सोमवार, 17 अक्टूबर 2022

जब पहली बार- EIC Vs भारत की केंद्रीय शक्ति

EIC Vs भारत की केंद्रीय शक्ति

जॉब चार्नाक वह व्यक्ति था, जो औरंगजेब से सुलह करता है। वह अंग्रेजों का प्रतिनिधि था। 1680 में औरंगजेब ने जजिया कर लगाया था। वह कर जिसमें गैर मुस्लिमों पर 1.5% कर लगाया गया था। इस कर कि प्रथा में भारत में हिंदू समुदाय के अलावा यूरोपियों के प्रवेश से भारत में एक अन्य समुदाय अथवा ईसाई समुदाय को भी परेशान किया।

इसी समय में बंगाल में जहां अंग्रेजों ने भी 1680 तक हुगली, कासिम बाजार आदि क्षेत्रों में अपनी कंपनियां स्थापित कर ली थी। वह अपने आप के कार्यों को सुरक्षित होने के लिए के लिए किले बना देते थे, और यही उनका बंगाल में भी अगला प्रयास रहा होगा। जैसे उन्होंने मद्रास में किया था, या जैसा अन्य यूरोपियों ने जैसे डचों ने पुलिकट में गोलड्रिया किला बनाया हुआ था।

बंगाल में कंपनी के द्वारा कई स्थानों पर मुगल सैनिकों से झड़प की गई, उनके ठिकानों पर लूटपाट की गई, जो अब तक केंद्रीय मुगल बादशाह से सीधे किसी यूरोपीय व्यापारिक संस्था का भारत में भिड़ना था। जिसने अंग्रेजो की ओर से इस झड़प का मुख्य प्रतिनिधित्व किया, उसका नाम जॉन चाइल्ड आता है।

 औरंगजेब ने 1686 में आदेश दिया, और मुगल सेना ने अंग्रेजों को उनके तमाम अड्डों से खदेड़ दिया, और अंग्रेजों ने इस दौरान भागकर फुल्टा द्वीप पर शरण ली थी।

जॉब चार्नाक वह व्यक्ति था, जो अंग्रेजों का प्रतिनिधि बन औरंगजेब से सुलह करता है, इन पर औरंगजेब के द्वारा डेढ़ लाख जुर्माना लिया जाता है, और तब कोठियों को पुनः चलाए रखने की अनुमति दी जाती है।

इसके बाद अंग्रेजों को 1698 में बंगाल के प्रशासक अजीमुन्नशाह ने तीन गांवों की जमींदारी सौंपी जिनका नाम- सुतानति, कलिकाता और गोविंदपुर था, और यही वे तीन गांव हैं, जिसमें कलिकाता के आसपास के क्षेत्र में कोलकाता शहर की स्थापना होती है, जो 1700 में बसाया गया। जॉब चार्नाक यहां फोर्ट विलियम किला बनाता है।।

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2022

भारतीय संविधान का अनुच्छेद -1

भारतीय संविधान का अनुच्छेद -1

भारतीय संविधान का अनुच्छेद -1 बताता है-
“India that is Bharat shall be a union of state.” अर्थात
“इंडिया जो कि भारत राज्यों का संघ होगा”

भारतीय संविधान का पहला अनुच्छेद मूल रूप से दो बातें स्पष्ट करता है। एक राष्ट्र का नाम और दूसरा राष्ट्र का स्वरूप।
राष्ट्र के नाम के रूप में इंडिया और भारत कहा गया है। यह ध्यान रखने योग्य विषय है, कि इंडिया का अर्थ भारत नहीं है। अर्थात इंडिया अंग्रेजी शब्द और भारत उसका हिंदी अनुवाद हो ऐसा नहीं है, बल्कि इंडिया और भारत दो अलग-अलग नाम है। इंडिया का हिंदी और अंग्रेजी दोनों इंडिया ही है। और भारत का हिंदी और अंग्रेजी दोनों भारत ही है। अर्थात इस अनुच्छेद के माध्यम से हम संविधान में राष्ट्र के लोगों द्वारा अपनाए गए दो नाम इंडिया और भारत जानते हैं।
साथ ही यह अनुच्छेद राष्ट्र के स्वरूप को भी दर्शाता है, कि भारत राज्यों का संघ होगा। अर्थात भारत राज्यों का एक संघ है, जहां संघ द्वारा राज्यों को शक्तियां दी गई है। इसे आप विशिष्टता से पढ़ें और ध्यान में रखें कि भारत में संघ द्वारा राज्यों को शक्तियां दी गई।

भारत विनाशी राज्यों का अविनाशी संघ है। संघ को अर्थात संसद को संविधान के अनुच्छेद -3 से राज्यों के पुनर्गठन की शक्ति प्राप्त है। किन्तु राज्यों को संघ से अपने आप को अलग करने की शक्ति नहीं है।

जहां राज्यों को बहुत अधिक स्वायत्ता प्राप्त है, और जहां संघ राज्यों को शक्तियां देता है। ऐसा नहीं है, की राज्यों ने मिलकर शक्तियां संघ को दी हो।
इस तरह के अंतर को “Federation of state” तथा “Union of state” में अंतर कर स्पष्ट किया जा सकता है। क्योंकि दोनों का हिंदी रूपांतरण “राज्यों का संघ” ही होता है। किंतु दोनों में गहरा अंतर है। इसे Union of state & Federation of state में अंतर? आलेख के माध्यम से आप समझ सकते हैं।।

बुधवार, 12 अक्टूबर 2022

Union of state & Federation of state में अंतर?

भारत के संविधान का मूल लेखन अनुच्छेद -1 में “राज्यों के संघ” को अंग्रेजी में “Union of state” लिखता है। “Federation of state” नहीं। जबकि अमेरिका दुनिया का सबसे पहला लिखित संविधान अमेरिका को “Federation of state” बताता है।

“फेडरेशन” और “यूनियन” इन दोनों में जिन का हिंदी अनुवाद “संघ” ही है में अंतर भारत और अमेरिका के संघ में अंतर से स्पष्ट किया जा सकता है।

अमेरिका की स्वतंत्रता के बाद 13 राज्यों ने मिलकर एक संघ का निर्माण किया। यहां राज्यों ने संघ का निर्माण किया है। अर्थात 13 राज्य आपस में संगठित हुए और अपनी कुछ शक्तियां सौंपकर एक संघ का निर्माण किया जो अमेरिका हुआ। आप अमेरिका के राज्यों की स्वायत्ता से अनुमान कर सकते हैं, क्योंकि वहां पर दोहरी नागरिकता होती है, अर्थात हर राज्य की अलग नागरिकता होती है, और देश की नागरिकता तो होती ही है। साथ ही वहां हर राज्य अपने अपने झंडे रखता है, इत्यादि।

अमेरिका संघ को शक्ति नहीं है, कि वह राज्यों का विनाश या पुनर्गठन कर सके। इसलिए अमेरिका को “अविनाशी राज्यों का अविनाशी संघ कहा गया है”

वहीं भारत अपने आपको पहले संघ मानता है, और तत्पश्चात राज्यों को प्रशासन की दृष्टि से बांटता है। 

जहां अमेरिका में राज्य अपनी कुछ शक्तियां संघ को सौंपते हैं, वहीं भारत में संघ राज्यों को शक्तियां प्रदान करता है। भारत में एक ही नागरिकता है और राज्यों को अपने-अपने झंडे की अनुमति नहीं है। साथ ही भारत को “विनाशी राज्यों का अविनाशी संघ” कहा गया है। जबकि अमेरिका “अविनाशी राज्यों का अविनाशी संग” है भारत में विनाशी राज्यों से तात्पर्य राज्यों के पुनर्गठन से हैं। जिसमें संसद को शक्ति प्राप्त है की वह राज्यों की सीमाएं, क्षेत्रफल, नामों में परिवर्तन कर सकती है, और नए राज्यों का निर्माण भी कर सकता है। यह शक्ति संसद को संविधान का अनुच्छेद -3 के तहत प्राप्त है। अतः भारत ने, राज्यों के द्वारा निर्मित संघ  “Federation of state” के स्थान पर संघ द्वारा निर्मित राज्य “Union of state” के रूप में अपने आपको बताया है ।

रविवार, 9 अक्टूबर 2022

ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापार नहीं किया?

ईस्ट इंडिया कंपनी: VICTORIA MEMORIAL

1600 में महारानी एलिजाबेथ की आज्ञा पत्र के साथ अंग्रेजों का भारत आगमन होता है। इनकी आरंभ में जो नीती थी वह अब तक के यूरोपीय व्यापारियों की अपेक्षा कुछ अलग थी। अब तक पुर्तगाली और डचों का भारत में प्रवेश हो चुका था। पुर्तगालियों ने 1498 में ही भारत में प्रवेश कर लिया था और अपनी एक व्यापारी कंपनी “एस्तादो द इंडिया” के नाम से भारत से व्यापार के लिए स्थापित कर ली थी।

वही डचों का भी 1595-96 में भारत में दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में विशेष इंडोनेशिया में प्रवेश हुआ। डचों का हस्तक्षेप इंडोनेशिया के द्वीपों में आरंभ हो गया था। उन्होंने युद्ध नीति अपनाई और डचों ने पुर्तगालियों से इंडोनेशिया में 1602 में वाण्टम जीत लिया। उसके बाद 1605 में अम्बयाना, 1613 में जकार्ता, 1641 में मलक्का पर अधिकार किया। भारत में उन्होंने 1605 में मसूलीपट्टनम में अपनी कोठी बनाई जो आंध्रप्रदेश के तट पर था। डचों का भारत आगमन तो 1695-96 में ही हो गया था। लेकिन उन्होंने अपनी कंपनी “Veerengde Oost Indische Compagnie” (VOC) या डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1602 में की थी। यह भी व्यापारिक कंपनी थी। पुर्तगालियों के व्यापार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए उन्हें युद्ध करने पड़े और राजनीति में उनका प्रवेश हुआ। ठीक ऐसे ही ऐसे ही भारत के स्थानीय राजाओं से भी इन्हें युद्ध करने पड़े और राजनीति में इनका प्रवेश हुआ।

अंग्रेजों की नीति इनसे कुछ अलग थी। उन्होंने भारत के शासकों के साथ संधि की और इसी नीति के अंतर्गत 1608 में विलियम हॉकिंस, 1615 में टॉमस रो भारत आए। 1600 में जब अंग्रेजों ने कंपनी की स्थापना की तो वह व्यापार के लिए ही स्थापित की थी। किंतु जिस कंपनी ने व्यापार किया और 1600 में जिसे स्थापित किया गया था। उसका नाम “द गवर्नर एंड मर्चेंट ऑफ लंदन ट्रेडिंग इनटू  द ईस्ट इंडीज” था। इसी नाम की कंपनी ने भारत में व्यापार किया था। जो एलिजाबेथ प्रथम के आज्ञा पत्र के साथ भारत आई थी। ब्रिटेन कि दो अन्य कंपनियां न्यू कंपनी तथा राजा विलियम तृतीय द्वारा बनाए कंपनी का 1708 में “द गवर्नर एंड मर्चेंट ऑफ लंदन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडीज” में विलय हो गया व नया नाम “यूनाइटेड कंपनी ऑफ मर्चेंट ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडीज” कर दिया गया।

इस कंपनी का नाम 1833 में ईस्ट इंडिया कंपनी कर दिया गया। अब आप तिथि याद करें 1833 जब भारत के लिए चार्टर एक्ट 1833 आया था। इसी में यह प्रावधान आया। आप जानिए कि 1835 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापारके अधिकार को समाप्त कर दिया गया। अब 1833 के बाद कंपनी पूर्णतया राजनैतिक और प्रशासनिक कार्य के लिए तब्दील कर दी गई। और वह क्राउन के ट्रस्टी के रूप में रहेगी।

इस तरह आप पाएंगे, कि नाम के कारण यह कहा जा सकता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापार नहीं किया बल्कि वह तो शुद्ध राजनीतिक व प्रशासनिक कार्य के लिए थी।।

शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

भारत में समाजवाद | कांग्रेस vs भाजपा

भारत में समाजवाद

समाजवाद किसी भी राष्ट्र का अपने नागरिकों के लिए अंतिम लक्ष्य है। जिसका तात्पर्य नागरिकों में समानता लाने से है। समाजवाद को आप इस आलेख [ समाजवाद का विचार और पूंजीवादी | मार्क्सवाद में समझ सकते हैं।

मोटे तौर पर समाजवाद वंचितों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने का सिद्धांत है। भारत में समाजवाद की दिशा में कई कार्य आजादी के बाद से ही आरंभ किए गए जैसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण, जमींदार प्रथा के अंत के लिए कानून, भूमि सुधार कानून जिसमें जो जमीन के बड़े भाग जमीदारों ने अपने कब्जे में किए थे। वह बड़ी जमीन के भाग उनकी संपत्ति हो गई थी, जिसके चलते जो अन्य लोग थे, वे जमीदारों के यहां केवल मजदूर के रूप में कार्य करते थे और इससे बेगारी, मजदूरी और भीषण गरीबी, असमानता और अन्याय की संभावना बनी रहती थी। 

आजादी के बाद सबसे पहले यही कार्य किया गया। उन जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों में बांट दी गई, और जमीदारी प्रथा का भी अंत कर दिया गया। यह समाजवादी विचार के अंतर्गत किया गया कार्य है। जहां संसाधन को समाज के हर व्यक्ति में बराबर बांट दिया गया और जमीदार वर्ग की इतिहास में उस बड़े जमीन के भाग को हासिल करने के लिए की गई मेहनत मशक्कत को महत्व नहीं दिया गया तथा संसाधनों का समाजीकरण कर दिया गया।

यह कदम सरकार के समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हैं, ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि समाज में सभी तबके के लोग गरीब, अमीर, मध्यम के लिए एक सरकार जो सबकी है, स्थापित है। वह सरकार कृषि की सारी जमीन को जो जमीदार के एकाधिकार में थी, उसे छीन लेती है और किसानों में बराबर बांट देती हैं, यह समाजवाद है। 

 समाजवादी विचार का मुख्य उद्देश्य यह भी है, कि राज्य के संपूर्ण संसाधनों पर या तो सीधे जनता का नियंत्रण हो, या राज्य की सरकार का, किंतु पूंजीवाद का पूर्ण विरोध किया गया है।

कांग्रेस के शासन से ही भारत में समाजवाद के साथ-साथ पूंजीवाद भी पनपता रहा है। निजी क्षेत्रों में पूंजीपतियों ने बड़े-बड़े व्यापार को स्थापित किया है। इसलिए भारत के समाजवाद को विशिष्ट स्वरूप का कहा गया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण की समाजवाद को पूंजीवाद के विपरीत देखा गया है।

  हो सकता है, कि कांग्रेस का अधिक झुकाव था, कि देश की तमाम संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया जाए और पूजीपतियों को हावी ना होने दिया जाए। अथवा सरकार संस्थाओं को अपने हाथ में रखे, और तब जनता को एक समान रूप से उसका लाभ मिलता रहे, एक समान नीतियों के अंतर्गत जो कि सरकार तय करेगी। और इसलिए कांग्रेस की ओर से भाजपा की वर्तमान सरकार पर लगातार आरोप लगाए जाते हैं, कि भाजपा ने देश में तमाम सरकारी संस्थाओं का जैसे रेलवे, संचार, एयर सर्विस आदि का प्राइवेटाइजेशन कर दिया है। अथवा प्राइवेट व्यापारियों को सौंप दिया है और यह निजीकरण है क्योंकि संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण या सरकारीकरण की अपेक्षा संस्थाओं का प्राइवेटाइजेशन और पूंजीवाद अधिक बढ़ता दिख रहा है। जिससे समाजवादी विचार को खतरा है।

यह सत्य है, कि पूंजीवाद में खतरा होता है, कहीं पूजीपतियों का एकाधिकार ना हो जाए और वे मनमानी करने लगेंगे। लेकिन पूंजीवाद आजादी के बाद से कांग्रेस के काल में भी पनपता रहा है क्योंकि कांग्रेस सरकार भी पूंजीवाद के महत्व को समझती थी। और विश्वास करती थी कि समाजवाद कि यूरोपीय सिद्धांत के साथ चलकर पूंजीवाद को पूर्णता समाप्त करने के बजाए पूंजीपतियों और सरकार के सामन्जस्य से तीव्र विकास के चलते समाजवाद को अधिक तीव्रता से हासिल किया जा सकता है।

आप इसे ऐसे समझे की निजीकरण ने एक प्रकार से समाजवाद की ओर भी प्रयास किया है। हमें स्वीकार करना होगा, कि निजी व्यापार में कार्य सरकारी व्यवस्था की अपेक्षा अधिक तीव्रता से होता है। इससे यदि किसी पूंजीपति व्यापारी ने जो संचार के क्षेत्र में कंपनी का मालिक है, ने सरकारी संचार की कंपनियों की अपेक्षा अधिक तीव्रता से और देश के दूरस्थ क्षेत्रों को संचार से जोड़ पाने में सफलता हासिल की है। जहां सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत संचार सेवा आज तक पहुंच ही नहीं सकी थी। क्योंकि पूंजीपति ने बाजार में प्रतिस्पर्धा के चलते अधिक मेहनत से कार्य किया और दूर-दूर तक संचार व्यवस्था स्थापित की यह भी समाजवाद की दिशा में एक कदम है। जहां शहर के लोग जो संचार तथा इंटरनेट की सुविधा का उपभोग करते हैं, लेकिन दूर विषम परिस्थितियों युक्त गांव के लोग इस सुविधा का उपभोग नहीं कर सकते। सरकारी व्यवस्थाओं के अंतर्गत अब तक उन गांव में संचार व्यवस्था नहीं पहुंच सकी थी। अब वहां संचार व्यवस्था की सुविधा है, इस वजह से गांव और दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले लोग और शहरों में रहने वाले लोगों को संचार के मामले में समान सुविधा मिल रही है। अर्थात समानता आई है, और समानता लाने का विचार ही समाजवाद है। इस प्रसंग में समाजवाद पूंजीपतियों के द्वारा लाया गया, इसलिए यह कहा जा सकता है, की सरकार पूंजीपतियों के सहयोग से विकास के कार्यो को तो तीव्र कर ही सकती है, साथ ही समाजवाद की दिशा में भी आगे बढ़ सकती है।

यह मानना होगा, कि पूंजीपतियों के हाथ में विकास की गति तीव्र हो जाती है। बजाय सरकारी व्यवस्थाओं में हो रही विकास की गति से। इसीलिए आज युवाओं से स्टार्टअप और अपने इनिशिएटिव को आगे बढ़ाने के लिए जागरूक किया जा रहा है।

 किंतु साथ ही सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए, कि पूंजीपतियों की मनमानी आरम्भ ना हो जाए, और ख्याल रखना होगा, कि कहीं समाज में ऐसा भी वर्ग हो जिसका जीवन स्तर इतना निम्न है। तथा आय इतनी कम है, कि वह किसी भी सेवा का लाभ नहीं उठा पा रहा है।।

पूंजीवाद के चरम पर होने के नुकसान हम अगले आलेख में देखेंगे….

साम्यवाद का विचार | मार्क्सवाद


समाजवाद की चरमता साम्यवाद है। या ऐसा कह सकते हैं, कि समाजवाद के विचार को जब अधिक विकसित किया गया तो साम्यवाद विचार का जन्म हुआ, और जो कि मार्क्सवाद है। जब समाजवादी विचार लोकप्रिय होने लगा तो इस विचार को चरमता तक पहुंचाने के लिए साम्यवादी विचार का जन्म हुआ।

 यदि ऐसा कहा जाए, कि जहां समाजवाद में समाज में संसाधनों को सभी में समान रूप से वितरण की बात की गई है, और व्यक्तिवाद का विरोध किया गया है। तो साम्यवाद कुछ अन्य मूल्यों को समाज के लोगों के लिए होने की पैरवी करता है। हालांकि साम्यवाद भी समाजवाद की भांति पूर्ण तो परिभाषित नहीं किया जा सकता। जैसे समाजवाद को पूंजीवाद के स्वरूप और परिस्थितियों के अनुरूप अलग-अलग प्रकार का हो सकता है और अलग-अलग ढंग से परिभाषित और प्रयोग किया गया है। 

मार्क्स तथा एंगेल्स  द्वारा साम्यवाद विचार को जन्म दिया गया। “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र” जिसे वैज्ञानिक कम्यूनिज्म का मूल कहा जाता है। इसी में मार्क्सवाद और साम्यवाद के विचार की विवेचना की गई है। इसे कॉल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने तैयार किया था।

जहां समाजवाद व्यक्तिवाद का विरोध संसाधनों का समाज में समान वितरण की पैरवी करता है। वही साम्यवाद लोगों के लिए कुछ अन्य मूल्यों की प्राप्ति का भी सिद्धांत रखता है। जैसे स्वतंत्रता और समानता के सामाजिक राजनीतिक आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। न्याय सबको प्राप्त हो, समाज वर्ग विहीन होगा केवल मानवता एकमात्र जाति हो। इसीलिए साम्यवाद समाजवाद की चरम अवस्था को व्यक्त करता है।

जहां समाजवाद में व्यक्ति के कर्तव्य व अधिकार का वितरण~>

“प्रत्येक को अपनी क्षमता अनुसार और प्रत्येक को अपनी कार्य के अनुसार” 

वहीं साम्यवाद में~>

“प्रत्येक को अपनी क्षमता अनुसार और प्रत्येक को आवश्यकतानुसार” सिद्धांत को लागू किया जाता है।

साम्यवाद के सिद्धांत निजी संपत्ति होने को पूर्ण विरोध व संपत्ति की समाप्ति की पैरवी करता है। भारत में समाजवाद का स्वरूप इस समाजवाद और साम्यवाद से अलग है, जिसमें पूंजीवाद या निजीवाद को पूर्ण निषेध किया गया है। भारत के समाजवाद को जो समाजवाद का विशेष स्वरुप है, लोकतांत्रिक समाजवाद कहा जाता है।।

समाजवाद का विचार और पूंजीवादी | मार्क्सवाद

समाजवाद समाज में समानता के लक्ष्य का सिद्धांत है। इसे पूर्ण रूप से परिभाषित तो नहीं लेकिन समाजवाद मजदूर वर्ग को अपना आधार मानकर समाज में बराबरी के लिए एक संघर्ष का आंदोलन रहा है। क्योंकि समाजवाद मजदूर वर्ग को वंचित वर्ग मानता है। समाजवाद का अंतिम लक्ष्य समाज को वर्ग रहित करना है। इसलिए मार्क्स ने कहा “दुनिया के मजदूर एक हो जाओ”

समाजवाद की राजनीतिक विचारधारा 19वीं सदी में यूरोप के देशों में विशेषकर इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों में लोकप्रिय होने लगी। समाजवाद दरअसल वहां के समाज और उन देशों में औद्योगिकरण की तेज विकास गति का परिणाम था। पूंजीपतियों के जन्म ने समाज में अन्य वर्गों को बहुत नीचे गिरा दिया और उनमें समाजवाद का विचार लोकप्रिय हो गया।

समाज जो पूर्व से व्यक्तिवाद पर चल रहा था। अर्थात हर व्यक्ति अपने उत्थान के लिए अपनी क्षमता अनुसार प्राप्त कर सकता है, और आगे बढ़ता है। किंतु औद्योगिकीकरण के बाद यह बड़े अंतर का कारण हो गया। समाज में एक वर्ग पूंजीपतियों का बहुत ऊंचा तैयार हो गया तथा एक अन्य वर्ग जो निम्न वर्ग कहलाया या वंचित वर्ग। 

समाजवादियों ने मजदूर वर्ग को वंचित वर्ग कहा और उनसे अपील की कि वे एक हो जाएं।

यूं भी कह सकते हैं, कि उन्नीसवीं सदी के आरंभ में समाजवादी वह विचारधारा है, जो व्यक्तिवाद का विरोध करते और दुनिया के या राज्य के सभी संसाधनों को सभी में समान रूप से वितरण होना चाहिए ऐसा मानते। 

समाजवादी पूंजीवाद के विरोधी हैं। समाजवादी सिद्धांत का एक मुख्य विरोध है, कि वह समाज में निजी संपत्ति और उसके आधार पर उस व्यक्ति को प्राप्त अधिकारों का विरोध करते हैं। वे चाहते हैं, कि राज्य की संपूर्ण धन संपत्ति का स्वामित्व और उसका विवरण या तो सीधे समाज के हाथों में रहे या राज्य के हाथों में।।

साम्यवादी विचारधारा ही मार्क्सवाद कहलाती है। कार्ल मार्क्स एक समाजवादी विचारक थे। साम्यवाद को इस आलेख में जाने… साम्यवाद का विचार | मार्क्सवाद

लोकतांत्रिक समाजवाद | भारत में समाजवाद का स्वरूप

समाजवाद

लोकतांत्रिक समाजवाद वह विचार है। जिसमें समाजवादी विचार का अनुसरण तो है ही, किंतु साथ ही पूंजीवादी विचार को भी स्थान प्राप्त है। अर्थात समाज में धनवान वर्ग को भी स्थान दिया गया है। जबकि समाजवाद इसका विरोध करता है। उसका अंतिम लक्ष्य समाज को वर्ग रहित बनाना है जहां सभी बराबर हो।

लेकिन भारत में समाजवाद का स्वरूप यही है। जहां पूंजीपतियों को उन्नति का अवसर प्राप्त है। और सरकार भी अपनी संस्थाओं को जिन पर उसका नियंत्रण है, आगे बढ़ाती है। और यह सरकार और पूंजीपतियों के प्रयास से और कार्यों में उनके सामन्जस्य से प्राप्त समाजवाद की धारणा पर विश्वास करता है।

भारत के संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा जिसे मिनी कॉन्स्टिट्यूशन कहा जाता है, समाजवाद शब्द जोड़ा गया था। भारत का समाजवाद सदैव विशेष स्वरुप को लिए रहा। जहां भारत में समाजवादी विचार के तहत वंचित वर्ग को महत्व दिया गया। वहीं पूंजीवादी वर्ग को भी उनकी उन्नति से वंचित नहीं किया गया। वंचित को बराबरी तक लाने के प्रयास आरंभ हुए किंतु यह पूंजीपतियों का विनाश कर ऐसा नहीं किया गया, बल्कि दोनों को स्वतंत्र रूप से बढ़ने के अवसर उपलब्ध किए गए। वहीं वंचित वर्ग को विशेष तौर से आगे बढ़ाने के लिए प्रयास आरंभ हुए जैसे आरक्षण आदि अनेक सरकारी योजनाएं जिनका उद्देश्य वंचित वर्ग को बराबरी तक लाना होता है।

समाजवाद और साम्यवाद की धारणा जब अपनी सर्वोच्चता पर थी तो विचार था, कि सभी मजदूर वंचित वर्ग एक हो जाओ और पूंजीपतियों का अंत कर दो और सारा धन संपत्ति सब में बराबर बांट दो।

किंतु भारत में पूंजी पतियों की उन्नति को भी समाजवाद लाने की दिशा में एक कदम के रूप में देखा गया।

1982 में बी०एस० नाकारा केस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में समाजवाद के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए टिप्पणी की कि समाजवाद~>

“पालने से लेकर कब्र तक सुरक्षा प्रदान करना” है।

 इस समाजवाद को प्राप्त करने के लिए तीन बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित किया गया~>

● आय की असमानता को कम किया जाए।

● जीवन स्तर के असमानता को दूर किया जाए। 

● मजदूर, शोषित वर्ग, वंचितों का कल्याण।

 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस निर्णय में नहीं कहा गया, कि संसाधनों का समाजीकरण या उन्हें बांट दिया जाए। अर्थात पूंजीवाद की संभावना है। और भारत के समाजवाद में पूंजीवाद का उन्नयन होता रहा। इस प्रकार भारत का समाजवाद विशिष्ट स्वरूप लिए है।।

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2022

धैर्य की उपयोगिता Aug 1965 | Shantikunj Haridwar

   कोई भी काम करने में धैर्य की नितांत आवश्यकता है। जो धैर्यवान है, वह कर्म करने से पहले उसके शुभ अशुभ परिणाम पर विचार कर सकता है। उसको सफल बनाने के लिए मार्ग निर्धारित कर सकता है। अपने कर्म के सत्-असत एवं उपयोगिता-अनुपयोगिता पर सोच सकता है। इसके विपरीत जो अधैर्यवान है, आवेश अथवा उद्वेगपूर्ण है, वह ना तो कर्म की इन आवश्यक भूमिकाओं पर विचार कर सकता है और न दक्षता प्राप्त कर सकता है। वह तो अस्त-व्यस्त क्रियाकलाप की तरह एक निरर्थक श्रम ही होता है।

    अधैर्य मनुष्य का बहुत बड़ा दुर्गुण है। अधीर व्यक्ति में अपेक्षित गंभीरता का अभाव ही रहता है, जिससे वह चपलता के कारण समाज में उपहास, उपेक्षा और निंदा का पात्र बनता है। अधिक व्यक्ति के मन बुद्धि स्थिर नहीं रहते। वह न किसी विषय में ठीक से सोच सकता है और ना कर्तव्य का निर्णय कर सकता है। अधैर्यवान व्यक्ति अदक्षता, अस्त-व्यस्तता, अनिर्णयात्मकता एवं अक्षमता के कारण जीवन के हर क्षेत्र में असफल होकर दुख भोगता है इसके विपरीत जो धैर्यवान है, वह जिस कार्य को पकड़ता है, उसे पूर्ण मनोयोग, विवेक, बुद्धि और समग्र शक्ति लगाकर पूरा किए बिना नहीं रहता। धैर्यवान व्यक्ति कर्म करके उसके फल की प्रतीक्षा में व्यग्र नहीं होता, बल्कि फलाशक्ति से रहित होकर कार्य किया करता है।।

-अखंड ज्योति द्वारा 

24 अगस्त 1965

गायत्री तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार सचित्र वर्णन | part -2

इससे पूर्व  ( गायत्री तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार सचित्र वर्णन part -1 ) में हम जान चुके हैं। अब आगे…

इस परिसर को देख मुझे जो ख्याल आता है। जैसे इतिहास के पृष्ठों में हम यूं तो भारत के प्राचीन सभी धर्म किंतु विशेषकर बौद्धों के संघाराम तात्पर्य बौद्ध मठों या मंदिरों से है, जहां बहुत से व्यक्तियों के ठहरने का प्रबंध होता था। जहां वे लगातार निर्बाध अध्ययन करते रहते थे। पूरे भारत में ऐसे कई संघाराम होते थे। जो बौद्ध भिक्षुओं को संरक्षण व बौद्ध धर्म को बढ़ावा देने के लिए होते थे। भगवान बुद्ध के बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद से और ईसा के जन्म के बाद जब तक मोटे तौर पर गुप्त वंश का साम्राज्य नहीं आया था। बौद्धों को खूब संरक्षण मिला।
कन्नौज का राजा हर्षवर्धन भी बौद्धों का ही मुख्य संरक्षक था। लेकिन पुष्यमित्र शुंग का प्रण की वह बौद्धों बिग को समाप्त कर देगा। दूसरी सदी ईस्वी में बौद्धों के एक ग्रंथ में बताया गया है, कि पुष्यमित्र ने कैसे एक संघाराम कुक्कुटाराम जो पाटलिपुत्र में था, को नष्ट कर दिया।वहां बौद्धों को कैसे मार दिया। यह भी एक प्रसंग बताया गया है।

शांतिकुंज के परिसर में वैदिक ऋषियों के नाम पर और विद्वानों के नाम पर भवन बनाए गए हैं। और ध्येय वाक्यों और विद्धानों की कही बातों को जगह जगह पर उकेरा गया है।

शांतिकुंज -संस्कारशाला

संस्कारशाला से आगे बढ़ते हैं। संस्कारशाला नाम से जो धर्मशाला का भी एक बड़ा हॉल है। जहां बड़ी संख्या में लोग आप पाएंगे। इसी संस्कारशाला में लोगों के शादी विवाह के कार्यक्रम भी संपन्न होते हैं। बड़ी संख्या में जोड़ें यहां विवाह को वैदिक परंपरा विधि विधान से बड़े सामान्य ढंग से संपन्न करवाते हैं। पंडित, मंत्रों का उच्चारण मंच से ही करते हैं, और सामने बैठे कई जोड़े का विवाह एक साथ संपन्न होता है। यह विवाह वैदिक विधान से संपन्न करवाते हैं। यह धूमधाम से विवाह के लिए आपको जगह नहीं देते हैं।

चित्र में -शांतिकुंज में विवाह

वहां के पुरोहितों की यह निष्ठा ही है, कि वह जिस प्रकार विवाह के अर्थ को और विवाह के लिए हर विधि विधान जो वे कर रहे हैं। उनके संदर्भ में स्पष्ट करते हुए समझाते जाते हैं। पति-पत्नी के धर्म की व्याख्या करते हैं। विवाह के अर्थ को स्पष्ट करते हैं।

संस्कारशाला के इस दीवार पर आप लिखा पढ़ सकते हैं। कि
|| वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः ||
हम पुरोहित राष्ट्र को जागृत एवं जीवंत बनाए रखेंग

संस्कारशाला से आगे नचिकेता भवन जो एक बड़ी बिल्डिंग है। यहां भी बहुत से कपड़े बिल्डिंग के हर मंजिल में बाहर रेलिंग पर सूख रहे हैं। लगता है, यहां भी यात्री आदि या शांतिकुंज के विद्यार्थी, ब्राह्मण या स्वयंसेवी रहते होंगे। शायद कुछ लोग यहां के स्थाई रहने वाले भी हैं। वह भी इन भवनों में उपलब्ध कमरों में रहते होंगे।
नचिकेता भवन के मुख्य द्वार पर ही नौ दिवसीय संजीवनी साधना सत्र की सूचना का भी एक बोर्ड लगा है। तात्पर्य है, कि यहां दैनिक रूप से कार्यक्रम होते ही रहते हैं। शान्तिकुन्ज के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता है।

जगह जगह पर मार्ग के दोनों ओर तख्तियों पर मानव के लिये लिखे आलेखों द्वारा सीख दी जा रही हैं। ऐसा ही एक नचिकेता भवन के बाहर अखंड ज्योति द्वारा 1965 अगस्त 24 का लिखा आलेख “धैर्य की उपयोगिता” धैर्यवान होने की सीख देता है।।

आगे अगले खंड में शीघ्र….

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

गायत्री तीर्थ- शांतिकुंज हरिद्वार सचित्र वर्णन | part -1

चित्र में- शांतिकुंज परम तपस्वी ऋषियुग्म पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा

शांतिकुंज से पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का नाम याद आ जाता है। आपने इनका नाम भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा जो गायत्री तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार के तत्वाधान में अखिल विश्व गायत्री परिवार के सौजन्य से करवाई जाती है, के कारण जरूर सुना होगा। पूरे देश में इनकी शाखाएं और कई कार्यकर्ता होते हैं। और यह परीक्षा उन्हीं के द्वारा पूरे देश में संचालित होती है। संस्कृति ज्ञान परीक्षा की किताब जो हर छात्र को विद्यालय स्तर तक और सभी अन्य स्तरों पर होने वाली इस परीक्षा की तैयारी के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं। विद्यालय स्तर से अन्य सभी स्तरों पर विजेताओं को प्रथम द्वितीय और तृतीय स्तर के पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। उद्देश्य एक ही है, भारतीय प्राचीन संस्कृति के ज्ञान से नई पीढ़ी को अवगत करवाना।

चित्र में- शांतिकुंज परिसर मे प्रवेश के लिए एक द्वार

शांतिकुंज एक आश्रम एक धर्मशाला जहां कई लोग निशुल्क रुकते हैं, हरिद्वार में यह धार्मिक आकर्षण का एक मुख्य केंद्र है। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज के विषय में यहां इस आलेख से पता चलता है कि-

चित्र में- गायत्री तीर्थ शांतिकुंज के विषय में

  “शांतिकुंज परम तपस्वी ऋषियुग्म पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा की तपोभूमि है। यहां 1926 से प्रज्वलित अखंड ज्योति, हर व्यक्ति के लिए उपयोगी युग ऋषि की लिखी 3200 पुस्तकें, गायत्री माता मंदिर, देवात्मा हिमालय मंदिर, ऋषियुग्म के समाधि स्थल दर्शनीय एवं आस्था के केंद्र हैं। करोड़ों साधकों द्वारा किए गए गायत्री मंत्र, जप, अनुष्ठान, यज्ञ संस्कार और यहां चलने वाले प्रशिक्षण शिविर इसे ऊर्जावान बनाते हैं। जाति लिंग भाषा प्रांत धर्म संप्रदाय आदि के भेदभाव के बिना मानव मात्र के लिए कल्याणकारी सर्वमान्य व विज्ञानसम्मत अध्यात्म चेतना का विश्वव्यापी विस्तार युग तीर्थ शांतिकुंज का प्रमुख अभियान है। शांतिकुंज का संकल्प है-

मानव में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण”


चित्र में- शांतिकुंज परिसर मे एक भवन

शांतिकुंज का परिसर एक वैदिक समाज का परिवेश तैयार करता दिखता है। शानदार उपयोगी वृक्ष वाटिका मुख्य मार्ग के दोनों ओर कम मात्रा में किंतु अलग-अलग प्रकार के होने से आकर्षण का भाग है। बहुत से लोग यहां निशुल्क रुके हुए हैं। यह धर्मशाला के रूप में भी है। कई लोग जो प्रतीत होता है, कि यहां के स्थाई हो गए हैं। लोगों ने अपने वस्त्र यहां मुख्य मार्ग के दोनों और सुखाने को धूप पर रखे हैं। जो एक बड़ा हॉल है, वही धर्मशाला है। जहां लोग अपने अपने सामान के साथ कोई जगह देख कर लेटे हैं, या बैठे हैं। कुछ लोग अंदाजा है, कि स्थाई रूप से यहां रह रहे होंगे, या कुछ लंबे समय से यहां होंगें। शायद वही लोग हैं, जो परिसर में चार पांच मंजिला भवनों में कमरे पाए हुए हैं।

चित्र में- शांतिकुंज द्वारा संचालित अन्य संसथान

परिसर काफी बड़ा है, धर्मशाला के अलावा बाकी अधिकतर क्षेत्र शांत ही है। शांतिकुंज के परिसर में ही लगभग मध्य में एक कैंटीन को भी जगह दी गई है। यहां लोग जो दैनिक रूप से श्रद्धालु या यात्री देखने आते होंगे वह कुछ फास्ट फूड खा लेते होंगे।

आगे गायत्री तीर्थ- शांतिकुंज हरिद्वार सचित्र वर्णन | part -2 में…

सोमवार, 3 अक्टूबर 2022

भारत में पुर्तगाली | खंड -3

भारत में पुर्तगाली

भारत में पुर्तगालियों ने अपनी कई कोठियां जो अधिकतर पश्चिम तट पर स्थापित की। जिनमें कोचीन से आरंभ कर गोवा, दमन, दीव, कन्नूर के क्षेत्र में थी। इससे पूर्व की घटनाएं हम खंड पुर्तगालियो का भारत आगमन | खंड 2 में जान चुके हैं। 

दो अन्य पुर्तगाली गवर्नर जिनके नाम किन्ही कारणों से आते हैं। एक 1929 में पुर्तगाली गवर्नर बनकर भारत आए नीनो डी कुन्हा। जिसने 1530 में अपना मुख्यालय कोचीन से बदलकर गोवा कर दिया। और गोवा पुर्तगालियों का लंबे समय तक आजादी के बाद तक भी अड्डा बना रहा। 1535 में दीव और 1559 में दमन पर पुर्तगालियों ने कब्जा कर लिया।

गुजरात तट पर दमन तथा दीव -चित्र में

आप देखेंगे कि पुर्तगालियों ने सूरत की ओर अधिक आकर्षण नहीं दिखाया। जबकि बाद में हम जानेंगे, कि डच और ब्रिटिश भारत आते हैं। तो वह सूरत में अपनी कोठियों को स्थापित करते हैं। वहां से सूती वस्त्रों का व्यापार बहुत उन्नत स्थिति में होता था।
यह लोग जब किसी स्थान पर कोठियां बनाते थे। कोठियां जो बंदरगाह पर होती थी। या समुद्र तटों पर किन्हीं स्थानों में यह बसने का प्रयास करते थे। जैसे मुंबई क्षेत्र बंदरगाह था ही नहीं। लेकिन अंग्रेजों ने वहां उस क्षेत्र को बसाया। वहां बंदरगाह अथवा जहाज के उतरने के लिए उपयुक्त स्थल तैयार किया।

एक अन्य नाम गवर्नर अल्फांसो डिसूजा एक पुर्तगाली गवर्नर के कार्यकाल में 1542 में तब के प्रसिद्ध ईसाई धर्मगुरु सेंट जेवियर भारत आए।
पुर्तगालियों ने भारत में कोचीन, कन्नूर, गोवा, दमन जो पश्चिम तट पर तथा पूर्वी तट पर हुगली, मद्रास पर कब्जा किया। इसके अलावा एशिया में इन्होंने मलक्का के क्षेत्र और फारस की खाड़ी में हरमुज को अपने कब्जे में कर लिया था।
पुर्तगाली भारत व्यापार के लिए ही आए थे। यह प्रत्यक्ष स्पष्ट होता है, लेकिन साथ ही इनका गुप्त उद्देश्य धर्म का प्रचार भी था। और यह उसके लिए भी प्रयास करते थे। हिंद महासागर पर इन्होंने अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित किए रखा, जब तक की डच और अंग्रेजों ने अपना वर्चस्व स्थापित नहीं किया था। इन्होंने हिंद महासागर में अपने वर्चस्वता की ताकत पर एक कोर्टेज की व्यवस्था स्थापित की। पुर्तगाली व्यापारियों को छोड़ अन्य को, स्थानीय व्यापारियों को यदि यूरोप व्यापार के लिए जाना था और हिंद महासागर से गुजारना था, उन्हें यह कोर्टेज या परमिट लेना होता था।

स्वयं तब दिल्ली का बादशाह अकबर कोर्टेज परमिट लेते थे। क्योंकि इसके ही आधार पर पुर्तगाली यह जताना चाहते थे, कि भारत का बादशाह भी उनका परमिट लेता है। भले वह बादशाह से शुल्क ले या ना ले, लेकिन संकेत स्थानीय व्यापारियों के लिए था। कि वे परमिट लें अवश्य, जैसे कि बादशाह भी लेता है।

बिना कोर्टेज परमिट के व्यापारिक जहाजों को सागर में लूट लेते थे लेकिन परमिट होने पर भरोसा देते थे, कि उनकी सुरक्षा करेंगे। कोर्टेज व्यवस्था के अलावा जब अल्फांसो डी अल्बुकर्क 1509 में भारत में पुर्तगाली गवर्नर बन कर आया। उसने भी ब्लू वाटर पॉलिसी और विवाह नीति अपनाई। ब्लू वाटर पॉलिसी से हिंद महासागर में वर्चस्व हासिल करना। विवाह नीति से वह अपनी संख्या भारत में बढ़ाना चाहते थे। हिंदू धर्म में विधवा औरतों की शादी निषेध थी। लेकिन क्योंकि वह इसाई थे। तो वह उनसे शादी कर लेते थे। इस तरह वे अपनी बस्ती बता रहे थे।
गोवा के चर्च जो आज भी प्रसिद्ध हैं। वे पुर्तगालियों ने बनाए थे। इनके निर्माण की गोथिक शैली पुर्तगालियों की ही थी। 1556 में पुर्तगालियों ने गोवा में पहला प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की थी। और इससे लेख छापकर, पत्रिका छाप ईसाई धर्म के प्रचार में भी प्रयोग किया जाता था। इसके अलावा भारत में तंबाकू, आलू गन्ना, पपीता, लाल मिर्च को पुर्तगाली ही भारत लाए थे।
उनके पतन के कारण इनके धार्मिक प्रचार की नीति जिसमें इसाई धर्म को सर्वोच्च मानना और अन्य को नहीं भी कारण था। वहीं स्पेन का वर्चस्व पुर्तगाल पर यूरोप में बढ़ता जा रहा था। तथा ब्रिटिश और डचों के आगमन से इनकी शक्ति क्षीण होने लगी।

पुर्तगालियो का भारत आगमन | खंड 2

पुर्तगालियो का भारत आगमन

वास्कोडिगामा मालाबार तट पर कलीकट नामक स्थान पर पहुंचता है। जिस का वर्तमान नाम कोझीकोड है। यहां का शासक जमोरिन या सामुरी था। इससे पूर्व की घटनाएं हम खंड -1 यूरोपियों की भारत खोज और पुर्तगाली अभियान -1 में जान चुके हैं। 

जमोरिन वास्कोडिगामा का स्वागत करता है। इसलिए भी कि अब तक भारत में व्यापार पर अरब के लोगों का एकाधिकार था। व्यापार में एकाधिकार हो, तो भारत के लोगों को लाभ कम होता था। क्योंकि माल जिसे बेचना है, यदि कोई अन्य विकल्प ही ना हो, तो माल खरीदने वाला अपनी ही मनमानी से मोलभाव करता है। इसलिए पुर्तगाली व्यापारी जमोरिन को एक विकल्प के रूप में दिखा। जिससे अरबों और पुर्तगालियों में माल खरीदने की प्रतिस्पर्धा होगी और इससे भारत को लाभ होगा।

वास्कोडिगामा साठ गुना लाभ के साथ पुर्तगाल लौटता है। और उसने वहां के अन्य व्यापारियों को भी प्रेरित किया। 1500 में एक अन्य जहाजी अभियान पेट्रो अल्वारेज के नेतृत्व में भारत आया। यह तेरह जहाजों का बेड़ा था। अब पुर्तगालियों का उद्देश्य यह भी था। कि अरब के लोगों जो अरब सागर, हिंद महासागर में अपना वर्चस्व बनाए हैं। इनका वर्चस्व तोड़ा जाए। इसलिए वह बड़े जहाजी बेड़े के साथ आया था। कि समुद्र में हो सकने वाली संभावित लड़ाई में अरबों को मात दी जा सके। वह कोच्चि और कन्नूर पहुंचा। यह दोनों क्षेत्र भी केरल के ही तट पर हैं। मानचित्र में कन्नूर, कलीकट के ऊपर और कोच्चि, कलिकट के नीचे है। 1502 में एक बार फिर वास्कोडिगामा भारत की यात्रा पर आता है। 1503 में वह अपनी पहली व्यापारिक कोठी कोचीन में स्थापित करता है। आपको बता दें कि वास्कोडिगामा इस बार तो लौट गया। किंतु इसी कोचीन में 1524 में जब वह एक बार फिर भारत आया तो 1527 कि यहां उसकी मृत्यु हो गई।

 वहां 1498 में पुर्तगाल में भारत से व्यापार के लिए एक कंपनी “एस्तादो द इंडिया” नाम से बनाई गई। 1505 में पहला पुर्तगाली गवर्नर फ्रासिस्को डी अल्मीडा भारत आता है। जो 1509 तक भारत में पुर्तगाली गवर्नर रहता है। कोचीन पुर्तगालियों का मुख्यालय बना रहा। 

पुर्तगालियों की स्थिति में भारत के लिए पुर्तगाली नये गर्वनर अल्फांसो डी अल्बुकर्क के आने के बाद परिवर्तन हुए। अल्बुकर्क को अधिकारियों की भारत में वास्तविक सत्ता का संस्थापक कहा जा सकता है। उसने भारत की राजनीति में प्रवेश किया, और युद्ध से भूमि जीतने का प्रयास करना आरंभ किया। 1510 में ही उसने राजनीतिक रूप से गोवा पर नियंत्रण हासिल कर लिया। इसके बाद लगभग 450 साल तक यह पुर्तगालियों के नियंत्रण में रहा। जब तक कि 1961 में भारत ने अपने अधीन किया। और भारत का अभिन्न अंग बना दिया।

सुमात्रा व मलेशिया के मध्य में मलक्का जलसंधि -चित्र में

 अल्बुकर्क ने 1510 में गोवा को बीजापुर के शासक युसूफ आदिलशाह से जीता था। 1511 में इन्होंने मलक्का पर नियंत्रण कर लिया। मलक्का, मलेशिया और इंडोनेशिया के मध्य जल संधि का क्षेत्र है। इसके अलावा उन्होंने फारस की खाड़ी में एक अन्य खाड़ी को अपने कब्जे में कर लिया। यहां से यूरोप जाने वाले व्यापार को नियंत्रण किया जा सकता था। और हरमूज पर पुर्तगाली अधिकार का तात्पर्य अरबों के वर्चस्व में सेंध लगाने जैसा था। क्योंकि यह वही हरमुज है, जहां पर नियंत्रण रख अब तक अरबों ने यूरोप तक व्यापार पर कब्जा किया हुआ था। और इसी हरमुज जलसंधि जो फारस की खाड़ी में है, पर अरबों के नियंत्रण से यूरोपियों को भारत के लिए अन्य राह की तलाश करनी पड़ी।

ओमान की खाड़ी फारस की खाड़ी के मध्य में हरमूज की खाड़ीचित्र में

 1515 तक हरमूज भी अब पुर्तगालियों के कब्जे में था। अब तक पुर्तगालियों ने लगभग हिंद महासागर के क्षेत्र में अरबों के वर्चस्व को छिन्न-भिन्न कर दिया था।।

इसके बाद की घटनाएं अगले खंड -3 में…

रविवार, 2 अक्टूबर 2022

2 oct | आजादी में गांधीजी | आज अप्रासंगिक क्यों?

गांधीजी



गांधीजी की राजनीतिक सक्रियता के चलते हम कभी उनके व्यक्तिगत जीवन की ओर की दृष्टि नहीं डालते हैं। और यह आज भी है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय नेताओं का व्यक्तिगत जीवन जैसे शून्य हो गया हो।
गांधीजी ने भारत में किसी व्यक्ति की लोकप्रियता का सबसे ऊंचा आयाम उस जमाने में हासिल किया। तब कोई इंटरनेट का जमाना तो नहीं था। घर घर जाकर आवाज पहुंचाई जाती थी। उस जमाने में गांधी जी भारत के हर व्यक्ति की समूची शक्ति का प्रतीक बन गये। भारत में लोकप्रियता का वास्तविक अर्थ गांधीजी ने दुनिया को बताया जहां प्रेम करने वाले भी भारतीय थे,और प्रेम पाने वाला भी भारतीय, यही नहीं पूरी दुनिया जिनका सम्मान करती थी। जिनकी एक आवाज पर करोड़ों भरतीय ने सड़कों पर लाठियां खाना स्वीकार किया। ऐसा समर्थन युक्त आवाज का नेता अब तक नहीं जन्मा था।

अंग्रेज तो हिंसा चाहते थे, वह चाहते थे, कि भारत के लोग की तरफ से यह हो, और उसके बाद वे दमन का क्रूर चक्र चलाएं। जिसमें दुनिया को दर्शाया जाए की अपराधियों को सजा दी गई है, और भारतीय आम लोगों को दमन और सजा के एक भयानक चक्र की मिसाल देकर आंदोलन से दूर रखा जाए। जिससे भारतीय, अंग्रेजों के सर्वोच्च शक्ति होने और अपनी गुलामी की सोच से ही न उभर सकें। 1857 की क्रांति में यही किया गया था। भले तब भारतीयों की परिस्थितियां और उद्देश्य अलग थे। लेकिन अंग्रेजों की नीति तब भी यही थी।

ब्रिटिश दमन करते तो कैसे? भारतीय तो लाठियां खा रहे थे। जवाब तो वे दे ही नहीं रहे थे। गांधीजी के सत्याग्रह के तरीके में अंग्रेजों का सहयोग मत करो (असहयोग आंदोलन) और उनकी आज्ञा को मत मानो किंतु विनम्रता के साथ (सविनय अवज्ञा आंदोलन ) ने ब्रिटिश को बड़े स्तर पर उनकी क्रूर दमनकारी नीति के प्रयोग का अवसर ही नहीं दिया। इसी कारण सबसे अहम आम जनमानस सड़कों पर आंदोलन से जुड़ पाया, और अंग्रेजों को चुनौती दे सकने की सोच हर व्यक्ति में विकसित होने लगी। साथ ही गांधीजी के तरीके ने जिस तरह ब्रिटिशों की अत्याचारी नीतियों को दुनिया के सामने लाकर रख दिया। यह महत्वपूर्ण है।

भारत के लिए सब कुछ लुटा देने वाले महान क्रांतिकारियों और गांधी जी की नीति में यह एक अंतर था, कि गांधीजी जैसे लोकप्रिय अहिंसावादी व्यक्ति जो ब्रिटिशों के खिलाफ मुखर रहे। फिर भी ब्रिटिश उन्हें समाप्त करना तो दूर जेल की सजा के अलावा कोई नुकसान नहीं पहुचा सकते थे। गांधी जी की लोकप्रियता और दुनिया की राजनीति में स्तर ही इतना ऊंचा हो गया था कि ऐसा करना जनता में महान कांति के उदय का कारण बन सकता था। साथ ही दुनिया में ब्रिटेन की प्रतिष्ठा पर सबसे बड़ा धक्का लगता। और सबसे अहम कि गांधीजी के कार्य में हिंसा थी ही नहीं। इस स्थिति में अंग्रेज उनका कुछ ना कर सके। अंग्रेजों की स्थिति ऐसी थी, कि वे मर भी ना सके, और जी भी ना सके।
ब्रिटिशों की दमनात्मक आत्मा पर भारतीयों की सहनशीलता से बार बार बार वार किया गया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद कहा गया कि भारतीयों को आजादी मिल गई है, क्योंकि भारत में ब्रिटिश हुकूमत जो अत्याचार है, को भारतीयों ने सहन कर लिया है, और अपना सिर भी नहीं झुकाया।

गांधी जी की भारत की विभाजन के संदर्भ में भूमिका पर सवाल होते रहे हैं। जिन्ना पहले ही यह तय कर चुके थे। कि मुस्लिमों के लिए पृथक राष्ट्र बनाया जाएगा। उनका यह हठ था। जब गांधी जी ने अली जिन्ना से कहा कि वह भारत के प्रधानमंत्री पद स्वयं और अहम पदों पर मुस्लिम नेताओं को स्थान दें। तो गांधी जी को बताया गया, कि यह संभव नहीं, क्योंकि नेहरू व अन्य नेता तो मान जाएंगे। किंतु भारत के लोग जो सड़कों पर पहले ही मजहब के नाम पर लड़ रहे हैं, यह स्वीकार नहीं करेंगे।
अली जिन्ना तो पहले ही भारत का विभाजन या सिविल वॉर की घोषणा कर चुके थे। वहां मुस्लिम लीग द्वारा घोषित 16 अगस्त 1946 को प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस के बाद से सड़कें युद्ध भूमि बन गई थी। कत्लेआम का दौर था।

इस स्थिति में प्रशासन की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। किंतु वह शून्य हो चुकी थी। क्योंकि अब अंग्रेज अधिकारी दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। वे तो वापसी की तैयारी में थे। और अपने देश लौट रहे थे।
उस समय के तमाम घटना के तत्काल दर्शी लिखते हैं। कि सड़कें हथियार सहित गुंडों से भरी थी। किंतु प्रशासन का कोई हस्तक्षेप नहीं था। इन सब स्थितियों में भारत ने विभाजन की महान त्रास्दी देखी।

जब तक लड़ाई ब्रिटिशों से थी। गांधी सबसे आगे दौड़ते रहे। लेकिन जैसे-जैसे अपने ही देश में फूट पड़ गई, और विभाजन की मांग उठने लगी, गांधीजी सबसे पीछे छूट गए। वहां से अली जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि क्रांतिकारी विचार युक्त नेताओं की राजनीति हावी हो गई।

आज के क्रांतिकारी युग में तीव्र उन्नति की इच्छा में युग को क्रांतिकारी कहा जाता है। वहीं गांधीजी के कार्य में सभी को संतुष्ट कर आगे बढ़ने का प्रयास था। जिसमें बिना किसी को कष्ट दिए हक के लिए संघर्ष हो, और उन्नति भी हो। किंतु आज का युग बदला है, क्रांतिकारी विचारों और तीव्र उन्नति का महत्व है, और इसलिए शायद इस युग में गांधी कुछ अप्रासंगिक हो गये हैं।।

शनिवार, 1 अक्टूबर 2022

यूरोपियों की भारत खोज और पुर्तगाली अभियान -1

यूरोपियों की भारत खोज और पुर्तगाली अभियान

यूरोपियों को भारत के लिए किसी वैक्लपिक राह की तलाश थी। वे प्रयास कर रहे थे। पूर्व तक भारत से यूरोप तक के लिए स्थल और समुद्र दोनों मार्ग थे। किंतु मध्यकालीन इतिहास में हम जानते हैं, कि कैसे पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ ही व्यापार में एशिया और यूरोप के समीकरण भी बदल जाते हैं। 

अब तक भारत से यूरोप का स्थल मार्ग अफगान से ईरान, इराक और तुर्की से होता हुआ यूरोप के देशों में जाता था। तुर्की जहां समाप्त होता और यूरोप से जुड़ता है, यहां पर काला सागर और मरमरा सागर को एक जलसंधि बासपोरस जोड़ती है। इस जलसंधी से यूरोप आरंभ हो जाता है। जहां कुस्तुनतुनिया आधुनिक नाम इस्तांबुल से यूरोप आरंभ होता है। जबकि यह तुर्की का ही शहर है। जब यह पूर्वी रोमन साम्राज्य का भाग था, इसका नाम कैंन्सटैनटिनोपल था। यही पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी थी। 

यूरोप में इस्तांबुल -चित्र में

तुर्की में उभरे उस्मानिया साम्राज्य ने 1453 में पूर्वी रोमन साम्राज्य का अंत कर दिया। और कुस्तुनतुनिया पर उनका अधिकार हो गया। अरब के लोग इसे कुस्तुनतुनिया नाम से कहते थे। उस्मानिया साम्राज्य के नियंत्रण से अब इस मार्ग से यूरोप जाने वाले माल पर कर अधिक लगाया गया। इसके चलते यूरोप में माल महंगा हो गया, व्यापार ठप हो गया। माल को यूरोप ले जाने का विकल्प समुद्री रास्ता जो अरब सागर से होकर फारस की खाड़ी और वहां से भूमध्य सागर से लगे देशों को जाता था। या अरब सागर से होते हुए लाल सागर के रास्ते भी जाया जाता था। लेकिन यहां अरब का पूरा नियंत्रण था। और उनकी मनमानी थी। अब यूरोप राह की तलाश में था। वह भारत तक पहुंचना चाहता था।

  स्पेन से जहाजी बेड़ा कोलंबस के नेतृत्व में 1492 में दिशा भटक कर अमेरिका जा पहुंचा। प्रिंस हेनरी जो पुर्तगाल का था, जिसे द नेविगेटर भी कहा जाता है। उसने पुर्तगाली साहसी नाविकों को खूब प्रोत्साहन दिया। उसने कई जहाजी अभियान दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट से होते हुए भेजे। इस तरह उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट का एक मैप तैयार कर लिया। 1487 में पहली बार एक पुर्तगाली साहसी व्यक्ति बार्थोलोम्य डियाज जहाज का नेतृत्व करता हुआ सबसे दूर अफ्रीका के दक्षिण छोर पर जा पहुंचा। जिसे आशा अंतरीप या केप ऑफ गुड होप कहा जाता है। हालांकि बार्थोलोम्यो डियाज ने इस स्थान को केप ऑफ स्टोर्मस कहा था। 1488 में वह वापस लिस्बन लौट गया। लेकिन यात्रा अब तक अधूरी थी। जब तक कि ऐशिया नहीं पहुंच लिया जाता।

आशा अंतरीप या केप ऑफ गुड होप -चित्र में

  इसके लिए पुर्तगाली शासन इमैनुअल प्रथम द्वारा एक और जहाजी बेड़े को वास्कोडिगामा के नेतृत्व में अभियान पर भेजा गया। बार्थोलोम्यो डियाज के ठीक दस वर्ष बाद 1497 में निकला वास्कोडिगामा केप ऑफ गुड होप तक पहुंच जाता है। क्योंकि पुर्तगालियों को अब तक यूरोपीय किसी अन्य देश की अपेक्षा अफ्रीका के पश्चिम तट से सटे सागर का अधिक ज्ञान हो गया था।

मालाबार तट पर कोझीकोड -चित्र में

वास्कोडिगामा के जहाजी बेड़े को केप ऑफ गुड होप से एक व्यक्ति व्यापारी जिसका नाम अब्दुल मनीक था, मिलता है। यह अरब के लोगों के साथ मिलकर भारत से व्यापार करता रहा होगा। इसे इतना जरुर पता था, कि इस दिशा में अरब सागर को निकलेंगे तो जरूर भारत पहुंचेंगे। 1498 में वास्को डी गामा अपने जहाज के साथ मालाबार तट 【 केरल के तट को मालाबार तट कहते हैं 】 के कलीकट नामक स्थान पर पहुंचता है। जिस का वर्तमान नाम कोझीकोड है।।

इसके बाद की घटनाएं अगले खंड पुर्तगालियो का भारत आगमन | खंड 2 में…

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