शनिवार, 6 नवंबर 2021

गौतम बुद्ध का संपूर्ण जीवन वृतांत | बौद्ध धर्म का प्रचार | Gautam buddha Mahabhiniskarman, Sambodhi, Mahaparinirwan

गौतम बुद्ध संपूर्ण जीवन यात्रा का वर्णन तथा बौद्ध धर्म-

बौद्ध धर्म

  यह वही युग था, जब भारत भूमि पर आम जनमानस मोक्ष की प्राप्ति में सरल राह की तलाश में था, तब भगवान बुद्ध का जन्म एक क्रांति ही थी।

   जब एक समय महामाया देवी अथवा माया देवी अपने मायके जा रही थी, तो राह में एक वन लुंबिनी में उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया, यह क्षेत्र नेपाल के तराई भाग में है, किंतु महामाया देवी का प्रसव पीड़ा से परलोक वास हो जाता है। निसंतान माता-पिता के लिए यह बेहद खुशी का विषय था, इस वजह से कि जैसे किसी कामना की सिद्धि या पूर्ति हो गई हो, इसलिए बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया, किंतु बालक सिद्धार्थ अपनी माता के प्रेम से वंचित रह गया।

   सिद्धार्थ के पिता का नाम शुद्धोधन था। वह सूर्यवंश के शाक्य जाती के क्षत्रिय थे, और कपिलवस्तु नामक एक छोटे से गणराज्य के प्रधान थे। सिद्धार्थ का बचपन से ही उनकी विमाता गौतमी देवी ने पोषण किया उन्हें हर राजसी सुख राजकुमारोचित दिए गए। संभवत गौतमी के नाम पर या सिद्धार्थ का गौतम गोत्र होने के कारण उन्हें गौतम के नाम से पुकारा गया है।

   सिद्धार्थ बाल्यकाल से ही चिंतनशील थे। चिंतन में इतना मग्न रहते कि सब कुछ भूल जाते थे। उनके बाल्यकाल में ही ज्ञानियों ने यह भविष्यवाणी की कि यह बालक एक दिन एक बहुत बड़ा चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या एक बहुत बड़ा संत महात्मा।

    समय बीतने के साथ राजकुमार की चिंतनशील प्रवृत्ति में वृद्धि होती गई। पिता शुद्धोधन को भविष्यवाणी सदैव याद थी, उन्हें चिंता होने लगी, उन्होंने सिद्धार्थ के लिए राजसी सुखों और मधुर बंधनों में बांधने के लिए कई प्रयत्न किए। राजकुमार के लिए सर्दी गर्मी बरसात के लिए अलग-अलग भवन बनाए गए, जो प्रकृति के अलौकिक दृश्य का आनंद देते थे और आदेश भी दिया गया कि राजकुमार को दुख का दृश्य ना हो पाए।

इसी क्रम में सिद्धार्थ का विवाह गोपा या यशोधरा नामक एक रूपवती राजकुमारी से करवा दिया गया, जिन से सिद्धार्थ का एक पुत्र राहुल ने जन्म लेते हैं। परंतु विवाह का यह सुख सिद्धार्थ के जीवन का लक्ष्य न था।

   समय बीतने के साथ एक दिन संयोगवश सिद्धार्थ के सामने कुछ ऐसे दृश्य आए जिनसे उनका जीवन का लक्ष्य निर्धारित हुआ, सिद्धार्थ अपने सारथी छंदक के साथ घूमने निकले हैं, तभी उन्होंने एक रोग से पीड़ित व्यक्ति को देखा, उसकी पीड़ा को देखकर सिद्धार्थ का ह्रदय दुख से भर गया, और दूसरी दृश्य में उन्होंने एक वृद्ध को दर्शन किया, जो छड़ी के सहारे अपनी जर्जर शरीर को किसी प्रकार तो आगे बढ़ा रहा था। तीसरी दृश्य में सिद्धार्थ एक मृतक शरीर को जिसे उसके संबंधी रोते-पीटते जलाने को ले जा रहे थे, देखते हैं, सिद्धार्थ का कोमल हृदय इस घटना से बेहद प्रभावित हुआ और चिंतन में खो गया, और उसी दरमियान उन्होंने एक और दृश्य देखा उसमें उन्होंने एक सन्यासी को देखा जो अद्भुत कांति को अपने मुख पर लिए था, चिंता से मुक्त विचरण कर रहा था, सिद्धार्थ को अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हुआ।

   सिद्धार्थ 29 वर्ष की अवस्था प्राप्त करने पर एक रात्रि अपनी सोती पत्नी और पुत्र को संपूर्ण राज वैभव को छोड़कर वैराग्य को प्राप्त हो गए। इस घटना को “महाभिनिष्क्रमण” कहते हैं। कहते हैं, कि जब सिद्धार्थ अपने राज्य की सीमा से बाहर निकल रहे थे, तो उन्होंने अपने सारथी को वापस लौटा दिया अपने सभी राजसी वस्त्र और आभूषण को एक भिखारी को सौंप दिया और स्वयं सन्यास का रूप धारण कर लिया, सत्य और मोक्ष की प्राप्ति के लिए राह की खोज में इधर उधर भटकने लगे।

   अध्ययन में आता है, कि वे राजगृह पहुंचते हैं, जहां उस समय के सुप्रसिद्ध ब्राह्मणों का एक आश्रम था, वे कुछ समय वहां रहते हैं, किंतु अपने प्रश्नों का सटीक उत्तर न मिलने पर कुछ समय पश्चात वहां से निकल जाते हैं। वहां से उनके साथ पांच और साथी हो लेते हैं। वे घूमते घूमते गया के निकट उरुवले नामक वन में प्रवेश कर जाते हैं। सिद्धार्थ अपने शरीर को घोर तपस्या में झोंक देते हैं। उनका शरीर सुख कर कांटा हो जाता है। किंतु उन्हें सत्य के दर्शन ना हो सके। इस पर सिद्धार्थ ने यह निष्कर्ष निकाला कि बिना स्वस्थ शरीर के सत्य की खोज बेहद मुश्किल है। अतः उन्होंने न अधिक सुख और ना अधिक कष्ट का जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया। किंतु उनके पांच साथी उनके इस निर्णय से सहमत न थे। वे उन्हें छोड़कर काशी की ओर चले गए।

   बैराग्य के छठे वर्ष 35 वर्ष की आयु में एक दिन रात्रि को जब वे बरगद के वृक्ष के नीचे समाधि लगा कर चिंतन कर रहे थे। तो उन्हें ज्ञान का आलोक प्राप्त होता है, इस घटना को “संबोधी” के नाम से भी पुकारा जाता है। क्योंकि सिद्धार्थ को बुद्धि या ज्ञान प्राप्त हुआ, इसलिए उनका नाम “बुद्ध” हो गया, जिस धर्म का उन्होंने प्रचार किया वह धर्म बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलन में आया, जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, उस वृक्ष को “बोधि वृक्ष” कहा जाने लगा। और गया का नाम बोधगया हो गया।

   भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश काशी के निकट सारनाथ में अपने उन पांच साथियों को दिया जो उन्हें छोड़कर चले आए थे। सारनाथ के पश्चात वे कपिलवस्तु में शाक्यों को उन्होंने अपने धर्म से दीक्षित किया। बुद्ध  बेहद अलौकिक आकर्षण को लिए होते थे। लोग उनके उपदेशों को सुनने के लिए आतुर रहते थे। उनके शिष्य बन जाते थे। भगवान बुद्ध ने बिहार, उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में, नेपाल में घूम घूम कर 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार किया यही कारण है, कि केवल भारत में नहीं बल्कि विदेशों में भी यह धर्म प्रचलन की श्रेष्ठता पर पहुंचा। 

अस्सी वर्ष की उम्र में “महापरिनिर्वाण” की घटना हुई। 483 ईसा पूर्व भगवान बुद्ध का परलोक वास हो गया।

Molnupiravir Oral antiviral drug | Corona के उपचार के लिए पहली दवा

Molnupiravir-

Molnupiravir

   यह दवा Covid-19 के उपचार में प्रयोग हो सकने योग्य पहली दवा के रूप में सामने आई है। जिसे यूके की मेडिसिन एंड हेल्थ केयर प्रोडक्ट रेगुलेटरी एजेंसी (एम०एच०आर०ए०) द्वारा मंजूरी प्रदान की गई है।  एम०एच०आर०ए० के अनुसार यह दवा कोरोना के लक्षण को कम करने में कारगर है और इसके किसी प्रकार के कोई नकारात्मक परिणाम भी देखने को नहीं मिले हैं। यह दवा कोरोना के शुरुआती समय में काफी कारगर साबित होगी।

   ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्री साजिद जाविद का कहना है, कि ब्रिटेन का यह एक ऐतिहासिक दिन है, ब्रिटेन दुनिया भर में वह पहला देश है, जिसने इस दवा को मंजूरी दी है, यह दवा कोरोना महामारी में एक गेम चेंजर साबित होगी। इस दवा को लोग अपने घर में भी प्रयोग कर सकते हैं। इस प्रकार यूके विश्व का पहला राष्ट्र है। जिसने कोरोना की पहली दवा को अधिकृत किया है। 

   इस दवा के विषय में जानकारी है, कि यह शुरुआती और मध्यम कोरोना के उपचार में सहायक होगी। यह दवा उन एंजाइम को टारगेट करती है, जिनके उपयोग से Corona का वायरस अपनी संख्या में वृद्धि करता है, और कोरोना के फैलने की दर को कम कर देती है।

   इस दवा को बनाने वाली कंपनी Merck (मर्क) के सहयोग से इस दवा को अमेरिका स्थित Ridgeback Biotherapeutics (रिजबैक बायोथेरैप्यूटिक्स) द्वारा यह दवा विकसित की जा रही है। 

   हालांकि इस विषय में खास जानकारी नहीं है, कि यह दवा आम लोगों में कब तक उपलब्ध होगी, किंतु खबरों में यह भी है, कि ब्रिटेन के साथ अमेरिका और यूरोप के देश भी इस विषय पर समीक्षा कर रहे हैं, और अमेरिका भी इस दवा को खरीदने की योजना में है। इन सब में अब तक इस दवा के उपचार के लिए ब्रिटेन सरकार ने फिलहाल 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को ही अनुमति प्रदान की है।

 कुछ खास-

◆  कोविड-19 के खिलाफ प्रभावी यह दवा Molnupiravir मूल रूप से इन्फ्लूएंजा के इलाज के लिए खोजी गई थी।

◆  वैक्सीन की खोज के मध्य में शोधकर्ताओं द्वारा कोरोना के उपचार में एक नई एंटीवायरल ओरल दवा (Molnupiravir) की खोज की गई है, जो 24 घंटे के भीतर SARS-COV-2 के फैलने को रोक सकती है।

◆  इस दवा से उपचार के लिए ब्रिटेन सरकार द्वारा फिलहाल 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को ही अनुमति प्रदान कर रखी है।

◆  कोविड-19 के खिलाफ प्रभावी यह दवा Molnupiravir मूल रूप से इन्फ्लूएंजा के इलाज के लिए खोजी गई थी।

◆  वैक्सीन की खोज के मध्य में शोधकर्ताओं द्वारा कोरोना के उपचार में एक नई एंटीवायरल ओरल दवा (Molnupiravir) की खोज की गई है, जो 24 घंटे के भीतर SARS-COV-2 के फैलने को रोक सकती है।

◆  इस दवा से उपचार के लिए ब्रिटेन सरकार द्वारा फिलहाल 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को ही अनुमति प्रदान कर रखी है।

शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

Jainism in hindi | जैन धर्म एक परिचय | जैन धर्म की मान्यताएं

जैन धर्म एक परिचय / श्वेतांबर दिगंबर तथा विभिन्न मान्यताएं-

  जैन धर्म को मानने वाले लोगों को जैनी कहा जाता है। कालांतर में जैनी लोग दो संप्रदाय में विभक्त हो गए, पहला श्वेताम्बर और दूसरा दिगंबर।

श्वेताम्बर लोग उदार और सुधारवादी होते हैं। यह श्वेत वस्त्र पहनते हैं। तथा अपनी मूर्तियों को भी सफेद वस्त्र पहनाते हैं। यह जैन धर्म के कठोर नियमों को कुछ ढीला करने के पक्ष में है।

दूसरी और दिगंबर होते हैं। यह जैन धर्म के कठोर नियम को पालन करते हैं। यह बेहद कट्टरपंथी लोग होते हैं। यह लोग नंगे रहते हैं। और अपनी मूर्तियों को भी नंगा रखते हैं।

   जैन धर्म एक क्रांतिकारी धर्म रहा जिसने वैदिक धर्म को चुनौती दी। जैन धर्म के सिद्धांत बिल्कुल अलग हैं, जिनमें सृष्टि की नित्यता पर विश्वास अर्थात सृष्टि का ना तो आदी है ना अंत, इसे किसी ने नहीं बनाया है, और ना ही कोई इसका विनाश कर सकता है। 

जैनी लोगों का मानना है, कि ईश्वर ने सृष्टि को नहीं बनाया है, किंतु सृष्टि को बनाया किसने है? 

इस सवाल के जवाब में जैनी लोगों का मानना है, कि सृष्टि जीव तथा अजीव इन दो तत्वों के संयोग से बनी है, और यह दो तत्व सतत हैं, इनका नाश नहीं हो सकता और ठीक इसी प्रकार इन तत्वों से बनी सृष्टि का भी कभी नाश नहीं हो सकता। उनका मत है कि जीव की दो प्रवृतियां होती हैं, पहली भौतिक तथा दूसरे आध्यात्मिक। उनका मत है की भौतिक प्रवृत्ति का मनुष्य विनाश की ओर जाता है। वह उसे बुरे कर्मों में बांधती है। 

दूसरी ओर आध्यात्मिक प्रवृत्ति मनुष्य को सतकर्मों की ओर लेकर जाते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक प्रवृत्ति अमर है। यह प्रवृत्ति मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर देती है। 

   वे कर्म के बंधन को मनुष्य के सांसारिक वासना से मुक्त न हो सकने का कारण मानते हैं। उनका मत है, कि जीव का उसके कर्मों से घनिष्ठ संबंध होता है। अर्थात आत्मा का उसके कर्मों से घनिष्ठ संबंध होता है, मात्र इस जन्म के कर्मों का ही नहीं बल्कि पिछले जन्म के कर्मों का प्रभाव भी आत्मा पर होता है।

उनका मत है, कि आत्मा तो स्वयं में निर्मल और आनंदमय होती हैं। किंतु मनुष्य के कर्मों और उनके प्रभाव से आत्मा बंधन में आ जाती है। और जब आत्मा का निर्मल तथा आनंदमय स्वरूप समाप्त हो जाता है, तब आत्मा दुख के वशीभूत हो जाती है। आत्मा को सुख-दुख से मुक्त मोक्ष की प्राप्ति के लिए बंधनों से मुक्त करना होगा। अर्थात कर्मों का बंधन नहीं बांधना होगा।

   उनका मत है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य है कि आत्मा कर्मों के नई बंधनों में ना फंसे और यदि आत्मा जो कर्मों के बंधन में फंस चुकी है, तो उसे उन बंधनों से मुक्त किया जाए जिसके लिए पहला मार्ग सत्कर्म तथा सदाचार है, और दूसरा मार्ग कठिन तपस्या।

   जैनियों के विचार में मनुष्य के जीवन का लक्ष्य कर्मों के बंधन से मुक्त होना है, वही मोक्ष है। और इसके लिए मनुष्य को जीवन में सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र की आवश्यकता है। जैनियों ने इसे “त्रिरत्न” भी कहा है। मनुष्य सम्यक ज्ञान प्राप्ति से सांसारिक वासना में नहीं आ सकता।  वासना में फंसने का मुख्य कारण उसकी अज्ञानता है। सम्यक दर्शन से तात्पर्य है, कि जैन आचार्य जैन तीर्थंकरों पर विश्वास किया जाए, उनके उपदेशों में दिए गए मार्ग का अनुसरण किया जाए। जीवन में सम्यक चरित्र की भी आवश्यकता होती है, मनुष्य को कर्मों के बंधन से मुक्त करने के लिए। इसके लिए मनुष्य को इंद्रियों वाणी और अपने कर्मों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना होगा

जैन धर्म  के लोग पंच महाव्रत का पालन करते हैं। जो “अहिंसा” जीव हत्या महापाप है। “सत्य” सदैव सत्य बोलना। “अस्तेय” कभी चोरी ना करना। “अपरिग्रह” अर्थात संपत्ति का संचय न करना, और अंतिम “ब्रम्हचर्य” इसका तात्पर्य है, सांसारिक विषय वासनाओं से दूर रहना। 

जैनियों का यही मानना है, कि यदि इन पांच महाव्रतों का पालन किया जाए तो मनुष्य कर्मों के बंधन में कभी बंध ही नहीं सकता

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

वर्धमान से महावीर स्वामी होने की यात्रा | महावीर स्वामी जीवन परिचय | जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर mahaveer swami (vardhaman)

वर्धमान से महावीर स्वामी होने की यात्रा / जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर-

 धार्मिक क्रांति का युग छठी सदी ईसा पूर्व में वह प्रभावी क्रांति का दौर रहा जिसमें भारतीय हर मानव को स्वयं से जोड़ा। उसके जीवन के हर आयामों को प्रभावित किया। जैन धर्म उसी सदी का प्रकाश है। जैन धर्म यूं तो बहुत प्राचीन धर्म है। क्योंकि महावीर स्वामी से पूर्व 23 तीर्थंकर जैन धर्म के हो चले थे। किंतु महावीर स्वामी 24 वे तीर्थंकर के रूप में जैन धर्म को श्रेष्ठ प्रसिद्धि तक ले गए, और उन्हें ही जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक कहा गया।

   वह बालक वर्धमान नाम का 599 ईसा पूर्व विदेह राज्य की राजधानी वैशाली के निकट कुंड ग्राम में जन्मा था। वे कश्यप गोत्र के क्षत्रिय राजकुमार थे। पिता का नाम सिद्धार्थ था। वे ज्ञात्रिक गण के नेता थे। इनकी माता का नाम त्रिशला था जो मगध राजा श्वसुर चेटक की बहन थी। जो लिच्छवी वंश के क्षत्रिय राजकुमार थे।

   जैन ग्रंथों के अध्ययन में महावीर स्वामी के संपूर्ण जीवन का परिचय प्राप्त होता है। वर्धमान के जन्म पर उत्सव हुआ। कैदियों को कारावास मुक्त किया गया। बाल्यकाल से ही उन्हें राजसी सुख में डूबोने का प्रयत्न रहा। किंतु वे चिंतक प्रवृत्ति, मोह माया से दूर वैराग्य को आकर्षित रहे।  उनका विवाह भी तय हुआ। यशोदा नामक राजकुमारी उनकी पत्नी हुईं, और एक पुत्री को जन्म दिया। जिसका नाम अण्जा रखा गया। किंतु वे कभी इस सुखः में स्वयं का संतोष ना ढूंढ सके।

   30 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने बड़े भाई की आज्ञा लेकर घर त्याग दिया, सन्यास ले लिया, और मोक्ष का मार्ग की खोज एकमात्र लक्ष्य साध लिया।

   प्रसंग है कि, वह जिन वस्त्रों में घर से निकले थे, 13 माह तक उन्हीं में विचरण करते रहे, जब वस्त्र फट गए तो वर्धमान नंगे बदन सत्य, ज्ञान, मोक्ष की प्राप्ति में सब कुछ त्याग कठिन तपस्या में रहे। गर्मी, सर्दी, बरसात में बेघर वे चिंतन में रहे। लोगों ने पत्थर मारकर उनका तिरस्कार किया, किंतु वे मौन चिंतक जीवन के लक्ष्य प्राप्ति के लिए निष्ठ थे। अपने तापस जीवन के तेरहवें वर्ष में जब वे साल वृक्ष के नीचे नदी तट पर लीन थे, उन्हें कैवल्य (निर्मल) ज्ञान प्राप्त हुआ। वह अहर्त (पूज्य) जिन (विजेता या जितेंद्र) निरग्रंथ (बंधन रहित) महावीर (परम प्रतापी) इन नामों से प्रचलित हुऐ। “जिन” नाम होने से वह जिस धर्म के प्रचारक रहे, उसे जैन धर्म कहा गया। महावीर की भांति अपनी इंद्रियों को विजित कर लिया वे महावीर कहलाए। 

   वे धर्म के प्रचार में लोगों को अपने उपदेशों से आकृष्ट करते  रहे। लोग उनके धर्म की दीक्षा लेने लगे कौशल, काशी, मगध, अंग आदि राज्यों में भ्रमण करते रहे। उनके तीस वर्ष तक धर्म के प्रचार से धर्म खूब प्रचलित हो गया। बहत्तर वर्ष की आयु में 529 ईसा पूर्व वे निर्वाण को प्राप्त हो गए।

   महावीर स्वामी कैवल्य ज्ञान का प्रचारक होने से आज तक हम सब में अहर्त हैं।

बुधवार, 3 नवंबर 2021

बौद्ध और जैन धर्म के उदय का कारण | वैदिक धर्म की जटिलताएं | धार्मिक क्रांति के युग का आरंभ | Buddha, jain, bhagwat dharmo ka उदय

वैदिक काल के धर्म के स्थान पर धार्मिक क्रांति के युग में नव धर्मों का उदय हुआ। जो वैदिक काल के धर्म ग्रंथों की जटिलता ही रही होगी, जो मानव ने अन्य धर्मों को अपनाया। वैदिक काल के धर्म ग्रंथ संस्कृत में थे, उनकी भाषा जटिलता, सामान्य मानव उससे अछूता ही रहा, वह उसे समझ पाने में असमर्थ ही था। तब वह एक ऐसे सरल मार्ग जो मोक्ष प्राप्ति को मिल सके उसे अपनाने को तैयार था। वह उसके स्वागत में था। 

   वैदिक धर्म में यज्ञों को एकमात्र मोक्ष की प्राप्ति का साधन बताया है। किन्तु समय के साथ यह महंगे होते गए तब इसे जनसाधारण करवा पाने में असमर्थ हो गया।

   मानव में चेतना का नव अध्याय पल्लवित हो रहा था। तो यज्ञ में पशुओं की बलि देवी देवताओं को प्रसन्न करती है, यह ना होकर लोगों के मन में वैदिक धर्म को हिंसा धर्म होने की बात आने लगी। क्यों बेजुबानों की बलि दी जाए। चेतना का नवयुग बेजुबान के दर्द का एहसास कर पा रहा था। वह मानव चेतना का नया-नया नभ चूम रहा था।

   वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित थी  किंतु कालांतर में वह जाति प्रथा का रूप धारण कर भेदभाव ऊंच-नीच को समाज में जन्म दे रही थी। लोग ऐसे धर्म को ढूंढने लगे जो भेदभाव न रखें। समान दृष्टि से सबको देखे। वैदिक काल में ब्राह्मण श्रेष्ठ थे। उस धर्म में ब्राह्मण दंड मुक्त भी था। किंतु कालांतर में आते आते उनका विरोध हुआ। समाज में उनका वर्चस्वशाली स्थान क्षत्रिय राजकुमारों ने ग्रहण किया। ब्राह्मणों का राजनीति में वर्चस्व शून्य हो चला था।

   यज्ञ तथा बलिदान मार्ग के स्थान पर तपस्या तथा ज्ञान का मार्ग श्रेष्ठ होगा। किन्तु  वह भी इतना आसान नहीं था। जनसाधारण जंगलों में जाकर  चिंतन कर मोक्ष की प्राप्ति के लिए कैसे प्रयत्न करता, यह भी उसके लिए बेहद जटिल था।  एक साधारण मनुष्य अब भी मोक्ष की प्राप्ति के लिए किसी एक सरल विकल्प के स्वागत में था।

   चिंतकों ने मार्ग को ढूंढ निकाला एक मार्ग भक्ति तथा उपासना का और दूसरा सत्कर्म तथा सदाचार का।

भक्ति और उपासना के अनुयाई भागवत धर्म के अनुयायी हुए,  वे उस धर्म को जन्म देने में सफल रहे तथा सत्कर्म सदाचार के मार्ग पर जैन और बौद्ध धर्म ने लोगों में प्रसार प्राप्त किया।

   यह कुछ कारण हैं, जो धार्मिक क्रांति के युग में लोगों के मन में पैदा जरूर हो चुके होंगे, और शायद यही कारण हैं, जो नये धर्मों के आम जनमानस में प्रसारित होने के हैं। वैदिक धर्म ने जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है, इससे तो जनमानस अवगत था। किंतु वह मार्ग जो इसकी प्राप्ति में है, वो कालांतर में जनसाधारण के लिए निभा पाना कठिन हो गया था। यही धार्मिक क्रांति के युग के उदय का कारण है।

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

महाकाव्य काल उल्लेख | Ramayan and mahabharat period in hindi

 प्राचीन काल में हमारे देश में दो बड़े महाकाव्य की रचना हुई, और रचना जिस काल में हुई वह महाकाव्य काल हुआ। महाकाव्य कब लिखे गए, जिन घटनाओं पर यह लिखे गए हैं, वह कब हुई?
   यह प्रश्न भी अनेक विद्वानों के विभिन्न मतों में उलझे हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार महाभारत का युद्ध 1800 से 1400 ईसा पूर्व काल में हुआ था। और महाकाव्य काल 1400 से 1000 ईसा पूर्व होने का मत है। हालांकि यह स्पष्ट तथ्य नहीं है।
   जिन महाकाव्यों का लेखन इस काल में हुआ वह रामायण और महाभारत है। रामायण में श्री रामचंद्र की जीवन लीला का वर्णन है। और महाभारत कौरव और पांडवों के युद्ध का वर्णन है। इनकी एक महत्वपूर्ण उपयोगिता यह भी है, कि इनका गहनता से अध्ययन करने पर तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दशा का ज्ञान होता है।
  रामायण की कथा में राजा दशरथ कौशल राज्य के राजा हैं। इनकी तीन रानियां हैं। और इन तीन रानियों से चार पुत्र हैं, कौशल्या के पुत्र राम, सुमित्रा के दो पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न तथा कैकई का एक पुत्र भरत। इनमें राम सबसे बड़े थे।
सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या उनकी राजधानी थी। वह इक्ष्वाकु वंश के राजा थे। भरत के राजतिलक को लेकर मंथरा का कैकई को दिया कुटिल परामर्श राम को 14 वर्ष के वनवास परिणाम देता है, राजा दशरथ के स्वर्गवास का कारण बनता है, और यह बनवास रावण के अंत पर समाप्त होता है। किंतु रामायण की कहानी जारी है क्योंकि यह श्री राम की जीवन लीला है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखा रामायण महाकाव्य आज भी श्रेष्ठ है।
   ठीक इसी प्रकार महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखा महाकाव्य महाभारत पाण्डू के पुत्र पांडवों और धृतराष्ट्र के पुत्र कौरवों के संघर्ष की कहानी है। वह धर्मयुद्ध जो कुरुक्षेत्र की भूमि में लड़ा गया वह गीता का ज्ञान देकर हस्तिनापुर पर पांडवों का अधिकार होने पर समाप्त हुआ।
   उस समय के राजाओं के पास चतुरंगणी सेना हुआ करती थी। जिसमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक होते थे। चक्रव्यूह की रचना की जाती थी, और जीत प्राप्त करने के लिए छल कपट और कूटनीति का प्रयोग किया जाता था। वैदिक काल की भांति इस युग में भी यज्ञ का प्रचलन था। राजा राजसूया और अश्वमेध यज्ञ किया करते थे। राजा दशरथ ने लक्ष्मण और श्री राम को महर्षि विश्वामित्र के आश्रम भेजा था, क्योंकि वहां राक्षस यज्ञ में अवरोध उत्पन्न कर रहे थे।
   किंतु यह भी सूचित हो, कि उस वक्त तक जातीय व्यवसाय का परित्याग होने लगा था, प्रमाण में अध्ययन कुछ इस प्रकार से है कि विश्वामित्र क्षत्रिय थे और उन्होंने ब्राह्मण वृत्ति को स्वीकार किया, और ठीक इसी प्रकार द्रोणाचार्य ब्राह्मण थे, किंतु उन्होंने क्षत्रिय वृत्ति को स्वीकार किया।
   इन सब में उस वक्त तक क्षत्रियों ने अपने वर्चस्व समाज में स्थापित करना प्रारंभ कर दिया था। ऐसा प्रतीत होता है, कि ब्राह्मणों का महत्व समाज में कम होने लगा, राजनीति में उनका प्रभाव बहुत कम हो गया था, और साथ ही वैश्य समुदाय ने स्वयं को श्रेणियों में एकत्रित करना प्रारंभ कर दिया था। और वह समाज में धीरे-धीरे अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे।
   उस वक्त के समाज में स्त्रियों का आदर्श बड़ा ऊंचा था। किंतु सती प्रथा का प्रचलन हो गया था। क्योंकि अध्ययन में आया है, कि पांडू की दो पत्नियों में एक सती हो गई थी। और इसके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण तथ्य स्वयंवर में शादी करने का प्रचलन था, क्योंकि सीता और द्रोपदी का वर  स्वयंवर में ही तय हुआ।
   उस काल में दास प्रथा के प्रचलन में होने के संकेत मिलते हैं। उस काल तक भक्ति और कर्म पर बल दिया जाने लगा, मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधन इन्हें माने जाने लगा। गीता में श्रीकृष्ण इसी का उपदेश देते हैं। इसके अतिरिक्त पुनर्जन्म पर विश्वास इस जन्म के कर्मों का फल अगले जन्म में भोगना पड़ता है। भगवान की भक्ति से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। यह विश्वास पैदा होने लगा।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दुर्गा, पार्वती आदि देवी- देवताओं की पूजा आरंभ होने लगी अवतारवाद में विश्वास लोगों को होने लगा था, क्योंकि श्री कृष्ण और श्री राम के विष्णु भगवान का अवतार होने का ज्ञान है।
 महाकाव्य काल में महाकाव्यों द्वारा जिन आदर्शों को हम तक पहुंचाया गया। आज तक पथ प्रदर्शक बने हैं।

सोमवार, 1 नवंबर 2021

वैदिक सभ्यता विशेष | Arya in india | Vedic sabhyata | आर्यों की देन

वैदिक सभ्यता के जितने तथ्यों को समेटा जाए, वह वास्तव में आर्यों की कितनी बड़ी छाप आज के भारत पर है, जिनमें से कुछ चाह कर भी हम छोड़ नहीं सकते। वे आज भी जीवित हैं। ये अतीत के उन पृष्ठों का गहन दर्शन है जिसे आज तक भारत स्वयं में समेटे है, और उसे प्रमाणित करता है।

   वसुदेव कुटुंबकम संपूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मान देना यह सिद्धांत का प्रतिपादन, सर्वव्यापक चिंतन वैदिक काल के आर्यों की संपूर्ण विश्व के कल्याण की चिंता को दर्शाता है।

जीवन के ऊंचे ऊंचे आदर्शों का सृजन किया। वे आर्य थे वे इस संसार के सभी सांसारिक सुखों को नाशवान समझते थे। वे परलौकिक सुख तथा मोक्ष की प्राप्ति का पाठ पढ़ाते थे। यह चेतना कि वह लौ है, जो आज तक भारतीयों के मन मस्तिष्क में गहरी छाप छोड़े है।

   उनका प्रमुख व्यवसाय हालांकि कृषि था। वह सिंधु घाटी की सभ्यता के लोगों जैसे व्यवसाय प्रधान सभ्यता न थी। किंतु वह वस्तु विनियम से चीजों की अदला बदली से व्यापार करते थे। यह भी मालूम हुआ है, कि उन लोगों ने “निष्क” नामक एक मुद्रा का प्रचलन भी किया था।

   वे राजा को राज्य का एक अंग मात्र मानते थे। उन लोगों ने “सप्तांग राष्ट्र” की कल्पना की थी। राजा के आदर्शों को इतना ऊंचा तय किया था, कि वह जनता के आध्यात्मिक, भौतिक और सामाजिक अतएव सर्वांगीण उत्थान के कार्यों के लिए व्यस्त होता था।

ठीक इसी प्रकार प्रजा के लिए भी राजा के प्रति उच्च आदर्शों को तय किया गया था। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है, कि यदि राजा बालक भी हो तो भी उसकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह पृथ्वी पर देवता स्वरूप होता है।

   इसे झुठलाया नहीं जा सकता, कि आर्यों ने जिन वर्ण व्यवस्था का प्रचलन किया, वह आज के युग तक जाति प्रथा में परिवर्तित हो चुकी है। छुआछूत के समाजिक दोष ने जन्म लिया। किंतु इन सब में यह भी सत्य है की वास्तव में वैदिक आर्यों द्वारा निर्मित सभ्यता जिसकी आज तक इतनी गहरी छाप भारतवर्ष पर है, जो विश्व से हमें अलग करती है, यह आर्यों की स्पष्ट दर्शन तथा तत्वज्ञान की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏