

वेद संस्कृत भाषा में हैं। आर्यों की भाषा।

उन्होंने चार वेदों को संग्रहित किया कम्रशः वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।

1. ऋग्वेद-

ऋग्वेद विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ है। यह ऋचाओं का संग्रह है। संभवत यह तब संग्रहित किया गया होगा जब आर्य सप्त सिंधु प्रदेश में निवास करते रहे होंगें। ऋग्वेद का अर्थ ऋचाओं के संग्रह से है। आर्यों ने किस वेद में स्तुति मंत्रों का संग्रह किया वह ऋग्वेद है। 

2. यजुर्वेद-

यजु का अर्थ है पूजन। यज्ञ का विधान यजुर्वेद में है। इस वेद में बलि की प्रथा उसका महत्व, विधान का वर्णन प्राप्त है। संभवत यह ग्रंथ कुरुक्षेत्र के प्रदेश में जब आर्य विस्तारित हो चुके थे। तब संग्रहित किया गया होगा।

3. सामवेद-

साम का अर्थ है, शांति। यहां इसका तात्पर्य गीत से शांति से है। सामवेद के मंत्र संगीतमय हैं।

4. अथर्ववेद

अथ का अर्थ है, मंगल या कल्याण, अथर्व का अर्थ है, अग्नि। तथा अथर्व का अर्थ है, पुजारी अर्थात इस ग्रंथ के अनुरूप पुजारी अग्नि तथा मंत्रों की सहायता से भूत पिशाच आदि से मानव के रक्षा करता है। इस ग्रंथ में बहुत से प्रेत पिशाचों जो का जिक्र है।

■ ब्राह्मण ग्रंथ-

 जब वेदों का आकार बहुत बड़ा हो गया था, वह बड़े कठिन हो गए थे। साधारण लोग उन्हें समझ नहीं पाते थे। अतः वेदों की व्याख्या करने के लिए जिन ग्रंथों की रचना की गई वे ब्राह्मण कहलाए। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की विवेचना की गई है। ऐतरेय, शतपथ आदि कुछ प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ हैं।

■ आरण्य ग्रंथ-

 आरण्य का अर्थ है, जंगल। जिन ग्रंथों की रचना जंगलों में शांतिमय वातावरण में की गई, आरण्यक कहलाए। यह उन्हीं लोगों के लिए थे, जो जंगलों में जाकर चिंतन किया  करते थे।

■ उपनिषद-

उपनिषद का अर्थ है जो ग्रंथ गुरु के समीप बैठकर श्रद्धा पूर्वक पढ़े जाते हैं। उनका नाम उपनिषद रखा गया। उपनिषदों में उच्च कोटि की दार्शनिक विवेचना भी है। और इनमें यह भी संकेत मिलते हैं। कि तब तक आर्यों में वर्ण व्यवस्था तथा आश्रम की प्रथा अधिक मजबूती से स्थापित हो चुकी थी।

■ सूत्र ग्रंथ-

सूत्र का शाब्दिक अर्थ होता है। तागा सूत्र उन ग्रंथों को कहते हैं जो इस प्रकार लिखे हों जैसे मोती की भांति धागे में पिरो दिया गया हो। 

 जबआर्य ग्रंथों की संख्या बहुत बढ़ गई। जब वे विशालकाय ग्रंथ हो गए तब ऐसे ग्रंथों की आवश्यकता पड़ी जो छोटे आकार के हों परंतु वे बड़े भाव दें। पाणिनी ने सूत्रों की तीन विशेषताएं बतलाई हैं, अर्थात वे थोड़े से अक्षरों में लिखे जाते हैं, बड़े संदिग्ध होते हैं, और बड़े ही सारगर्भित होते हैं। सूत्रों की रचना में पाणिनी और पतंजलि का प्रमुख तौर से योगदान है।

 विल्सन महोदय ने लिखा है। कि प्राचीनता की कल्पना में जो कुछ अत्यधिक रोचक है, उसके संबंध में पर्याप्त सूचना हमें वेदों से मिलती है।

इन ग्रंथों का सबसे बड़ा महत्व है, कि इनसे आर्यों के प्रारंभिक इतिहास जानने में सहायता मिलती है, साथ ही हिंदू जाति का प्रारंभिक इतिहास उनके बिना अंधकार में होता। यह भारतीय प्राचीन सभ्यता के एक और मूलाआधार है।

शनिवार, 16 अक्टूबर 2021

आर्य कौन थे | आर्यों का मूल स्थान | यूरोपीय सिद्धांत, मध्य एशिया सिद्धांत, भारतीय सिद्धांत व्याख्या | Who were aryas

आर्य कौन थे? आर्यों का मूल स्थान-

आर्यों के मूल निवास

आर्य कौन थे? इनका मूल स्थान क्या था?

     यह बेहद विवादपस्त प्रश्न है। स्मिथ लिखते हैं कि,  “आर्यों के मूल निवास के संबंध में जानबूझकर विवेचना नहीं की गई है, क्योंकि इस संबंध में कोई विचार निश्चित नहीं हो सका है”। 

आर्य का अर्थ है, श्रेष्ठ और वे अनार्य (अश्रेष्ठ) उन्हें कहते हैं, जिनसे वे अपने भारत भूमि भ्रमण में संघर्ष किए। सर्वप्रथम आर्य शब्द वेदों में प्रयुक्त है, व्यापक तौर से यह एक प्रजाति है। जिनकी शारीरिक रचना विशिष्ट है। जिनके शरीर लंबे डील-डौल, हृष्ट-पुष्ट, गोरा रंग, लंबी नाक वाले तथा वीर साहसी होते हैं। भारत, ईरान और यूरोपीय प्रदेश के कई देशों के लोगों का इन्हीं के संतान होने का मत है। यह लोग प्रारंभ से ही पर्यटनशील होते हैं। और इसी प्रवृत्ति से यह लोग संपूर्ण विश्व में फैलने लगे। और इन लोगों ने विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप अलग अलग संस्कृति का विकास किया।

 1.  आर्यों का मूल स्थान को लेकर विद्वानों का एकमत होना बहुत कठिन है। क्योंकि विद्वान अलग-अलग ढंग से आर्यों के मूल स्थान की विवेचना करते हैं। इससे कुछ प्रमुख सिद्धांत निर्मित होते हैं। यूरोपीय सिद्धांत में भाषा संस्कृति के आधार पर कुछ विद्वान आर्यों का आदि देश यूरोप के होने का मत देते हैं। उनके मतानुसार आर्य यूरोप से ही ईरान और भारत को बढे। उनके तर्क थे, कि भारत, ईरान और यूरोप के आर्यों की भाषा की समानता जैसे पितृ, पिदर, पेटर, फादर और मातृ, मादर, मेटर, मदर और दुहितृ, दुख्तर, डॉटर, आदि। इस तर्क से उनका मूल निवास प्रारंभ में एक ही रहा होगा यह तो तय होता है। और वह वहीं से अलग-अलग प्रदेशों में विस्तार किए होंगे।

यूरोपियन सिद्धांत के समर्थन में उनके अन्य तर्क है। कि यूरोप में आर्यों की संख्या एशिया के आर्यों से अधिक हैं, संभवत वे एशिया में यूरोप से ही आए हों। उनका तर्क यह भी है कि, पर्यटन प्रायः पश्चिम से पूर्व को हुए हैं। और पूर्व की ओर यूरोप से आने में कोई मरुस्थल, वन प्रदेश, पर्वत इतना जटिल नहीं है, जो पार ना हो सके। वे यूरोप के सिद्धांत को इन तर्कों से ठीक ठहराते हैं। और आर्यों को वही का मूलनिवासी कहते हैं। किंतु यूरोप के किस प्रदेश में आर्यों का आदि है। यह प्रश्न भी विवाद में हैं, जिस पर अलग-अलग विद्वान अलग-अलग मतों का समर्थन करते हैं।

 ● डॉ० पी० गाइल्स ऑस्ट्रिया हंगरी का मैदान जो यूरोप के मध्य प्रदेश भाग में हैं। का समर्थन किया है। यह प्रदेश शीतोष्ण कटिबंध में है। वहां पशु गाय, बैल, घोड़े, कुत्ते वनस्पति जैसे गेहूं, जौ जिनसे आर्य परिचित थे। प्राप्त हैं। और वे यह तर्क भी देते हैं, कि यह मैदान सर्वाधिक माध्य है, उन सभी स्थानों तक पहुंचने का जो जो आर्यों का पर्यटन प्रदेश बना। अथवा जहां तक वे पहुंच सके।

   ● कुछ अन्य विद्वानों ने पेन्का के समर्थन में जर्मनी प्रदेश को आर्यों का मूल स्थान कहा है। उनका तर्क है कि, प्राचीन आर्यों के बाल भूरे थे, और जर्मन लोगों के बाल आज भी भूरे हैं। इसके अलावा बहुत से शारीरिक विशेषताएं जो प्राचीन आर्यों मैं पाई जाती थी, वह जर्मन के आर्यों में भी थी। इसके अलावा उनका तर्क है, कि इस प्रदेश पर कभी विदेशी जाति का प्रभुत्व नहीं रहा। उन लोगों ने सदैव इण्डो-यूरोपियन भाषा का प्रयोग किया। और प्राचीनतम पात्र इसी प्रदेश में प्राप्त हुए हैं। अतः आर्य इस प्रदेश के आदि मूल निवासी थे।

   ● यूरोपीय सिद्धांत के अंतर्गत आर्यों के आदि मूल निवास को लेकर दक्षिण रूस के प्रदेश को भी कुछ विद्वानों का मत प्राप्त है। वह कृषि, पशु, उपजाऊ भूमि के आधार पर कहते हैं। कि यूरोप में आर्यों का प्रारंभ में आदि मूल स्थान दक्षिण रूस ही है।

   यूरोपीय सिद्धांत के अनुरूप यूरोप में आर्यों के प्रारंभिक मूल स्थान को लेकर ऑस्ट्रिया-हंगरी का मैदान, जर्मनी प्रदेश और दक्षिण रूस के प्रदेश के मध्य और अन्य भी अनेक मत प्राप्त हैं। किंतु कुछ विद्वानों का मत है, कि आर्य यूरोप के मूल निवासी ना होकर मध्य एशिया के आदि मूल निवासी हैं। और मध्य एशिया का सिद्धांत जन्म लेता है।

 2.  जर्मन विद्वान मैक्समूलर मध्य एशिया को आर्यों का आदि देश होने का तर्क देते हैं। उनके तर्कों में मध्य एशिया वह स्थान है। जहां आर्य प्रारंभ में थे। और यह ईरान, भारत और यूरोप के सन्निकट भी है। यहीं से उन प्रदेशों में पर्यटन हुआ होगा। आर्य पहले अपने वर्षों की गणना हिम से करते थे, बाद में वे शरद से वर्षों की गणना करने लगे। उनके मत में इसका तात्पर्य है कि, पहले आर्य शीत प्रदेश मध्य एशिया के निवासी थे। बाद में वे दक्षिण की ओर बढ़े वहां उन्हें सुहावना बसंत मिला उनका तर्क यह भी है, कि आर्यों के ग्रंथ जिन पशुओं और अन्नों का उल्लेख देते हैं। उनका मध्य एशिया में प्राप्ति है। वह इस तर्क से अपना मत मजबूत करते हैं। कि कालांतर में शक, कुषाण हूंण आदि जातियां मध्य एशिया से ही भारत आए हैं।

  3. आर्यों के संबंध में तीसरा सिद्धांत आर्कटिक सिद्धांत है। वेदों के आधार पर बाल गंगाधर तिलक भी इसका समर्थन करते हैं। उनका तर्क है, कि वेदों में छः महीने दिन और छः महीने रात का वर्णन है। वेदों में उषा की भी स्तुति है, जो बहुत लंबी है। यह सब उत्तरी ध्रुव में संभव है, पारसियों के धर्म ग्रंथ अवेस्ता में भी वर्णन है कि, उनके देवता अहुरमज्द ने जिस देश का निर्माण किया, वहां दस महीने सर्दी और दो महीने मात्र गर्मी होती थी। तिलक जी का निष्कर्ष है, कि यह प्रदेश उत्तरी ध्रुव के निकट कहीं होगा अवेस्ता में वहां तुषारपात का भी वर्णन है। तिलक जी का मत है कि पहले आर्य जब वहां थे तो वहां बसंत का मौसम था। किंतु जब वहां तुषारपात हुआ, तो आर्य वहां से चल पड़े। वहीं से यूरोप, ईरान और भारत वर्ष आ पहुंचे।

 4.  कुछ विद्वान आर्यों का मूल स्थान भारत भूमि होने का समर्थन करते हैं। डॉ० राजबली पांडे ने लिखा कि “संपूर्ण भारतीय साहित्य में एक भी संकेत नहीं है, जिससे सिद्ध हो सके कि भारतीय आर्य बाहर से आए थे। जन्श्रुतियों, भारतीय अनुश्रुतियों में कहीं इस बात की गंध नहीं है, कि भारतीय आर्यों की पितृभूमि और धर्म भूमि कहीं अन्य बाहर के देश में है”।

श्री अविनाश चंद्र दास के विचार में सप्त सिंधु आर्य आदि मूल निवास स्थान था। कुछ विद्धान गंगा का मैदान आर्यों की आदि भूमि का मत देते हैं। भारतीय सिद्धांत के समर्थन में विद्धान कहते हैं, कि भारतीय आर्यों के विषय में वैदिक ग्रंथ में कहीं नहीं लिखा मिलता कि आर्य बाहर से आए हैं। बल्कि सप्तसिंधु पंजाब का गुणगान है। जिस मुख्य भोज्य गेहूं, जौ का आर्यों को ज्ञान था, वह इस प्रदेश में बाहुल्य में प्राप्त हैं। अतः वे अपना मत कि भारतीय आर्य कहीं बाहर से नहीं आए हैं। को मजबूती से पेश करते हैं।

 इतिहास के पृष्ठों की यही अस्पष्टता आज भी हमें अतीत के गर्भ में छुपे उन रहस्यों को जानने के लिए आकर्षित करती हैं।

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2021

सिंधु घाटी सभ्यता | मिश्र, मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी सभ्यता की तुलना | Indus valley civilization

सिंधु घाटी सभ्यता / मिस्त्र, मोसोपोटामियां और सिंधु घाटी सभ्यता एक तुलनात्मक अध्ययन-

मिश्र, मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी सभ्यता की तुलना

   सिंधु घाटी सभ्यता के विषय में यह दूसरा लेख है। वे लोग उस काल में भी व्यापार करते थे। विद्वानों का मत है, कि वह वैदिक सभ्यता के मुकाबले अधिक नगरीय तथा व्यापार प्रधान थे। उनका प्रमुख व्यवसाय कृषि आधारित ही नहीं था, बल्कि व्यापार भी था। खुदाई में ऐसे बीज मिले हैं, जो उनकी भूमि की उपज नहीं हैं।  साथ ही वहां किसी राज प्रासाद का साक्ष्य नहीं मिला है। हां कई सभा भवन के खंडहर जरूर मिलें हैं। इससे उनके लोकतांत्रिक शासन के होने का अनुमान होता है।

   भारत में सिंधु घाटी की सभ्यता के उदय के दौर में ही विश्व के अन्य भागों में भी मानव उत्कृष्ट सभ्यता का जन्म हो रहा था। जो ज्ञात हैं वह, मिस्र की सभ्यता और मेसोपोटामिया की सभ्यता हैं। तीनों में उभयनिष्ठ है, कि वे नदी घाटी में उदित हुई। सिंधु नदी घाटी सभ्यता सिंधु नदी की घाटी में, मिस्र की सभ्यता नील नदी की घाटी में, और मेसोपोटामिया की सभ्यता दजला और फरात नदी की घाटी में  प्राप्त हुई हैं।

   तीनों से सभ्यताएं उत्तर पाषाण काल के बाद की हैं। वह धातु काल की सभ्यताएं हैं। वह कांश्य तथा तांबे का प्रयोग करते थे। इन सभ्यताओं के लोग सुंदर भवन बनाकर रहते थे। कुशल शिल्पकार हुआ करते थे। और सुंदर चीजों को बनाया करते थे। उनका व्यापार भी अच्छी स्थिति में था।

   हालांकि परलोक को प्राप्त होने पर वहां सुख भोगने के लिए जिस प्रकार से मिस्र के लोगों ने पिरामिडो का निर्माण किया था। वह ना तो  मेसोपोटामिया और ना ही सिंधु घाटी के लोगों ने किया।

   मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता के लोग अनेक देवी-देवताओं पर विश्वास करते थे। ठीक इसी प्रकार सिंधु घाटी के लोग भी देवी देवताओं पर विश्वास करते थे। खुदाई में कई मूर्तियां मिली हैं, जो मूर्तियां देवी-देवताओं की  हैं, उन मूर्तियों को लेकर यह विद्वानों का मत है। किन्तु सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने उन की भांति कभी देवी देवताओं के लिए देवालय का निर्माण नहीं किया था।

    सिंधु घाटी की खुदाई में अधिक लेख तो प्राप्त नहीं हुए, अपेक्षाकृत मेसोपोटामिया और मिस्र की खुदाई में अधिक लेख प्राप्त हुए हैं। किंतु विद्वानों का मत है, कि सिंधू घाटी सभ्यता के लोगों की लिपि सर्वोत्तम थी। और वह भवन निर्माण कला में भी मिश्र तथा मेसोपोटामिया सभ्यता के लोगों से उन्नत थे।

   सिंधु सभ्यता के लोगों का विस्तार मिश्र तथा मेसोपोटामिया की सभ्यता से अधिक विस्तारित था। विद्वानों का मत है, कि यहां सिंधु सभ्यता के लोगों का अधिक रण-प्रिय होने का संकेत देता है।

   अब सवाल यह है, कि सिंधु घाटी सभ्यता के निर्माता कौन थे। क्या वे आर्य थे। बहुत से विद्वानों का मत यही है। किंतु वैदिक सभ्यता और सिंधु घाटी सभ्यता में बहुत बड़ा अंतर है। जिससे यह स्पष्ट होता है, कि जिन लोगों ने वैदिक सभ्यता का निर्माण किया वे लोग सिंधु घाटी सभ्यता का निर्माण करने वाले नहीं हो सकते हैं।

   कुछ विद्धानों का मत यह भी है, कि यह द्रविड़ लोगों की सभ्यता थी, क्योंकि दक्षिण भारत में द्रविड़ो के मिट्टी के बरतन तथा आभूषण सिंधु घाटी के लोगों के बर्तन आभूषणों से काफी मिलते-जुलते हैं।  यह धारणा कुछ ठीक भी लगती है। किंतु खुदाई में जो हड्डियां मिली हैं,  वह किसी एक जाति की नहीं है। अतः इस सभ्यता के निर्माता किसी एक जाति का न होकर वरन विभिन्न जाति के लोग थे।

   सिंधु घाटी सभ्यता के ज्ञात होने से विद्वानों की यह धारणा की वैदिक कालीन सभ्यता ही भारत की प्राचीनतम सभ्यता है। गलत साबित होती है। विद्वानों के अनुसार वैदिक कालीन सभ्यता ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व की है। जबकि सिंधु घाटी सभ्यता ईसा से लगभग 3 से 4 हजार वर्ष पूर्व की  होने का अनुमान है।

  यह कहानी मानव के उन्नत अतीत की है।

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏