सोमवार, 29 नवंबर 2021

अर्थशास्त्र और इंडिका से मौर्य वंश का शासन प्रबंध

चंद्रगुप्त शासन-प्रबंध | मौर्यकालीन स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय शासन प्रबंध

पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कृष्णा नदी तक हिंदुस्तान का विशाल भाग किसी एक शक्तिशाली राजा द्वारा केंद्र से शासित हो रहा था। इतने बड़े साम्राज्य में शासन की निश्चित कड़ियां थी, जो शासन को सुचारू रखती थी।

   चंद्रगुप्त मौर्य के काल में शासन प्रबंध को समझने के लिए जो साधन उपलब्ध हैं, वह उस दौर की विद्धान राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ चाणक्य द्वारा लिखा “अर्थशास्त्र” और चंद्रगुप्त के शासन में एक यूनानी राजदूत जोकि सेल्यूकस का राजदूत था, मेगस्थनीज। उसने चंद्रगुप्त के साम्राज्य में जो कुछ देखा सुना वह सब कुछ अपनी पुस्तक “इंडिका” में लिखा। मेगास्थनीज के विवरण में चंद्रगुप्त के स्थानीय स्वशासन का काफी विवरण मिलता है।

   अध्यन के अंतर्गत चंद्रगुप्त के शासन को समझने के लिए उसे तीन भागों में वितरित किया जा सकता है। केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन और स्थानीय शासन।

   जो भी हो किंतु व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका का सर्वोच्च प्रधान राजा होता था, वह केंद्रीय सकती थी, और वह स्वेच्छाचारी भी हो सकता था, और निरंकुश शासन करता था। वह सर्वेसर्वा था। 

इस सब में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ज्ञान प्राप्त होता है, कि राजा प्रजा के प्रति ऋणी होता है, और वह प्रजा को सुख शांति दे कर उस ऋण से मुक्त हो सकता है।

   केंद्रीय शासन का तात्पर्य है, जो राजधानी से संचालित होता था। सम्राट केंद्रीय शासन का प्रधान था, वही कानून बनाता था, और उनका पालन भी वही करवाता था। कानून का उल्लंघन करने वाले लोगों को दंड भी वही देता था।

   सम्राट द्वारा नियुक्त एक मंत्री परिषद अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर सम्राट को परामर्श देती थी। वह सम्राट के विश्वासपात्र होते थे, हालांकि वह केवल वेतनभोगी मंत्री थे, और सम्राट उनकी राय को मानने के लिए बाध्य ना था। दैनिक कार्यों में मंत्री परिषद का कोई भूमिका न थी।

   दैनिक कार्यों में परामर्श देने के लिए सम्राट के साथ मंत्रिन् हुआ करते थे। इन्हीं के सहायता से सम्राट शासन संचालित करता था। किंतु सम्राट इनके भी परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं था।

   चंद्रगुप्त के काल में शासन को संचालित करने के लिए अनेक विभागों में शासन को बांटा गया था। उस समय में कुल 18 विभाग थे। प्रत्येक विभाग को एक-दो विषय सौंप दिए गए थे। विभाग का अध्यक्ष अमात्य होता था। अमात्य के नीचे आनेक सारे कर्मचारी पदाधिकारी होते थे। वह दैनिक शासन को चलाते थे, और राजा के प्रति उत्तरदायी होते थे।

   अपने साम्राज्य में शांति स्थापित करने के लिए चंद्रगुप्त ने पुलिस या आरक्षी विभाग का संगठन किया था। इस विभाग के कर्मचारी “रक्षिन्” कहलाते थे। जनता की रक्षा ही इनका कर्तव्य था।

इसके अतिरिक्त इतने बड़े साम्राज्य में जगह जगह पर हो सकने वाले अपराधों और षड्यंत्र को रोकने के लिए राजा ने गुप्तचर विभाग भी काम में रखा था। वे “संस्थान” गुप्तचर जो कि निश्चित स्थान पर रहकर, और “संचारण” गुप्तचर जो कि घूम घूम कर अपराधियों का पता लगाते थे, संभवत संचारण गुप्तचर साम्राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों में विचरण कर वहां होने वाले अपराधों और षड्यंत्रों का पता लगाते रहे होंगे। जानकारी है कि, स्त्रियां भी गुप्तचर के कार्यों करती थी। इस प्रकार से सम्राट को अपराधों कुचक्रों और षड्यंत्रों की सूचना अपने साम्राज्य के कोने कोने से प्राप्त हो जाती थी।

   अपराधिक मामलों में न्याय व्यवस्था का प्रधान भी स्वयं चंद्रगुप्त था। चंद्रगुप्त की सहायता के लिए न्यायधीश हुआ करते थे। वह नगरों तथा जनपदों के लिए अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। नगरों के न्यायाधीश “व्यवहारिक” और जनपद के न्यायधीश “राजुक” कहलाते थे। न्यायाधीशों को “धर्मस्थ” के नाम से भी जाना जाता था। प्रत्येक न्यायालय में तीन धर्मस्थ तथा तीन अमात्य न्यायाधीश का पद ग्रहण करते थे। दीवानी तथा फौजदारी मामले में अलग-अलग न्यायाधीश होते थे। दीवानी के न्यायालय “धर्मस्थीय” तथा फौजदारी न्यायालय “कण्टशोधक”  कहलाते थे।

   दंड विधान बहुत कठोर था। जुर्माना, अंग-भंग और मृत्यु तक का दंड दिया जाता था। स्ट्रेबो ने लिखा कि यदि कोई झूठी गवाही देता, तो उसका अंग-भंग का दंड दिया जाता, यदि कोई किसी का अंग-भंग कर देता है तो उसका हाथ काट दिया जाता और यदि कोई अपराधी किसी कारीगर का अंग-भंग कर देता तो उसे प्राण दंड दिया जाता था।

सबसे महत्वपूर्ण कि इतना कठोर दंड विधान होने के कारण चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में अधिक अपराध नहीं होते थे।

राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के काल में न्यायालय की बैठक प्रातः काल होती थी, और निर्णय में शीघ्रता होती थी। छोटी अदालतों के फैसलों की अपील बड़ी अदालतों में होती थी। और सम्राट का निर्णय अंतिम निर्णय होता था।

   चाणक्य की कथानानुसार राजा प्रजा के प्रति ऋणी है, वह लोग मंगलकारी कार्यों को करने से ही प्रजा के ऋण से मुक्त हो सकता है। अतः चंद्रगुप्त ने अपने काल में यातायात के लिए सड़के बनाई, छायादार वृक्ष राहों में और स्थान स्थान पर कई कुएं तथा धर्मशालाएं बनाई। सिंचाई की समुचित व्यवस्था की, उसके प्रांतीय शासक पुष्पगुप्त ने सौराष्ट्र में सिंचाई के लिए एक बहुत बड़ी झील जिसका नाम सुदर्शन झील हुआ का निर्माण करवाया।

स्वास्थ्य तथा स्वच्छता की समुचित व्यवस्था की गई थी। “भैष्ज्य गृहों” अर्थात औषधालय की स्थापना करवाई। उसमें चिकित्सकों की व्यवस्था की गई, शिक्षा का समुचित व्यवस्था की गई, छात्रों को छात्रवृत्ति की व्यवस्था की गई, शिक्षा का प्रबंध प्रधानमंत्री और पुरोहित की अध्यक्षता में संचालित होता था।

शनिवार, 27 नवंबर 2021

चंद्रगुप्त मौर्य का शासन काल | साम्राज्य का प्रसार तथा विजित प्रदेश | Maurya dinesty Chandragupt

Chandragupta maurya 

संपूर्ण उत्तर भारत में जिसका साम्राज्य स्थापित हो चुका था, वह दक्षिण की ओर बढ़ता है, और सौराष्ट्र की भूमि पर भी अपना अधिकार स्थापित करता है, इतना ही नहीं वह मालवा को भी अपने अधिकार में करता है, कुछ विद्वानों का मत है, कि उस क्रांतिकारियों के नेता चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य मैसूर राज्य की सीमा तक प्रसारिता था।

    चंद्रगुप्त की विजय का आरंभ पंजाब की भूमि से होता है। सिकंदर के भारत से लौट जाने के पश्चात पंजाब की भूमि में यूनानीयों के विरोध में एक बड़ी क्रांति ने जन्म लिया। चंद्रगुप्त मौर्य क्रांतिकारियों का नेता हो गया उसने यूनानीयों को भारत भूमि से मार भगाया और पंजाब पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।

   चंद्रगुप्त मौर्य अब अपने लक्ष्यों के प्राप्ति के उदीयमान पृष्ठों को लिख रहा था। यह वही मगध का साम्राज्य था, जिस पर आक्रमण का साहस सिकंदर न कर सका, किंतु दृढ़ संकल्पित चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब पर अपने अधिपत्य के पश्चात मगध के विशाल साम्राज्य पर विजय के मंसूबे को साकार करता है। ब्राह्मण चाणक्य साथ हैं। 321 ईसा पूर्व में चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य का मगध की गद्दी पर राज्याभिषेक कर देते हैं, और चंद्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर एक नए वंश मौर्य वंश का पहला पृष्ठ लिखता है।

    उत्तर भारत पर चंद्रगुप्त के अधिपत्य के पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य दक्षिण भारत को भी अपने अधिकार में लेने के लिए प्रयत्नरत होता है। उसने सौराष्ट्र की भूमि को पहले जीता, और उसके पश्चात मालवा को अपने अधिकार में ले लेता है। मालवा की भूमि को अपने अधिकार में ले लेने के पश्चात वह वहां का शासन प्रबंध पुष्पगुप्त वैश्य को सौंप देता है, और उसी ने वहां पर सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। 

   चंद्रगुप्त का अंतिम संघर्ष सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर के साथ पश्चिमोत्तर भारत सिंधु नदी के पश्चिम में हुआ।

सिकंदर की मृत्यु के पश्चात सेल्यूकस निकेटर सिकंदर की साम्राज्य के पूर्वी भाग का स्वामी बन गया था, और वह भारत पर अधिपत्य के लिए दृढ था। उसने 305 ईसा पूर्व में भारत पर आक्रमण कर दिया, किंतु चंद्रगुप्त मौर्य ने सफलतापूर्वक उसे वहीं रोक दिया। अंततः सेल्यूकस निकेटर को चंद्रगुप्त के साथ संधि करनी पड़ी। उसने चंद्रगुप्त मौर्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया, और यही नहीं बल्कि अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान का प्रदेश भी चंद्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने भी 500 हाथियों को भेंट स्वरूप सेल्यूकस निकेटर को सौंप दिया।

   अब चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर भारत में तो अपनी चरमता हासिल कर चुका था। स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला हुआ था। हां यह जरूर ध्यान रहे कि कश्मीर और कलिंग का हिस्सा चंद्रगुप्त के साम्राज्य में नहीं आता था।

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

मौर्य वंश के उदय की कहानी | चन्द्रगुप्त मौर्य का परिचय | Maurya Dynasty Chandragupt मौर्य का संघर्ष

मौर्य साम्राज्य का उदय / चंद्रगुप्त मौर्य एक परिचय / नंद वंश का पतन-

   भारत में सिकंदर की एक तीव्र यात्रा के ही दौर में जिस साम्राज्य के पूरे उत्तर भारत में स्थापित होने का पथ प्रशस्त हो रहा था।  वह मोर्य साम्राज्य था। मगध की गद्दी पर नया वंश आसीन होता है। जिस राजवंश का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य हुआ। 

   चंद्रगुप्त मौर्य किस कुल का था या उनका वंश क्या था, यह ज्ञान निश्चित नहीं है। कुछ विद्वानों के विचार में एक नाइन जिसका नाम मुरा था, चंद्रगुप्त मौर्य उसका पुत्र था। और वह नंदराज की एक शूद्रा पत्नी थी। इस विचार के अनुरूप चंद्रगुप्त मौर्य एक शूद्र कुल का था।

किंतु कुछ विद्वानों के मत के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय वंश का था। उनके मतानुसार नेपाल की तराई में पिप्पलिवन नामक एक छोटा सा प्रजातंत्र राज्य था। जिस पर चंद्रगुप्त मौर्य के पिता जो सूर्यवंशी क्षत्रिय थे, और मोरिय जाति के राज शासक थे।

   दुर्भाग्यवश एक सबल राजा ने चंद्रगुप्त मौर्य के पिता जो कि नेपाल के तराई क्षेत्र में स्थित एक प्रजातांत्रिक राज्य के प्रधान थे, उनकी हत्या कर दी, और उनसे राज्य छीन लिया। विद्वानों के मतानुसार उस वक्त पर चंद्रगुप्त की मां गर्भवती थी, और इसी दशा में उस वक्त पर वह संबंधियों के पास पाटलिपुत्र चली आई, और अज्ञात रूप से वहां रहने लगी, वहां पर लोग अपनी जीविका के यापन के लिए तथा आपने राजवंश को छुपाए रखने के लिए मयूर का पालन करने लगे। अतः चंद्रगुप्त का प्रारंभिक जीवन मयूर पालकों के साथ ही व्यतीत हुआ।

   अध्ययन में चंद्रगुप्त मौर्य के प्रारंभिक जीवन को लेकर यह प्राप्त हुआ, कि मगध के राजा के यहां चंद्रगुप्त मौर्य ने नौकरी कर ली, वह सेना में भर्ती हो गया, और अपनी योग्यता के बल पर वह सेनापति भी बन गया, किंतु कुछ कारणवश मगध का राजा चंद्रगुप्त मौर्य से अप्रसन्न हो गया, और उसने चंद्रगुप्त मौर्य को प्राण दंड दे दिया।

अपने प्राणों की रक्षा के लिए चंद्रगुप्त मौर्य वहां से निकल भागा क्योंकि उस वक्त मगध का शासक वंश नंद था। अब चंद्रगुप्त मौर्य नंद वंश के विनाश के कारण को जन्म देने का प्रयत्न करने लगा।

   इसी दौर में चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब की ओर चला गया, और वहां से तक्षशिला पहुंच गया। वहां उसकी भेंट चाणक्य नामक एक ब्राह्मण से हुई, जिन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। चाणक्य भी नंद वंश के तत्कालीन शासक से अप्रसन्न था। वह दोनों मिलकर नंद वंश के विनाश का उपाय ढूंढने लगे।

   चाणक्य ने बहुत सारा धन एकत्रित किया हुआ था, और एक प्रसंग के अंतर्गत चाणक्य ने वह धन चंद्रगुप्त मौर्य को दे दिया, ताकि चंद्रगुप्त मौर्य सेना को एकत्रित कर सके, और मगध पर अधिकार कर सके। किंतु चंद्रगुप्त मौर्य की एकत्रित की गई सेना मगध साम्राज्य की विशाल सेना के सम्मुख ना टिक सकी और एक बार फिर चंद्रगुप्त मौर्य को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा।

    चंद्रगुप्त मौर्य फिर से पंजाब पहुंचा, उन दिनों सिकंदर भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में अपनी विजय यात्रा से आ टिका था, और वह अपनी विजय यात्रा में आगे को बढ रहा था, किंतु मगध के शासन पर आक्रमण करने का साहस जुटा पाने में वह भी सफल ना हो सका। उसी दौर में मगध नंद वंश के पतन के मंसूबे को लेकर चंद्रगुप्त मौर्य सिकंदर के शिविर में पहुंचा। वह उस से मिला, किंतु चंद्रगुप्त मौर्य स्वतंत्र विचार, सिकंदर को उसके विचार पसंद न आए, और उसने भी चंद्रगुप्त मौर्य की हत्या का आदेश दे दिया।

चंद्रगुप्त मौर्य सिकंदर के शिविर से भाग खड़ा हुआ। अब उसके जीवन के दो प्रधान ध्येय हो गए।

एक लक्ष्य जो वह पहले ही तय कर चुका था, नंद वंश का मगध में साम्राज्य का पतन और दूसरा लक्ष्य यूनानियों को भारत से बाहर खदेड़ना सबसे महत्वपूर्ण इन दोनों उद्देश्यों में उसके साथ ब्राह्मण चाणक्य ने पूरा सहयोग किया।चंद्रगुप्त मौर्य अपने लक्ष्यों को सफलता से प्राप्त भी कर सका।

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

Alexander की भारत यात्रा का प्रभाव | सिकंदर | भारत पर यूनानी प्रभाव

सिकंदर(Alexander)
सिकंदर(Alexander) के आक्रमण का प्रभाव भारत में इतिहासकारों में मतभेद दिखाने वाला एक और विषय है। कुछ विद्वानों का मानना है, कि सिकंदर(Alexander) का आक्रमण एक तूफान की तरह था, जिसने थोड़ी देर के लिए भारतीयों को झकझोर जरूर दिया था, और फिर पानी के बुलबुले की तरह वह समाप्त भी हो गया।

कुछ विद्वानों के विचार में यह बेहद क्षणिक था और भारत के छोटे से क्षेत्र में यह होने पर पूरे भारत पर इसके प्रभाव को गहनता से भी नहीं देखते हैं। उनका मत है कि यह केवल एक सैन्य विजय थी, और यूनानी लोग कुछ ही दिनों के बाद भारत से निकल गए थे, अतः यहां भारत में यूनानीयों का कोई स्थाई प्रभाव ना हो सका।

वे तो स्वयं बर्बर और लुटेरे थे, लुटेरे यूनानी सैनिकों से भारत की सभ्यता जो स्वयं में इतनी ऊंची थी, कभी कुछ नहीं सीख सकती थी।

इस विषय में स्मिथ महोदय ने लिखा है “यूनानी प्रभाव कभी अंतः स्थल तक प्रविष्ट नहीं हो सका भारतीय राजसंस्था और समाज का संगठन जो जाति व्यवस्था पर आधारित था, वस्तुतः अपरिवर्तित हुआ रहा और सैन्य शास्त्र में भारतवासी सिकंदर(Alexander) की तीक्ष्ण करवाल द्वारा सिखाई हुई शिक्षा का आलिंगन करने के लिए उत्सुक ना थे”।

  किंतु कुछ इतिहासकारों का कहना है, कि भारतीय इतिहास में यह घटना बहुत महत्वपूर्ण थी और इसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव भारतीय सभ्यता पर जरूर पड़े। यह सत्य है कि यूनानी लोग भारत से भगा दिए गए थे, किंतु वह लोग अपने देश को नहीं गए वरन वे भारत के पश्चिमोत्तर सीमा के निकट बस गए थे। और भारतीयों के साथ संबंध स्थापित करने के पश्चात भारतीय संस्कृति उन से अछूती न रह सकी। प्रो० नीलकांत शास्त्री ने सिकंदर के आक्रमण के विषय में कहा है कि यद्यपि यह दो वर्षों से कम तक रहा परंतु आक्रमण स्वयं एक ऐसी महान घटना थी, की चीजें जैसी थी वैसी न रह सकी उसने इस बात को स्पष्ट रुप से प्रदर्शित कर दिया कि एक दृढ़ प्रतिज्ञ शत्रु की संयम शक्ति की समानता स्वतंत्रता का उत्तेजना पूर्ण प्रेम नहीं कर सकता।

    इस आक्रमण से भारतीयों को कम से कम इतना तो ज्ञान हुआ कि पश्चिमोत्तर छोटे-छोटे राज्यों में वितरित होना उसके राजनीतिक दुर्बलता को प्रस्तुत करता है। और आक्रमणकारियों को निमंत्रण देता है। इसी विचार से चंद्रगुप्त मौर्य पूरे उत्तर भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने में सफल हो सका।

  यूनानीयों की सुसज्जित सेना ने कैसे भारतीयों की विशाल सेना को परास्त कर दिया इससे भारतीयों को यह ज्ञान हुआ कि सेना में संख्या की नहीं बल्कि रण कुशलता की अधिक आवश्यकता होती है।

  सिकंदर(Alexander) का आक्रमण 327 ईसा पूर्व भारत पर हुआ था, और इसी तिथि के बाद भारत में इतिहास का तिथि गत क्रम से अध्ययन प्रारंभ होता है।

यूनानीयों के कई लेख भारतीय प्राचीन इतिहास को जानने में भी बेहद महत्वपूर्ण है।

  भारतीय संस्कृति और साहित्य पर यूनानीयों का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा यह कुछ इतिहासकार विद्वानों का मत है, क्योंकि यूनानी भारत से वापस लौटे नहीं बल्कि पश्चिमोत्तर प्रदेशों में बस गए थे। इसलिए संस्कृत में आदान-प्रदान निश्चित तौर से हुआ।

~कुछ का मत है कि भारत में गद्य-काव्य, नाट्य इत्यादि यूनानीयों के प्रभाव के होने से ही प्रारंभ हुआ।

~भारत में मुद्रा का चलन को लेकर यूनानी द्रम से ही भारतीय दीनार रूपांतरित हुआ है। यह कुछ विद्वानों का मत है।

~इसके अतिरिक्त यूनानीयों का प्रभाव भारतीयों पर ज्योतिष विद्या, चिकित्सा एवं औषधि तथा धार्मिक जीवन पर पड़े बिना न रह सका।

~कुछ विद्वानों का मत है, कि भारतीयों की मूर्तिकला पर यूनानीयों का प्रभाव पड़ने से एक नई शैली का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे गांधार शैली के नाम से जाना जाता है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

Alexander in india झेलम का युद्ध in hindi विस्तृत वर्णन | सिकन्दर का भारत पर आक्रमण तथा वापस लौटने का कारण

सिकंदर की भारत यात्रा / Alexander in india विस्तृत वर्णन विशेष –

सिकंदर

    327 ईसा पूर्व में सिकंदर ने हिंदूकुश पर्वत को पार कर वह काबुल में आ डटा था, वहां पर उसने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त किया, जिसमें एक सेना का संचालन उसने अपने विश्वस्त सेनापति को दिया जो खैबर के दर्रे से आगे बढ़ी। और दूसरी सेना को अपने नियंत्रण में रखकर वह काबुल की घाटी में प्रवेश करता है, अनेक छोटे-छोटे राजाओं को  जीतते हुए वह आगे बढ़ता है। और अंततः यह दोनों सेनाएं ओहिंद नामक स्थान पर पुनः मिलती हैं, वहां से ये आसानी से सिंधु नदी को पार कर जाते हैं।

   सिंध नदी के पार उस समय पर अर्थात सिधु नदी के पूर्व में उस समय पर मुख्य तौर से दो सबल शासक थे, आंभी तथा पुरु या पोरस।

किंतु उन दोनों के मध्य में सहयोग का संबंध न था, वे एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बने रहे। और यह सिकंदर के पक्ष में था। इससे पहले कि सिकंदर आक्रमण करता आंभी ने सिकंदर को अपने राज्य में आने का निमंत्रण दे दिया। दरअसल वह सिकंदर के माध्यम से पोरस को नीचा दिखाना चाहता था। यदि पोरस और आंभी साथ मिलकर सिकंदर का सामना करते तो शायद वे जरूर जीत जाते।

   326 ईसा पूर्व में आंभी की राजधानी तक्षशिला में सिकंदर अपनी सेना के साथ प्रवेश करता है। आंभी उसका स्वागत करता है, और पोरस के खिलाफ सिकंदर की विजय में उसका साथ देता है।

   पोरस का राज्य झेलम तथा चुनाव नदी के बीच में था। सिकंदर ने पोरस के राज्य पर आक्रमण कर दिया, वह झेलम नदी के पश्चिम तट पर आ डटा किंतु पोरस की सेना पहले से ही झेलम नदी के पूर्वी तट पर झंडा गाड़े खड़ी थी। कई महीनों तक दोनों सेनाएं जैसी की तैसी वही पड़ी रही, किंतु झेलम नदी को पार करने का साहस किसी ने ना किया, फिर एक दिन अंधेरी रात में जब बहुत भयानक आंधी चल रही थी, सिकंदर की सेना झेलम नदी को पार कर जाती हैं, और जब पोरस को यह मालूम होता है, तो वह भी रण के मैदान में अपनी सेना के साथ पहुंचता है। दोनों में भीषण संग्राम होता है, पहले तो पोरस की सेना सिकंदर की सेना को शिकस्त दे रही होती है। किंतु बाद में किसी तरह सिकंदर जीत जाता है, और पोरस को बंदी बना लिया जाता है।

   इस रण क्षेत्र का एक प्रसंग सम्मुख आता है, कि जब पोरस को बंदी बना लिया जाता है, और उन्हें सिकंदर के सामने लाया जाता है, तो सिकंदर पोरस से प्रश्न करता है, कि कहो तुम्हारे साथ क्या व्यवहार किया जाए पोरस बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे, उनका जवाब आता है कि जैसे “एक राजा दूसरे राजा के साथ व्यवहार करता है”।

   सिकंदर पोरस जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति से मित्रता का महत्व समझता था। जब तक सिकंदर भारत में रहता है पुरु उससे अपने मैत्री भाव का निर्वाह करता है। सिकंदर पोरस से मैत्री संबंध स्थापित करता है, और वहां से आगे बढ़ता है, जहां दो अन्य राज्यों को मार्ग में जीतता है। अंत में वह पंजाब की अंतिम नदी व्यास के पश्चिमी किनारे पर आ खड़ा होता है, और यह वही सीमा थी, जहां से मगध का विशाल साम्राज्य भारत के पूर्वी छोर तक विस्तारित था, यदि सिकंदर यहां विजय हासिल करता तो पूरे भारत पर उसका वर्चस्व स्थापित हो जाता।

   किंतु मगध के साम्राज्य पर आक्रमण करने का उसकी सेना का कोई विचार न था। उस उत्साह में कमी थी। उसकी सेना में अब इतना साहस न रहा था कि मगध जैसे विशाल साम्राज्य को चुनौती दे सकें। क्योंकि बहुत लंबे समय अपने घर से बाहर थे, और युद्ध करते करते वे थक भी गए थे। वह बहुत दूर आ गए थे। अब घर वापस लौटना चाहते थे। यही कारण होगा, कि मगध की सीमा को सिकंदर पार न कर सका, और उसने वापस लौटने का निश्चय किया।

वह पोरस से मिला शासन संबंधी नीति पर विचार विमर्श किए, और वहां से लौट गया, लौटते वक्त भी उसे अनेक सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा, अनेक छोटे-छोटे राज्यों से उसका सामना हुआ। सिंध के निचले प्रदेश में पटल नाम के स्थान पर उसने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त कर दिया, एक को उसने समुद्री मार्ग से और दो को स्थल मार्ग से भेज दिया, वह स्वयं स्थल मार्ग से हो चला, अंत में वह अपनी टुकड़ी के साथ बेबीलोन जा पहुंचा, वहां पर ज्वर से पीड़ित हो गया, और 32 वर्ष की उम्र में 323 ईसा पूर्व उसका परलोकवास हो गया।

यहीं पर उसके विश्व विजय की यात्रा का अंत हो जाता है। हालांकि उसकी विश्वविजय का ख्वाब पूर्ण तो ना हो सका, किंतु वह विश्व के महान सेनानियों में अपने आप को दर्ज करा सकने में सफल रहा।

    उपरोक्त प्रसंग आप सब ने इसी प्रकार से अध्ययन जरूर किया होगा।

किंतु यह एक पक्ष की कहानी है, कई तथ्य आज भी इस प्रश्न को जीवित रखते हैं कि जीता कौन था, पोरस या सिकंदर? 

यदि सिकंदर विश्व विजेता था तो वह पोरस के राज्य से वापस क्यों लौटा?

वे यूरोपीय लेखकों के द्वारा सिकंदर की प्रसंग को यथावत लिखा नहीं मानते हैं, बल्कि सिकंदर की महानता को अथवा यूरोपियों की महानता को प्रस्तुत करती हुई दृष्टि में रहकर लिखा हुआ मानते हैं।

वे आज भी इस विषय के निचोड़ को रत हैं।

बुधवार, 17 नवंबर 2021

सिकंदर का परिचय | सिकंदर भारत की सीमा तक | sikandar की विजय यात्रा

सिकंदर का परिचय तथा सिकन्दर भारत की सीमा तक-

 

   उस समय में यूनान के छोटे से राज्य मकदूनिया पर फिलिप नामक शासक का शासन था। फीलिप के पुत्र सिकंदर हुए। यह वही सिकंदर है, जिसे दुनिया के सबसे महान विजेताओं की पंक्ति में स्थान प्राप्त है। सिकंदर विश्व का महान विजेता।

   336 ईसा पूर्व में फिलिप की मृत्यु हो जाने के कारण अब सिंहासन सिकंदर को मिला। हालांकि उस समय पर सिकंदर की आयु महज 20 वर्ष थी, किंतु सिकंदर उस वक्त के सबसे महान विद्वान और दार्शनिक अरस्तु के शिष्य रहे, जिसके प्रभाव से सिकंदर बड़े सभ्य व्यक्ति बना, वह बेहद कुशल शासक अपने आप को साबित कर पाने में सफल रहा। शासन पर आरूढ़ हो जाने के पश्चात उसने दो प्रमुख ध्येय स्वयं को सदैव दिए रखें। पहला अपने साम्राज्य का विस्तार और दूसरा अपने देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रसार।

    सिकंदर ने विजय यात्राओं का चक्र प्रारंभ किया। वह अपने आसपास के पड़ोसी छोटे-छोटे राज्यों को जीत हासिल कर फारस के जर्जर साम्राज्य को रौंदता हुआ भारत की सीमा पर आ पहुंचा।

    उस समय तक उत्तर भारत के पूर्वी भाग में मगध का विशाल साम्राज्य स्थापित हो चुका था। किंतु अभी उत्तर भारत में पश्चिमोउत्तर प्रदेशों की राजनीतिक दशा बड़ी सोचनीय थी। वहां छोटे-छोटे राज्य थे, जिन में सहयोग का सदैव अभाव रहा, उनमें एक दूसरे को नीचा दिखाने का भाव था। और यही कारण था कि विदेशी आक्रमणकारियो को लाभ मिला।

   सिकंदर से पहले ईरान के शासक साइरस तथा डेरियस के आक्रमण इस भूभाग पर हो चुके थे। अब सिकंदर जब भारत की सीमा तक पहुंचा था, और ईरान के साम्राज्य को पहले ही रौंद चुका था। तो स्वाभाविक तौर से वह भारत पर भी आक्रमण की योजना तय कर चुका था।

   सिकंदर जहां कहीं गया सफलता ने विजय ने उसका स्वागत किया, उसका आलिंगन किया उसका उत्साह चरम पर था। यह उसकी महत्वाकांक्षा को और तीव्र करता गया, और उसकी विजय यात्रा का मार्ग उसके उत्साह के प्रभाव में कभी जर्जर ना हो सका।

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

बौद्ध कालीन भारत |16 महाजनपदों की विस्तृत व्याख्या | Boddh period india explaination

16 महाजनपदों में बौद्ध कालीन भारत की विस्तृत व्याख्या

बौद्ध कालीन भारत जब भगवान बुद्ध के द्वारा बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हो रहा था। उस समय पर भारत किस प्रकार से था, इसकी दशा क्या थी। इस विषय में बौद्ध धर्म ग्रंथों से कुछ जानकारी प्राप्त होती हैं। उन दिनों उत्तरी भारत में कोई ऐसा सशक्त साम्राज्य ना था, जो कि केंद्र में रहकर एक शक्तिशाली शासन पूरे उत्तर भारत में स्थापित कर सकें, ऐसा ना हो कर उन दिनों उत्तरी भारत 16 छोटे-बड़े राज्यों में बंटा हुआ था, इन राज्यों को महाजनपद कहा जाता था।

   ● अंग (पूर्वी बिहार) राजधानी चंपा, ● मगध (दक्षिणी बिहार) राजधानी गिरिब्रज, ● काशी (वाराणसी) राजधानी काशी, ● कौशल (अवध) राजधानी श्रावस्ती, ● वज्जी (उत्तरी बिहार) राजधानी वैशाली, ●.मल्ल (देवरिया, गोरखपुर) राजधानी कुसिनारा तथा पावा, ● चेदी  (बुंदेलखंड) राजधानी सुक्तिमती, ● वत्स (प्रयाग) राजधानी कौशांबी, ● कुरु (दिल्ली मेरठ) राजधानी इंद्रप्रस्थ तथा हस्तिनापुर, ● पांचाल (रोहिलखंड) राजधानी अहिक्षेत्र तथा कम्पिल्य, ● मत्स्य (जयपुर) राजधानी विराटनगर, ● शूरसेन (मथुरा) राजधानी मथुरा, ● अवंती (पश्चिमी मालवा) राजधानी उज्जैन, ● गांधार (पूर्वी अफ़गानिस्तान) राजधानी तक्षशिला, ● कंबोज (काश्मी) राजधानी द्वारका, ● अस्सकं (हैदराबाद) राजधानी  पोतली या पोतन।

    इन राज्यों में कुछ में तो राजतंत्रात्मक और कुछ में गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्थाएं थी। राजतांत्रिक राज्य तुलना में लोकतांत्रिक राज्यों से बड़े हुआ करते थे। इन राज्यों में प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। अतः बड़े राज्यों ने अपने पड़ोस के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर दिया, और उन्हें अपने में मिलाकर अंत तक आते-आते यह चार बड़े राज्यों कौशल, वत्स, अवंती, तथा मगध में विलीन हो गए।

    कौशल वर्तमान का अवध ही हुआ करता था। इस राज्य के बीच में से सरयू नदी बहती थी। इसके दो राजधानियां हुआ करते थी, उत्तरी भाग की राजधानी श्रावस्ती तथा दक्षिण भाग की राजधानी कुशावती थी। जिस वक्त पर बौद्ध धर्म का प्रचार हो रहा था, यहां के राजा प्रसेनजीत थे।

   कौशल राज्य के दक्षिण में वत्स राज्य था। जिसकी राजधानी कौशांबी थी उस वक्त पर जब बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हो रहा था, तब वहां का शासक उदयन था।

   वत्स राज्य के दक्षिण पश्चिम में स्थित राज्य अवंती था, इसकी राजधानी उज्जैनी थी। बुद्ध भगवान जब बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार में थे, तब वहां के राजा प्रद्योत हुए।

   आधुनिक बिहार के गया तथा पटना जिलों को मिलाकर मगध का साम्राज्य बना था, इसकी राजधानी राजगृह थे  बुद्ध जी के समय में यहां बिंबिसार नामक शासक शासन करता था।

   इन चार बड़े राज्यों में भी प्रतिस्पर्धा लगातार जारी थी। वे अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए प्रयत्न करते रहते थे। धीरे-धीरे इन चारों में मगध राज्य ने अपनी शक्ति में वृद्धि की और पूरे उत्तर भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर दिया।

मगध के राजा बिंबिसार ने बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म दोनों को आश्रय दिया था। वह बड़े उदार थे, किंतु उनके पुत्र अजातशत्रु ने सिंहासन के लिए उनका वध कर दिया। अजातशत्रु एक कुशल शासक था। किंतु उसके निर्बल उत्तराधिकारीयों ने भविष्य में अपना शासन खो दिया। और क्रमशः शिशुनाग वंश और तत्पश्चात नंद वंश ने मगध के साम्राज्य को शासन किया नंद वंश के साम्राज्य का विनाश कर चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध में अपना शासन स्थापित किया।

   उस वक्त पर जिन जिन भारतीय क्षेत्रों में बौद्ध और जैन धर्म का प्रचार प्रसार हो रहा था, वहां जाती पाती व्यवस्था कुछ ढीली पड़ गई थी। ब्राह्मणों के प्रधानता को चुनौती दी गई थी, उनके स्थान को क्षत्रियों ने ग्रहण करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया था। आश्रम व्यवस्था भी अब ढीली पड़ गई थी। क्योंकि बौद्ध धर्म ने सत्कर्म और सदाचार पर बल दिया। उस समय पर स्त्रियों की दशा इतनी भी संतोषजनक ना थी। उस समय पर पहले भगवान बुद्ध ने भी बौद्ध संघों में स्त्रियों के होने पर मना ही किया था, किंतु बाद में स्त्रियों को भी संघ में रखा जाने लगा। उस वक्त पर लोग मुख्यता गांव में समूह बनाकर रहते थे। गांव में उनका मुख्य व्यवसाय कृषि हुआ करता था। हालांकि शहरों का भी उन्नयन आरंभ हो चुका था, वहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय शिल्प और व्यापार हुआ करता था।

   बौद्ध काल में साथ ही साथ जैन धर्म तथा भागवत धर्म का भी प्रादुर्भाव हुआ। जो उन लोगों को अति भाई जो यज्ञ तथा बली दोनों से तंग आ चुके थे। और किसी नई मार्ग के खोज में थे। बौद्ध तथा जैन धर्म ने सत्कर्म तथा सदाचार का और भगवत धर्म ने उपासना तथा भक्ति के सरल मार्ग पर चलकर मोक्ष की प्राप्ति का उपदेश दिया, और यही कारण रहा कि इस मार्ग पर चलने को जनसाधारण सहर्ष स्वीकार करता गया।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

बौद्ध और जैन धर्म की भारत को देन | Indian history | Boddh and jain dharma

बौद्ध और जैन धर्म की भारत को महान देन-

बौद्ध और जैन धर्म ने भारत भूमि को हिंसा के महत्वपूर्ण पाठ से अवगत कराया। प्राणी मात्र पर दया की शिक्षा दी। यह वही अहिंसा है, जिसका अनुसरण कर महात्मा गांधी जी ने भारत में स्वतंत्रता के आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान दिया। आम जनमानस से स्वतंत्रता के आंदोलन को इसी मार्ग से जोड़ सकने में समर्थ रहे।

   ऊंच नीच जात पात भेदभाव को ना मानकर एक लोकतांत्रिक समझ का संदेश दिया। मानव के सत्कर्म और सदाचार पर अधिक बल देकर देशवासियों की नैतिक स्तर को ऊंचा किया।

   उत्तर वैदिक काल में आते-आते यज्ञ और बलिदान के विरोध में हिंदुओं में प्रबल विचारधारा जन्म ले चुकी थी और यही विचारधारा “भागवत धर्म” के तौर पर सम्मुख आई। जिसके प्रवर्तक श्री कृष्ण थे। उनका कहना था, कि देवी-देवताओं के ऊपर भी भगवान है, जिसे प्रसन्न करने के लिए न यज्ञों की आवश्यकता है, न जंगल में जाकर चिंतन करने की, न तपस्या करने की जरूरत है। बल्कि उपासना और भक्ति के मार्ग मात्र से ही मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। और यह मार्ग उतना ही सरल था जितना कि बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का था।   

   बौद्ध और जैन धर्म की कुछ महान संस्कृतिक देन रही है। वे आज भी मानव को उज्जवल मार्ग की ओर प्रशस्त कर रही है।

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

बौद्ध धर्म के पतन के प्रमुख कारण | बौद्ध धर्म का अपनी ही भूमि पर न्यून अनुयायी | Boddh dharma

बौद्ध धर्म के तीव्र उत्कर्ष के पश्चात पतन के कुछ प्रमुख कारण-

   बौद्ध धर्म ने जिस तीव्रता के साथ उन्नति की उसके पतन की कहानी भी उतनी ही तीव्र रही। बौद्ध धर्म का अपनी ही जन्मभूमि में जैसे उन्मूलन सा हो गया। हालांकि विश्व के अनेक राष्ट्रों में आज भी बौद्ध धर्म विद्यमान है।

   बौद्ध धर्म के उन्नति के कारणों का ज्ञान होने के पश्चात इस के पतन के कारणों का भी अनुमान लगाया जा सकता है। उन्नति में जिन कारणों ने साथ दिया था, उनका अभाव कालांतर में हो जाने पर बौद्ध धर्म का पतन हुआ। 

   बुद्ध जी के पश्चात बौद्ध धर्म के अनेक शाखाओं ने जन्म लिया, मतों में भेद होने लगा। प्रारंभ में बौद्ध संघों में जो भिक्षुक-भिक्षुणियां रहते थे। उनका जीवन बहुत श्रेष्ठ था, वह बहुत पवित्र और आदर्शमय थे। किंतु कालांतर में उनका चारित्रिक पतन हो गया, जिससे वे लोगों में घृणा के पात्र हो गए।

जब बौद्ध धर्म ने उन्नति करना प्रारंभ किया तो ब्राह्मणों ने अपने धर्म के दोषों को जांचना प्रारंभ किया। उन्होंने तेजी से इसमें सुधार के प्रयत्न प्रारंभ किए। शंकराचार्य आदि जैसे बड़े सुधारक आचार्य हुए, जिन्होंने बौद्ध धर्म का खंडन किया और ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान पर कार्य किया। उन्होंने ब्राह्मण धर्म वैष्णव और शैव धर्म के रूप में प्रचलन में खूब सहयोग दिया। भक्ति मार्ग दिखाया जो इतना ही सरल था, जितना कि बुद्ध जी द्वारा दिखाया गया मार्ग।

यदि आप बौद्ध धर्म के पतन का एक सबसे बड़ा कारण कलान्तर में राजाओं द्वारा सहयोग न मिलना कहें तो गलत ना होगा, क्योंकि जब बौद्ध धर्म प्रारंभ में उन्नति के पथ पर तीव्र गतिमान था। तब उसे तत्कालीन अनेक राजाओं का संवर्धन मिला, किंतु कालांतर में राजाओं का आश्रय न मिल सका। शुंग वंश के राजा ब्राह्मण थे। उन्होंने ब्राह्मण धर्म को संरक्षण दिया। गुप्त सम्राटों ने भी ब्राह्मण धर्म को अपना संरक्षण दिया आगे चलकर राजपूत राजाओं ने भी जो बेहद रण प्रिय थे। अहिंसा के धर्म को समर्थन देने की बजाय ब्राह्मण धर्म को ही उन्नति के पथ पर होने को सहयोग किया। बौद्ध धर्म का पतन का श्रेष्ठ कारण कालांतर में राजाओं का संवर्धन न मिल पाना भी है।

   कालांतर में विदेशी आक्रमणकारियों ने भी बौद्ध धर्म को पतन की ओर ले जाने को राह प्रशस्त की, विशेषकर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने कई बौद्ध मठों और बिहारो को नष्ट कर दिया।

यही कारण कुछ प्रमुख रहे होंगे, जो बौद्ध धर्म अपनी ही भूमि में आज न्यून संख्या में अनुयायियों को लिए है।

 

सोमवार, 8 नवंबर 2021

बौद्ध धर्म की उन्नति के प्रमुख कारण | boddh dhrma in hindi | ancient india

 बौद्ध धर्म के प्रसार के मुख्य कारण-

बौद्ध धर्म ने देशभर में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी प्रचलन के श्रेष्ठ स्तर को प्राप्त किया। नेपाल, चीन, कंबोडिया, जापान, तिब्बत, सुमात्रा, जावा, वर्मा, लंका, मध्य एशिया में अपनी जड़ों को मजबूत करने में बौद्ध धर्म बेहद सफल रहा।

इसके कई कारण देखे जा सकते हैं, जो बौद्ध धर्म के उन्नति के प्रमुख कारक है, सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि उस वक्त तक वैदिक सभ्यता का धर्म दोषपूर्ण हो चुका था। लोग यज्ञ तथा बली से तंग आ चुके थे, और यज्ञ में सरलता समाप्त हो जाने के कारण साधारण लोगों की पहुंच से ये बाहर हो गए थे।

   भगवान बुद्ध के बेहद आकर्षक रूप और उपदेशों के कारण बौद्ध धर्म में तीव्र उन्नति की।

मोनियर विलियम्स ने लिखा की “व्यक्तिगत चरित्र का प्रभाव उनके उपदेशों के अद्भुत आकर्षण से मिलकर अचूक हो जाता था”।

   भगवान बुद्ध अपने उपदेशों में पाली भाषा का प्रयोग करते थे। यह साधारण बोलचाल की भाषा थी। लोग इसे बेहद आसानी से समझ पाते थे। यह कारण भी वैदिक सभ्यता की जटिल संस्कृत भाषा में ज्ञान का विकल्प बौद्ध धर्म को जनसाधारण में दिखा पाने में सफल रहा।

   भगवान बुद्ध ने कभी जातिवाद और भेदभाव को नहीं माना। उन्होंने संपूर्ण मानव समाज को मोक्ष का अधिकारी कहा।  भगवान बुद्ध ने हर जाती हर वर्ग के व्यक्ति के लिए मोक्ष के मार्ग खोल दिये, यही कारण है कि जनसाधारण बौद्ध धर्म से एक बड़ी संख्या में जुड़ने लगा।

   बौद्ध धर्म के प्रचार में बौद्ध संघों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है, देश के कोने कोने में बौद्ध संघ स्थापित किए गए, और सर्वाधिक महत्वपूर्ण गौर करने योग्य विषय है, कि बौद्ध धर्म की उन्नति में बौद्ध मठों के निर्माण में सेठ साहूकारों और बड़े-बड़े सम्राट बिंम्बिसार, अशोक, कनिष्क, हर्ष आदि ने भरसक योगदान दिया।

बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए समय-समय पर बौद्ध भिक्षुओं की और आचार्यों की सभा होती थी। बौद्ध प्रथम संगति राजगृह में हुई, दूसरी संगति वैशाली में, तीसरी अशोक के काल में पाटलिपुत्र में, और चौथी कनिष्क के काल में कश्मीर में हुई थी।

   बुद्ध की सीख में जीवन को मध्यम मार्ग से जीने का उपदेश सर्वाधिक सरल और व्यापक हो सकने योग्य था। एक साधारण जनमानस का विशाल भाग न तो बहुत अधिक विलासिता का जीवन जीता था, और ना ही बहुत अधिक कठिन तप का जीवन, वह तो मध्यम जीवन जीने के मार्ग का ही अनुसरण करता था, और इस पर जीवन में कुछ सरल आचरण जिसे आम जनमानस सुगमता से निभा सकता था। सत्य बोलना, जीवो पर दया करना आदि कुछ नैतिक आदर्श की बातें एक साधारण गृहस्थ का व्यक्ति भी पालन कर सकता था।

   भगवान बुद्ध का संपूर्ण जीवन ज्ञान की प्राप्ति और बौद्ध धर्म के प्रचार में व्यतीत हुआ। सिद्धार्थ नामक बालक ने अपने जीवन में राजसी सुख और विलासिता को देखा। किन्तु उन्होंने अपने जीवन में उसका तिरस्कार किया। जब वे कठिन तप में लीन थे, अपने शरीर को कष्ट दे रहे थे, तब शरीर सूखकर कांटा हो गया।

भगवान बुद्ध ने निष्कर्ष निकाला बेहद कठिन तपस्या का और अत्यधिक विलासिता का जीवन व्यर्थ है, निरर्थक है। अतः जीवन जीने के मध्यम मार्ग को अपनाओ।

रविवार, 7 नवंबर 2021

बौद्ध धर्म की शिक्षाएं विस्तृत व्याख्या | boudh dharma Mahayan & heenyaan

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म के प्रचार में भगवान बुद्ध ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, और यही कारण रहा कि मात्र भारत में नहीं बल्कि बौद्ध धर्म ने विदेशों में भी अपनी जड़ें मजबूत कर ली। मध्य एशिया, जापान, चीन, तिब्बत, सुमात्रा, जावा, कंबोडिया, वर्मा, लंका आदि देशों में बौद्ध धर्म बेहद प्रचलित हुआ। हालांकि आज हमारे देश में यह न्यून स्थिति में है, किंतु विदेशों में इसका प्रचार अब भी सुदृढ़ है।

   जब भगवान बुद्ध को बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति हुई तो वे वहां से सर्वप्रथम सारनाथ में अपने उन साथियों को जो उन्हें छोड़कर चले आए थे। अपने ज्ञान से उन्हें अपने जीवन का पहला उपदेश दिया। तत्पश्चात वाराणसी और वहां से राजगृह चले गए। यहां पर उन्हें अपने धर्म के प्रचार में बेहद सफलता मिली।

इसके बाद वे अपनी मातृभूमि गए जहां पर उन्होंने शाक्यों को अपने धर्म से दीक्षित किया। तत्पश्चात सारे मगध, कौशल, लिच्छवी के अपने धर्म के प्रचार को बेहद सफलता से किया, और सारे उत्तर भारत में बौद्ध धर्म को एक जागृत धर्म के तौर पर प्रचलित किया, हालांकि आज बौद्ध धर्म दो संप्रदाय में महायान और हीनयान में वितरित है।

महायान संप्रदाय के लोग उदारवादी और सुधार में विश्वास रखते हैं। वे कट्टरपंथी नहीं होते हैं। बौद्ध धर्म के कठोर नियमों को लेकर कुछ ढीलाई करना चाहते हैं। 

किंतु हीनयान संप्रदाय वाले कठोरता से बौद्ध धर्म के नियमों को पालन करने में विश्वास करते हैं। वे भगवान बुद्ध को मात्र एक महापुरुष मानते हैं। तो वे उनकी पूजा नहीं करते हैं। वहीं महायान संप्रदाय के लोग भगवान बुद्ध को इश्वर की भांति पूजते हैं। उनकी मूर्तियों की स्थापना करते हैं।

   भगवान बुद्ध अपने धर्म के प्रचार के दौरान अपनी उदारता और सहिष्णुता का परिचय भी दे रहे थे। उनका कहना था कि यदि बात लोगों को ठीक लगती हैं तो उनका पालन करें लेकिन यदि गलत और अनुचित मालूम हो पड़ती है, तो वह इसका पालन ना करें। किंतु मोक्ष की प्राप्ति के लिए जिस राह को वे दे रहे थे। वह लोगों को सर्वाधिक सरल भी लगी और उचित भी।

   भगवान बुद्ध ने कभी आत्मा और परमात्मा पर नहीं कहा इस विषय पर मौन रहे कोई इस संबंध में प्रश्न करता तो वे मौन ही रहते, उन्होंने ना हां कहा कि यह है, और ना ही कहा कि यह नहीं है। उनका मत था कि यह बेवजह एक झमेला है। जिसमें इंसान जीवन भर फंस कर रह जाता है। मनुष्य को सत्कर्म और सदाचार की राह पर चलना चाहिए। यही निर्वाण तक लेकर जाएगा जो जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

   भगवान बुद्ध का कहना था, कि संपूर्ण संसार में दुख  है, और जो ज्ञात है जब भगवान बुद्ध वैराग्य को अपना लक्ष्य बनाते हैं, तब भी कुछ दृश्य, दुख के दृश्य उनके सम्मुख आते हैं। वही उन्हें उनके लक्ष्य की प्राप्ति को  प्रेरित करते हैं।

उनका कहना था, कि संसार में दुख ही दुख है, और हर दुख का एक कारण है। उनका कहना था, कि दुख के तीन कारण हैं, अविद्या या अज्ञानता, तृष्णा या विषय वासना तथा कर्म।

   दुख से छुटकारा पाने के लिए भगवान बुद्ध ने जिन तीन मार्गों को बताया है, वह “अहिंसा” अर्थात जीव की हत्या ना करना। “समाधि” अर्थात मन को एकाग्र करना, तथा “प्रज्ञा” अर्थात ज्ञान। 

भगवान बुद्ध का कहना है, कि यदि मनुष्य इस राह पर चलता है, तो वह निर्वाण को जरूर प्राप्त करेगा। उनका मत है, कि निर्वाण मनुष्य अपने जीवन काल में भी प्राप्त कर सकता है, क्योंकि निर्वाण जीवन की वह स्थिति है, जब मनुष्य संसार के सभी विषय वासनाओं, सुख-दुख से मुक्त हो जाता है।

   भगवान बुद्ध ने अपने जीवन में राजसी सुख का भी उपभोग किया कठोर तपस्या का पालन किया किन्तु उन्होने इन दोनों जीवन को निरर्थक बताया। उन्होंने मध्यम मार्ग के अनुसरण का उपदेश दिया, उन्होंने कहा कि अत्यंत विलासिता का जीवन अथवा अत्यंत कठोर तपस्या का जीवन व्यर्थ है। अतः उन्होंने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया, और इस पर चलने के लिए उन्होंने आठ मार्ग बतलाए। सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्मान्त, सम्यक जीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक् स्मृति, और सम्यक समाधि।

   भगवान बुद्ध का कहना है  कि मनुष्य को जीवन में सत्कर्म करना चाहिए। सदाचार के मार्ग पर चलना चाहिए। क्योंकि उसे अपने कर्मों का फल इसी संसार में भोगना होता है, बल्कि मात्र इस जन्म का नहीं बल्कि पूर्व जन्म का फल भी उसे भोगना पड़ता है, और मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसका वैसा ही अगला जन्म बनता है। मनुष्य को सदैव सत्कर्म करना चाहिए, सत्कर्म से ही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है, भले ही वह किसी जाति का क्यों ना हो। भगवान बुद्ध जात-पात और भेदभाव ऊंच-नीच को नहीं मानते थे. उनका कहना था कि सभी मनुष्य मोक्ष के अधिकारी हैं।

   भगवान बुद्ध ने सदाचार की शिक्षा दी, उनका कहना था, कि मनुष्य का आचरण अच्छा होना चाहिए, जिससे मनुष्य में नैतिक बल आ जाए। उनके अनुसार नैतिक आचरण दस हैं, पहला जीवो की हत्या न करना, दूसरा चोरी न करना, तीसरा सत्य भाषण, चौथा धन का संग्रह न करना, पांचवा ब्रह्मचर्य, छठवां नाच गाने का त्याग, सातवा सुगंधित पदार्थ का त्याग, आठवां असमय में भोजन का त्याग, नवां कोमल शैय्या का त्याग तथा दसवां कामिनी कंचन का त्याग।

   भगवान बुद्ध ने सदाचार और सत्कर्म का उपदेश दिया और मोक्ष की प्राप्ति के लिए ऐसी सरल राह का उपदेश दिया जो साधारण मानव अपने जीवन में अनुसरण कर सकें।

शनिवार, 6 नवंबर 2021

गौतम बुद्ध का संपूर्ण जीवन वृतांत | बौद्ध धर्म का प्रचार | Gautam buddha Mahabhiniskarman, Sambodhi, Mahaparinirwan

गौतम बुद्ध संपूर्ण जीवन यात्रा का वर्णन तथा बौद्ध धर्म-

बौद्ध धर्म

  यह वही युग था, जब भारत भूमि पर आम जनमानस मोक्ष की प्राप्ति में सरल राह की तलाश में था, तब भगवान बुद्ध का जन्म एक क्रांति ही थी।

   जब एक समय महामाया देवी अथवा माया देवी अपने मायके जा रही थी, तो राह में एक वन लुंबिनी में उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया, यह क्षेत्र नेपाल के तराई भाग में है, किंतु महामाया देवी का प्रसव पीड़ा से परलोक वास हो जाता है। निसंतान माता-पिता के लिए यह बेहद खुशी का विषय था, इस वजह से कि जैसे किसी कामना की सिद्धि या पूर्ति हो गई हो, इसलिए बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया, किंतु बालक सिद्धार्थ अपनी माता के प्रेम से वंचित रह गया।

   सिद्धार्थ के पिता का नाम शुद्धोधन था। वह सूर्यवंश के शाक्य जाती के क्षत्रिय थे, और कपिलवस्तु नामक एक छोटे से गणराज्य के प्रधान थे। सिद्धार्थ का बचपन से ही उनकी विमाता गौतमी देवी ने पोषण किया उन्हें हर राजसी सुख राजकुमारोचित दिए गए। संभवत गौतमी के नाम पर या सिद्धार्थ का गौतम गोत्र होने के कारण उन्हें गौतम के नाम से पुकारा गया है।

   सिद्धार्थ बाल्यकाल से ही चिंतनशील थे। चिंतन में इतना मग्न रहते कि सब कुछ भूल जाते थे। उनके बाल्यकाल में ही ज्ञानियों ने यह भविष्यवाणी की कि यह बालक एक दिन एक बहुत बड़ा चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या एक बहुत बड़ा संत महात्मा।

    समय बीतने के साथ राजकुमार की चिंतनशील प्रवृत्ति में वृद्धि होती गई। पिता शुद्धोधन को भविष्यवाणी सदैव याद थी, उन्हें चिंता होने लगी, उन्होंने सिद्धार्थ के लिए राजसी सुखों और मधुर बंधनों में बांधने के लिए कई प्रयत्न किए। राजकुमार के लिए सर्दी गर्मी बरसात के लिए अलग-अलग भवन बनाए गए, जो प्रकृति के अलौकिक दृश्य का आनंद देते थे और आदेश भी दिया गया कि राजकुमार को दुख का दृश्य ना हो पाए।

इसी क्रम में सिद्धार्थ का विवाह गोपा या यशोधरा नामक एक रूपवती राजकुमारी से करवा दिया गया, जिन से सिद्धार्थ का एक पुत्र राहुल ने जन्म लेते हैं। परंतु विवाह का यह सुख सिद्धार्थ के जीवन का लक्ष्य न था।

   समय बीतने के साथ एक दिन संयोगवश सिद्धार्थ के सामने कुछ ऐसे दृश्य आए जिनसे उनका जीवन का लक्ष्य निर्धारित हुआ, सिद्धार्थ अपने सारथी छंदक के साथ घूमने निकले हैं, तभी उन्होंने एक रोग से पीड़ित व्यक्ति को देखा, उसकी पीड़ा को देखकर सिद्धार्थ का ह्रदय दुख से भर गया, और दूसरी दृश्य में उन्होंने एक वृद्ध को दर्शन किया, जो छड़ी के सहारे अपनी जर्जर शरीर को किसी प्रकार तो आगे बढ़ा रहा था। तीसरी दृश्य में सिद्धार्थ एक मृतक शरीर को जिसे उसके संबंधी रोते-पीटते जलाने को ले जा रहे थे, देखते हैं, सिद्धार्थ का कोमल हृदय इस घटना से बेहद प्रभावित हुआ और चिंतन में खो गया, और उसी दरमियान उन्होंने एक और दृश्य देखा उसमें उन्होंने एक सन्यासी को देखा जो अद्भुत कांति को अपने मुख पर लिए था, चिंता से मुक्त विचरण कर रहा था, सिद्धार्थ को अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हुआ।

   सिद्धार्थ 29 वर्ष की अवस्था प्राप्त करने पर एक रात्रि अपनी सोती पत्नी और पुत्र को संपूर्ण राज वैभव को छोड़कर वैराग्य को प्राप्त हो गए। इस घटना को “महाभिनिष्क्रमण” कहते हैं। कहते हैं, कि जब सिद्धार्थ अपने राज्य की सीमा से बाहर निकल रहे थे, तो उन्होंने अपने सारथी को वापस लौटा दिया अपने सभी राजसी वस्त्र और आभूषण को एक भिखारी को सौंप दिया और स्वयं सन्यास का रूप धारण कर लिया, सत्य और मोक्ष की प्राप्ति के लिए राह की खोज में इधर उधर भटकने लगे।

   अध्ययन में आता है, कि वे राजगृह पहुंचते हैं, जहां उस समय के सुप्रसिद्ध ब्राह्मणों का एक आश्रम था, वे कुछ समय वहां रहते हैं, किंतु अपने प्रश्नों का सटीक उत्तर न मिलने पर कुछ समय पश्चात वहां से निकल जाते हैं। वहां से उनके साथ पांच और साथी हो लेते हैं। वे घूमते घूमते गया के निकट उरुवले नामक वन में प्रवेश कर जाते हैं। सिद्धार्थ अपने शरीर को घोर तपस्या में झोंक देते हैं। उनका शरीर सुख कर कांटा हो जाता है। किंतु उन्हें सत्य के दर्शन ना हो सके। इस पर सिद्धार्थ ने यह निष्कर्ष निकाला कि बिना स्वस्थ शरीर के सत्य की खोज बेहद मुश्किल है। अतः उन्होंने न अधिक सुख और ना अधिक कष्ट का जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया। किंतु उनके पांच साथी उनके इस निर्णय से सहमत न थे। वे उन्हें छोड़कर काशी की ओर चले गए।

   बैराग्य के छठे वर्ष 35 वर्ष की आयु में एक दिन रात्रि को जब वे बरगद के वृक्ष के नीचे समाधि लगा कर चिंतन कर रहे थे। तो उन्हें ज्ञान का आलोक प्राप्त होता है, इस घटना को “संबोधी” के नाम से भी पुकारा जाता है। क्योंकि सिद्धार्थ को बुद्धि या ज्ञान प्राप्त हुआ, इसलिए उनका नाम “बुद्ध” हो गया, जिस धर्म का उन्होंने प्रचार किया वह धर्म बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलन में आया, जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, उस वृक्ष को “बोधि वृक्ष” कहा जाने लगा। और गया का नाम बोधगया हो गया।

   भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश काशी के निकट सारनाथ में अपने उन पांच साथियों को दिया जो उन्हें छोड़कर चले आए थे। सारनाथ के पश्चात वे कपिलवस्तु में शाक्यों को उन्होंने अपने धर्म से दीक्षित किया। बुद्ध  बेहद अलौकिक आकर्षण को लिए होते थे। लोग उनके उपदेशों को सुनने के लिए आतुर रहते थे। उनके शिष्य बन जाते थे। भगवान बुद्ध ने बिहार, उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में, नेपाल में घूम घूम कर 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार किया यही कारण है, कि केवल भारत में नहीं बल्कि विदेशों में भी यह धर्म प्रचलन की श्रेष्ठता पर पहुंचा। 

अस्सी वर्ष की उम्र में “महापरिनिर्वाण” की घटना हुई। 483 ईसा पूर्व भगवान बुद्ध का परलोक वास हो गया।

Molnupiravir Oral antiviral drug | Corona के उपचार के लिए पहली दवा

Molnupiravir-

Molnupiravir

   यह दवा Covid-19 के उपचार में प्रयोग हो सकने योग्य पहली दवा के रूप में सामने आई है। जिसे यूके की मेडिसिन एंड हेल्थ केयर प्रोडक्ट रेगुलेटरी एजेंसी (एम०एच०आर०ए०) द्वारा मंजूरी प्रदान की गई है।  एम०एच०आर०ए० के अनुसार यह दवा कोरोना के लक्षण को कम करने में कारगर है और इसके किसी प्रकार के कोई नकारात्मक परिणाम भी देखने को नहीं मिले हैं। यह दवा कोरोना के शुरुआती समय में काफी कारगर साबित होगी।

   ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्री साजिद जाविद का कहना है, कि ब्रिटेन का यह एक ऐतिहासिक दिन है, ब्रिटेन दुनिया भर में वह पहला देश है, जिसने इस दवा को मंजूरी दी है, यह दवा कोरोना महामारी में एक गेम चेंजर साबित होगी। इस दवा को लोग अपने घर में भी प्रयोग कर सकते हैं। इस प्रकार यूके विश्व का पहला राष्ट्र है। जिसने कोरोना की पहली दवा को अधिकृत किया है। 

   इस दवा के विषय में जानकारी है, कि यह शुरुआती और मध्यम कोरोना के उपचार में सहायक होगी। यह दवा उन एंजाइम को टारगेट करती है, जिनके उपयोग से Corona का वायरस अपनी संख्या में वृद्धि करता है, और कोरोना के फैलने की दर को कम कर देती है।

   इस दवा को बनाने वाली कंपनी Merck (मर्क) के सहयोग से इस दवा को अमेरिका स्थित Ridgeback Biotherapeutics (रिजबैक बायोथेरैप्यूटिक्स) द्वारा यह दवा विकसित की जा रही है। 

   हालांकि इस विषय में खास जानकारी नहीं है, कि यह दवा आम लोगों में कब तक उपलब्ध होगी, किंतु खबरों में यह भी है, कि ब्रिटेन के साथ अमेरिका और यूरोप के देश भी इस विषय पर समीक्षा कर रहे हैं, और अमेरिका भी इस दवा को खरीदने की योजना में है। इन सब में अब तक इस दवा के उपचार के लिए ब्रिटेन सरकार ने फिलहाल 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को ही अनुमति प्रदान की है।

 कुछ खास-

◆  कोविड-19 के खिलाफ प्रभावी यह दवा Molnupiravir मूल रूप से इन्फ्लूएंजा के इलाज के लिए खोजी गई थी।

◆  वैक्सीन की खोज के मध्य में शोधकर्ताओं द्वारा कोरोना के उपचार में एक नई एंटीवायरल ओरल दवा (Molnupiravir) की खोज की गई है, जो 24 घंटे के भीतर SARS-COV-2 के फैलने को रोक सकती है।

◆  इस दवा से उपचार के लिए ब्रिटेन सरकार द्वारा फिलहाल 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को ही अनुमति प्रदान कर रखी है।

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शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

Jainism in hindi | जैन धर्म एक परिचय | जैन धर्म की मान्यताएं

जैन धर्म एक परिचय / श्वेतांबर दिगंबर तथा विभिन्न मान्यताएं-

  जैन धर्म को मानने वाले लोगों को जैनी कहा जाता है। कालांतर में जैनी लोग दो संप्रदाय में विभक्त हो गए, पहला श्वेताम्बर और दूसरा दिगंबर।

श्वेताम्बर लोग उदार और सुधारवादी होते हैं। यह श्वेत वस्त्र पहनते हैं। तथा अपनी मूर्तियों को भी सफेद वस्त्र पहनाते हैं। यह जैन धर्म के कठोर नियमों को कुछ ढीला करने के पक्ष में है।

दूसरी और दिगंबर होते हैं। यह जैन धर्म के कठोर नियम को पालन करते हैं। यह बेहद कट्टरपंथी लोग होते हैं। यह लोग नंगे रहते हैं। और अपनी मूर्तियों को भी नंगा रखते हैं।

   जैन धर्म एक क्रांतिकारी धर्म रहा जिसने वैदिक धर्म को चुनौती दी। जैन धर्म के सिद्धांत बिल्कुल अलग हैं, जिनमें सृष्टि की नित्यता पर विश्वास अर्थात सृष्टि का ना तो आदी है ना अंत, इसे किसी ने नहीं बनाया है, और ना ही कोई इसका विनाश कर सकता है। 

जैनी लोगों का मानना है, कि ईश्वर ने सृष्टि को नहीं बनाया है, किंतु सृष्टि को बनाया किसने है? 

इस सवाल के जवाब में जैनी लोगों का मानना है, कि सृष्टि जीव तथा अजीव इन दो तत्वों के संयोग से बनी है, और यह दो तत्व सतत हैं, इनका नाश नहीं हो सकता और ठीक इसी प्रकार इन तत्वों से बनी सृष्टि का भी कभी नाश नहीं हो सकता। उनका मत है कि जीव की दो प्रवृतियां होती हैं, पहली भौतिक तथा दूसरे आध्यात्मिक। उनका मत है की भौतिक प्रवृत्ति का मनुष्य विनाश की ओर जाता है। वह उसे बुरे कर्मों में बांधती है। 

दूसरी ओर आध्यात्मिक प्रवृत्ति मनुष्य को सतकर्मों की ओर लेकर जाते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक प्रवृत्ति अमर है। यह प्रवृत्ति मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर देती है। 

   वे कर्म के बंधन को मनुष्य के सांसारिक वासना से मुक्त न हो सकने का कारण मानते हैं। उनका मत है, कि जीव का उसके कर्मों से घनिष्ठ संबंध होता है। अर्थात आत्मा का उसके कर्मों से घनिष्ठ संबंध होता है, मात्र इस जन्म के कर्मों का ही नहीं बल्कि पिछले जन्म के कर्मों का प्रभाव भी आत्मा पर होता है।

उनका मत है, कि आत्मा तो स्वयं में निर्मल और आनंदमय होती हैं। किंतु मनुष्य के कर्मों और उनके प्रभाव से आत्मा बंधन में आ जाती है। और जब आत्मा का निर्मल तथा आनंदमय स्वरूप समाप्त हो जाता है, तब आत्मा दुख के वशीभूत हो जाती है। आत्मा को सुख-दुख से मुक्त मोक्ष की प्राप्ति के लिए बंधनों से मुक्त करना होगा। अर्थात कर्मों का बंधन नहीं बांधना होगा।

   उनका मत है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य है कि आत्मा कर्मों के नई बंधनों में ना फंसे और यदि आत्मा जो कर्मों के बंधन में फंस चुकी है, तो उसे उन बंधनों से मुक्त किया जाए जिसके लिए पहला मार्ग सत्कर्म तथा सदाचार है, और दूसरा मार्ग कठिन तपस्या।

   जैनियों के विचार में मनुष्य के जीवन का लक्ष्य कर्मों के बंधन से मुक्त होना है, वही मोक्ष है। और इसके लिए मनुष्य को जीवन में सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र की आवश्यकता है। जैनियों ने इसे “त्रिरत्न” भी कहा है। मनुष्य सम्यक ज्ञान प्राप्ति से सांसारिक वासना में नहीं आ सकता।  वासना में फंसने का मुख्य कारण उसकी अज्ञानता है। सम्यक दर्शन से तात्पर्य है, कि जैन आचार्य जैन तीर्थंकरों पर विश्वास किया जाए, उनके उपदेशों में दिए गए मार्ग का अनुसरण किया जाए। जीवन में सम्यक चरित्र की भी आवश्यकता होती है, मनुष्य को कर्मों के बंधन से मुक्त करने के लिए। इसके लिए मनुष्य को इंद्रियों वाणी और अपने कर्मों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना होगा

जैन धर्म  के लोग पंच महाव्रत का पालन करते हैं। जो “अहिंसा” जीव हत्या महापाप है। “सत्य” सदैव सत्य बोलना। “अस्तेय” कभी चोरी ना करना। “अपरिग्रह” अर्थात संपत्ति का संचय न करना, और अंतिम “ब्रम्हचर्य” इसका तात्पर्य है, सांसारिक विषय वासनाओं से दूर रहना। 

जैनियों का यही मानना है, कि यदि इन पांच महाव्रतों का पालन किया जाए तो मनुष्य कर्मों के बंधन में कभी बंध ही नहीं सकता

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

वर्धमान से महावीर स्वामी होने की यात्रा | महावीर स्वामी जीवन परिचय | जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर mahaveer swami (vardhaman)

वर्धमान से महावीर स्वामी होने की यात्रा / जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर-

 धार्मिक क्रांति का युग छठी सदी ईसा पूर्व में वह प्रभावी क्रांति का दौर रहा जिसमें भारतीय हर मानव को स्वयं से जोड़ा। उसके जीवन के हर आयामों को प्रभावित किया। जैन धर्म उसी सदी का प्रकाश है। जैन धर्म यूं तो बहुत प्राचीन धर्म है। क्योंकि महावीर स्वामी से पूर्व 23 तीर्थंकर जैन धर्म के हो चले थे। किंतु महावीर स्वामी 24 वे तीर्थंकर के रूप में जैन धर्म को श्रेष्ठ प्रसिद्धि तक ले गए, और उन्हें ही जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक कहा गया।

   वह बालक वर्धमान नाम का 599 ईसा पूर्व विदेह राज्य की राजधानी वैशाली के निकट कुंड ग्राम में जन्मा था। वे कश्यप गोत्र के क्षत्रिय राजकुमार थे। पिता का नाम सिद्धार्थ था। वे ज्ञात्रिक गण के नेता थे। इनकी माता का नाम त्रिशला था जो मगध राजा श्वसुर चेटक की बहन थी। जो लिच्छवी वंश के क्षत्रिय राजकुमार थे।

   जैन ग्रंथों के अध्ययन में महावीर स्वामी के संपूर्ण जीवन का परिचय प्राप्त होता है। वर्धमान के जन्म पर उत्सव हुआ। कैदियों को कारावास मुक्त किया गया। बाल्यकाल से ही उन्हें राजसी सुख में डूबोने का प्रयत्न रहा। किंतु वे चिंतक प्रवृत्ति, मोह माया से दूर वैराग्य को आकर्षित रहे।  उनका विवाह भी तय हुआ। यशोदा नामक राजकुमारी उनकी पत्नी हुईं, और एक पुत्री को जन्म दिया। जिसका नाम अण्जा रखा गया। किंतु वे कभी इस सुखः में स्वयं का संतोष ना ढूंढ सके।

   30 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने बड़े भाई की आज्ञा लेकर घर त्याग दिया, सन्यास ले लिया, और मोक्ष का मार्ग की खोज एकमात्र लक्ष्य साध लिया।

   प्रसंग है कि, वह जिन वस्त्रों में घर से निकले थे, 13 माह तक उन्हीं में विचरण करते रहे, जब वस्त्र फट गए तो वर्धमान नंगे बदन सत्य, ज्ञान, मोक्ष की प्राप्ति में सब कुछ त्याग कठिन तपस्या में रहे। गर्मी, सर्दी, बरसात में बेघर वे चिंतन में रहे। लोगों ने पत्थर मारकर उनका तिरस्कार किया, किंतु वे मौन चिंतक जीवन के लक्ष्य प्राप्ति के लिए निष्ठ थे। अपने तापस जीवन के तेरहवें वर्ष में जब वे साल वृक्ष के नीचे नदी तट पर लीन थे, उन्हें कैवल्य (निर्मल) ज्ञान प्राप्त हुआ। वह अहर्त (पूज्य) जिन (विजेता या जितेंद्र) निरग्रंथ (बंधन रहित) महावीर (परम प्रतापी) इन नामों से प्रचलित हुऐ। “जिन” नाम होने से वह जिस धर्म के प्रचारक रहे, उसे जैन धर्म कहा गया। महावीर की भांति अपनी इंद्रियों को विजित कर लिया वे महावीर कहलाए। 

   वे धर्म के प्रचार में लोगों को अपने उपदेशों से आकृष्ट करते  रहे। लोग उनके धर्म की दीक्षा लेने लगे कौशल, काशी, मगध, अंग आदि राज्यों में भ्रमण करते रहे। उनके तीस वर्ष तक धर्म के प्रचार से धर्म खूब प्रचलित हो गया। बहत्तर वर्ष की आयु में 529 ईसा पूर्व वे निर्वाण को प्राप्त हो गए।

   महावीर स्वामी कैवल्य ज्ञान का प्रचारक होने से आज तक हम सब में अहर्त हैं।

बुधवार, 3 नवंबर 2021

बौद्ध और जैन धर्म के उदय का कारण | वैदिक धर्म की जटिलताएं | धार्मिक क्रांति के युग का आरंभ | Buddha, jain, bhagwat dharmo ka उदय

वैदिक काल के धर्म के स्थान पर धार्मिक क्रांति के युग में नव धर्मों का उदय हुआ। जो वैदिक काल के धर्म ग्रंथों की जटिलता ही रही होगी, जो मानव ने अन्य धर्मों को अपनाया। वैदिक काल के धर्म ग्रंथ संस्कृत में थे, उनकी भाषा जटिलता, सामान्य मानव उससे अछूता ही रहा, वह उसे समझ पाने में असमर्थ ही था। तब वह एक ऐसे सरल मार्ग जो मोक्ष प्राप्ति को मिल सके उसे अपनाने को तैयार था। वह उसके स्वागत में था। 

   वैदिक धर्म में यज्ञों को एकमात्र मोक्ष की प्राप्ति का साधन बताया है। किन्तु समय के साथ यह महंगे होते गए तब इसे जनसाधारण करवा पाने में असमर्थ हो गया।

   मानव में चेतना का नव अध्याय पल्लवित हो रहा था। तो यज्ञ में पशुओं की बलि देवी देवताओं को प्रसन्न करती है, यह ना होकर लोगों के मन में वैदिक धर्म को हिंसा धर्म होने की बात आने लगी। क्यों बेजुबानों की बलि दी जाए। चेतना का नवयुग बेजुबान के दर्द का एहसास कर पा रहा था। वह मानव चेतना का नया-नया नभ चूम रहा था।

   वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित थी  किंतु कालांतर में वह जाति प्रथा का रूप धारण कर भेदभाव ऊंच-नीच को समाज में जन्म दे रही थी। लोग ऐसे धर्म को ढूंढने लगे जो भेदभाव न रखें। समान दृष्टि से सबको देखे। वैदिक काल में ब्राह्मण श्रेष्ठ थे। उस धर्म में ब्राह्मण दंड मुक्त भी था। किंतु कालांतर में आते आते उनका विरोध हुआ। समाज में उनका वर्चस्वशाली स्थान क्षत्रिय राजकुमारों ने ग्रहण किया। ब्राह्मणों का राजनीति में वर्चस्व शून्य हो चला था।

   यज्ञ तथा बलिदान मार्ग के स्थान पर तपस्या तथा ज्ञान का मार्ग श्रेष्ठ होगा। किन्तु  वह भी इतना आसान नहीं था। जनसाधारण जंगलों में जाकर  चिंतन कर मोक्ष की प्राप्ति के लिए कैसे प्रयत्न करता, यह भी उसके लिए बेहद जटिल था।  एक साधारण मनुष्य अब भी मोक्ष की प्राप्ति के लिए किसी एक सरल विकल्प के स्वागत में था।

   चिंतकों ने मार्ग को ढूंढ निकाला एक मार्ग भक्ति तथा उपासना का और दूसरा सत्कर्म तथा सदाचार का।

भक्ति और उपासना के अनुयाई भागवत धर्म के अनुयायी हुए,  वे उस धर्म को जन्म देने में सफल रहे तथा सत्कर्म सदाचार के मार्ग पर जैन और बौद्ध धर्म ने लोगों में प्रसार प्राप्त किया।

   यह कुछ कारण हैं, जो धार्मिक क्रांति के युग में लोगों के मन में पैदा जरूर हो चुके होंगे, और शायद यही कारण हैं, जो नये धर्मों के आम जनमानस में प्रसारित होने के हैं। वैदिक धर्म ने जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है, इससे तो जनमानस अवगत था। किंतु वह मार्ग जो इसकी प्राप्ति में है, वो कालांतर में जनसाधारण के लिए निभा पाना कठिन हो गया था। यही धार्मिक क्रांति के युग के उदय का कारण है।

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

महाकाव्य काल उल्लेख | Ramayan and mahabharat period in hindi

 प्राचीन काल में हमारे देश में दो बड़े महाकाव्य की रचना हुई, और रचना जिस काल में हुई वह महाकाव्य काल हुआ। महाकाव्य कब लिखे गए, जिन घटनाओं पर यह लिखे गए हैं, वह कब हुई?
   यह प्रश्न भी अनेक विद्वानों के विभिन्न मतों में उलझे हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार महाभारत का युद्ध 1800 से 1400 ईसा पूर्व काल में हुआ था। और महाकाव्य काल 1400 से 1000 ईसा पूर्व होने का मत है। हालांकि यह स्पष्ट तथ्य नहीं है।
   जिन महाकाव्यों का लेखन इस काल में हुआ वह रामायण और महाभारत है। रामायण में श्री रामचंद्र की जीवन लीला का वर्णन है। और महाभारत कौरव और पांडवों के युद्ध का वर्णन है। इनकी एक महत्वपूर्ण उपयोगिता यह भी है, कि इनका गहनता से अध्ययन करने पर तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दशा का ज्ञान होता है।
  रामायण की कथा में राजा दशरथ कौशल राज्य के राजा हैं। इनकी तीन रानियां हैं। और इन तीन रानियों से चार पुत्र हैं, कौशल्या के पुत्र राम, सुमित्रा के दो पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न तथा कैकई का एक पुत्र भरत। इनमें राम सबसे बड़े थे।
सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या उनकी राजधानी थी। वह इक्ष्वाकु वंश के राजा थे। भरत के राजतिलक को लेकर मंथरा का कैकई को दिया कुटिल परामर्श राम को 14 वर्ष के वनवास परिणाम देता है, राजा दशरथ के स्वर्गवास का कारण बनता है, और यह बनवास रावण के अंत पर समाप्त होता है। किंतु रामायण की कहानी जारी है क्योंकि यह श्री राम की जीवन लीला है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखा रामायण महाकाव्य आज भी श्रेष्ठ है।
   ठीक इसी प्रकार महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखा महाकाव्य महाभारत पाण्डू के पुत्र पांडवों और धृतराष्ट्र के पुत्र कौरवों के संघर्ष की कहानी है। वह धर्मयुद्ध जो कुरुक्षेत्र की भूमि में लड़ा गया वह गीता का ज्ञान देकर हस्तिनापुर पर पांडवों का अधिकार होने पर समाप्त हुआ।
   उस समय के राजाओं के पास चतुरंगणी सेना हुआ करती थी। जिसमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक होते थे। चक्रव्यूह की रचना की जाती थी, और जीत प्राप्त करने के लिए छल कपट और कूटनीति का प्रयोग किया जाता था। वैदिक काल की भांति इस युग में भी यज्ञ का प्रचलन था। राजा राजसूया और अश्वमेध यज्ञ किया करते थे। राजा दशरथ ने लक्ष्मण और श्री राम को महर्षि विश्वामित्र के आश्रम भेजा था, क्योंकि वहां राक्षस यज्ञ में अवरोध उत्पन्न कर रहे थे।
   किंतु यह भी सूचित हो, कि उस वक्त तक जातीय व्यवसाय का परित्याग होने लगा था, प्रमाण में अध्ययन कुछ इस प्रकार से है कि विश्वामित्र क्षत्रिय थे और उन्होंने ब्राह्मण वृत्ति को स्वीकार किया, और ठीक इसी प्रकार द्रोणाचार्य ब्राह्मण थे, किंतु उन्होंने क्षत्रिय वृत्ति को स्वीकार किया।
   इन सब में उस वक्त तक क्षत्रियों ने अपने वर्चस्व समाज में स्थापित करना प्रारंभ कर दिया था। ऐसा प्रतीत होता है, कि ब्राह्मणों का महत्व समाज में कम होने लगा, राजनीति में उनका प्रभाव बहुत कम हो गया था, और साथ ही वैश्य समुदाय ने स्वयं को श्रेणियों में एकत्रित करना प्रारंभ कर दिया था। और वह समाज में धीरे-धीरे अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे।
   उस वक्त के समाज में स्त्रियों का आदर्श बड़ा ऊंचा था। किंतु सती प्रथा का प्रचलन हो गया था। क्योंकि अध्ययन में आया है, कि पांडू की दो पत्नियों में एक सती हो गई थी। और इसके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण तथ्य स्वयंवर में शादी करने का प्रचलन था, क्योंकि सीता और द्रोपदी का वर  स्वयंवर में ही तय हुआ।
   उस काल में दास प्रथा के प्रचलन में होने के संकेत मिलते हैं। उस काल तक भक्ति और कर्म पर बल दिया जाने लगा, मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधन इन्हें माने जाने लगा। गीता में श्रीकृष्ण इसी का उपदेश देते हैं। इसके अतिरिक्त पुनर्जन्म पर विश्वास इस जन्म के कर्मों का फल अगले जन्म में भोगना पड़ता है। भगवान की भक्ति से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। यह विश्वास पैदा होने लगा।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दुर्गा, पार्वती आदि देवी- देवताओं की पूजा आरंभ होने लगी अवतारवाद में विश्वास लोगों को होने लगा था, क्योंकि श्री कृष्ण और श्री राम के विष्णु भगवान का अवतार होने का ज्ञान है।
 महाकाव्य काल में महाकाव्यों द्वारा जिन आदर्शों को हम तक पहुंचाया गया। आज तक पथ प्रदर्शक बने हैं।

सोमवार, 1 नवंबर 2021

वैदिक सभ्यता विशेष | Arya in india | Vedic sabhyata | आर्यों की देन

वैदिक सभ्यता के जितने तथ्यों को समेटा जाए, वह वास्तव में आर्यों की कितनी बड़ी छाप आज के भारत पर है, जिनमें से कुछ चाह कर भी हम छोड़ नहीं सकते। वे आज भी जीवित हैं। ये अतीत के उन पृष्ठों का गहन दर्शन है जिसे आज तक भारत स्वयं में समेटे है, और उसे प्रमाणित करता है।

   वसुदेव कुटुंबकम संपूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मान देना यह सिद्धांत का प्रतिपादन, सर्वव्यापक चिंतन वैदिक काल के आर्यों की संपूर्ण विश्व के कल्याण की चिंता को दर्शाता है।

जीवन के ऊंचे ऊंचे आदर्शों का सृजन किया। वे आर्य थे वे इस संसार के सभी सांसारिक सुखों को नाशवान समझते थे। वे परलौकिक सुख तथा मोक्ष की प्राप्ति का पाठ पढ़ाते थे। यह चेतना कि वह लौ है, जो आज तक भारतीयों के मन मस्तिष्क में गहरी छाप छोड़े है।

   उनका प्रमुख व्यवसाय हालांकि कृषि था। वह सिंधु घाटी की सभ्यता के लोगों जैसे व्यवसाय प्रधान सभ्यता न थी। किंतु वह वस्तु विनियम से चीजों की अदला बदली से व्यापार करते थे। यह भी मालूम हुआ है, कि उन लोगों ने “निष्क” नामक एक मुद्रा का प्रचलन भी किया था।

   वे राजा को राज्य का एक अंग मात्र मानते थे। उन लोगों ने “सप्तांग राष्ट्र” की कल्पना की थी। राजा के आदर्शों को इतना ऊंचा तय किया था, कि वह जनता के आध्यात्मिक, भौतिक और सामाजिक अतएव सर्वांगीण उत्थान के कार्यों के लिए व्यस्त होता था।

ठीक इसी प्रकार प्रजा के लिए भी राजा के प्रति उच्च आदर्शों को तय किया गया था। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है, कि यदि राजा बालक भी हो तो भी उसकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह पृथ्वी पर देवता स्वरूप होता है।

   इसे झुठलाया नहीं जा सकता, कि आर्यों ने जिन वर्ण व्यवस्था का प्रचलन किया, वह आज के युग तक जाति प्रथा में परिवर्तित हो चुकी है। छुआछूत के समाजिक दोष ने जन्म लिया। किंतु इन सब में यह भी सत्य है की वास्तव में वैदिक आर्यों द्वारा निर्मित सभ्यता जिसकी आज तक इतनी गहरी छाप भारतवर्ष पर है, जो विश्व से हमें अलग करती है, यह आर्यों की स्पष्ट दर्शन तथा तत्वज्ञान की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है

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नमस्कार साथियों मेरा नाम दिवाकर गोदियाल है। यहां हर आर्टिकल या तो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है, या जीवन के निजी अनुभव से, शिक्षा, साहित्य, जन जागरण, व्यंग्य इत्यादि से संबंधित लेख इस ब्लॉग पर आप प्राप्त करेंगे 🙏