सोमवार, 29 नवंबर 2021

अर्थशास्त्र और इंडिका से मौर्य वंश का शासन प्रबंध

चंद्रगुप्त शासन-प्रबंध | मौर्यकालीन स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय शासन प्रबंध

पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कृष्णा नदी तक हिंदुस्तान का विशाल भाग किसी एक शक्तिशाली राजा द्वारा केंद्र से शासित हो रहा था। इतने बड़े साम्राज्य में शासन की निश्चित कड़ियां थी, जो शासन को सुचारू रखती थी।

   चंद्रगुप्त मौर्य के काल में शासन प्रबंध को समझने के लिए जो साधन उपलब्ध हैं, वह उस दौर की विद्धान राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ चाणक्य द्वारा लिखा “अर्थशास्त्र” और चंद्रगुप्त के शासन में एक यूनानी राजदूत जोकि सेल्यूकस का राजदूत था, मेगस्थनीज। उसने चंद्रगुप्त के साम्राज्य में जो कुछ देखा सुना वह सब कुछ अपनी पुस्तक “इंडिका” में लिखा। मेगास्थनीज के विवरण में चंद्रगुप्त के स्थानीय स्वशासन का काफी विवरण मिलता है।

   अध्यन के अंतर्गत चंद्रगुप्त के शासन को समझने के लिए उसे तीन भागों में वितरित किया जा सकता है। केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन और स्थानीय शासन।

   जो भी हो किंतु व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका का सर्वोच्च प्रधान राजा होता था, वह केंद्रीय सकती थी, और वह स्वेच्छाचारी भी हो सकता था, और निरंकुश शासन करता था। वह सर्वेसर्वा था। 

इस सब में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ज्ञान प्राप्त होता है, कि राजा प्रजा के प्रति ऋणी होता है, और वह प्रजा को सुख शांति दे कर उस ऋण से मुक्त हो सकता है।

   केंद्रीय शासन का तात्पर्य है, जो राजधानी से संचालित होता था। सम्राट केंद्रीय शासन का प्रधान था, वही कानून बनाता था, और उनका पालन भी वही करवाता था। कानून का उल्लंघन करने वाले लोगों को दंड भी वही देता था।

   सम्राट द्वारा नियुक्त एक मंत्री परिषद अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर सम्राट को परामर्श देती थी। वह सम्राट के विश्वासपात्र होते थे, हालांकि वह केवल वेतनभोगी मंत्री थे, और सम्राट उनकी राय को मानने के लिए बाध्य ना था। दैनिक कार्यों में मंत्री परिषद का कोई भूमिका न थी।

   दैनिक कार्यों में परामर्श देने के लिए सम्राट के साथ मंत्रिन् हुआ करते थे। इन्हीं के सहायता से सम्राट शासन संचालित करता था। किंतु सम्राट इनके भी परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं था।

   चंद्रगुप्त के काल में शासन को संचालित करने के लिए अनेक विभागों में शासन को बांटा गया था। उस समय में कुल 18 विभाग थे। प्रत्येक विभाग को एक-दो विषय सौंप दिए गए थे। विभाग का अध्यक्ष अमात्य होता था। अमात्य के नीचे आनेक सारे कर्मचारी पदाधिकारी होते थे। वह दैनिक शासन को चलाते थे, और राजा के प्रति उत्तरदायी होते थे।

   अपने साम्राज्य में शांति स्थापित करने के लिए चंद्रगुप्त ने पुलिस या आरक्षी विभाग का संगठन किया था। इस विभाग के कर्मचारी “रक्षिन्” कहलाते थे। जनता की रक्षा ही इनका कर्तव्य था।

इसके अतिरिक्त इतने बड़े साम्राज्य में जगह जगह पर हो सकने वाले अपराधों और षड्यंत्र को रोकने के लिए राजा ने गुप्तचर विभाग भी काम में रखा था। वे “संस्थान” गुप्तचर जो कि निश्चित स्थान पर रहकर, और “संचारण” गुप्तचर जो कि घूम घूम कर अपराधियों का पता लगाते थे, संभवत संचारण गुप्तचर साम्राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों में विचरण कर वहां होने वाले अपराधों और षड्यंत्रों का पता लगाते रहे होंगे। जानकारी है कि, स्त्रियां भी गुप्तचर के कार्यों करती थी। इस प्रकार से सम्राट को अपराधों कुचक्रों और षड्यंत्रों की सूचना अपने साम्राज्य के कोने कोने से प्राप्त हो जाती थी।

   अपराधिक मामलों में न्याय व्यवस्था का प्रधान भी स्वयं चंद्रगुप्त था। चंद्रगुप्त की सहायता के लिए न्यायधीश हुआ करते थे। वह नगरों तथा जनपदों के लिए अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। नगरों के न्यायाधीश “व्यवहारिक” और जनपद के न्यायधीश “राजुक” कहलाते थे। न्यायाधीशों को “धर्मस्थ” के नाम से भी जाना जाता था। प्रत्येक न्यायालय में तीन धर्मस्थ तथा तीन अमात्य न्यायाधीश का पद ग्रहण करते थे। दीवानी तथा फौजदारी मामले में अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। दीवानी के न्यायालय “धर्मस्थीय” तथा फौजदारी न्यायालय “कण्टशोधक”  कहलाते थे।

   दंड विधान बहुत कठोर था। जुर्माना, अंग-भंग और मृत्यु तक का दंड दिया जाता था। स्ट्रेबो ने लिखा कि यदि कोई झूठी गवाही देता, तो उसका अंग-भंग का दंड दिया जाता, यदि कोई किसी का अंग-भंग कर देता है तो उसका हाथ काट दिया जाता और यदि कोई अपराधी किसी कारीगर का अंग-भंग कर देता तो उसे प्राण दंड दिया जाता था।

सबसे महत्वपूर्ण कि इतना कठोर दंड विधान होने के कारण चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में अधिक अपराध नहीं होते थे।

राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के काल में न्यायालय की बैठक प्रातः काल होती थी, और निर्णय में शीघ्रता होती थी। छोटी अदालतों के फैसलों की अपील बड़ी अदालतों में होती थी। और सम्राट का निर्णय अंतिम निर्णय होता था।

   चाणक्य की कथानानुसार राजा प्रजा के प्रति ऋणी है, वह लोग मंगलकारी कार्यों को करने से ही प्रजा के ऋण से मुक्त हो सकता है। अतः चंद्रगुप्त ने अपने काल में यातायात के लिए सड़के बनाई, छायादार वृक्ष राहों में और स्थान स्थान पर कई कुएं तथा धर्मशालाएं बनाई। सिंचाई की समुचित व्यवस्था की, उसके प्रांतीय शासक पुष्पगुप्त ने सौराष्ट्र में सिंचाई के लिए एक बहुत बड़ी झील जिसका नाम सुदर्शन झील हुआ का निर्माण करवाया।

स्वास्थ्य तथा स्वच्छता की समुचित व्यवस्था की गई थी। “भैष्ज्य गृहों” अर्थात औषधालय की स्थापना करवाई। उसमें चिकित्सकों की व्यवस्था की गई, शिक्षा का समुचित व्यवस्था की गई, छात्रों को छात्रवृत्ति की व्यवस्था की गई, शिक्षा का प्रबंध प्रधानमंत्री और पुरोहित की अध्यक्षता में संचालित होता था।

शनिवार, 27 नवंबर 2021

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन काल | साम्राज्य का प्रसार तथा विजित प्रदेश | Maurya dinesty Chandragupt

Chandragupta maurya 

संपूर्ण उत्तर भारत में जिसका साम्राज्य स्थापित हो चुका था, वह दक्षिण की ओर बढ़ता है, और सौराष्ट्र की भूमि पर भी अपना अधिकार स्थापित करता है, इतना ही नहीं वह मालवा को भी अपने अधिकार में करता है, कुछ विद्वानों का मत है, कि उस क्रांतिकारियों के नेता चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य मैसूर राज्य की सीमा तक प्रसारिता था।

    चंद्रगुप्त की विजय का आरंभ पंजाब की भूमि से होता है। सिकंदर के भारत से लौट जाने के पश्चात पंजाब की भूमि में यूनानीयों के विरोध में एक बड़ी क्रांति ने जन्म लिया। चंद्रगुप्त मौर्य क्रांतिकारियों का नेता हो गया उसने यूनानीयों को भारत भूमि से मार भगाया और पंजाब पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।

   चंद्रगुप्त मौर्य अब अपने लक्ष्यों के प्राप्ति के उदीयमान पृष्ठों को लिख रहा था। यह वही मगध का साम्राज्य था, जिस पर आक्रमण का साहस सिकंदर न कर सका, किंतु दृढ़ संकल्पित चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब पर अपने अधिपत्य के पश्चात मगध के विशाल साम्राज्य पर विजय के मंसूबे को साकार करता है। ब्राह्मण चाणक्य साथ हैं। 321 ईसा पूर्व में चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य का मगध की गद्दी पर राज्याभिषेक कर देते हैं, और चंद्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर एक नए वंश मौर्य वंश का पहला पृष्ठ लिखता है।

    उत्तर भारत पर चंद्रगुप्त के अधिपत्य के पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य दक्षिण भारत को भी अपने अधिकार में लेने के लिए प्रयत्नरत होता है। उसने सौराष्ट्र की भूमि को पहले जीता, और उसके पश्चात मालवा को अपने अधिकार में ले लेता है। मालवा की भूमि को अपने अधिकार में ले लेने के पश्चात वह वहां का शासन प्रबंध पुष्पगुप्त वैश्य को सौंप देता है, और उसी ने वहां पर सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। 

   चंद्रगुप्त का अंतिम संघर्ष सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर के साथ पश्चिमोत्तर भारत सिंधु नदी के पश्चिम में हुआ।

सिकंदर की मृत्यु के पश्चात सेल्यूकस निकेटर सिकंदर की साम्राज्य के पूर्वी भाग का स्वामी बन गया था, और वह भारत पर अधिपत्य के लिए दृढ था। उसने 305 ईसा पूर्व में भारत पर आक्रमण कर दिया, किंतु चंद्रगुप्त मौर्य ने सफलतापूर्वक उसे वहीं रोक दिया। अंततः सेल्यूकस निकेटर को चंद्रगुप्त के साथ संधि करनी पड़ी। उसने चंद्रगुप्त मौर्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया, और यही नहीं बल्कि अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान का प्रदेश भी चंद्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने भी 500 हाथियों को भेंट स्वरूप सेल्यूकस निकेटर को सौंप दिया।

   अब चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर भारत में तो अपनी चरमता हासिल कर चुका था। स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला हुआ था। हां यह जरूर ध्यान रहे कि कश्मीर और कलिंग का हिस्सा चंद्रगुप्त के साम्राज्य में नहीं आता था।

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

मौर्य वंश के उदय की कहानी | चन्द्रगुप्त मौर्य का परिचय | Maurya Dynasty Chandragupt मौर्य का संघर्ष

मौर्य साम्राज्य का उदय / चंद्रगुप्त मौर्य एक परिचय / नंद वंश का पतन-

   भारत में सिकंदर की एक तीव्र यात्रा के ही दौर में जिस साम्राज्य के पूरे उत्तर भारत में स्थापित होने का पथ प्रशस्त हो रहा था।  वह मोर्य साम्राज्य था। मगध की गद्दी पर नया वंश आसीन होता है। जिस राजवंश का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य हुआ। 

   चंद्रगुप्त मौर्य किस कुल का था या उनका वंश क्या था, यह ज्ञान निश्चित नहीं है। कुछ विद्वानों के विचार में एक नाइन जिसका नाम मुरा था, चंद्रगुप्त मौर्य उसका पुत्र था। और वह नंदराज की एक शूद्रा पत्नी थी। इस विचार के अनुरूप चंद्रगुप्त मौर्य एक शूद्र कुल का था।

किंतु कुछ विद्वानों के मत के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय वंश का था। उनके मतानुसार नेपाल की तराई में पिप्पलिवन नामक एक छोटा सा प्रजातंत्र राज्य था। जिस पर चंद्रगुप्त मौर्य के पिता जो सूर्यवंशी क्षत्रिय थे, और मोरिय जाति के राज शासक थे।

   दुर्भाग्यवश एक सबल राजा ने चंद्रगुप्त मौर्य के पिता जो कि नेपाल के तराई क्षेत्र में स्थित एक प्रजातांत्रिक राज्य के प्रधान थे, उनकी हत्या कर दी, और उनसे राज्य छीन लिया। विद्वानों के मतानुसार उस वक्त पर चंद्रगुप्त की मां गर्भवती थी, और इसी दशा में उस वक्त पर वह संबंधियों के पास पाटलिपुत्र चली आई, और अज्ञात रूप से वहां रहने लगी, वहां पर लोग अपनी जीविका के यापन के लिए तथा आपने राजवंश को छुपाए रखने के लिए मयूर का पालन करने लगे। अतः चंद्रगुप्त का प्रारंभिक जीवन मयूर पालकों के साथ ही व्यतीत हुआ।

   अध्ययन में चंद्रगुप्त मौर्य के प्रारंभिक जीवन को लेकर यह प्राप्त हुआ, कि मगध के राजा के यहां चंद्रगुप्त मौर्य ने नौकरी कर ली, वह सेना में भर्ती हो गया, और अपनी योग्यता के बल पर वह सेनापति भी बन गया, किंतु कुछ कारणवश मगध का राजा चंद्रगुप्त मौर्य से अप्रसन्न हो गया, और उसने चंद्रगुप्त मौर्य को प्राण दंड दे दिया।

अपने प्राणों की रक्षा के लिए चंद्रगुप्त मौर्य वहां से निकल भागा क्योंकि उस वक्त मगध का शासक वंश नंद था। अब चंद्रगुप्त मौर्य नंद वंश के विनाश के कारण को जन्म देने का प्रयत्न करने लगा।

   इसी दौर में चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब की ओर चला गया, और वहां से तक्षशिला पहुंच गया। वहां उसकी भेंट चाणक्य नामक एक ब्राह्मण से हुई, जिन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। चाणक्य भी नंद वंश के तत्कालीन शासक से अप्रसन्न था। वह दोनों मिलकर नंद वंश के विनाश का उपाय ढूंढने लगे।

   चाणक्य ने बहुत सारा धन एकत्रित किया हुआ था, और एक प्रसंग के अंतर्गत चाणक्य ने वह धन चंद्रगुप्त मौर्य को दे दिया, ताकि चंद्रगुप्त मौर्य सेना को एकत्रित कर सके, और मगध पर अधिकार कर सके। किंतु चंद्रगुप्त मौर्य की एकत्रित की गई सेना मगध साम्राज्य की विशाल सेना के सम्मुख ना टिक सकी और एक बार फिर चंद्रगुप्त मौर्य को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा।

    चंद्रगुप्त मौर्य फिर से पंजाब पहुंचा, उन दिनों सिकंदर भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में अपनी विजय यात्रा से आ टिका था, और वह अपनी विजय यात्रा में आगे को बढ रहा था, किंतु मगध के शासन पर आक्रमण करने का साहस जुटा पाने में वह भी सफल ना हो सका। उसी दौर में मगध नंद वंश के पतन के मंसूबे को लेकर चंद्रगुप्त मौर्य सिकंदर के शिविर में पहुंचा। वह उस से मिला, किंतु चंद्रगुप्त मौर्य स्वतंत्र विचार, सिकंदर को उसके विचार पसंद न आए, और उसने भी चंद्रगुप्त मौर्य की हत्या का आदेश दे दिया।

चंद्रगुप्त मौर्य सिकंदर के शिविर से भाग खड़ा हुआ। अब उसके जीवन के दो प्रधान ध्येय हो गए।

एक लक्ष्य जो वह पहले ही तय कर चुका था, नंद वंश का मगध में साम्राज्य का पतन और दूसरा लक्ष्य यूनानियों को भारत से बाहर खदेड़ना सबसे महत्वपूर्ण इन दोनों उद्देश्यों में उसके साथ ब्राह्मण चाणक्य ने पूरा सहयोग किया।चंद्रगुप्त मौर्य अपने लक्ष्यों को सफलता से प्राप्त भी कर सका।

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

Alexander की भारत यात्रा का प्रभाव | सिकंदर | भारत पर यूनानी प्रभाव

सिकंदर(Alexander)
सिकंदर(Alexander) के आक्रमण का प्रभाव भारत में इतिहासकारों में मतभेद दिखाने वाला एक और विषय है। कुछ विद्वानों का मानना है, कि सिकंदर(Alexander) का आक्रमण एक तूफान की तरह था, जिसने थोड़ी देर के लिए भारतीयों को झकझोर जरूर दिया था, और फिर पानी के बुलबुले की तरह वह समाप्त भी हो गया।

कुछ विद्वानों के विचार में यह बेहद क्षणिक था और भारत के छोटे से क्षेत्र में यह होने पर पूरे भारत पर इसके प्रभाव को गहनता से भी नहीं देखते हैं। उनका मत है कि यह केवल एक सैन्य विजय थी, और यूनानी लोग कुछ ही दिनों के बाद भारत से निकल गए थे, अतः यहां भारत में यूनानीयों का कोई स्थाई प्रभाव ना हो सका।

वे तो स्वयं बर्बर और लुटेरे थे, लुटेरे यूनानी सैनिकों से भारत की सभ्यता जो स्वयं में इतनी ऊंची थी, कभी कुछ नहीं सीख सकती थी।

इस विषय में स्मिथ महोदय ने लिखा है “यूनानी प्रभाव कभी अंतः स्थल तक प्रविष्ट नहीं हो सका भारतीय राजसंस्था और समाज का संगठन जो जाति व्यवस्था पर आधारित था, वस्तुतः अपरिवर्तित हुआ रहा और सैन्य शास्त्र में भारतवासी सिकंदर(Alexander) की तीक्ष्ण करवाल द्वारा सिखाई हुई शिक्षा का आलिंगन करने के लिए उत्सुक ना थे”।

  किंतु कुछ इतिहासकारों का कहना है, कि भारतीय इतिहास में यह घटना बहुत महत्वपूर्ण थी और इसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव भारतीय सभ्यता पर जरूर पड़े। यह सत्य है कि यूनानी लोग भारत से भगा दिए गए थे, किंतु वह लोग अपने देश को नहीं गए वरन वे भारत के पश्चिमोत्तर सीमा के निकट बस गए थे। और भारतीयों के साथ संबंध स्थापित करने के पश्चात भारतीय संस्कृति उन से अछूती न रह सकी। प्रो० नीलकांत शास्त्री ने सिकंदर के आक्रमण के विषय में कहा है कि यद्यपि यह दो वर्षों से कम तक रहा परंतु आक्रमण स्वयं एक ऐसी महान घटना थी, की चीजें जैसी थी वैसी न रह सकी उसने इस बात को स्पष्ट रुप से प्रदर्शित कर दिया कि एक दृढ़ प्रतिज्ञ शत्रु की संयम शक्ति की समानता स्वतंत्रता का उत्तेजना पूर्ण प्रेम नहीं कर सकता।

    इस आक्रमण से भारतीयों को कम से कम इतना तो ज्ञान हुआ कि पश्चिमोत्तर छोटे-छोटे राज्यों में वितरित होना उसके राजनीतिक दुर्बलता को प्रस्तुत करता है। और आक्रमणकारियों को निमंत्रण देता है। इसी विचार से चंद्रगुप्त मौर्य पूरे उत्तर भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने में सफल हो सका।

  यूनानीयों की सुसज्जित सेना ने कैसे भारतीयों की विशाल सेना को परास्त कर दिया इससे भारतीयों को यह ज्ञान हुआ कि सेना में संख्या की नहीं बल्कि रण कुशलता की अधिक आवश्यकता होती है।

  सिकंदर(Alexander) का आक्रमण 327 ईसा पूर्व भारत पर हुआ था, और इसी तिथि के बाद भारत में इतिहास का तिथि गत क्रम से अध्ययन प्रारंभ होता है।

यूनानीयों के कई लेख भारतीय प्राचीन इतिहास को जानने में भी बेहद महत्वपूर्ण है।

  भारतीय संस्कृति और साहित्य पर यूनानीयों का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा यह कुछ इतिहासकार विद्वानों का मत है, क्योंकि यूनानी भारत से वापस लौटे नहीं बल्कि पश्चिमोत्तर प्रदेशों में बस गए थे। इसलिए संस्कृत में आदान-प्रदान निश्चित तौर से हुआ।

~कुछ का मत है कि भारत में गद्य-काव्य, नाट्य इत्यादि यूनानीयों के प्रभाव के होने से ही प्रारंभ हुआ।

~भारत में मुद्रा का चलन को लेकर यूनानी द्रम से ही भारतीय दीनार रूपांतरित हुआ है। यह कुछ विद्वानों का मत है।

~इसके अतिरिक्त यूनानीयों का प्रभाव भारतीयों पर ज्योतिष विद्या, चिकित्सा एवं औषधि तथा धार्मिक जीवन पर पड़े बिना न रह सका।

~कुछ विद्वानों का मत है, कि भारतीयों की मूर्तिकला पर यूनानीयों का प्रभाव पड़ने से एक नई शैली का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे गांधार शैली के नाम से जाना जाता है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

Alexander in india झेलम का युद्ध in hindi विस्तृत वर्णन | सिकन्दर का भारत पर आक्रमण तथा वापस लौटने का कारण

सिकंदर की भारत यात्रा / Alexander in india विस्तृत वर्णन विशेष –

सिकंदर

    327 ईसा पूर्व में सिकंदर ने हिंदूकुश पर्वत को पार कर वह काबुल में आ डटा था, वहां पर उसने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त किया, जिसमें एक सेना का संचालन उसने अपने विश्वस्त सेनापति को दिया जो खैबर के दर्रे से आगे बढ़ी। और दूसरी सेना को अपने नियंत्रण में रखकर वह काबुल की घाटी में प्रवेश करता है, अनेक छोटे-छोटे राजाओं को  जीतते हुए वह आगे बढ़ता है। और अंततः यह दोनों सेनाएं ओहिंद नामक स्थान पर पुनः मिलती हैं, वहां से ये आसानी से सिंधु नदी को पार कर जाते हैं।

   सिंध नदी के पार उस समय पर अर्थात सिधु नदी के पूर्व में उस समय पर मुख्य तौर से दो सबल शासक थे, आंभी तथा पुरु या पोरस।

किंतु उन दोनों के मध्य में सहयोग का संबंध न था, वे एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बने रहे। और यह सिकंदर के पक्ष में था। इससे पहले कि सिकंदर आक्रमण करता आंभी ने सिकंदर को अपने राज्य में आने का निमंत्रण दे दिया। दरअसल वह सिकंदर के माध्यम से पोरस को नीचा दिखाना चाहता था। यदि पोरस और आंभी साथ मिलकर सिकंदर का सामना करते तो शायद वे जरूर जीत जाते।

   326 ईसा पूर्व में आंभी की राजधानी तक्षशिला में सिकंदर अपनी सेना के साथ प्रवेश करता है। आंभी उसका स्वागत करता है, और पोरस के खिलाफ सिकंदर की विजय में उसका साथ देता है।

   पोरस का राज्य झेलम तथा चुनाव नदी के बीच में था। सिकंदर ने पोरस के राज्य पर आक्रमण कर दिया, वह झेलम नदी के पश्चिम तट पर आ डटा किंतु पोरस की सेना पहले से ही झेलम नदी के पूर्वी तट पर झंडा गाड़े खड़ी थी। कई महीनों तक दोनों सेनाएं जैसी की तैसी वही पड़ी रही, किंतु झेलम नदी को पार करने का साहस किसी ने ना किया, फिर एक दिन अंधेरी रात में जब बहुत भयानक आंधी चल रही थी, सिकंदर की सेना झेलम नदी को पार कर जाती हैं, और जब पोरस को यह मालूम होता है, तो वह भी रण के मैदान में अपनी सेना के साथ पहुंचता है। दोनों में भीषण संग्राम होता है, पहले तो पोरस की सेना सिकंदर की सेना को शिकस्त दे रही होती है। किंतु बाद में किसी तरह सिकंदर जीत जाता है, और पोरस को बंदी बना लिया जाता है।

   इस रण क्षेत्र का एक प्रसंग सम्मुख आता है, कि जब पोरस को बंदी बना लिया जाता है, और उन्हें सिकंदर के सामने लाया जाता है, तो सिकंदर पोरस से प्रश्न करता है, कि कहो तुम्हारे साथ क्या व्यवहार किया जाए पोरस बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे, उनका जवाब आता है कि जैसे “एक राजा दूसरे राजा के साथ व्यवहार करता है”।

   सिकंदर पोरस जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति से मित्रता का महत्व समझता था। जब तक सिकंदर भारत में रहता है पुरु उससे अपने मैत्री भाव का निर्वाह करता है। सिकंदर पोरस से मैत्री संबंध स्थापित करता है, और वहां से आगे बढ़ता है, जहां दो अन्य राज्यों को मार्ग में जीतता है। अंत में वह पंजाब की अंतिम नदी व्यास के पश्चिमी किनारे पर आ खड़ा होता है, और यह वही सीमा थी, जहां से मगध का विशाल साम्राज्य भारत के पूर्वी छोर तक विस्तारित था, यदि सिकंदर यहां विजय हासिल करता तो पूरे भारत पर उसका वर्चस्व स्थापित हो जाता।

   किंतु मगध के साम्राज्य पर आक्रमण करने का उसकी सेना का कोई विचार न था। उस उत्साह में कमी थी। उसकी सेना में अब इतना साहस न रहा था कि मगध जैसे विशाल साम्राज्य को चुनौती दे सकें। क्योंकि बहुत लंबे समय अपने घर से बाहर थे, और युद्ध करते करते वे थक भी गए थे। वह बहुत दूर आ गए थे। अब घर वापस लौटना चाहते थे। यही कारण होगा, कि मगध की सीमा को सिकंदर पार न कर सका, और उसने वापस लौटने का निश्चय किया।

वह पोरस से मिला शासन संबंधी नीति पर विचार विमर्श किए, और वहां से लौट गया, लौटते वक्त भी उसे अनेक सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा, अनेक छोटे-छोटे राज्यों से उसका सामना हुआ। सिंध के निचले प्रदेश में पटल नाम के स्थान पर उसने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त कर दिया, एक को उसने समुद्री मार्ग से और दो को स्थल मार्ग से भेज दिया, वह स्वयं स्थल मार्ग से हो चला, अंत में वह अपनी टुकड़ी के साथ बेबीलोन जा पहुंचा, वहां पर ज्वर से पीड़ित हो गया, और 32 वर्ष की उम्र में 323 ईसा पूर्व उसका परलोकवास हो गया।

यहीं पर उसके विश्व विजय की यात्रा का अंत हो जाता है। हालांकि उसकी विश्वविजय का ख्वाब पूर्ण तो ना हो सका, किंतु वह विश्व के महान सेनानियों में अपने आप को दर्ज करा सकने में सफल रहा।

    उपरोक्त प्रसंग आप सब ने इसी प्रकार से अध्ययन जरूर किया होगा।

किंतु यह एक पक्ष की कहानी है, कई तथ्य आज भी इस प्रश्न को जीवित रखते हैं कि जीता कौन था, पोरस या सिकंदर? 

यदि सिकंदर विश्व विजेता था तो वह पोरस के राज्य से वापस क्यों लौटा?

वे यूरोपीय लेखकों के द्वारा सिकंदर की प्रसंग को यथावत लिखा नहीं मानते हैं, बल्कि सिकंदर की महानता को अथवा यूरोपियों की महानता को प्रस्तुत करती हुई दृष्टि में रहकर लिखा हुआ मानते हैं।

वे आज भी इस विषय के निचोड़ को रत हैं।

बुधवार, 17 नवंबर 2021

सिकंदर का परिचय | सिकंदर भारत की सीमा तक | sikandar की विजय यात्रा

सिकंदर का परिचय तथा सिकन्दर भारत की सीमा तक-

 

   उस समय में यूनान के छोटे से राज्य मकदूनिया पर फिलिप नामक शासक का शासन था। फीलिप के पुत्र सिकंदर हुए। यह वही सिकंदर है, जिसे दुनिया के सबसे महान विजेताओं की पंक्ति में स्थान प्राप्त है। सिकंदर विश्व का महान विजेता।

   336 ईसा पूर्व में फिलिप की मृत्यु हो जाने के कारण अब सिंहासन सिकंदर को मिला। हालांकि उस समय पर सिकंदर की आयु महज 20 वर्ष थी, किंतु सिकंदर उस वक्त के सबसे महान विद्वान और दार्शनिक अरस्तु के शिष्य रहे, जिसके प्रभाव से सिकंदर बड़े सभ्य व्यक्ति बना, वह बेहद कुशल शासक अपने आप को साबित कर पाने में सफल रहा। शासन पर आरूढ़ हो जाने के पश्चात उसने दो प्रमुख ध्येय स्वयं को सदैव दिए रखें। पहला अपने साम्राज्य का विस्तार और दूसरा अपने देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रसार।

    सिकंदर ने विजय यात्राओं का चक्र प्रारंभ किया। वह अपने आसपास के पड़ोसी छोटे-छोटे राज्यों को जीत हासिल कर फारस के जर्जर साम्राज्य को रौंदता हुआ भारत की सीमा पर आ पहुंचा।

    उस समय तक उत्तर भारत के पूर्वी भाग में मगध का विशाल साम्राज्य स्थापित हो चुका था। किंतु अभी उत्तर भारत में पश्चिमोउत्तर प्रदेशों की राजनीतिक दशा बड़ी सोचनीय थी। वहां छोटे-छोटे राज्य थे, जिन में सहयोग का सदैव अभाव रहा, उनमें एक दूसरे को नीचा दिखाने का भाव था। और यही कारण था कि विदेशी आक्रमणकारियो को लाभ मिला।

   सिकंदर से पहले ईरान के शासक साइरस तथा डेरियस के आक्रमण इस भूभाग पर हो चुके थे। अब सिकंदर जब भारत की सीमा तक पहुंचा था, और ईरान के साम्राज्य को पहले ही रौंद चुका था। तो स्वाभाविक तौर से वह भारत पर भी आक्रमण की योजना तय कर चुका था।

   सिकंदर जहां कहीं गया सफलता ने विजय ने उसका स्वागत किया, उसका आलिंगन किया उसका उत्साह चरम पर था। यह उसकी महत्वाकांक्षा को और तीव्र करता गया, और उसकी विजय यात्रा का मार्ग उसके उत्साह के प्रभाव में कभी जर्जर ना हो सका।

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

बौद्ध कालीन भारत |16 महाजनपदों की विस्तृत व्याख्या | Boddh period india explaination

16 महाजनपदों में बौद्ध कालीन भारत की विस्तृत व्याख्या

बौद्ध कालीन भारत जब भगवान बुद्ध के द्वारा बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हो रहा था। उस समय पर भारत किस प्रकार से था, इसकी दशा क्या थी। इस विषय में बौद्ध धर्म ग्रंथों से कुछ जानकारी प्राप्त होती हैं। उन दिनों उत्तरी भारत में कोई ऐसा सशक्त साम्राज्य ना था, जो कि केंद्र में रहकर एक शक्तिशाली शासन पूरे उत्तर भारत में स्थापित कर सकें, ऐसा ना हो कर उन दिनों उत्तरी भारत 16 छोटे-बड़े राज्यों में बंटा हुआ था, इन राज्यों को महाजनपद कहा जाता था।

   ● अंग (पूर्वी बिहार) राजधानी चंपा, ● मगध (दक्षिणी बिहार) राजधानी गिरिब्रज, ● काशी (वाराणसी) राजधानी काशी, ● कौशल (अवध) राजधानी श्रावस्ती, ● वज्जी (उत्तरी बिहार) राजधानी वैशाली, ●.मल्ल (देवरिया, गोरखपुर) राजधानी कुसिनारा तथा पावा, ● चेदी  (बुंदेलखंड) राजधानी सुक्तिमती, ● वत्स (प्रयाग) राजधानी कौशांबी, ● कुरु (दिल्ली मेरठ) राजधानी इंद्रप्रस्थ तथा हस्तिनापुर, ● पांचाल (रोहिलखंड) राजधानी अहिक्षेत्र तथा कम्पिल्य, ● मत्स्य (जयपुर) राजधानी विराटनगर, ● शूरसेन (मथुरा) राजधानी मथुरा, ● अवंती (पश्चिमी मालवा) राजधानी उज्जैन, ● गांधार (पूर्वी अफ़गानिस्तान) राजधानी तक्षशिला, ● कंबोज (काश्मी) राजधानी द्वारका, ● अस्सकं (हैदराबाद) राजधानी  पोतली या पोतन।

    इन राज्यों में कुछ में तो राजतंत्रात्मक और कुछ में गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्थाएं थी। राजतांत्रिक राज्य तुलना में लोकतांत्रिक राज्यों से बड़े हुआ करते थे। इन राज्यों में प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। अतः बड़े राज्यों ने अपने पड़ोस के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर दिया, और उन्हें अपने में मिलाकर अंत तक आते-आते यह चार बड़े राज्यों कौशल, वत्स, अवंती, तथा मगध में विलीन हो गए।

    कौशल वर्तमान का अवध ही हुआ करता था। इस राज्य के बीच में से सरयू नदी बहती थी। इसके दो राजधानियां हुआ करते थी, उत्तरी भाग की राजधानी श्रावस्ती तथा दक्षिण भाग की राजधानी कुशावती थी। जिस वक्त पर बौद्ध धर्म का प्रचार हो रहा था, यहां के राजा प्रसेनजीत थे।

   कौशल राज्य के दक्षिण में वत्स राज्य था। जिसकी राजधानी कौशांबी थी उस वक्त पर जब बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हो रहा था, तब वहां का शासक उदयन था।

   वत्स राज्य के दक्षिण पश्चिम में स्थित राज्य अवंती था, इसकी राजधानी उज्जैनी थी। बुद्ध भगवान जब बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार में थे, तब वहां के राजा प्रद्योत हुए।

   आधुनिक बिहार के गया तथा पटना जिलों को मिलाकर मगध का साम्राज्य बना था, इसकी राजधानी राजगृह थे  बुद्ध जी के समय में यहां बिंबिसार नामक शासक शासन करता था।

   इन चार बड़े राज्यों में भी प्रतिस्पर्धा लगातार जारी थी। वे अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए प्रयत्न करते रहते थे। धीरे-धीरे इन चारों में मगध राज्य ने अपनी शक्ति में वृद्धि की और पूरे उत्तर भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर दिया।

मगध के राजा बिंबिसार ने बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म दोनों को आश्रय दिया था। वह बड़े उदार थे, किंतु उनके पुत्र अजातशत्रु ने सिंहासन के लिए उनका वध कर दिया। अजातशत्रु एक कुशल शासक था। किंतु उसके निर्बल उत्तराधिकारीयों ने भविष्य में अपना शासन खो दिया। और क्रमशः शिशुनाग वंश और तत्पश्चात नंद वंश ने मगध के साम्राज्य को शासन किया नंद वंश के साम्राज्य का विनाश कर चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध में अपना शासन स्थापित किया।

   उस वक्त पर जिन जिन भारतीय क्षेत्रों में बौद्ध और जैन धर्म का प्रचार प्रसार हो रहा था, वहां जाती पाती व्यवस्था कुछ ढीली पड़ गई थी। ब्राह्मणों के प्रधानता को चुनौती दी गई थी, उनके स्थान को क्षत्रियों ने ग्रहण करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया था। आश्रम व्यवस्था भी अब ढीली पड़ गई थी। क्योंकि बौद्ध धर्म ने सत्कर्म और सदाचार पर बल दिया। उस समय पर स्त्रियों की दशा इतनी भी संतोषजनक ना थी। उस समय पर पहले भगवान बुद्ध ने भी बौद्ध संघों में स्त्रियों के होने पर मना ही किया था, किंतु बाद में स्त्रियों को भी संघ में रखा जाने लगा। उस वक्त पर लोग मुख्यता गांव में समूह बनाकर रहते थे। गांव में उनका मुख्य व्यवसाय कृषि हुआ करता था। हालांकि शहरों का भी उन्नयन आरंभ हो चुका था, वहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय शिल्प और व्यापार हुआ करता था।

   बौद्ध काल में साथ ही साथ जैन धर्म तथा भागवत धर्म का भी प्रादुर्भाव हुआ। जो उन लोगों को अति भाई जो यज्ञ तथा बली दोनों से तंग आ चुके थे। और किसी नई मार्ग के खोज में थे। बौद्ध तथा जैन धर्म ने सत्कर्म तथा सदाचार का और भगवत धर्म ने उपासना तथा भक्ति के सरल मार्ग पर चलकर मोक्ष की प्राप्ति का उपदेश दिया, और यही कारण रहा कि इस मार्ग पर चलने को जनसाधारण सहर्ष स्वीकार करता गया।

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