शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2021

सिंधु घाटी सभ्यता | मिश्र, मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी सभ्यता की तुलना | Indus valley civilization

सिंधु घाटी सभ्यता / मिस्त्र, मोसोपोटामियां और सिंधु घाटी सभ्यता एक तुलनात्मक अध्ययन-

मिश्र, मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी सभ्यता की तुलना

   सिंधु घाटी सभ्यता के विषय में यह दूसरा लेख है। वे लोग उस काल में भी व्यापार करते थे। विद्वानों का मत है, कि वह वैदिक सभ्यता के मुकाबले अधिक नगरीय तथा व्यापार प्रधान थे। उनका प्रमुख व्यवसाय कृषि आधारित ही नहीं था, बल्कि व्यापार भी था। खुदाई में ऐसे बीज मिले हैं, जो उनकी भूमि की उपज नहीं हैं।  साथ ही वहां किसी राज प्रासाद का साक्ष्य नहीं मिला है। हां कई सभा भवन के खंडहर जरूर मिलें हैं। इससे उनके लोकतांत्रिक शासन के होने का अनुमान होता है।

   भारत में सिंधु घाटी की सभ्यता के उदय के दौर में ही विश्व के अन्य भागों में भी मानव उत्कृष्ट सभ्यता का जन्म हो रहा था। जो ज्ञात हैं वह, मिस्र की सभ्यता और मेसोपोटामिया की सभ्यता हैं। तीनों में उभयनिष्ठ है, कि वे नदी घाटी में उदित हुई। सिंधु नदी घाटी सभ्यता सिंधु नदी की घाटी में, मिस्र की सभ्यता नील नदी की घाटी में, और मेसोपोटामिया की सभ्यता दजला और फरात नदी की घाटी में  प्राप्त हुई हैं।

   तीनों से सभ्यताएं उत्तर पाषाण काल के बाद की हैं। वह धातु काल की सभ्यताएं हैं। वह कांश्य तथा तांबे का प्रयोग करते थे। इन सभ्यताओं के लोग सुंदर भवन बनाकर रहते थे। कुशल शिल्पकार हुआ करते थे। और सुंदर चीजों को बनाया करते थे। उनका व्यापार भी अच्छी स्थिति में था।

   हालांकि परलोक को प्राप्त होने पर वहां सुख भोगने के लिए जिस प्रकार से मिस्र के लोगों ने पिरामिडो का निर्माण किया था। वह ना तो  मेसोपोटामिया और ना ही सिंधु घाटी के लोगों ने किया।

   मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता के लोग अनेक देवी-देवताओं पर विश्वास करते थे। ठीक इसी प्रकार सिंधु घाटी के लोग भी देवी देवताओं पर विश्वास करते थे। खुदाई में कई मूर्तियां मिली हैं, जो मूर्तियां देवी-देवताओं की  हैं, उन मूर्तियों को लेकर यह विद्वानों का मत है। किन्तु सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने उन की भांति कभी देवी देवताओं के लिए देवालय का निर्माण नहीं किया था।

    सिंधु घाटी की खुदाई में अधिक लेख तो प्राप्त नहीं हुए, अपेक्षाकृत मेसोपोटामिया और मिस्र की खुदाई में अधिक लेख प्राप्त हुए हैं। किंतु विद्वानों का मत है, कि सिंधू घाटी सभ्यता के लोगों की लिपि सर्वोत्तम थी। और वह भवन निर्माण कला में भी मिश्र तथा मेसोपोटामिया सभ्यता के लोगों से उन्नत थे।

   सिंधु सभ्यता के लोगों का विस्तार मिश्र तथा मेसोपोटामिया की सभ्यता से अधिक विस्तारित था। विद्वानों का मत है, कि यहां सिंधु सभ्यता के लोगों का अधिक रण-प्रिय होने का संकेत देता है।

   अब सवाल यह है, कि सिंधु घाटी सभ्यता के निर्माता कौन थे। क्या वे आर्य थे। बहुत से विद्वानों का मत यही है। किंतु वैदिक सभ्यता और सिंधु घाटी सभ्यता में बहुत बड़ा अंतर है। जिससे यह स्पष्ट होता है, कि जिन लोगों ने वैदिक सभ्यता का निर्माण किया वे लोग सिंधु घाटी सभ्यता का निर्माण करने वाले नहीं हो सकते हैं।

   कुछ विद्धानों का मत यह भी है, कि यह द्रविड़ लोगों की सभ्यता थी, क्योंकि दक्षिण भारत में द्रविड़ो के मिट्टी के बरतन तथा आभूषण सिंधु घाटी के लोगों के बर्तन आभूषणों से काफी मिलते-जुलते हैं।  यह धारणा कुछ ठीक भी लगती है। किंतु खुदाई में जो हड्डियां मिली हैं,  वह किसी एक जाति की नहीं है। अतः इस सभ्यता के निर्माता किसी एक जाति का न होकर वरन विभिन्न जाति के लोग थे।

   सिंधु घाटी सभ्यता के ज्ञात होने से विद्वानों की यह धारणा की वैदिक कालीन सभ्यता ही भारत की प्राचीनतम सभ्यता है। गलत साबित होती है। विद्वानों के अनुसार वैदिक कालीन सभ्यता ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व की है। जबकि सिंधु घाटी सभ्यता ईसा से लगभग 3 से 4 हजार वर्ष पूर्व की  होने का अनुमान है।

  यह कहानी मानव के उन्नत अतीत की है।

बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

सिंधु घाटी सभ्यता | सभ्यता क्या है | Indus valley civilization in hindi

सभ्यता क्या है? सिंधु घाटी सभ्यता वर्णन-

सभ्यता क्या है? सिंधु घाटी सभ्यता वर्णन

    सभ्यता से तात्पर्य लोगों का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक जीवन कैसा रहा होगा, इससे है। सिंधु घाटी की सभ्यता प्राचीनतम भारतीय सभ्यता के रूप में पुरातत्व की सबसे महत्वपूर्ण खोज है, जो अतीत के लिए विश्व को एक विशेष नजरिया देती है। यह विशाल भूमि पर फैला था। सिंधु नदी की घाटी में इसका विस्तार प्राप्त हुआ है, अतः इसे सिंधु घाटी सभ्यता के नाम से जानते हैं। घाटी वह भूमि है, जो उस नदी से पोषित होती है। सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, पूर्वी बलूचिस्तान, कठियावाड़ और अन्य स्थानों पर ज्ञात हुआ है। विद्वानों का मत है, कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जो क्रम से वर्तमान में पंजाब के जिला माउंटगोमरी (पाकिस्तान) और सिंध के लरकाना जिले (पाकिस्तान) में है, इनका सात बार विनाश और सात बार निर्माण हुआ था। क्योंकि खुदाई में सात परतें मिली हैं।

◆   विद्वानों के मतानुसार सिंधु घाटी सभ्यता में भवन निर्माण एक निश्चित योजना से होते थे। नगर के निर्माण एक योजना का परिणाम रहा होगा। सड़कें आपस में जहां काटती वहां समकोण अंतरित करती। वे बहुत चौड़ी होती थी। मुख्य सड़कों को जोड़ने वाली गलियां तीन से चार फीट चौड़ी होती थी। और मुख्य सड़कें तो तेंतीस फीट चौड़ी पाई गई। हां वे कच्ची हुआ करती थी। किंतु वह नगर को कई आयताकार और वर्गाकार भागों में बांट रही होती थी।

◆   सड़कों के दोनों और पक्की ईंटों के मकान थे। और हर मकान में जैसे स्नानागार होना आवश्यक रहा होगा। और एक और मुख्य बिंदु मकानों के द्वार बेहद चौड़े होते थे, कुछ तो इतने चौड़े की बैलगाड़ी भीतर जा सके। मकानों में खिड़कियां और अलमारियां भी होती थी।

◆   नगरों के जल का निस्तारण के लिए नालियों का प्रबंध था। वह ईंटों तथा पत्थरों से ढकी होती थी। खुदाई में एक विशाल जलाशय भी मिला है। जो सार्वजनिक रहा होगा। इसके दक्षिण पश्चिम में आठ स्नानागार थे। जलाशय के पास एक कुआं प्रप्त हुआ है। संभवतः जलाशय को इस कुएं के जल से भरा जाता रहा होगा।

◆   इसके अतिरिक्त खुदाई में अस्त्र-शस्त्र गदा, फरसे, भाले, बर्छे, धनुष, बाण, कटार, मिले हैं। बीज तथा पशुओं की हड्डियों प्राप्त हुई हैं। नापतोल से संबंधित बड़े छोटे आयताकार बाट, तराजू, गज मिले हैं।

◆  खुदाई में एक मूर्ति मिली है। जिसमें एक व्यक्ति एक सौल ओढे है, जो उसके बाएं कांधे से दाएं कांघ से होकर नीचे जाती है। शायद यही उनकी वेशभूषा  रही होगी।

◆   खुदाई में अन्य मूर्तियां भी मिली है। उनमें कुछ देवी देवताओं की होंगी। वह उनके धार्मिक जीवन को दर्शाती है। इनमें पशुओं की मूर्तियां हैं। हड़प्पा में मिली एक मूर्ति को लेकर सर जॉन मार्शल का विचार है, कि वह शिव की मूर्ति है। इसके अतिरिक्त मूर्तियों में नारी की मूर्ति भी प्राप्त हुई है।

◆   खुदाई में सर्वाधिक संख्या में मुहरें मिली हैं। जिन पर कुछ लिखा है। जिनसे उनके लेखन के ज्ञान का अनुमान लगाया जाता है। इन मोहरों में एक ओर पशुओं का चित्र भी अंतरित है। मुख्यतः मोहरें हाथी दांत, पत्थर, धातुओं से निर्मित हैं।

   यह लेख सिंधु घाटी सभ्यता की अतीत में मानवीय उत्थान के श्रेष्ठ मिसाल शायद बयां कर पा रहा हो। किंतु यह सभ्यता और अधिक विस्तृत थी। और विद्वान इस पर विभिन्न मत देते हैं। किंतु जो भी हो यह दुनिया को भारत के अतीत का सर्वश्रेष्ठ चेहरा दिखाता है। और सोने की चिड़िया वास्तव में थी, इस विचार को मजबूती देता है।

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2021

भारतीय सभ्यता के जनक | आदिम निवासी, द्रविड, आर्य, शक, कुषाण, हूण, मुगल, यूरोपियन का भारतीय सभ्यता पर प्रभाव | Development of Indian civilization in hindi

भारतीय सभ्यता के सूत्रधार / भारतीय सभ्यता पर आक्रांताओं का प्रभाव

भारतीय सभ्यता के सूत्रधार

     भारतीय सभ्यता के आरंभिक सूत्रपात कर्ता भारत के आदमी निवासी थे, और उन्हीं की सभ्यता को आर्य और द्रविड़ो ने रूप दिया। तत्पश्चात कालांतर में यूनानी, शक, कुषाण, हूण, मुसलमान और यूरोपियों ने भारतीय सभ्यता को प्रभावित किया, किंतु अनेकों आक्रमणों के बावजूद भी भारत वासियों ने अपनी संस्कृति को अब तक स्वयं में जीवित रखा है। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }

◆   आदिम निवासी भारतीय सभ्यता के सूत्रधार हैं। वह किरात, कोल, संथाल, मुंड जाति के थे। किरात जाति के लोग असम, सिक्किम और उत्तर पूर्वी हिमालय क्षेत्रों के निवासी करते हैं। और संथाल तथा कोल जाति के लोग छत्तीसगढ़, छोटानागपुर तथा खासी-जयंतिया की पहाड़ी इलाकों में निवासी हैं। यह लोग प्रारंभ में जंगली थे। विद्वानों का मत है कि पाषाण काल की सभ्यता के प्रवर्तक भी आदिम निवासी ही थे।

◆   दक्कन में द्रविड़ अधिक सभ्य थे। वे आदिम निवासियों से अधिक सभ्य थे। वह काले रंग के मझोले कद और चौड़ी नाक के होते हैं। यह लोग तमिल, तेलुगू ,मलयालम, कन्नड़ भाषा का प्रयोग करते हैं।  मिट्टी के बर्तनों पर सुंदर चित्रकारी, समूह में रहना, पशुपालन, कृषि और नदियों के व्यापार तथा वाणिज्य करने वाले लोग जहाज और नाव का भी निर्माण करते थे। यह द्रविड़ सभ्यता है। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }

◆   आर्यों को भारतीय सभ्यता का प्रमुख प्रवर्तक कहा गया।   प्रारंभ में पंजाब से होकर आर्य संपूर्ण उत्तर भारत में फैले। वह गोरे, लंबे-चौड़े और लंबी नाक वाले लोग हैं। वह वीर साहसी और रण प्रिय रहे। कालांतर में आर्य दक्षिण में भी गए, और दक्षिण के सभ्यता पर उनका प्रभाव प्रकाश में है। साथ ही द्रविड़ सभ्यता भी परिपक्व सभ्यता रही। आर्य सभ्यता भी उनसे अप्रभावित न रह सकी। और इन्हीं का योग से भारतीय सभ्यता का जन्म हुआ। हालांकि हिंदुओं के पथ प्रदर्शक आर्य ही हैं। उनकी भाषा संस्कृत में ही हमारे साहित्य ग्रंथ हैं। हिंदी, बंगाली, मराठी व संस्कृत की ही धाराएं हैं। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }

◆  पारसी लोग मूलतः भारतीय निवासी ही थे। अवस्ता इनका प्रधान धर्म ग्रंथ है। यह अग्नि पूजक होते हैं। यह भारत में आज भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। बड़े राष्ट्र विचारी होते हैं। भारतीय सभ्यता के विकास में इनका योगदान भी रहा है।

◆  तत्पश्चात उत्तर-पश्चिमी पहाड़ी भारतीय प्रदेशों में यूनानीयों का भी प्रवेश हुआ, जो सभ्यता के दौड़ में कुछ आगे थे। अतः इनका प्रभाव भी भारतीय सभ्यता पर रहा।

◆  शक और कुषाण लोगों ने तत्पश्चात क्रम से भारत में प्रवेश किया, शक लोग बर्बर जाति के थे, और कुषाण यू-ची जाति के लोग थे। यह जातियां भारत के पश्चिम-उत्तर प्रदेशों में प्रविष्ट हुए। कुषाण शासकों का प्रारंभ में मूल स्थान चीन के उत्तर-पश्चिम में था। उन्होंने अपने नाम की मुद्राएं भी चलाएं। कुछ समय तक शासन भी किया, किंतु कालांतर में भारतीय सभ्यता में रंग गए, हालांकि उसे प्रभावित करते रहे।

◆   पांचवी-छठी सदी में हूणों ने भी भारतीय पश्चिम-उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया। यह लोग तब असभ्य थे। इनका प्रभाव भी भारतीय सभ्यता पर रहा। कुछ विद्वानों का मत यह है, कि गुज्जर, जाट तथा कुछ राजपूत इन्हीं के वंशज है।

◆  तत्पश्चात आठवीं शताब्दी से ही मुसलमानों ने भारतीय क्षेत्र में आना आरंभ कर दिया था। वह लोग अपनी उत्कृष्ट सभ्यता संस्कृति को लेकर यहां आए। ये अरबी, तुर्क, मुगल थे। उन्होंने लगभग हजार साल भारत पर शासन किया। और इनके सभ्यता का परिणाम रहा कि भारत में दो धाराएं संस्कृति हिंदू और मुस्लिम बन गए। जो कभी एक ना हो सके। और जिसका निवारण भारत का विभाजन द्विराष्ट्र सिद्धांत से किया गया, और पाकिस्तान का जन्म हुआ।

◆  पंद्रहवीं शताब्दी से यूरोप वासियों का व्यापारिक मनसा के लिए भारतीय प्रदेशों में प्रवेश होने लगा। कालांतर में  पुर्तगाल, डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज भारतीय सभ्यता को प्रभावित करने वाले और पाश्चात्य संस्कृति की छाप भारत में छोड़ गऐ। अंग्रेजों ने शासन किया और पाश्चात्य के साहित्य, समानता, बंधुत्व, अस्पृश्यता का निवारण, राजनैतिक, लोकतांत्रिक, धार्मिक तर्कवाद जैसी अनेकों नवचेतना का जन्म भारत में होता है।

   किंतु यह भी सत्य है, कि पुरा भारतीय मूल संस्कृति के विकास में कई अवरोध रहे। अनेको आत्यायियों ने इसे समाप्त करने का प्रयत्न किया। किंतु इन हवाओं के झोंकों को झेलती हुई भारतीय संस्कृति आज भी हममें जीवित रही है।

सोमवार, 11 अक्टूबर 2021

मानव का क्रमिक विकास | पूर्व ऐतिहासिक काल और ऐतिहासिक काल | Evolution of human from stone age to metal age in hindi

मानव का क्रमिक विकास | पूर्व पाषाण काल, उत्तर पाषाण काल, धातु काल-

मानव का क्रमिक विकास

    मानव का विकास कर्मिक है। विद्वानों के मतानुसार प्रारंभ में मानव अज्ञानी और बर्बरता के अंधकार में डूबा हुआ था। वह सभ्यता की ओर धीरे-धीरे आया है। किंतु यह भी सत्य है, कि सभ्यता का फल चख लेने पर वह नियत  ढंग से इसके विकास में स्वयं को संलग्न रखता आया है।

  ईश्वर ने मानव को बुद्धि बल, सोच विचारने की शक्ति दी है। और मानव ने अपने जीवन को उन्नत बनाने के क्रम में इसका भरपूर प्रयोग किया।

   भारतीय सभ्यता के लगभग 3500 ई०पू० से पहले के काल को पूर्व ऐतिहासिक काल की सभ्यता और 3500 ई०पू० के बाद के काल को ऐतिहासिक काल की सभ्यता के नाम से पुकारा गया है। ऐतिहासिक काल की सभ्यता का पता लगाना कुछ बहुत अधिक कठिन नहीं है। क्योंकि हमें उस काल के ग्रंथ, मुद्रा, लेख, अभिलेख, बर्तन, औजार, स्मारक आदि प्राप्त होते हैं।

  ऐतिहासिक काल को दो भागों में विभक्त किया गया है। पाषाण काल को लेकर विद्वानों का मत है कि पूर्व मानव पत्थर के औजार बनाता था। किंतु यदि बहुत अधिक जंगली और असभ्य था, तब उस काल को पाषाण काल के एक खंड में पूर्व पाषाण काल कहा गया, और जब मनुष्य औजार निर्माण में पत्थर का प्रयोग तो करता था, किंतु कुछ सभ्य हो चला था, उसे उत्तर पाषाण काल कहा गया।

  भारतीय सभ्यता के विकास में धातु का वह काल है। भले ही वह जब से प्रारंभ हुआ हो, किंतु मानव सभ्यता के विकास में इसका प्रयोग लगातार हो रहा है। मानव का उत्थान उसकी सभ्यता के उत्थान से आंकलित होने लगा, और वास्तव में मानव उत्थान से तात्पर्य मानव सभ्यता के उत्थान से ही है।

  उत्तर भारत में धातु काल का क्रम ताम्रकाल तथा तत्पश्चात लौहकाल होने का ज्ञान है। किंतु दक्षिण भारत में ताम्रकाल का स्थान नहीं है। विश्व के इतिहास में ताम्रकाल के बाद कांस्यकाल का ज्ञान होता है, किंतु भारतीय इतिहास में इसका स्थान नहीं है।

  पाषाण काल में पत्थरों के हथियार का प्रयोग था। हड्डियों का प्रयोग करते थे। किंतु सभ्यता के कुछ विकास के बाद  भारतीय सभ्यता के विकास के मानव  ने सर्वप्रथम तांबा धातु का प्रयोग किया था। क्योंकि धातु को   गलाया जा सकता है, उसे रुप दिया जा सकता है, और उसके हथियार कुछ हल्के होते थे, पत्थर के हथियारों से तो सहज जरूर होते थे। और मानव उन्हें प्रयोग में लाने लगा। अतः भारतीय सभ्यता का क्रमिक विकास पूर्व पाषाण काल, उत्तर पाषाण काल, ताम्रकाल और लौहकाल से होकर आता है।

  विद्वानों के अनुसार पूर्व पाषाण काल का व्यक्ति नंगा रहता था। वह असभ्य था। किंतु बाद में  पत्तों, वृक्षों के छाल का, पशुओं की खाल को वस्त्रों के रूप में प्रयोग करने लगा। वह गुफाओं में और वृक्षों पर रहता था। जलाशय के पास ही रहता जो जल की सुविधा रहे। वह खानाबदोश था। वह प्रकृतिक जीवी थे, अपने परिश्रम से किसी चीज को पैदा नहीं करते थे।

   वही उत्तर पाषाण काल का मानव सभ्य हो गया था। वह पत्थर के औजार जरूर प्रयोग करता था। किंतु उन्हें रूप दे रहा था। वह पत्थर के सुंदर मकान बनाने लगा था। वह सहयोग और मेलजोल को समझने लगे। और आपस में मिलकर रहने लगे थे। गांव बसने लगे। अब वह कृषि की ओर बढ़ने लगा, और ग्राम समुदाय का स्थाई निवासी हो गया। कृषि के लिए लकड़ी के चीजों की आवश्यकता रही होगी, तो कुछ लोग बढई का काम करने लगे और कुछ बर्तन तब गांव में कुम्हारों का भी  एक समुदाय रहने लगा।

इस युग में मानव पशुओं को मांस के लिए ही नहीं बल्कि जान गया था कि कुछ पशु अन्य प्रकार से भी उपयोगी हैं। अतः वह भैंस, गाय, भेड़, घोड़ा, बैल को पालने लगा।

जब कभी वर्षा से फसल खराब हो जाती थी। उनकी झोपड़ियां आंधियों में उड़ जाती थी। तब उनका विश्वास दैवी शक्ति पर होने लगा और वह चेतना जन्म लेने लगी। और वे प्रकृति में जल, वायु, अग्नि को देवता मानने लगे उनकी पूजा होने लगी।

   ताम्रकाल में विद्वानों के मतानुसार तांबे का औजारों और अन्य आवश्यकता की चीजों के लिए प्रयोग होने लगा। पशुओं का उपयोग बोझा ढोने के लिए होने लगा। पशु-गाड़ियों का प्रयोग हुआ। पकी ईंटों का प्रयोग होने लगा। प्राकृतिक शक्तियों पर दृढ़ विश्वास होने लगा और वे उसे प्रसन्न करने के लिए पूजा करने लगे।।

   धातु काल का अगला युग लौह काल है। इसमें लोहे का प्रयोग होने लगा।

  आधुनिक विद्वानों ने  कुछ उपलब्ध हुए साक्ष्यों में ही पुरा-इतिहास का अनुमान किया है। और इसे गढने में सफल रहे हैं।

कालांतर में सभ्यता में संशोधन तथा परिवर्तन होता रहा है। और यह आज तक चलायमान है। 

रविवार, 10 अक्टूबर 2021

भारत की भौगोलिक व्याख्या | दक्षिणापथ, आर्यावर्त भौगोलिक विविधता

भारतीय भौगोलिक परिस्थितियां / भूगोल का भारत वासियों पर प्रभाव-

भूगोल का भारतवासियों पर प्रभाव

    भारत के भूगोल का भारतवासियों पर प्रभाव गौरतलब है। स्थल असमानता भारतवासियों को भिन्न करती है। उनके संस्कृति, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक रूचि और जीवन का कारण है।

 ■  हिमालय की पर्वत माला ने जिस प्रकार हिंदुस्तान को पोषित किया है। उसका संरक्षण किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। उत्तर की शीत हवाओं से संरक्षण, मानसूनी हवाओं का अवरोध और उत्तर की भूमि की समृद्धि, आक्रमणकारियों के लिए अभेद्य अवरोध बना रहा है द ग्रेट हिमालय। हिंदुस्तानियों के लिए वास्तव में ग्रेट है। हिंदुस्तान का कभी सोने की चिड़िया होना हिमालय के संरक्षण की देन है।

ऋषियों ने प्राचीन काल से अब तक हिमालय की भागों में चिंतन के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किए। इस की गोद की पवित्रता में प्रकृति के साधक रहें। यह भारतवासियों की धार्मिक जीवन पर भी प्रभावी रहा। हिमालय की इन सब महत्ता से ही हिमालय भारत का मुकुट है।

 ■  उत्तर का विशाल मैदान अथवा गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन की उर्वरता भारत के राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक जीवन को प्रभावित करती रही है। अतीत के पृष्ठो में बड़े-बड़े साम्राज्य का उदय और पतन इसी मैदान में हुए। महाभारत का महान युद्ध इसी भूमी पर लड़ा गया। मौर्य, गुप्त वंश के यशस्वी शासन इसी भूमि की उपज रहे। दिल्ली सल्तनत का उदय, मुगल साम्राज्य इसी मैदान पर घटित हुआ है। बंगाल भूमि से अंग्रेजों ने अपनी विजय यात्रा यहीं से प्रारंभ की, और स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल भी इसी भाग में पहली बार सन 1857 में उदघोष हुआ। 

   इस भाग में धार्मिक उदय, कला, व्यापार, चिंतन की ओर मानव को प्रेरित किया। यह भूमि उर्वरक और समृद्ध है। अतः अवकाश का समय अधिक होने से उत्तर भारत के लोग जीवन यापन के लिए श्रम के अतिरिक्त स्वयं को रचनात्मक कलाओं में पारंगत करते रहे। उन्हें कला में सृजन के लिए पर्याप्त समय मिला। वेद, शास्त्र ग्रंथ, स्मृति, पुराण, बौद्ध, जैन धर्म आदि विचारों ने यहीं जन्म लिया। इस प्रदेश के समृद्धि पर आक्रमणकारियों की सदैव से दृष्टि रही। राजस्थान के मरुस्थलीय भाग में राजपूतों ने जैसे हिंदू संस्कृति को जीवित रखा वह अविस्मरणीय है। राजपूत वीरांगनाओं ने कैसे जोहर अपनाया यह अदम्य साहस की मिसाल सदैव जुबान में रहेगी। स्वतंत्र भाव से जीने के लिए राजपूतों का संघर्ष उन्हें अरावली की श्रेणियों में शरण लेने के लिए विवश कर गया, किंतु यह वही भूमि है, जिससे पोषित राजपूतों ने आन की रक्षा, शूर-वीरता, शत्रु को पीठ न दिखाना जैसे गुणों को जीवित रखा।

 ■  दक्षिण का पठारी प्रदेश वह भूभाग है। जहां कभी राजनीतिक एकता प्राप्त ही ना हुई। वे सदैव से अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए प्रयत्नशील रहे। यह भूभाग उर्वरक न होने से कठिन परिश्रमी लोगों का देश रहा है। और यहीं मराठों का जन्म होता है। जिन्होंने छापामार रणनीति को अपनाया, अपनी वीरता से मुसलमानों से भी भीषण संघर्ष किया। वह भारत में हिंदवी स्वराज्य स्थापित करना चाहते थे। शिवाजी, बालाजी, बाजीराव, नाना फड़नीस आदि सदैव याद रहेंगे।

■   उत्तर भारत और दक्षिण भारत में गहरी भिन्नता है। सतपुड़ा और विंध्याचल के उस पार हो जाने से उन्होंने अपनी अलग जीवन शैली का विकास किया है। उत्तर भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्ण है। जबकि दक्षिण भारत में ब्राह्मण और शूद्र दो ही वर्ण हैं। उनके खान-पान, वेशभूषा, रीति-रिवाज व्यवसाय में गहरी भिन्नता है।

   उत्तर भारत में संस्कृत भाषा आर्यों के द्वारा प्रचलन में आई, और तत्पश्चात संस्कृत से ही जन्मी अनेकों भाषाएं उदित हुई। वहीं दक्षिण में तमिल, तेलुगू , कन्नड़, मलयालम भाषा बिलकुल भिन्न है।

■  किंतु दक्कन के तटीय भागों का भारत के व्यापारिक इतिहास में वृहद स्थान रहा है। दरअसल यहां मसालों के उत्पादन में यूरोपियों को व्यापार के लिए आकृष्ट किया। और यहीं से वे अपनी छोटी-छोटी व्यापारिक संस्थाओं को जन्म देकर सारे भारत में अपना अधिपत्य स्थापित करने को प्रयत्नशील हुए।

  भारत की संस्कृति प्राचीन है। और इस संस्कृति और सभ्यता के उदय में भारत की प्राकृतिक भौगोलिक परिस्थितियों का भी योगदान है। इसीलिए भारत में भौगोलिक विविधता के साथ सांस्कृतिक भिन्नता प्राप्त है।

शनिवार, 9 अक्टूबर 2021

भारत के ऐतिहासिक प्रदेश | भौगोलिक एवं ऐतिहासिक व्याख्या

भारत के ऐतिहासिक प्रदेश, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक व्याख्या-

भारत के ऐतिहासिक प्रदेश

    मानव की खींची सीमाओं के  अतिरिक्त भी भारत की  प्राकृतिक तौर से स्वयं सीमा तय हुई है। यह प्रतीत होता है। भारत स्वयं में एक प्रायद्वीप है। वह भाग जो तीन ओर से जल से घिरा हो।

    भारतखंड अथवा भारतवर्ष विश्व के मानचित्र में सर्वाधिक अनोखी आकृति लिए है। इसकी सीमाएं पश्चिम-दक्षिण से और दक्षिण-पूर्व तक इसके प्रायद्वीप होने का कारण है। अर्थात क्रमशः अरब सागर, हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी हैं। यही इसकी प्राकृतिक सीमा है। और पश्चिम-उत्तर दिशा में हिंदू कुश और सुलेमान की पर्वतमाला इसकी सीमा को तय करती हैं। उत्तर का विशाल मैदान जिस की देन है, वह हिमालय भारत भूमि पर सदैव से रक्षक रहा है। और सदैव रहेगा।

     ● सिंध और पश्चिम पंजाब का हिस्सा जो अब पाकिस्तान में है। शेष पंजाब का पूर्वी कुछ हिस्सा भारत का भाग है। यह भूमि हालांकि पंजाब और हरियाणा में दो भाग में वर्तमान में प्राप्त है। सिंधु तथा उसकी पांच सहायक नदियां इसी प्रदेश में बहती है। यही भूमि गुरु नानक की है, जिन्होंने सिख धर्म चलाया था। गेहूं की पैदावार अच्छी होने से यह भूमि समृद्ध है।

  ● उत्तर प्रदेश का यह राज्य जो वृहद ऐतिहासिक महत्व रखता है। संयुक्त प्रांत के नाम का खंडन तब हुआ जब उत्तर प्रदेश का विखंडन होता है। यह देश में कई बार बड़े-बड़े युद्धों का निपटारा करने वाली भूमि है। आगरा इसी भूमि पर है। आगरा को भारत की राजधानी का गौरव भी प्राप्त है। रामायण और महाभारत भी इसी भूमि पर लिखे गए। काशी, मथुरा इसी भूमि पर तीर्थ है। राम और कृष्ण इसी भूमि की देन हैं। यह भूमि उपजाऊ भूमि है। 

  ● उत्तर प्रदेश से पूर्व की ओर बिहार की भूमि है। राजा जनक, महर्षि याज्ञवल्क्य, गार्गी, मां सीता, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी इसी भूमि के हैं। मगध जैसी ऐतिहासिक भूमि के उत्थान और पतन का चक्र इसी भूमि पर है। शिक्षा का महान केंद्र नालंदा का विश्वविद्यालय जिसमें प्राचीन काल में भी दस हजार विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे, बिहार की धरा पर ही है। बौद्ध और जैन धर्म का प्रादुर्भाव इसी भूमि पर है।

  ● बिहार के पूर्व में बंगाल प्रदेश है। यह अच्छी बौद्धिक सामर्थ्य युक्त लोगों का प्रदेश है। जगदीश चंद्र बसु, शरदचंद्र, अरविंदो, रविंद्र नाथ टैगोर जैसे आधुनिक विभूतियां इसी प्रदेश की देन हैं। यहां वर्षा अधिक होती है। यहां के लोगों का मुख्य भोजन मछली और चावल है। 

  ● पंजाब के दक्षिण में राजस्थान की भूमि राजपूतों की है। अथवा यह मरुस्थल राजपूतों का है। राजपूतों के राज्यों में मेवाड़ जिसकी राजधानी चित्तौड़ थी। बहुत ऊंचा स्थान रखता है। राणा कुंभा, राणा सांगा, और महाराणा प्रताप इसी भूमि की उपज हैं। राजस्थान के दक्षिण में गुजरात और मालवा का प्रदेश है। जो उपजाऊ प्रदेश है। 

 ● भारत में ठीक मध्य में मध्य प्रदेश भी एक उपजाऊ भूमि है। जहां पर चावल और गेहूं की अच्छी पैदावार है। इस प्रदेश में मुख्य व्यवसायिक नगर नागपुर है।

    दक्षिण के प्रदेश अर्थात दक्षिणापथ यह पठारी प्रदेश है यह उपजाऊ योग्य भूमि नहीं है। यहां के लोग अधिक मेहनती होते हैं, अपनी आजीविका के लिए।

  ● मुख्य प्रदेशों में यहां महाराष्ट्र है। जहां के लोग मराठे हैं। यह मेहनती होते हैं। शिवाजी का प्रदेश यही है। वीर शिवाजी जो हिंदू धर्म के रक्षक हुए हैं, और एक महान क्रांतिकारी योद्धा भी। मुंबई से प्रदेश की चकाचोंद है। जो संपूर्ण देश के मध्य व्यापारिक केंद्र में एक मुख्य स्थान रखता है। भारत में इसी दक्षिण भाग में तमिलनाडु प्रदेश है। जिसके विषय में नारियलों का जिक्र आता है। यह चावल और इमारती लकड़ी का भी अच्छा उत्पादन  है।

  ● मैसूर में दक्षिण भारत का मुख्य ऐतिहासिक प्रदेश है। कर्नाटक के नाम से जाना जाता है। यहां के लोग चाय काफी का प्रयोग अधिक करते हैं। यहां प्रदेश सोने की खानों को लेकर प्रसिद्ध हैं। 

     यह कुछ राज्यों का संक्षिप्त परिचय हैं। अथवा भारत का संक्षिप्त परिचय है। भारत कई अनेकताओं को लिए है। भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किन्तु इन सब में यही नारा की “अनेकता में एकता” हमें बांधती हैं।

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2021

भारत के प्राचीन नाम | भारत के विभिन्न नाम | India old name in hindi

भारत के विभिन्न नाम / भारत के प्राचीन नाम / आर्यवर्त, भारतवर्ष, हिंदुस्तान, इंडिया-

भारत के विभिन्न नाम

    वैदिक काल से पूर्व भारत को किस नाम से पुकारा जाता था, यह तो ज्ञान नहीं है। किंतु प्रारंभ में जहां आर्य रहते थे, उस देश को सप्तसिंधु कहा गया। सप्तसिंधु का तात्पर्य है, सप्त- सात, सिंधु- नदी अर्थात सात नदियों का देश सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, व्यास, सतलज, सरस्वती यह नदियां थी। यह वही प्रदेश है, जो अब पंजाब नाम से जाना जाता है, धीरे-धीरे आर्य पूर्व की ओर बढ़ने लगे तो देश के अन्य भागों को अन्य नाम जैसे ब्रह्मऋषि देश, मध्य देश के नाम से पुकारने लगे। देश के उत्तर के उस संपूर्ण भूभाग जिसमें आर्य घूमते रहे, उसे आर्यवर्त नाम से पुकारा गया। आर्य जो एक जाती है, और आवर्त जिसका तात्पर्य चक्कर लगाना है। अर्थात वह भूभाग जहां आर्य चक्कर लगाते रहे।

  विंध्याचल और सतपुड़ा की श्रेणियों के उस पार दक्षिण हिस्से में द्रविड़ निवास करते थे। जिसे द्रविड़ देश या दक्षिणा पथ कहते थे। यह अलग ही सभ्यता और संस्कृति जो आर्यों से बिल्कुल भिन्न थी। यह लोग तेलुगू,तमिल, मलयालम जैसी भाषाओं का प्रयोग करते थे। किंतु इन सब में उस समय तक संपूर्ण भारत को एक नाम नहीं दिया गया था, जिससे उसे पुकारा जा सके। 

 ◆ भारतवर्ष- 

यह नाम प्राचीनतम वह नाम है, जो संपूर्ण देश पर लागू होता है। शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत जिसका यश संपूर्ण भारत में फैल गया। उसके नाम पर ही भारत या भारतवर्ष कहा जाने लगा। भारत भरत के नाम से है। और वर्ष का अर्थ है, खंड अथवा टुकड़ा प्राचीन काल में विद्वानों को धरा को नौ खंडों में बांटा है। जिसमें एक जंबूद्वीप है। इसी जंबूद्वीप में भारत है। अतः भारत जंबूद्वीप का खंड है। यही भारतवर्ष है।

  ◆ हिंदुस्तान-

 यह नाम पारसियों की देन है। फारसी में सिंधू को हिंदू कहा जाता है। अतः वे लोग जो सिंधु प्रदेश के निवासी हैं, उन्हें हिंदू कहा गया। हिंदू का स्थान हिंदुस्थान के नाम से जाना गया। और उसे हिंदुस्तान भी कहा गया। मध्यकाल में मुस्लिम शासक इसे हिंदुस्तान कहते रहे हैं। 

 ◆ इंडिया- 

यह नाम यूनानीयों की देन है। सिंधु नदी को क्योंकि यूनानी इंडस कहते थे। यह यूनानी भाषा में है। इंडस से यह “इंडीज” हो गया था। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग भारत खंड के लिए किया था। कालांतर में यह बदलकर अथवा बिगड़कर इंडिया हो गया है। अंग्रेजों ने भारत को यही नाम से पहचाना और पुकारा।

     संविधान के साथ ही यह भूखंड “भारत संघ” हो गया है। हालांकि अन्य नामों का प्रयोग होता है। क्योंकि यह सब ऐतिहासिक  अर्थ बयां करते हैं। भारत के इतिहास को बयां करते हैं।

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏