नमस्कार साथियों
यह ब्लॉक चैनल आपके लिए अनेकों विषय पर सूचनात्मक और विश्लेषणात्मक और विचारात्मक आर्टिकल्स उपलब्ध कराने के लिए है। आपके सहयोग की आशा है, कि आप इससे जुड़ेंगे और निश्चित रूप से आप इससे लाभ प्राप्त करेंगे।
फेसबुक ने नाम बदल लिया है। यह Meta हो गया है। फेसबुक ने अपना और उसकी अन्य सभी कंपनियों को मिलाकर एक पेरेंट ब्रेंड को जन्म दिया है। इस से तात्पर्य है कि, अब फेसबुक, व्हाट्सएप और इनस्टाग्राम आदि सभी कंपनियां Meta के अंतर्गत आती हैं। कुछ ऐसे जैसे ब्रिटिश क्रॉउन कई औपनिवेशिक राष्ट्रों पर नियंत्रण रखता था।
किंतु सबसे अहम चर्चा का विषय है, कि नया नाम क्यों। नाम Meta हो गया है, इस नाम बदलने में और नाम Meta हो जाने मे Metaverse चर्चा में आ गया है। फेसबुक के सीईओ मार्क जुकवर्ग का कहना है, कि इंटरनेट का भविष्य Metaverse है, आज या कल यह सत्य होने वाला है।
अब यह जानना आवश्यक है, कि Metaverse क्या है, Metaverse में क्या कुछ ला पाना संभव है, इस पर साफ-साफ कह पाना तो फिलहाल संभव नहीं, किंतु यह वास्तविक दुनिया के समानांतर चलने वाली दुनिया होगी। यूं कहें कि आपके सामने साक्षात वह माहौल तैयार हो जाना, जहां आप होना चाहते हैं।
यूं तो यह शब्द Metaverse सर्वप्रथम एक नोबल Snow crash में छपा है, 1992 में नील स्टीफेनसन नाम के लेखक ने इस पुस्तक को प्रकाशित करवाया था। यह नोबल एक कल्पना के संसार की व्याख्या है, जहां सरकार सब कुछ प्राइवेट कंपनियों के हाथ में दे देती है, सरकार अपनी शक्तियां भी प्राइवेट कंपनियों को सौंप देती है, और परिणाम वहां मॉडर्न वर्ल्ड जैसे वर्चुअल रियलिटी और डिजिटल करेंसी की दुनिया हो जाती है।
यह कुछ ऐसी ही है, जो फेसबुक करने की बात कर रहा है। फेसबुक का कहना है, “कि आप समर्थ हो सकेंगे, अपने दोस्तों, काम, खेल, पढ़ाई, खरीददारी इत्यादि से जुड़ सकने में। हम आप के समय जो ऑनलाइन बीतता है, उसे और अधिक उपयोगी बनाना चाहते हैं”
अब आप इसे कुछ इस प्रकार समझे एक दुनिया जिसमें आप दिल्ली जा रहे हैं, जो वास्तविक है। और इसी दिल्ली जाने की यात्रा को आप अपने इंटरनेट सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पोस्ट कर देते हैं। यह आपने पोस्ट किया तो आप उन सभी लोगों तक पहुंच गए, जिन्हें आप बताना चाहते हैं, या सारी दुनिया के सामने आपने यह पोस्ट रख दी है।
अब सोचिए यदि यह लाइव और निरंतर हो जाए, अर्थात आप, आप की स्थिति, समय, स्थान सब कुछ जहां आप हैं, वह सब कुछ किसी अन्य व्यक्ति जो वहां नहीं है, के सामने भी इस प्रकार से आ गया है, जैसे वह वहीं हो आपके साथ।
कुल मिलाकर आप जहां पहुंचना चाहते हैं, आप वहां पहुंच पा रहे हैं, वहां जाए बिना। और इस प्रकार से जैसे आप वही हैं, ऐसा माहौल आपके सामने तैयार हो रहा है।
अब यह होगा कैसे, Metaverse प्रोग्राम लंबे समय में तैयार हो सकेगा। 10 -15 वर्षों में।
अगले 5 वर्षों में वे यूरोप यूनियन देशों में दस हजार नए लोगों को काम पर लेने वाले हैं। जिससे यह प्रोजेक्ट पूर्ण हो सके।
1958 की फिल्म काला पानी एक आपराधिक मामले की दास्तां है। माला एक तवायफ का नाम है। नाच- गाने के शौकीन और विलासी जीवन यापन करने वाले लोग कोठे पर शिरकत देते हैं। माला का कत्ल हुए 15 साल बीत चुके हैं, और अदालत के द्वारा कातिल शंकरलाल नाम के व्यक्ति को ठहराया गया है। यह फिल्म जिस मुख्य पात्र के ऊपर बनी है। वह शंकरलाल का पुत्र है, जिसका नाम करण है। करण 15 वर्ष तक इस झूठ के साथ जीता है, कि उसके पिता मर चुके हैं। किंतु 1 दिन उसे यह मालूम चल जाता है, कि उसके पिता जीवित है, और हैदराबाद की जेल में सजा काट रहे हैं। वह अपने पिता से मिलने के लिए उत्सुक हो उठता है, यह सच्चाई जानने के लिए कि क्या वास्तव में उसके पिता कातिल है, और हैदराबाद जाने का मन बना लेता है।
उसकी मां उसे समझाती है, ऐसा भी कहती है, कि उसके पिता ने उसकी मां का त्याग कर दिया था, और उस तवायफ माला को अपना लिया था, और बाद में उसका भी कत्ल कर दिया। करण की मां भी उसके पिता को कातिल समझती है। करण यह सब जानकर भी सच की तलाश के लिए हैदराबाद चला आता है। और हैदराबाद में करन की प्रेम कहानी भी प्रारंभ होती है। जहां आशा नाम की एक लड़की जो प्रेस में काम करती हैं, और करण जिस होटल में कमरा लिए होता है, उस होटल की मालकिन आशा की चाची होती है। करण हैदराबाद की जेल में अपने पिता से मिलने के लिए इंचार्ज से मिलता है।
जब करन अपने पिता से मिलने लगता है, तो उसे अपने पिता की बेगुनाही का एहसास होता है। वह 15 साल पहले उसके पिता को गिरफ्तार करने वाले पुलिस अफसर से भी मिलता है। अपने पिता के बेगुनाही में सबूत इकट्ठे करने लगता है। इन सबके जरिए उसे शहर के एक और तवायफ किशोरी के बारे में मालूम चलता है। जिसने उसके पिता के अपराधी ठहराए जाने को लेकर गवाही दी थी। उसे यह भी मालूम चलता है, कि किशोरी के पास कुछ पत्र हैं, जो उसके पिता को बेगुनाह साबित कर सकते हैं। करण उसे अपने प्रेम जाल में फसाने में कामयाब हो जाता है। वह करण पर मर मिटने को तैयार होती है।
वह करण को यह बताती है, कि उसके पास पैसे की कमाई का एक और जरिया है। करण जब उसके कमरे में तलाश करता है, तो वह खुद ही उन पत्र को करण के सामने फेंक देती है। किशोरी को भी यह मालूम चल जाता है, कि 15 साल पहले उसकी झूठी गवाही से जिस बेगुनाह को सजा हुई है, वह करण के पिता हैं। करण उन पत्रों को लेकर वकील राय बहादुर जसवंत राय के पास पहुंचता है। किंतु रायबहादुर भी 15 साल पहले करन के पिता को हुई सजा की साजिश में शामिल था। इसलिए राय बहादुर ने वह पत्र करन के सामने ही जला दिए। करन शहर में अपने पिता के बेगुनाही के लिए वकील के घर के बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठा कर इंसाफ की मांग करता रहा। आशा जो करन की प्रेमिका थी, अपने अखबार में इस सच्चाई को छापती रही, आखिर में एक बार फिर करन की मुलाकात किशोरी से होती है, और किशोरी करण से मिलकर उसे असली पत्र देती है।
वह कहती है, कि जो पुराने पत्र वकील ने जला दिए हैं, वह तो झूठे थे, और करन इन पत्रों को आशा के अखबार में छपवा देने के बाद अपने पिता को बेगुनाह साबित करवा देता है। इसके साथ ही फिल्म समाप्त हो जाती है।
आर्यों के जीवन के चरण / ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वन-प्रस्थानम और संन्यास-
वैदिक काल
वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था प्रचलन में थी। आश्रम शब्द संस्कृत के श्रम शब्द से निर्मित है, जिसका तात्पर्य परिश्रम से है। वैदिक काल की सभ्यता में जीवन का पहला चरण ब्रम्हचर्य से प्रारंभ होता है, जो कि आश्रम में बीतता था।
छात्र यज्ञोपवीत के बाद आश्रम जाता था। विद्या के अर्जन के लिए जब ब्रह्मचर्य का जीवन आश्रम में बिता कर घर लौटता तो गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता जहां उसकी शादी होती और वह जीवन के भौतिक सुखों को प्राप्त करता एक समय पर वह जीवन के तीसरे चरण वनप्रस्थान को प्राप्त कर लेता, जिसमें वह अपने घर परिवार को छोड़कर वन की ओर निकल पड़ता। जहां वह लगातार एकांतवास में चिंतन करता।
वनप्रस्थान के पश्चात जीवन का अंतिम चरण जिसमें वह प्रवेश करता है, वह सन्यासी है। सन्यासी व्यक्ति घूम घूम कर अपने जीवन के चिंतन का प्रचार प्रसार करता।
जीवन के इन चार चरणों का मूल आर्यों के चार ऋणों तथा चार पुरुषार्थों पर विश्वास होना भी प्राप्त होता है। क्योंकि आर्यों के विश्वास में उन पर जो चार ऋण होते थे, वह पहला तो ऋषियों के प्रति दूसरा पितरों के प्रति तीसरा देवताओं के प्रति तथा चौथा अन्य व्यक्तियों के प्रति होता था।
इन ऋणों को वे अपने जीवन के उन चार भागों में स्वयं से तर देते थे। ऋषियों के प्रति जो ऋण था वह ब्रह्मचारी होकर आश्रम में विद्यार्जन से, पितरों के प्रति जो ऋण था वह गृहस्थ जीवन में संतान पैदा करने से, देवताओं के प्रति ऋण वनप्रस्थान में चिंतन से और अन्य लोगों के प्रति ऋण सन्यासी जीवन में अपने चिंतन से प्राप्त ज्ञान के प्रसार से उतार देते थे।
जिन चार पुरुषार्थों में आर्यों का विश्वास था। वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष थे। यह भी परस्पर उनके जीवन के चार भागों से जुड़े हुए थे।
धर्म का ब्रह्मचर्य से, अर्थ और काम का गृहस्थ जीवन से, मोक्ष का वनप्रस्थान तथा सन्यासी जीवन से संबंध था। इस प्रकार आर्यों का जीवन कुछ धारणाओं से नियमों में बंधा था।
वैदिक काल की सभ्यता कैसी रही होगी। इतिहास जो कुछ माध्यमों से सूचित करा पाता है, उससे एक लेख इस विषय पर तैयार कर रहा हूं। वैदिक काल में वेदों की रचना तत्पश्चात उनकी व्याख्या के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की रचना और अंत में सूत्रों की रचना की गई। जो वैदिक काल की व्यवस्था का भी वर्णन करते हैं।
उस काल में आर्य कुटुंब, कुल की इकाई में रहते थे। गृह का प्रधान पिता होता था। कई गृह से ग्राम जिसका प्रधान ग्रामीण होता था। कई ग्राम मिलकर विश बनाते थे, जिसका प्रधान विशपति होता तथा कई विशों से जन, जिसका प्रधान गोप होता था, जो राजा स्वयं होता था। ऋगवैदिक काल में आर्यों के छोटे-छोटे राज्य थे। किन्तु अनार्यों पर विजय होने पर वे राज्य विस्तार करते रहे। विजय के उपलक्ष में राजसूया, अश्वमेध यज्ञ करने लगे।
वैदिक काल में राज्य का प्रधान राजन था। वह अनुवांशिक था, किंतु निरंकुश नहीं होता था। परामर्श हेतु उसके लिए एक समिति तथा सभा होती थी। सभा के सदस्य बड़े बड़े तथा उच्च वंश के लोग थे। किंतु समिति के सदस्य राज्य के सभी लोग थे। ऋगवैदिक काल में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी राज्य के प्रमुख पद थे। पुरोहित सबसे ऊंचा पद था। संभवत यह पद भी अनुवांशिक रहा होगा। प्रारम्भिक वैदिक काल में हर आर्य सैनिक ही हुआ करता था। क्योंकि वे तब प्रसार कर रहे थे। किंतु उत्तर वैदिक काल तक वर्ण व्यवस्था का चलन हो चुका था, और परिणाम था, कि क्षत्रिय सेना के लिए एक अलग शाखा तैयार हुई। वही रणभूमि में भाग लेते थे।
आर्य व्यवस्था में स्त्रियों का समाज में ऊंचा स्थान था। हालांकि वह स्वतंत्र ना थी। वह किसी तो पुरुष के संरक्षण में जीवन भर रहती थी। वह गृह स्वामिनी समझी जाती थी। तब विवाह एक पवित्र बंधन था, जो जीवन के अंत पर ही समाप्त होता था। बहु विवाह का प्रचलन आम ना था। हां राजवंशों में यह होता था। हालांकि उत्तर वैदिक काल में यह आम लोगों में भी चलन में आ गया। ज्ञात है, कि मनु की 10 पत्नियां थी।
वैदिक काल के लोग मांस और शाक दोनों को ग्रहण करते थे। उनके मुख्य दो पेय थे, सोमरस और सुरा। सोमरस मादकता रहित था, किंतु सुरा मादकता के लिए था, अतः सुरा का पान समाज में दोष था। वह अवगुण समझा जाता था।
जाति प्रथा का उदय-
प्राचीन आर्यों की सर्वाधिक प्रचलित व्यवस्था वर्ण व्यवस्था है। जिसका प्रभाव आज तक भारतीय समाज पर है। वर्ण का अर्थ रंग है। यह दरअसल तब व्यवस्था प्रचलन में आई होगी, जब आर्य अनार्यों के संपर्क में हुए होंगें। क्योंकि आर्य स्वयं को श्रेष्ठ कहते थे, वह तो एक ही जाती थी, किंतु यह भी सत्य है, कि आर्यों का भी उनके व्यवसाय उनके काम-काज के अनुरूप वितरण है। गौर वर्ण के लोग आर्य थे और कृष्ण वर्ण के लोग अनार्य। यही संभवत भारतीय समाज का दो भागों में प्रारंभिक विभाजन था।
आर्यों ने अपने कार्यों के अनुरूप स्वयं की जाति को चार वर्णों में विभक्त कर लिया था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र।
पाठ पूजन करने वाले ब्राह्मण हुए, रण कुशल क्षत्रिय, वैश्य खेती-बाड़ी, व्यापारिक वाणिज्य में संलग्न लोग और शुद्र, क्षत्रीय तथा वैश्यों की सेवा में लगे लोग हुए।
इन सबके बावजूद समाज में अनियमितता नहीं थी, लोग अपने कार्यों को लेकर निश्चित थे, जन्म से ही। क्योंकी व्यवस्था उन्हें जीवन में कामकाज को लेकर पहले ही तय कर चुकी होती थी।
ऋग्वेद में इस विषय में लिखा है, कि ब्राह्मण परम पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जांघों से, और शुद्र उसकी चरणों से पैदा हुए हैं। समाज का यह ऊंच-नीच विभाजन जरूर था, किंतु संकीर्णता नहीं थी। यही उस समाज को जीवित रखे था। ब्राह्मण लोग समाज का बौद्धिक आध्यात्मिक उत्कर्ष में लगे होते थे। क्षत्रिय लोग समाज की सुरक्षा में राज्य को शत्रुओं से रक्षा में, वैश्या लोगों का समाज में भौतिक आवश्यकताओं को प्राप्त करवाने में और शूद्र लोग समाज को सुचारू रूप से संचालित करने में योगदान देते रहे।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण था, कि हर वर्ग अपनी कार्य में संलग्न था। छुआछूत की भावना नहीं थी, न किसी प्रकार की कटुता थी, किंतु उत्तर वैदिक काल में आते-आते वर्ण व्यवस्था ने बेहद जटिलता प्राप्त कर ली, जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया, अर्थात जाति का निश्चय व्यवसाय से नहीं बल्कि जन्म से होने लगा जातिवाद का प्रकोप बढ़ने लगा और भारतीय समाज के लिए यह बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ है।
आर्यों का विस्तार तथा संहिता, वेद, आरण्य, सूत्र इत्यादि की व्याख्या-
आर्यों को जानने की साधन
आर्यों का विस्तार- सप्त सिंधु, मध्य देश, आर्यव्रत और दक्षिणाव्रत
● उत्तर भारत में आर्य-
आर्य भारत में धीरे-धीरे आगे बढ़े भले ही वह मूल किसी भी प्रदेश के हों। किंतु भारतीय आर्य प्रारंभ में सप्त सिंधु में ही निवास करते थे। वह सात नदियां का देश जो सिंधु (सिन्ध), झेलम (वित्स्ता), चुनाव (अस्कनी), रावी (परुषणो), व्यास (पिषाका), सतलज (शतुद्री), सरस्वती।
आर्य जैसे जैसे आगे बढ़े। भारतीय प्रदेशों के नाम देते रहें। कुरुक्षेत्र के निकट के भागों में अधिकार करने से उन्होंने उस प्रदेश का नाम ब्रह्मा व्रत रखा। मुख्य विषय यह है, कि उन्हें भीषण संघर्ष अनार्य से करना पड़ा होगा। जब वह और आगे बढ़े और गंगा यमुना दोआब और उसके निकट के प्रदेश पर अधिकार प्राप्त किया, उन्होंने उस प्रदेश का नाम ब्रह्मर्षि देश रखा जब उन्होंने आगे बढ़कर हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य के भाग को अधिकार में लिया और स्वयं को प्रसारित किया तो इस प्रदेश को उन्होंने मध्य देश नाम दिया। जब उन्होंने वर्तमान बंगाल और बिहार के क्षेत्रों को भी अधिकार में लिया तो संपूर्ण उत्तर भारत को आर्यवर्त पुकारा।
● आर्यों का दक्षिण भारत में प्रवेश-
बहुत समय तक आर्य विंध्याचल को पार न कर सके। किंतु सबसे पहले अगस्त्य ऋषि विंध्याचल को पार कर दक्षिण भाग में पहुंचे। वहां भी उन्होंने अपने आर्य सभ्यता का प्रचार प्रसार किया। वे दक्षिण में भी फैल गए।उन्होंने दक्षिण प्रदेश को दक्षिणाव्रत नाम से पुकारा।
आर्यों को जानने के साधन-
आर्यों का परिचय उनके ग्रंथों से प्राप्त होता है। उनके ग्रंथ संहिता या वेद, ब्राह्मण तथा सूत्र तीन भागों में विभक्त किया जा सकते हैं।
■ संहिता, वेद, श्रुति –
संहिता से तात्पर्य संग्रह है। अर्थात मंत्रों का संग्रह। वेद संस्कृत के विद शब्द से है, जिसका तात्पर्य जानना है। भारतीय आर्यों के ज्ञान का संग्रह है, वेद। वेद मनुष्य वक्तव्य नहीं है। वह ब्रह्मा वाक्य है। इन्हें ऋषि-मुनियों ने ब्रह्मा मुख से सुना है। यह श्रुति भी कहलाए।
आर्यों के चार वेद-
वेद संस्कृत भाषा में हैं। आर्यों की भाषा।
उन्होंने चार वेदों को संग्रहित किया कम्रशः वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
1. ऋग्वेद-
ऋग्वेद विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ है। यह ऋचाओं का संग्रह है। संभवत यह तब संग्रहित किया गया होगा जब आर्य सप्त सिंधु प्रदेश में निवास करते रहे होंगें। ऋग्वेद का अर्थ ऋचाओं के संग्रह से है। आर्यों ने किस वेद में स्तुति मंत्रों का संग्रह किया वह ऋग्वेद है।
2. यजुर्वेद-
यजु का अर्थ है पूजन। यज्ञ का विधान यजुर्वेद में है। इस वेद में बलि की प्रथा उसका महत्व, विधान का वर्णन प्राप्त है। संभवत यह ग्रंथ कुरुक्षेत्र के प्रदेश में जब आर्य विस्तारित हो चुके थे। तब संग्रहित किया गया होगा।
3. सामवेद-
साम का अर्थ है, शांति। यहां इसका तात्पर्य गीत से शांति से है। सामवेद के मंत्र संगीतमय हैं।
4. अथर्ववेद–
अथ का अर्थ है, मंगल या कल्याण, अथर्व का अर्थ है, अग्नि। तथा अथर्व का अर्थ है, पुजारी अर्थात इस ग्रंथ के अनुरूप पुजारी अग्नि तथा मंत्रों की सहायता से भूत पिशाच आदि से मानव के रक्षा करता है। इस ग्रंथ में बहुत से प्रेत पिशाचों जो का जिक्र है।
■ ब्राह्मण ग्रंथ-
जब वेदों का आकार बहुत बड़ा हो गया था, वह बड़े कठिन हो गए थे। साधारण लोग उन्हें समझ नहीं पाते थे। अतः वेदों की व्याख्या करने के लिए जिन ग्रंथों की रचना की गई वे ब्राह्मण कहलाए। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की विवेचना की गई है। ऐतरेय, शतपथ आदि कुछ प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ हैं।
■ आरण्य ग्रंथ-
आरण्य का अर्थ है, जंगल। जिन ग्रंथों की रचना जंगलों में शांतिमय वातावरण में की गई, आरण्यक कहलाए। यह उन्हीं लोगों के लिए थे, जो जंगलों में जाकर चिंतन किया करते थे।
■ उपनिषद-
उपनिषद का अर्थ है जो ग्रंथ गुरु के समीप बैठकर श्रद्धा पूर्वक पढ़े जाते हैं। उनका नाम उपनिषद रखा गया। उपनिषदों में उच्च कोटि की दार्शनिक विवेचना भी है। और इनमें यह भी संकेत मिलते हैं। कि तब तक आर्यों में वर्ण व्यवस्था तथा आश्रम की प्रथा अधिक मजबूती से स्थापित हो चुकी थी।
■ सूत्र ग्रंथ-
सूत्र का शाब्दिक अर्थ होता है। तागा सूत्र उन ग्रंथों को कहते हैं जो इस प्रकार लिखे हों जैसे मोती की भांति धागे में पिरो दिया गया हो।
जबआर्य ग्रंथों की संख्या बहुत बढ़ गई। जब वे विशालकाय ग्रंथ हो गए तब ऐसे ग्रंथों की आवश्यकता पड़ी जो छोटे आकार के हों परंतु वे बड़े भाव दें। पाणिनी ने सूत्रों की तीन विशेषताएं बतलाई हैं, अर्थात वे थोड़े से अक्षरों में लिखे जाते हैं, बड़े संदिग्ध होते हैं, और बड़े ही सारगर्भित होते हैं। सूत्रों की रचना में पाणिनी और पतंजलि का प्रमुख तौर से योगदान है।
विल्सन महोदय ने लिखा है। कि प्राचीनता की कल्पना में जो कुछ अत्यधिक रोचक है, उसके संबंध में पर्याप्त सूचना हमें वेदों से मिलती है।
इन ग्रंथों का सबसे बड़ा महत्व है, कि इनसे आर्यों के प्रारंभिक इतिहास जानने में सहायता मिलती है, साथ ही हिंदू जाति का प्रारंभिक इतिहास उनके बिना अंधकार में होता। यह भारतीय प्राचीन सभ्यता के एक और मूलाआधार है।
यह बेहद विवादपस्त प्रश्न है। स्मिथ लिखते हैं कि, “आर्यों के मूल निवास के संबंध में जानबूझकर विवेचना नहीं की गई है, क्योंकि इस संबंध में कोई विचार निश्चित नहीं हो सका है”।
आर्य का अर्थ है, श्रेष्ठ और वे अनार्य (अश्रेष्ठ) उन्हें कहते हैं, जिनसे वे अपने भारत भूमि भ्रमण में संघर्ष किए। सर्वप्रथम आर्य शब्द वेदों में प्रयुक्त है, व्यापक तौर से यह एक प्रजाति है। जिनकी शारीरिक रचना विशिष्ट है। जिनके शरीर लंबे डील-डौल, हृष्ट-पुष्ट, गोरा रंग, लंबी नाक वाले तथा वीर साहसी होते हैं। भारत, ईरान और यूरोपीय प्रदेश के कई देशों के लोगों का इन्हीं के संतान होने का मत है। यह लोग प्रारंभ से ही पर्यटनशील होते हैं। और इसी प्रवृत्ति से यह लोग संपूर्ण विश्व में फैलने लगे। और इन लोगों ने विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप अलग अलग संस्कृति का विकास किया।
1. आर्यों का मूल स्थान को लेकर विद्वानों का एकमत होना बहुत कठिन है। क्योंकि विद्वान अलग-अलग ढंग से आर्यों के मूल स्थान की विवेचना करते हैं। इससे कुछ प्रमुख सिद्धांत निर्मित होते हैं। यूरोपीय सिद्धांत में भाषा संस्कृति के आधार पर कुछ विद्वान आर्यों का आदि देश यूरोप के होने का मत देते हैं। उनके मतानुसार आर्य यूरोप से ही ईरान और भारत को बढे। उनके तर्क थे, कि भारत, ईरान और यूरोप के आर्यों की भाषा की समानता जैसे पितृ, पिदर, पेटर, फादर और मातृ, मादर, मेटर, मदर और दुहितृ, दुख्तर, डॉटर, आदि। इस तर्क से उनका मूल निवास प्रारंभ में एक ही रहा होगा यह तो तय होता है। और वह वहीं से अलग-अलग प्रदेशों में विस्तार किए होंगे।
यूरोपियन सिद्धांत के समर्थन में उनके अन्य तर्क है। कि यूरोप में आर्यों की संख्या एशिया के आर्यों से अधिक हैं, संभवत वे एशिया में यूरोप से ही आए हों। उनका तर्क यह भी है कि, पर्यटन प्रायः पश्चिम से पूर्व को हुए हैं। और पूर्व की ओर यूरोप से आने में कोई मरुस्थल, वन प्रदेश, पर्वत इतना जटिल नहीं है, जो पार ना हो सके। वे यूरोप के सिद्धांत को इन तर्कों से ठीक ठहराते हैं। और आर्यों को वही का मूलनिवासी कहते हैं। किंतु यूरोप के किस प्रदेश में आर्यों का आदि है। यह प्रश्न भी विवाद में हैं, जिस पर अलग-अलग विद्वान अलग-अलग मतों का समर्थन करते हैं।
● डॉ० पी० गाइल्स ऑस्ट्रिया हंगरी का मैदान जो यूरोप के मध्य प्रदेश भाग में हैं। का समर्थन किया है। यह प्रदेश शीतोष्ण कटिबंध में है। वहां पशु गाय, बैल, घोड़े, कुत्ते वनस्पति जैसे गेहूं, जौ जिनसे आर्य परिचित थे। प्राप्त हैं। और वे यह तर्क भी देते हैं, कि यह मैदान सर्वाधिक माध्य है, उन सभी स्थानों तक पहुंचने का जो जो आर्यों का पर्यटन प्रदेश बना। अथवा जहां तक वे पहुंच सके।
● कुछ अन्य विद्वानों ने पेन्का के समर्थन में जर्मनी प्रदेश को आर्यों का मूल स्थान कहा है। उनका तर्क है कि, प्राचीन आर्यों के बाल भूरे थे, और जर्मन लोगों के बाल आज भी भूरे हैं। इसके अलावा बहुत से शारीरिक विशेषताएं जो प्राचीन आर्यों मैं पाई जाती थी, वह जर्मन के आर्यों में भी थी। इसके अलावा उनका तर्क है, कि इस प्रदेश पर कभी विदेशी जाति का प्रभुत्व नहीं रहा। उन लोगों ने सदैव इण्डो-यूरोपियन भाषा का प्रयोग किया। और प्राचीनतम पात्र इसी प्रदेश में प्राप्त हुए हैं। अतः आर्य इस प्रदेश के आदि मूल निवासी थे।
● यूरोपीय सिद्धांत के अंतर्गत आर्यों के आदि मूल निवास को लेकर दक्षिण रूस के प्रदेश को भी कुछ विद्वानों का मत प्राप्त है। वह कृषि, पशु, उपजाऊ भूमि के आधार पर कहते हैं। कि यूरोप में आर्यों का प्रारंभ में आदि मूल स्थान दक्षिण रूस ही है।
यूरोपीय सिद्धांत के अनुरूप यूरोप में आर्यों के प्रारंभिक मूल स्थान को लेकर ऑस्ट्रिया-हंगरी का मैदान, जर्मनी प्रदेश और दक्षिण रूस के प्रदेश के मध्य और अन्य भी अनेक मत प्राप्त हैं। किंतु कुछ विद्वानों का मत है, कि आर्य यूरोप के मूल निवासी ना होकर मध्य एशिया के आदि मूल निवासी हैं। और मध्य एशिया का सिद्धांत जन्म लेता है।
2. जर्मन विद्वान मैक्समूलर मध्य एशिया को आर्यों का आदि देश होने का तर्क देते हैं। उनके तर्कों में मध्य एशिया वह स्थान है। जहां आर्य प्रारंभ में थे। और यह ईरान, भारत और यूरोप के सन्निकट भी है। यहीं से उन प्रदेशों में पर्यटन हुआ होगा। आर्य पहले अपने वर्षों की गणना हिम से करते थे, बाद में वे शरद से वर्षों की गणना करने लगे। उनके मत में इसका तात्पर्य है कि, पहले आर्य शीत प्रदेश मध्य एशिया के निवासी थे। बाद में वे दक्षिण की ओर बढ़े वहां उन्हें सुहावना बसंत मिला उनका तर्क यह भी है, कि आर्यों के ग्रंथ जिन पशुओं और अन्नों का उल्लेख देते हैं। उनका मध्य एशिया में प्राप्ति है। वह इस तर्क से अपना मत मजबूत करते हैं। कि कालांतर में शक, कुषाण हूंण आदि जातियां मध्य एशिया से ही भारत आए हैं।
3. आर्यों के संबंध में तीसरा सिद्धांत आर्कटिक सिद्धांत है। वेदों के आधार पर बाल गंगाधर तिलक भी इसका समर्थन करते हैं। उनका तर्क है, कि वेदों में छः महीने दिन और छः महीने रात का वर्णन है। वेदों में उषा की भी स्तुति है, जो बहुत लंबी है। यह सब उत्तरी ध्रुव में संभव है, पारसियों के धर्म ग्रंथ अवेस्ता में भी वर्णन है कि, उनके देवता अहुरमज्द ने जिस देश का निर्माण किया, वहां दस महीने सर्दी और दो महीने मात्र गर्मी होती थी। तिलक जी का निष्कर्ष है, कि यह प्रदेश उत्तरी ध्रुव के निकट कहीं होगा अवेस्ता में वहां तुषारपात का भी वर्णन है। तिलक जी का मत है कि पहले आर्य जब वहां थे तो वहां बसंत का मौसम था। किंतु जब वहां तुषारपात हुआ, तो आर्य वहां से चल पड़े। वहीं से यूरोप, ईरान और भारत वर्ष आ पहुंचे।
4. कुछ विद्वान आर्यों का मूल स्थान भारत भूमि होने का समर्थन करते हैं। डॉ० राजबली पांडे ने लिखा कि “संपूर्ण भारतीय साहित्य में एक भी संकेत नहीं है, जिससे सिद्ध हो सके कि भारतीय आर्य बाहर से आए थे। जन्श्रुतियों, भारतीय अनुश्रुतियों में कहीं इस बात की गंध नहीं है, कि भारतीय आर्यों की पितृभूमि और धर्म भूमि कहीं अन्य बाहर के देश में है”।
श्री अविनाश चंद्र दास के विचार में सप्त सिंधु आर्य आदि मूल निवास स्थान था। कुछ विद्धान गंगा का मैदान आर्यों की आदि भूमि का मत देते हैं। भारतीय सिद्धांत के समर्थन में विद्धान कहते हैं, कि भारतीय आर्यों के विषय में वैदिक ग्रंथ में कहीं नहीं लिखा मिलता कि आर्य बाहर से आए हैं। बल्कि सप्तसिंधु पंजाब का गुणगान है। जिस मुख्य भोज्य गेहूं, जौ का आर्यों को ज्ञान था, वह इस प्रदेश में बाहुल्य में प्राप्त हैं। अतः वे अपना मत कि भारतीय आर्य कहीं बाहर से नहीं आए हैं। को मजबूती से पेश करते हैं।
इतिहास के पृष्ठों की यही अस्पष्टता आज भी हमें अतीत के गर्भ में छुपे उन रहस्यों को जानने के लिए आकर्षित करती हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता / मिस्त्र, मोसोपोटामियां और सिंधु घाटी सभ्यता एक तुलनात्मक अध्ययन-
मिश्र, मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी सभ्यता की तुलना
सिंधु घाटी सभ्यताके विषय में यह दूसरा लेख है। वे लोग उस काल में भी व्यापार करते थे। विद्वानों का मत है, कि वह वैदिक सभ्यता के मुकाबले अधिक नगरीय तथा व्यापार प्रधान थे। उनका प्रमुख व्यवसाय कृषि आधारित ही नहीं था, बल्कि व्यापार भी था। खुदाई में ऐसे बीज मिले हैं, जो उनकी भूमि की उपज नहीं हैं। साथ ही वहां किसी राज प्रासाद का साक्ष्य नहीं मिला है। हां कई सभा भवन के खंडहर जरूर मिलें हैं। इससे उनके लोकतांत्रिक शासन के होने का अनुमान होता है।
भारत में सिंधु घाटी की सभ्यता के उदय के दौर में ही विश्व के अन्य भागों में भी मानव उत्कृष्ट सभ्यता का जन्म हो रहा था। जो ज्ञात हैं वह, मिस्र की सभ्यता और मेसोपोटामिया की सभ्यता हैं। तीनों में उभयनिष्ठ है, कि वे नदी घाटी में उदित हुई। सिंधु नदी घाटी सभ्यता सिंधु नदी की घाटी में, मिस्र की सभ्यता नील नदी की घाटी में, और मेसोपोटामिया की सभ्यता दजला और फरात नदी की घाटी में प्राप्त हुई हैं।
तीनों से सभ्यताएं उत्तर पाषाण काल के बाद की हैं। वह धातु काल की सभ्यताएं हैं। वह कांश्य तथा तांबे का प्रयोग करते थे। इन सभ्यताओं के लोग सुंदर भवन बनाकर रहते थे। कुशल शिल्पकार हुआ करते थे। और सुंदर चीजों को बनाया करते थे। उनका व्यापार भी अच्छी स्थिति में था।
हालांकि परलोक को प्राप्त होने पर वहां सुख भोगने के लिए जिस प्रकार से मिस्र के लोगों ने पिरामिडो का निर्माण किया था। वह ना तो मेसोपोटामिया और ना ही सिंधु घाटी के लोगों ने किया।
मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता के लोग अनेक देवी-देवताओं पर विश्वास करते थे। ठीक इसी प्रकार सिंधु घाटी के लोग भी देवी देवताओं पर विश्वास करते थे। खुदाई में कई मूर्तियां मिली हैं, जो मूर्तियां देवी-देवताओं की हैं, उन मूर्तियों को लेकर यह विद्वानों का मत है। किन्तु सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने उन की भांति कभी देवी देवताओं के लिए देवालय का निर्माण नहीं किया था।
सिंधु घाटी की खुदाई में अधिक लेख तो प्राप्त नहीं हुए, अपेक्षाकृत मेसोपोटामिया और मिस्र की खुदाई में अधिक लेख प्राप्त हुए हैं। किंतु विद्वानों का मत है, कि सिंधू घाटी सभ्यता के लोगों की लिपि सर्वोत्तम थी। और वह भवन निर्माण कला में भी मिश्र तथा मेसोपोटामिया सभ्यता के लोगों से उन्नत थे।
सिंधु सभ्यता के लोगों का विस्तार मिश्र तथा मेसोपोटामिया की सभ्यता से अधिक विस्तारित था। विद्वानों का मत है, कि यहां सिंधु सभ्यता के लोगों का अधिक रण-प्रिय होने का संकेत देता है।
अब सवाल यह है, कि सिंधु घाटी सभ्यता के निर्माता कौन थे। क्या वे आर्य थे। बहुत से विद्वानों का मत यही है। किंतु वैदिक सभ्यता और सिंधु घाटी सभ्यता में बहुत बड़ा अंतर है। जिससे यह स्पष्ट होता है, कि जिन लोगों ने वैदिक सभ्यता का निर्माण किया वे लोग सिंधु घाटी सभ्यता का निर्माण करने वाले नहीं हो सकते हैं।
कुछ विद्धानों का मत यह भी है, कि यह द्रविड़ लोगों की सभ्यता थी, क्योंकि दक्षिण भारत में द्रविड़ो के मिट्टी के बरतन तथा आभूषण सिंधु घाटी के लोगों के बर्तन आभूषणों से काफी मिलते-जुलते हैं। यह धारणा कुछ ठीक भी लगती है। किंतु खुदाई में जो हड्डियां मिली हैं, वह किसी एक जाति की नहीं है। अतः इस सभ्यता के निर्माता किसी एक जाति का न होकर वरन विभिन्न जाति के लोग थे।
सिंधु घाटी सभ्यता के ज्ञात होने से विद्वानों की यह धारणा की वैदिक कालीन सभ्यता ही भारत की प्राचीनतम सभ्यता है। गलत साबित होती है। विद्वानों के अनुसार वैदिक कालीन सभ्यता ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व की है। जबकि सिंधु घाटी सभ्यता ईसा से लगभग 3 से 4 हजार वर्ष पूर्व की होने का अनुमान है।
सभ्यता से तात्पर्य लोगों का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक जीवन कैसा रहा होगा, इससे है। सिंधु घाटी की सभ्यता प्राचीनतम भारतीय सभ्यता के रूप में पुरातत्व की सबसे महत्वपूर्ण खोज है, जो अतीत के लिए विश्व को एक विशेष नजरिया देती है। यह विशाल भूमि पर फैला था। सिंधु नदी की घाटी में इसका विस्तार प्राप्त हुआ है, अतः इसे सिंधु घाटी सभ्यता के नाम से जानते हैं। घाटी वह भूमि है, जो उस नदी से पोषित होती है। सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, पूर्वी बलूचिस्तान, कठियावाड़ और अन्य स्थानों पर ज्ञात हुआ है। विद्वानों का मत है, कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जो क्रम से वर्तमान में पंजाब के जिला माउंटगोमरी (पाकिस्तान) और सिंध के लरकाना जिले (पाकिस्तान) में है, इनका सात बार विनाश और सात बार निर्माण हुआ था। क्योंकि खुदाई में सात परतें मिली हैं।
◆ विद्वानों के मतानुसार सिंधु घाटी सभ्यता में भवन निर्माण एक निश्चित योजना से होते थे। नगर के निर्माण एक योजना का परिणाम रहा होगा। सड़कें आपस में जहां काटती वहां समकोण अंतरित करती। वे बहुत चौड़ी होती थी। मुख्य सड़कों को जोड़ने वाली गलियां तीन से चार फीट चौड़ी होती थी। और मुख्य सड़कें तो तेंतीस फीट चौड़ी पाई गई। हां वे कच्ची हुआ करती थी। किंतु वह नगर को कई आयताकार और वर्गाकार भागों में बांट रही होती थी।
◆ सड़कों के दोनों और पक्की ईंटों के मकान थे। और हर मकान में जैसे स्नानागार होना आवश्यक रहा होगा। और एक और मुख्य बिंदु मकानों के द्वार बेहद चौड़े होते थे, कुछ तो इतने चौड़े की बैलगाड़ी भीतर जा सके। मकानों में खिड़कियां और अलमारियां भी होती थी।
◆ नगरों के जल का निस्तारण के लिए नालियों का प्रबंध था। वह ईंटों तथा पत्थरों से ढकी होती थी। खुदाई में एक विशाल जलाशय भी मिला है। जो सार्वजनिक रहा होगा। इसके दक्षिण पश्चिम में आठ स्नानागार थे। जलाशय के पास एक कुआं प्रप्त हुआ है। संभवतः जलाशय को इस कुएं के जल से भरा जाता रहा होगा।
◆ इसके अतिरिक्त खुदाई में अस्त्र-शस्त्र गदा, फरसे, भाले, बर्छे, धनुष, बाण, कटार, मिले हैं। बीज तथा पशुओं की हड्डियों प्राप्त हुई हैं। नापतोल से संबंधित बड़े छोटे आयताकार बाट, तराजू, गज मिले हैं।
◆ खुदाई में एक मूर्ति मिली है। जिसमें एक व्यक्ति एक सौल ओढे है, जो उसके बाएं कांधे से दाएं कांघ से होकर नीचे जाती है। शायद यही उनकी वेशभूषा रही होगी।
◆ खुदाई में अन्य मूर्तियां भी मिली है। उनमें कुछ देवी देवताओं की होंगी। वह उनके धार्मिक जीवन को दर्शाती है। इनमें पशुओं की मूर्तियां हैं। हड़प्पा में मिली एक मूर्ति को लेकर सर जॉन मार्शल का विचार है, कि वह शिव की मूर्ति है। इसके अतिरिक्त मूर्तियों में नारी की मूर्ति भी प्राप्त हुई है।
◆ खुदाई में सर्वाधिक संख्या में मुहरें मिली हैं। जिन पर कुछ लिखा है। जिनसे उनके लेखन के ज्ञान का अनुमान लगाया जाता है। इन मोहरों में एक ओर पशुओं का चित्र भी अंतरित है। मुख्यतः मोहरें हाथी दांत, पत्थर, धातुओं से निर्मित हैं।
यह लेख सिंधु घाटी सभ्यताकी अतीत में मानवीय उत्थान के श्रेष्ठ मिसाल शायद बयां कर पा रहा हो। किंतु यह सभ्यता और अधिक विस्तृत थी। और विद्वान इस पर विभिन्न मत देते हैं। किंतु जो भी हो यह दुनिया को भारत के अतीत का सर्वश्रेष्ठ चेहरा दिखाता है। और सोने की चिड़िया वास्तव में थी, इस विचार को मजबूती देता है।
भारतीय सभ्यता के सूत्रधार / भारतीय सभ्यता पर आक्रांताओं का प्रभाव–
भारतीय सभ्यता के सूत्रधार
भारतीय सभ्यता के आरंभिक सूत्रपात कर्ता भारत के आदमी निवासी थे, और उन्हीं की सभ्यता को आर्य और द्रविड़ो ने रूप दिया। तत्पश्चात कालांतर में यूनानी, शक, कुषाण, हूण, मुसलमान और यूरोपियों ने भारतीय सभ्यता को प्रभावित किया, किंतु अनेकों आक्रमणों के बावजूद भी भारत वासियों ने अपनी संस्कृति को अब तक स्वयं में जीवित रखा है। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }
◆ आदिम निवासी भारतीय सभ्यता के सूत्रधार हैं। वह किरात, कोल, संथाल, मुंड जाति के थे। किरात जाति के लोग असम, सिक्किम और उत्तर पूर्वी हिमालय क्षेत्रों के निवासी करते हैं। और संथाल तथा कोल जाति के लोग छत्तीसगढ़, छोटानागपुर तथा खासी-जयंतिया की पहाड़ी इलाकों में निवासी हैं। यह लोग प्रारंभ में जंगली थे। विद्वानों का मत है कि पाषाण काल की सभ्यता के प्रवर्तक भी आदिम निवासी ही थे।
◆ दक्कन में द्रविड़ अधिक सभ्य थे। वे आदिम निवासियों से अधिक सभ्य थे। वह काले रंग के मझोले कद और चौड़ी नाक के होते हैं। यह लोग तमिल, तेलुगू ,मलयालम, कन्नड़ भाषा का प्रयोग करते हैं। मिट्टी के बर्तनों पर सुंदर चित्रकारी, समूह में रहना, पशुपालन, कृषि और नदियों के व्यापार तथा वाणिज्य करने वाले लोग जहाज और नाव का भी निर्माण करते थे। यह द्रविड़ सभ्यता है। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }
◆ आर्यों को भारतीय सभ्यता का प्रमुख प्रवर्तक कहा गया। प्रारंभ में पंजाब से होकर आर्य संपूर्ण उत्तर भारत में फैले। वह गोरे, लंबे-चौड़े और लंबी नाक वाले लोग हैं। वह वीर साहसी और रण प्रिय रहे। कालांतर में आर्य दक्षिण में भी गए, और दक्षिण के सभ्यता पर उनका प्रभाव प्रकाश में है। साथ ही द्रविड़ सभ्यता भी परिपक्व सभ्यता रही। आर्य सभ्यता भी उनसे अप्रभावित न रह सकी। और इन्हीं का योग से भारतीय सभ्यता का जन्म हुआ। हालांकि हिंदुओं के पथ प्रदर्शक आर्य ही हैं। उनकी भाषा संस्कृत में ही हमारे साहित्य ग्रंथ हैं। हिंदी, बंगाली, मराठी व संस्कृत की ही धाराएं हैं। { भारतीय सभ्यता के सूत्रधार }
◆ पारसी लोग मूलतः भारतीय निवासी ही थे। अवस्ता इनका प्रधान धर्म ग्रंथ है। यह अग्नि पूजक होते हैं। यह भारत में आज भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। बड़े राष्ट्र विचारी होते हैं। भारतीय सभ्यता के विकास में इनका योगदान भी रहा है।
◆ तत्पश्चात उत्तर-पश्चिमी पहाड़ी भारतीय प्रदेशों में यूनानीयों का भी प्रवेश हुआ, जो सभ्यता के दौड़ में कुछ आगे थे। अतः इनका प्रभाव भी भारतीय सभ्यता पर रहा।
◆ शक और कुषाण लोगों ने तत्पश्चात क्रम से भारत में प्रवेश किया, शक लोग बर्बर जाति के थे, और कुषाण यू-ची जाति के लोग थे। यह जातियां भारत के पश्चिम-उत्तर प्रदेशों में प्रविष्ट हुए। कुषाण शासकों का प्रारंभ में मूल स्थान चीन के उत्तर-पश्चिम में था। उन्होंने अपने नाम की मुद्राएं भी चलाएं। कुछ समय तक शासन भी किया, किंतु कालांतर में भारतीय सभ्यता में रंग गए, हालांकि उसे प्रभावित करते रहे।
◆ पांचवी-छठी सदी में हूणों ने भी भारतीय पश्चिम-उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया। यह लोग तब असभ्य थे। इनका प्रभाव भी भारतीय सभ्यता पर रहा। कुछ विद्वानों का मत यह है, कि गुज्जर, जाट तथा कुछ राजपूत इन्हीं के वंशज है।
◆ तत्पश्चात आठवीं शताब्दी से ही मुसलमानों ने भारतीय क्षेत्र में आना आरंभ कर दिया था। वह लोग अपनी उत्कृष्ट सभ्यता संस्कृति को लेकर यहां आए। ये अरबी, तुर्क, मुगल थे। उन्होंने लगभग हजार साल भारत पर शासन किया। और इनके सभ्यता का परिणाम रहा कि भारत में दो धाराएं संस्कृति हिंदू और मुस्लिम बन गए। जो कभी एक ना हो सके। और जिसका निवारण भारत का विभाजन द्विराष्ट्र सिद्धांत से किया गया, और पाकिस्तान का जन्म हुआ।
◆ पंद्रहवीं शताब्दी से यूरोप वासियों का व्यापारिक मनसा के लिए भारतीय प्रदेशों में प्रवेश होने लगा। कालांतर में पुर्तगाल, डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज भारतीय सभ्यता को प्रभावित करने वाले और पाश्चात्य संस्कृति की छाप भारत में छोड़ गऐ। अंग्रेजों ने शासन किया और पाश्चात्य के साहित्य, समानता, बंधुत्व, अस्पृश्यता का निवारण, राजनैतिक, लोकतांत्रिक, धार्मिक तर्कवाद जैसी अनेकों नवचेतना का जन्म भारत में होता है।
किंतु यह भी सत्य है, कि पुरा भारतीय मूल संस्कृति के विकास में कई अवरोध रहे। अनेको आत्यायियों ने इसे समाप्त करने का प्रयत्न किया। किंतु इन हवाओं के झोंकों को झेलती हुई भारतीय संस्कृति आज भी हममें जीवित रही है।
मानव का क्रमिक विकास | पूर्व पाषाण काल, उत्तर पाषाण काल, धातु काल-
मानव का क्रमिक विकास
मानव का विकास कर्मिक है। विद्वानों के मतानुसार प्रारंभ में मानव अज्ञानी और बर्बरता के अंधकार में डूबा हुआ था। वह सभ्यता की ओर धीरे-धीरे आया है। किंतु यह भी सत्य है, कि सभ्यता का फल चख लेने पर वह नियत ढंग से इसके विकास में स्वयं को संलग्न रखता आया है।
ईश्वर ने मानव को बुद्धि बल, सोच विचारने की शक्ति दी है। और मानव ने अपने जीवन को उन्नत बनाने के क्रम में इसका भरपूर प्रयोग किया।
भारतीय सभ्यता के लगभग 3500 ई०पू० से पहले के काल को पूर्व ऐतिहासिक काल की सभ्यता और 3500 ई०पू० के बाद के काल को ऐतिहासिक काल की सभ्यता के नाम से पुकारा गया है। ऐतिहासिक काल की सभ्यता का पता लगाना कुछ बहुत अधिक कठिन नहीं है। क्योंकि हमें उस काल के ग्रंथ, मुद्रा, लेख, अभिलेख, बर्तन, औजार, स्मारक आदि प्राप्त होते हैं।
ऐतिहासिक काल को दो भागों में विभक्त किया गया है। पाषाण काल को लेकर विद्वानों का मत है कि पूर्व मानव पत्थर के औजार बनाता था। किंतु यदि बहुत अधिक जंगली और असभ्य था, तब उस काल को पाषाण काल के एक खंड में पूर्व पाषाण काल कहा गया, और जब मनुष्य औजार निर्माण में पत्थर का प्रयोग तो करता था, किंतु कुछ सभ्य हो चला था, उसे उत्तर पाषाण काल कहा गया।
भारतीय सभ्यता के विकास में धातु का वह काल है। भले ही वह जब से प्रारंभ हुआ हो, किंतु मानव सभ्यता के विकास में इसका प्रयोग लगातार हो रहा है। मानव का उत्थान उसकी सभ्यता के उत्थान से आंकलित होने लगा, और वास्तव में मानव उत्थान से तात्पर्य मानव सभ्यता के उत्थान से ही है।
उत्तर भारत में धातु काल का क्रम ताम्रकाल तथा तत्पश्चात लौहकाल होने का ज्ञान है। किंतु दक्षिण भारत में ताम्रकाल का स्थान नहीं है। विश्व के इतिहास में ताम्रकाल के बाद कांस्यकाल का ज्ञान होता है, किंतु भारतीय इतिहास में इसका स्थान नहीं है।
पाषाण काल में पत्थरों के हथियार का प्रयोग था। हड्डियों का प्रयोग करते थे। किंतु सभ्यता के कुछ विकास के बाद भारतीय सभ्यता के विकास के मानव ने सर्वप्रथम तांबा धातु का प्रयोग किया था। क्योंकि धातु को गलाया जा सकता है, उसे रुप दिया जा सकता है, और उसके हथियार कुछ हल्के होते थे, पत्थर के हथियारों से तो सहज जरूर होते थे। और मानव उन्हें प्रयोग में लाने लगा। अतः भारतीय सभ्यता का क्रमिक विकास पूर्व पाषाण काल, उत्तर पाषाण काल, ताम्रकाल और लौहकाल से होकर आता है।
विद्वानों के अनुसार पूर्व पाषाण काल का व्यक्ति नंगा रहता था। वह असभ्य था। किंतु बाद में पत्तों, वृक्षों के छाल का, पशुओं की खाल को वस्त्रों के रूप में प्रयोग करने लगा। वह गुफाओं में और वृक्षों पर रहता था। जलाशय के पास ही रहता जो जल की सुविधा रहे। वह खानाबदोश था। वह प्रकृतिक जीवी थे, अपने परिश्रम से किसी चीज को पैदा नहीं करते थे।
वही उत्तर पाषाण काल का मानव सभ्य हो गया था। वह पत्थर के औजार जरूर प्रयोग करता था। किंतु उन्हें रूप दे रहा था। वह पत्थर के सुंदर मकान बनाने लगा था। वह सहयोग और मेलजोल को समझने लगे। और आपस में मिलकर रहने लगे थे। गांव बसने लगे। अब वह कृषि की ओर बढ़ने लगा, और ग्राम समुदाय का स्थाई निवासी हो गया। कृषि के लिए लकड़ी के चीजों की आवश्यकता रही होगी, तो कुछ लोग बढई का काम करने लगे और कुछ बर्तन तब गांव में कुम्हारों का भी एक समुदाय रहने लगा।
इस युग में मानव पशुओं को मांस के लिए ही नहीं बल्कि जान गया था कि कुछ पशु अन्य प्रकार से भी उपयोगी हैं। अतः वह भैंस, गाय, भेड़, घोड़ा, बैल को पालने लगा।
जब कभी वर्षा से फसल खराब हो जाती थी। उनकी झोपड़ियां आंधियों में उड़ जाती थी। तब उनका विश्वास दैवी शक्ति पर होने लगा और वह चेतना जन्म लेने लगी। और वे प्रकृति में जल, वायु, अग्नि को देवता मानने लगे उनकी पूजा होने लगी।
ताम्रकाल में विद्वानों के मतानुसार तांबे का औजारों और अन्य आवश्यकता की चीजों के लिए प्रयोग होने लगा। पशुओं का उपयोग बोझा ढोने के लिए होने लगा। पशु-गाड़ियों का प्रयोग हुआ। पकी ईंटों का प्रयोग होने लगा। प्राकृतिक शक्तियों पर दृढ़ विश्वास होने लगा और वे उसे प्रसन्न करने के लिए पूजा करने लगे।।
धातु काल का अगला युग लौह काल है। इसमें लोहे का प्रयोग होने लगा।
आधुनिक विद्वानों ने कुछ उपलब्ध हुए साक्ष्यों में ही पुरा-इतिहास का अनुमान किया है। और इसे गढने में सफल रहे हैं।
कालांतर में सभ्यता में संशोधन तथा परिवर्तन होता रहा है। और यह आज तक चलायमान है।
भारतीय भौगोलिक परिस्थितियां / भूगोल का भारत वासियों पर प्रभाव-
भूगोल का भारतवासियों पर प्रभाव
भारत के भूगोल का भारतवासियों पर प्रभाव गौरतलब है। स्थल असमानता भारतवासियों को भिन्न करती है। उनके संस्कृति, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक रूचि और जीवन का कारण है।
■ हिमालय की पर्वत माला ने जिस प्रकार हिंदुस्तान को पोषित किया है। उसका संरक्षण किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। उत्तर की शीत हवाओं से संरक्षण, मानसूनी हवाओं का अवरोध और उत्तर की भूमि की समृद्धि, आक्रमणकारियों के लिए अभेद्य अवरोध बना रहा है द ग्रेट हिमालय। हिंदुस्तानियों के लिए वास्तव में ग्रेट है। हिंदुस्तान का कभी सोने की चिड़िया होना हिमालय के संरक्षण की देन है।
ऋषियों ने प्राचीन काल से अब तक हिमालय की भागों में चिंतन के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किए। इस की गोद की पवित्रता में प्रकृति के साधक रहें। यह भारतवासियों की धार्मिक जीवन पर भी प्रभावी रहा। हिमालय की इन सब महत्ता से ही हिमालय भारत का मुकुट है।
■ उत्तर का विशाल मैदान अथवा गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन की उर्वरता भारत के राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक जीवन को प्रभावित करती रही है। अतीत के पृष्ठो में बड़े-बड़े साम्राज्य का उदय और पतन इसी मैदान में हुए। महाभारत का महान युद्ध इसी भूमी पर लड़ा गया। मौर्य, गुप्त वंश के यशस्वी शासन इसी भूमि की उपज रहे। दिल्ली सल्तनत का उदय, मुगल साम्राज्य इसी मैदान पर घटित हुआ है। बंगाल भूमि से अंग्रेजों ने अपनी विजय यात्रा यहीं से प्रारंभ की, और स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल भी इसी भाग में पहली बार सन 1857 में उदघोष हुआ।
इस भाग में धार्मिक उदय, कला, व्यापार, चिंतन की ओर मानव को प्रेरित किया। यह भूमि उर्वरक और समृद्ध है। अतः अवकाश का समय अधिक होने से उत्तर भारत के लोग जीवन यापन के लिए श्रम के अतिरिक्त स्वयं को रचनात्मक कलाओं में पारंगत करते रहे। उन्हें कला में सृजन के लिए पर्याप्त समय मिला। वेद, शास्त्र ग्रंथ, स्मृति, पुराण, बौद्ध, जैन धर्म आदि विचारों ने यहीं जन्म लिया। इस प्रदेश के समृद्धि पर आक्रमणकारियों की सदैव से दृष्टि रही। राजस्थान के मरुस्थलीय भाग में राजपूतों ने जैसे हिंदू संस्कृति को जीवित रखा वह अविस्मरणीय है। राजपूत वीरांगनाओं ने कैसे जोहर अपनाया यह अदम्य साहस की मिसाल सदैव जुबान में रहेगी। स्वतंत्र भाव से जीने के लिए राजपूतों का संघर्ष उन्हें अरावली की श्रेणियों में शरण लेने के लिए विवश कर गया, किंतु यह वही भूमि है, जिससे पोषित राजपूतों ने आन की रक्षा, शूर-वीरता, शत्रु को पीठ न दिखाना जैसे गुणों को जीवित रखा।
■ दक्षिण का पठारी प्रदेश वह भूभाग है। जहां कभी राजनीतिक एकता प्राप्त ही ना हुई। वे सदैव से अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए प्रयत्नशील रहे। यह भूभाग उर्वरक न होने से कठिन परिश्रमी लोगों का देश रहा है। और यहीं मराठों का जन्म होता है। जिन्होंने छापामार रणनीति को अपनाया, अपनी वीरता से मुसलमानों से भी भीषण संघर्ष किया। वह भारत में हिंदवी स्वराज्य स्थापित करना चाहते थे। शिवाजी, बालाजी, बाजीराव, नाना फड़नीस आदि सदैव याद रहेंगे।
■ उत्तर भारत और दक्षिण भारत में गहरी भिन्नता है। सतपुड़ा और विंध्याचल के उस पार हो जाने से उन्होंने अपनी अलग जीवन शैली का विकास किया है। उत्तर भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्ण है। जबकि दक्षिण भारत में ब्राह्मण और शूद्र दो ही वर्ण हैं। उनके खान-पान, वेशभूषा, रीति-रिवाज व्यवसाय में गहरी भिन्नता है।
उत्तर भारत में संस्कृत भाषा आर्यों के द्वारा प्रचलन में आई, और तत्पश्चात संस्कृत से ही जन्मी अनेकों भाषाएं उदित हुई। वहीं दक्षिण में तमिल, तेलुगू , कन्नड़, मलयालम भाषा बिलकुल भिन्न है।
■ किंतु दक्कन के तटीय भागों का भारत के व्यापारिक इतिहास में वृहद स्थान रहा है। दरअसल यहां मसालों के उत्पादन में यूरोपियों को व्यापार के लिए आकृष्ट किया। और यहीं से वे अपनी छोटी-छोटी व्यापारिक संस्थाओं को जन्म देकर सारे भारत में अपना अधिपत्य स्थापित करने को प्रयत्नशील हुए।
भारत की संस्कृति प्राचीन है। और इस संस्कृति और सभ्यता के उदय में भारत की प्राकृतिक भौगोलिक परिस्थितियों का भी योगदान है। इसीलिए भारत में भौगोलिक विविधता के साथ सांस्कृतिक भिन्नता प्राप्त है।
भारत के ऐतिहासिक प्रदेश, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक व्याख्या-
भारत के ऐतिहासिक प्रदेश
मानव की खींची सीमाओं के अतिरिक्त भी भारत की प्राकृतिक तौर से स्वयं सीमा तय हुई है। यह प्रतीत होता है। भारत स्वयं में एक प्रायद्वीप है। वह भाग जो तीन ओर से जल से घिरा हो।
भारतखंड अथवा भारतवर्ष विश्व के मानचित्र में सर्वाधिक अनोखी आकृति लिए है। इसकी सीमाएं पश्चिम-दक्षिण से और दक्षिण-पूर्व तक इसके प्रायद्वीप होने का कारण है। अर्थात क्रमशः अरब सागर, हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी हैं। यही इसकी प्राकृतिक सीमा है। और पश्चिम-उत्तर दिशा में हिंदू कुश और सुलेमान की पर्वतमाला इसकी सीमा को तय करती हैं। उत्तर का विशाल मैदान जिस की देन है, वह हिमालय भारत भूमि पर सदैव से रक्षक रहा है। और सदैव रहेगा।
● सिंध और पश्चिम पंजाब का हिस्सा जो अब पाकिस्तान में है। शेष पंजाब का पूर्वी कुछ हिस्सा भारत का भाग है। यह भूमि हालांकि पंजाब और हरियाणा में दो भाग में वर्तमान में प्राप्त है। सिंधु तथा उसकी पांच सहायक नदियां इसी प्रदेश में बहती है। यही भूमि गुरु नानक की है, जिन्होंने सिख धर्म चलाया था। गेहूं की पैदावार अच्छी होने से यह भूमि समृद्ध है।
● उत्तर प्रदेश का यह राज्य जो वृहद ऐतिहासिक महत्व रखता है। संयुक्त प्रांत के नाम का खंडन तब हुआ जब उत्तर प्रदेश का विखंडन होता है। यह देश में कई बार बड़े-बड़े युद्धों का निपटारा करने वाली भूमि है। आगरा इसी भूमि पर है। आगरा को भारत की राजधानी का गौरव भी प्राप्त है। रामायण और महाभारत भी इसी भूमि पर लिखे गए। काशी, मथुरा इसी भूमि पर तीर्थ है। राम और कृष्ण इसी भूमि की देन हैं। यह भूमि उपजाऊ भूमि है।
● उत्तर प्रदेश से पूर्व की ओर बिहार की भूमि है। राजा जनक, महर्षि याज्ञवल्क्य, गार्गी, मां सीता, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी इसी भूमि के हैं। मगध जैसी ऐतिहासिक भूमि के उत्थान और पतन का चक्र इसी भूमि पर है। शिक्षा का महान केंद्र नालंदा का विश्वविद्यालय जिसमें प्राचीन काल में भी दस हजार विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे, बिहार की धरा पर ही है। बौद्ध और जैन धर्म का प्रादुर्भाव इसी भूमि पर है।
● बिहार के पूर्व में बंगाल प्रदेश है। यह अच्छी बौद्धिक सामर्थ्य युक्त लोगों का प्रदेश है। जगदीश चंद्र बसु, शरदचंद्र, अरविंदो, रविंद्र नाथ टैगोर जैसे आधुनिक विभूतियां इसी प्रदेश की देन हैं। यहां वर्षा अधिक होती है। यहां के लोगों का मुख्य भोजन मछली और चावल है।
● पंजाब के दक्षिण में राजस्थान की भूमि राजपूतों की है। अथवा यह मरुस्थल राजपूतों का है। राजपूतों के राज्यों में मेवाड़ जिसकी राजधानी चित्तौड़ थी। बहुत ऊंचा स्थान रखता है। राणा कुंभा, राणा सांगा, और महाराणा प्रताप इसी भूमि की उपज हैं। राजस्थान के दक्षिण में गुजरात और मालवा का प्रदेश है। जो उपजाऊ प्रदेश है।
● भारत में ठीक मध्य में मध्य प्रदेश भी एक उपजाऊ भूमि है। जहां पर चावल और गेहूं की अच्छी पैदावार है। इस प्रदेश में मुख्य व्यवसायिक नगर नागपुर है।
दक्षिण के प्रदेश अर्थात दक्षिणापथ यह पठारी प्रदेश है यह उपजाऊ योग्य भूमि नहीं है। यहां के लोग अधिक मेहनती होते हैं, अपनी आजीविका के लिए।
● मुख्य प्रदेशों में यहां महाराष्ट्र है। जहां के लोग मराठे हैं। यह मेहनती होते हैं। शिवाजी का प्रदेश यही है। वीर शिवाजी जो हिंदू धर्म के रक्षक हुए हैं, और एक महान क्रांतिकारी योद्धा भी। मुंबई से प्रदेश की चकाचोंद है। जो संपूर्ण देश के मध्य व्यापारिक केंद्र में एक मुख्य स्थान रखता है। भारत में इसी दक्षिण भाग में तमिलनाडु प्रदेश है। जिसके विषय में नारियलों का जिक्र आता है। यह चावल और इमारती लकड़ी का भी अच्छा उत्पादन है।
● मैसूर में दक्षिण भारत का मुख्य ऐतिहासिक प्रदेश है। कर्नाटक के नाम से जाना जाता है। यहां के लोग चाय काफी का प्रयोग अधिक करते हैं। यहां प्रदेश सोने की खानों को लेकर प्रसिद्ध हैं।
यह कुछ राज्यों का संक्षिप्त परिचय हैं। अथवा भारत का संक्षिप्त परिचय है। भारत कई अनेकताओं को लिए है। भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किन्तु इन सब में यही नारा की “अनेकता में एकता” हमें बांधती हैं।
भारत के विभिन्न नाम / भारत के प्राचीन नाम / आर्यवर्त, भारतवर्ष, हिंदुस्तान, इंडिया-
भारत के विभिन्न नाम
वैदिक काल से पूर्व भारत को किस नाम से पुकारा जाता था, यह तो ज्ञान नहीं है। किंतु प्रारंभ में जहां आर्य रहते थे, उस देश को सप्तसिंधु कहा गया। सप्तसिंधु का तात्पर्य है, सप्त- सात, सिंधु- नदी अर्थात सात नदियों का देश सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, व्यास, सतलज, सरस्वती यह नदियां थी। यह वही प्रदेश है, जो अब पंजाब नाम से जाना जाता है, धीरे-धीरे आर्य पूर्व की ओर बढ़ने लगे तो देश के अन्य भागों को अन्य नाम जैसे ब्रह्मऋषि देश, मध्य देश के नाम से पुकारने लगे। देश के उत्तर के उस संपूर्ण भूभाग जिसमें आर्य घूमते रहे, उसे आर्यवर्त नाम से पुकारा गया। आर्य जो एक जाती है, और आवर्त जिसका तात्पर्य चक्कर लगाना है। अर्थात वह भूभाग जहां आर्य चक्कर लगाते रहे।
विंध्याचल और सतपुड़ा की श्रेणियों के उस पार दक्षिण हिस्से में द्रविड़ निवास करते थे। जिसे द्रविड़ देश या दक्षिणा पथ कहते थे। यह अलग ही सभ्यता और संस्कृति जो आर्यों से बिल्कुल भिन्न थी। यह लोग तेलुगू,तमिल, मलयालम जैसी भाषाओं का प्रयोग करते थे। किंतु इन सब में उस समय तक संपूर्ण भारत को एक नाम नहीं दिया गया था, जिससे उसे पुकारा जा सके।
◆ भारतवर्ष-
यह नाम प्राचीनतम वह नाम है, जो संपूर्ण देश पर लागू होता है। शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत जिसका यश संपूर्ण भारत में फैल गया। उसके नाम पर ही भारत या भारतवर्ष कहा जाने लगा। भारत भरत के नाम से है। और वर्ष का अर्थ है, खंड अथवा टुकड़ा प्राचीन काल में विद्वानों को धरा को नौ खंडों में बांटा है। जिसमें एक जंबूद्वीप है। इसी जंबूद्वीप में भारत है। अतः भारत जंबूद्वीप का खंड है। यही भारतवर्ष है।
◆ हिंदुस्तान-
यह नाम पारसियों की देन है। फारसी में सिंधू को हिंदू कहा जाता है। अतः वे लोग जो सिंधु प्रदेश के निवासी हैं, उन्हें हिंदू कहा गया। हिंदू का स्थान हिंदुस्थान के नाम से जाना गया। और उसे हिंदुस्तान भी कहा गया। मध्यकाल में मुस्लिम शासक इसे हिंदुस्तान कहते रहे हैं।
◆ इंडिया-
यह नाम यूनानीयों की देन है। सिंधु नदी को क्योंकि यूनानी इंडस कहते थे। यह यूनानी भाषा में है। इंडस से यह “इंडीज” हो गया था। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग भारत खंड के लिए किया था। कालांतर में यह बदलकर अथवा बिगड़कर इंडिया हो गया है। अंग्रेजों ने भारत को यही नाम से पहचाना और पुकारा।
संविधान के साथ ही यह भूखंड “भारत संघ” हो गया है। हालांकि अन्य नामों का प्रयोग होता है। क्योंकि यह सब ऐतिहासिक अर्थ बयां करते हैं। भारत के इतिहास को बयां करते हैं।
इतिहास क्या है / इतिहास किसे कहते हैं / इतिहास की परिभाषा एवं व्याख्या-
इतिहास क्या है
वर्तमान और भविष्य की जड़ें इतिहास में है। आज भी हम जो फल प्राप्त कर पा रहे हैं, जो परिणाम सम्मुख हैं, वह अतीत के ही हैं। या यूं कहें कि हमारे पूर्वजों का किया हम ही तो भोगते हैं।
● इतिहास “जो निश्चित रूप से ऐसा ही था” शाब्दिक अर्थ लिए है। उससे ज्ञान है की, मनुष्य का हमेशा से उद्देश्य जीवन को सुखी बनाना रहा है। इतिहास हमें बताता है, कि सहयोग से मानव उन्नति होती है।
● वर्तमान में जो प्राप्त है, वह इतिहास का फल है। और भविष्य पर कोई स्पष्ट विदित तथ्यात्मक पुस्तक लिखी नहीं जा सकती। किंतु यह भी है, कि इतिहास की जानकारी से भविष्य का अनुमान जरूर लगा पाने में हम स्वयं को कुछ हद तक सही पाते हैं। इतिहास तो एक विज्ञान है जो मानव के हर कदम को प्रयोग मानकर उस पर लिखा गया है।
● साथ ही इतिहास केवल दिवंगत राजाओं की कृत्यों की सूचना मात्र नहीं है। वरन यह एक विज्ञान है, जो बुद्धि का विकास में आवश्यक है। उपयोगी है। साथ ही हम सदैव से लकीर के फकीर नहीं हैं। हमने अतीत से आज तक स्वयं को परिवर्तित पाया है। हमने जीवन मूल्य में अंतर पाया है। जिन धार्मिक युद्धों का मध्य काल में आमंत्रण था, वह आज भत्सना के पात्र हैं। अतीत मैं जिस स्वतंत्रता के लिए हमने हिंसा का सहारा लिया उसी से सीख ले कर मानव बुद्धि में अहिंसा से स्वतंत्रता प्राप्ति की राह को इजाद किया। क्योंकि मानव जान रहा है, कि मानव ही धरा पर इन सब को चलाएमान रखे हैं। उसके ना होने पर यह सब शून्य है। और उसके समृद्धि ही इन्हें जीवित रखेगी। क्योंकि भूखा मानव अन्न और धर्म में पहले अन्न प्राप्ति के प्रयास में होगा। इतिहास गवाह है।
◆ अतः इतिहास वर्तमान के मानव का शिक्षक है। मानव की उन्नति का डाटा है।
8 नवंबर 1938 को इंदौर में जन्मे अरविंद त्रिवेदी की 90 के दशक के लोकप्रिय रामानंद सागर जी की रामायण के मशहूर कलाकारों में एक रहे। अरविंद त्रिवेदी जी ने रावण का किरदार निभाया। उनके पिताजी मूल रूप से गुजरात के थे। 300 से अधिक हिंदी गुजराती फिल्मों में अभिनय करने वाले अरविंद त्रिवेदी जी का निधन 83 वर्ष की उम्र में हो गया है। दुनिया भर में रामायण में रावण के किरदार के कारण उनको बेहद लोकप्रिय मिली। 90 के दशक में रामायण धारावाहिक की इतनी लोकप्रियता रही, कि 52 एपिसोड को एक्सटेंड कर 78 एपिसोड की शूटिंग की गई। रामायण धारावाहिक लगभग डेढ़ साल कि लंबे समय में तैयार हो सका। लगभग 55 देशों में रामायण धारावाहिक का टेलीकास्ट दुनिया भर में किया गया। जिससे 650 मिलियन से ज्यादा लोगों ने इसे देखा। इसी धारावाहिक का हिस्सा रावण के किरदार मैं अरविंद जी को लोगों ने बहुत सराहा। 1987 में जब रामायण दूरदर्शन पर प्रकाशित होने लगा, तो टीवी देखने वाले हर व्यक्ति में रामायण को देखने की अलग उत्सुकता थी। जो आस्था और विश्वास का जीवंत अभिनय था, यहां तक कि लोग धार्मिक आस्था के चलते टीवी की आरती उतारा करते थे। अरविंद जी ने एक इंटरव्यू में बताया, कि पहले तो जब वे शूटिंग के लिए जाते थे, तो ट्रेन में खड़े होकर यात्रा करनी पड़ती थी। किंतु बाद में लोग उन्हें पहचानने लगे, उनका अभिवादन होने लगा। रामायण में रावण के किरदार को विश्व भर से ढेर सारी लोकप्रियता मिली। 2020 के लॉकडाउन के दौरान धारावाहिक रामायण ने टीआरपी के मामले में 5 साल के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। रामायण के तकरीबन सभी एपिसोड गुजरात के पास उमरगांव में फिल्माए गए थे। अरविंद जी ने ना केवल रामायण में बल्कि विक्रम और बेताल नाम के धारावाहिक में पहले ही दर्शकों का बेहद प्रेम हासिल किया था।
अरविंद त्रिवेदी जी की गहरी धार्मिक आस्था-
ramanand sagar ramayana-arvind trivedi ji
अरविंद त्रिवेदी जी एक इंटरव्यू में कहते हैं, कि रावण का रोल उन्हें भगवान श्री राम की कृपा से प्राप्त हुआ है। असल जीवन में अरविंद जी बेहद सरल स्वभाव के रहे। उनका कहना है, कि वे असल जिंदगी में भी शिवभक्त रहे, और रावण भी शिव का भक्त था। रामायण की शूटिंग के दौरान अरविंद जी अपनी दैनिक दिनचर्या में पूजा पाठ के दौरान हाथ जोड़कर माफी मांगते थे, कि मैं रावण का किरदार करूंगा, हे ईश्वर मेरे मुंह से कुछ अपशब्द निकलेगा, मुझे उसके लिए माफ करना, मैं मात्र उस किरदार को निभा रहा हूं, असल तो मैं आपका भक्त हूं। अरविंद त्रिवेदी जी भगवान भोलेनाथ के बड़े भक्त रहे, उन्हें मंचों पर शिव तांडव का वाचन करते हुए देखा जा सकता है।
रामायण में किरदार कैसे मिला-
1987 में जब रामानंद सागर जी ने धारावाहिक रामायण बनाने का निर्णय किया, और यह बात अरविंद त्रिवेदी जी को मालूम हुई, साथ ही वह यह भी जाने कि रामायण में कई दिग्गज कलाकार काम करने वाले हैं। अरविंद जी रामायण में रोल पाने के लिए मुंबई की ओर बढ़ चले। बड़ी संख्या में लोग रामायण में किरदार पाने के लिए ऑडिशन दे रहे थे। अरविंद जी के मन में स्वयं के रावण जैसे शक्तिशाली किरदार या किसी अन्य पसंद के किरदार को निभाने को लेकर पहले से कोई मन इच्छा नहीं थी। या यूं कहें कि वह तो रामायण धारावाहिक में किसी भी किरदार को पाने के लिए ऑडिशन देने पहुंचे थे। वह केवट के लिए ऑडिशन दिए थे। जब उनका ऑडिशन हुआ उस समय तक श्री राम के किरदार के लिए अरुण गोविल जी का निर्णय हो चुका था, और रावण के किरदार को लेकर अरुण जी ने जिस नाम को आगे किया था, वह बॉलीवुड के मशहूर विलेन अमरीश पुरी जी थे। किंतु अमरीश पुरी जी ने इस रोल को मनाही कर दी। इसका कारण यह हो सकता है, क्योंकि उस समय अमरीश पुरी जी फिल्मी दुनिया में एक सफल विलन के रूप में पहचाने जाने लगे थे। वे धारावाहिक टीवी शो में नहीं बंधना चाहते थे। इसके बाद रावण को लेकर एक ऐसा कलाकार जो बुद्धिमान भी दिखता हो और शक्तिशाली भी की खोज जारी रही। जब अरविंद त्रिवेदी जी ने रामानंद सागर जी के सामने अपना ऑडिशन स्क्रिप्ट पढ़ी तो उन्हें लगा कि रामानंद जी को उनका ऑडिशन पसंद नहीं आया। किंतु रामानंद जी ने उन्हें रोककर कहा, कि तुम हमारी रामायण में रावण का रोल करोगे, और इस तरह अरविंद त्रिवेदी जी को उनके जीवन का एक सबसे मशहूर किरदार प्राप्त हुआ।
फिल्मी कैरियर-
300 से ज्यादा हिंदी गुजराती फिल्में अपने कैरियर में अरविंद त्रिवेदी जी ने दी। हिंदी फिल्मों में जैकी श्रॉफ, अनिल कपूर जैसे अनेक लोकप्रिय कलाकारों के साथ त्रिवेदी जी काम कर चुके हैं। शाहरुख खान की फिल्म त्रिमूर्ति में मुख्य विलेन के किरदार में अरविंद त्रिवेदी जी को देखा जा सकता है।
राजनीतिक जीवन-
अरविंद त्रिवेदी जी फिल्मी दुनिया में महान योगदान के साथ राजनीति के भी हिस्सा रहे। 1991 से 96 तक बीजेपी पार्टी से सांसद चुने गए। गुजरात में साबरकांडा क्षेत्र से इन्हें संसद के लिए चुना गया। अटल जी की सरकार के दौरान 2002 में अरविंद जी को सीबीएफसी अर्थात सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का चेयरमैन बनाया गया था।
कुछ मशहूर किस्से-
रावण के किरदार को या यूं कहें कि अरविंद त्रिवेदी जी को रावण के अभिनय के लिए तैयार होने में लगभग 5 घंटों का समय लगता था। 10 किलो का मुकुट हुआ करता था। और शरीर पर कई अन्य आभूषण हार हुआ करते। जब एक बार रावण हनुमान अंगद को फेंककर अपने से दूर फेंक देते हैं, तब जामवंत उन पर वार करते हैं। रामानंद सागर जी की रामायण में जामवंत के किरदार राजशेखर उपाध्याय जी बताते हैं, कि जब मैंने रावण का किरदार निभा रहे अरविंद त्रिवेदी जी पर वार किया, तो उनकी कमर पर इतनी जोर से लग गई, कि वह सचमुच मूर्छित हो गए। ऐसे ही जब एक बार अरविंद त्रिवेदी जी कुछ आम घर के लिए रख गए, और शूटिंग में व्यस्त हो गए तो वानरों की सेना का किरदार निभा रहे कलाकारों ने आम की सारी पेटी खाली कर दी। इस बात पर अरविंद जी ने हंसकर कहा कोई बात नहीं।
उत्तराखंड राजनीति चुनावी पहल | भाजपा के चुनावी कदम-
उत्तराखंड राजनीति चुनावी पहल आजकल
भाजपा के चुनावी कदम विपक्ष के बोल-
उत्तराखंड में 2022 के चुनाव को लेकर हर दिन पक्ष विपक्ष, राजनीतिक दल अपने आप को आम जनमानस में सबसे मजबूत समर्थ और योग्य जताने की कोशिश में कार्यक्रमों का आयोजन कर रहें हैं। आज उत्तराखंड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की पुण्यतिथि पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जी का आगमन उत्तराखंड में भाजपा की जीत के लिए प्रयोग किए जाने वाले बड़े पेंचों में एक है। 2017 की भांति भाजपा ने अपनी केंद्र सरकार की उपलब्धियों से मुनाफा उत्तराखंड 2022 चुनाव में हासिल करना है, यह तो तय है। किन्तु दूसरी ओर विपक्ष राज्य में भाजपा के हर कदम पर उसे घेरने के पुख्ता इंतजाम किए हुए है। पीठसैंण में केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जी के दौरे से पूर्व ही कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल जी ने उनकी पुरानी घोषणा सैनिक स्कूल को लेकर कहा की उन्हें पीटसैंण की जनता से इस वादे को ना निभा पाने पर माफी मांगनी चाहिए, साथ ही उन्हें ऐसी घोषणा करनी चाहिए जिन्हें तीन माह में उत्तराखंड भाजपा सरकार पूरा कर सके। भाजपा के केंद्रीय नेताओं का उत्तराखंड दौरा आम जनमानस पर अधिक प्रभावी न हो सके इसके लिए कांग्रेस भरसक प्रयत्न में है। यह प्रयत्न स्पष्ट तौर से कार्यक्रमों में उत्तराखंड में वर्तमान भाजपा सरकार को उसकी पूरी न की जा सके वादों को याद दिलाने में दिख रहा है। मुख्यमंत्रियों का एक के बाद एक बदलते जाना, बदले गए मुख्यमंत्रियों के कार्यों और घोषणाओं पर सीधे तौर से सवाल खड़ा करता है। किंतु नए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी की घोषणाएं और कार्य जनता में कितना विश्वास जगा पाते हैं, यह देखने का विषय है। 2017 में आई भाजपा सरकार ने अपने घोषणा पत्र में 100 दिन के भीतर भीतर उत्तराखंड को मजबूत लोकायुक्त मिलेगा की घोषणा की थी, जहां भाजपा सरकार लगभग 80% वादों को पूरा हुआ दर्शाती है, और जो शेष वादे जो रह गए हैं, उन्हें शेष समय में पूरा करने का विश्वास दिलाती है, वही लोकायुक्त को लेकर विपक्ष जनता में भाजपा की खामी दर्शाएगी। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मदन कौशिक जी का कहना है, कि उनकी सरकार साढे चार साल उत्तराखंड में भ्रष्टाचार मुक्त रही है, वे उत्तराखंड में भ्रष्टाचार मुक्त सरकार की संकल्पना पर वास्तविक शासन किए हैं। उनका कहना है, कि वे ऐसी सरकार चलाना चाहते हैं, कि उन्हें लोकायुक्त की आवश्यकता ही ना हो। आपको बता दें कि विधानसभा में यह बिल आया, पक्ष और विपक्ष दोनों धड़े एकमुस्त बिल के समर्थन में रहे, किंतु सत्तापक्ष की ओर से यह बिल प्रवर समिति के हाथों में सौंपा गया, और तब से यह अब तक समिति का ही होकर रह गया।
सरकार बनेगी तो यह होंगे कांग्रेस के पहले कदम-
वहीं कांग्रेस भी अपने भविष्य में उत्तराखंड में बनी सरकार को लेकर अपनी योजनाओं की घोषणा कर रही है। कांग्रेस गढ़वाल मीडिया प्रभारी गरिमा दसौनी का कहना है कि उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार बनने के पश्चात वह गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाएंगे, और देवस्थानम बोर्ड को रद्द करने का कदम उठाएंगे, पुरानी पेंशन बहाली को लेकर केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने का काम करेंगे।
उत्तरकाशी में विधानसभा सीटें-
उत्तरकाशी में 3 विधानसभा सीटें हैं। पुरोला, यमुनोत्री और गंगोत्री इन 3 विधानसभा सीटों में वर्तमान में केवल एक सीट पर विधायक की मौजूदगी है। गंगोत्री के विधायक पांच माह पूर्व अकस्मात असमय मृत्यु हो गई, जिससे गंगोत्री की सीट रिक्त है। पुरोला की सीट के प्रतिनिधि विधायक राजकुमार जी का पहले कांग्रेस छोड़ बीजेपी का हाथ थामना और अब पुरोला सीट विधायक पद से इस्तीफा दे देना पुरोला सीट पर विधायक का पद रिक्त कर देता है। विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल जी ने इस्तीफा स्वीकार किया। दरअसल इस्तीफा देने की वजह यह रही कि राजकुमार जी जिन्होंने 2017 में कांग्रेस स्वीकारी थी, अब बीजेपी में शामिल हो जाने पर कांग्रेस ने दल-बदल कानून के तहत कार्यवाही और अगले चुनाव को लेकर विधायक राजकुमार जी को अयोग्य घोषित करने की मांग की। इससे पूर्व की कोई कार्यवाही होती विधायक राजकुमार जी ने अपने पद से इस्तीफा सौंप दिया। विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल जी का कहना है, की स्वेच्छा से विधायक का दिया इस्तीफा और विधानसभा अध्यक्ष द्वारा स्वीकारे जाने के पश्चात दल-बदल कानून लागू नहीं होता। इस प्रकार से उत्तरकाशी की विधानसभा सीटें रिक्त हुई है।
नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏